19-01-2022 (Important News Clippings)
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Date:19-01-22
Grow The Pie
Rising inequality per se isn’t a big problem if economic growth raises incomes overall
TOI Editorials
Oxfam International and its India unit recently brought out two separate reports on the same subject, inequality. It’s a politically salient topic and understandably generates debate. However, the suggestions in Oxfam’s reports don’t capture the nuances of the problem and, therefore, their solutions are unworkable. None of this is to suggest that concentration of economic wealth is good. An economy in the grip of oligarchs will stagnate and shut off opportunities for everyone. The issue, however, requires parsing.
Oxfam has followed a popular approach to measuring inequality. It has used wealth, not income, as the yardstick. This approach is lopsided as it tilts towards using the market value of financial assets which fluctuate almost every minute. Oxfam India has made three suggestions in this context. One, is to ask for better measurements and more regular ones. Good quality statistics are a public good and GoI needs to raise its game here. The other two suggestions pertain to taxation. Oxfam asks for a wealth tax and a temporary 1% surcharge on the richest 10%. It’s in the area of taxation that the suggestions consider neither the trade-offs involved nor India’s history with wealth tax.
India did levy a wealth tax. It was abolished in the 2015 Union Budget. It was a feel-good tax with no meaningful impact. To illustrate, in its last year (2015-16), GoI could raise only Rs 1,079 crore as wealth tax. That is, just Rs1. 4 for every Rs1,000 that accrued through direct taxes. To compensate for its abolition, a surcharge on incomes above Rs1crore was levied. There are practical difficulties in taxing wealth, which has also been influenced by more than a decade of loose monetary policies of major central banks that are trying to boost economic growth. What really matters is economic growth and the creation of pathways to economic mobility.
Post-1991, the rise in India’s economic growth lifted millions out of poverty even as inequality widened. Economic growth is indispensable to provide the opportunity of a better life to everyone. Policy needs to focus on obstacles to growth, including rent-seeking. In this context, we need to note that a clutch of US billionaires who draw Oxfam’s disapproval didn’t inherit their wealth. Their ideas created their wealth and millions of other jobs and opportunities. That’s what India needs. Policy focus should be on creating pathways of economic mobility, not messy taxation laws. The size of the pie needs to grow.
इस आर्थिक हिंसा की ओर गंभीरता से ध्यान देना होगा
संपादकीय
ऑक्सफैम ने हर साल की तरह विश्व आर्थिक फोरम के दावोस सम्मलेन के ठीक पहले बढ़ती आर्थिक असमानता, उसके दुष्प्रभाव और निदान को लेकर अपनी रिपोर्ट जारी की। ‘असमानता से मौत होती है’ शीर्षक की इस रिपोर्ट में पहली बार बताया गया कि आर्थिक असमानता के कारण हर रोज 21 हजार लोग दुनिया में मरते हैं यानी असमानता एक आर्थिक हिंसा है, जबकि दुनिया के दस अमीर की इस महामारी काल में हर रोज पूंजी 9 हजार करोड़ रुपए बढ़ जाती है। असमानता की विकरालता से स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव, अशिक्षा-जनित लिंग आधारित हिंसा, भूख और पर्यावरण-दोहन की वजह से इतनी मौतें होती हैं। रिपोर्ट से जाहिर है कि महामारी जहां गरीबों के लिए मौत बन कर आई, बेरोजगारी हुई और टीकों के अभाव ने, जिसे ‘वैक्सीन नस्ल-भेद’ माना गया, मौत के आंकड़ों को और बढ़ाया। वहीं अमीरों के लिए यह वरदान साबित हुई क्योंकि उनकी संपत्ति पिछले 14 वर्षों से ज्यादा इन दो वर्षों में बढ़ी। भारत के संदर्भ में रिपोर्ट ने इस असमानता के असर को विस्तार से बताते हुए कहा कि जहां एक ओर गरीबों पर बहु-आयामी मार पड़ी, जिससे मौतें हुईं। वहीं 39% नए लोग देश के ‘बिलियनेयर क्लब’ में शामिल हो गए। ऑक्सफैम ने सलाह दी है कि भारत को इनकम टैक्स ढांचे की पुनर्संरचना करनी चाहिए ताकि बेशुमार संपत्ति अर्जित करने वाले छोटे से वर्ग पर टैक्स बढ़ाकर राजस्व में वृद्धि की जा सके जिसे स्वास्थ्य, शिक्षा और गरीबों के कल्याण में लगाया जा सके। कोरोना काल में आर्थिक पहिया चलाते रहने के लिए दुनिया की सरकारों ने 16 ट्रिलियन डॉलर ‘आर्थिक रिलीफ पैकेज’ के नाम पर खर्च किया जिससे स्टॉक की कीमतें बढ़ीं और पूजीपतियों की संपत्ति में पांच ट्रिलियन डॉलर जुड़े। ऑक्सफैम के अनुसार ऐसे आय पर भारी टैक्स लगा कर सरकारों को गरीबों तक राहत पहुंचानी चाहिए।
चुनाव मैदान में अपराधी
संपादकीय
राजनीति के अपराधीकरण को रोकना कितना कठिन है, इसका प्रमाण है चुनावों की घोषणा होते ही कई ऐसे दागी नेताओं का प्रत्याशी के रूप में सामने आ जाना जिन पर संगीन आरोप हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिन पर थोक के भाव मुकदमे दर्ज हैं और वे भी हत्या, लूट और जमीन कब्जाने से लेकर धोखाधड़ी और दंगा कराने तक के। ऐसे आपराधिक अतीत वाले लोग तब प्रत्याशी बनाए जा रहे हैं जब निर्वाचन आयोग ने यह कह रखा है कि राजनीतिक दलों को ऐसे दागी नेताओं को उम्मीदवार बनाने पर न केवल इसका कारण बताना होगा, बल्कि उसकी सूचना समाचार पत्रों और अन्य मीडिया माध्यमों के जरिये सार्वजनिक करनी होगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिस तरह गंभीर आरोपों का सामना कर रहे नेताओं को उम्मीदवार बना दिया गया, उससे यह साफ है कि निर्वाचन आयोग के निर्देश की कहीं कोई परवाह नहीं की गई। कोई भी समझ सकता है कि परवाह इसीलिए नहीं की गई, क्योंकि निर्वाचन आयोग के पास ऐसे अधिकार नहीं कि वह अपने निर्देशों की अनदेखी करने वाले दलों को दंडित कर सके।
यह अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट उस याचिका की जल्द सुनवाई करने के लिए तैयार हो गया, जिसमें यह मांग की गई है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वालों को चुनाव मैदान में उतारने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता रद की जाए। कहना कठिन है कि इस याचिका की सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट किस नतीजे पर पहुंचेगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि यदि निर्वाचन आयोग को ठोस अधिकार नहीं दिए गए तो दागी छवि वालों को चुनाव मैदान में उतरने से रोकना मुश्किल ही होगा। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि निर्वाचन आयोग एक अर्से से यह मांग कर रहा है कि गंभीर आरोपों का सामना कर रहे उन दागदार नेताओं को चुनाव मैदान में उतरने से रोका जाए, जिनके खिलाफ आरोप पत्र दायर हो चुका हो, लेकिन राजनीतिक दल यह खोखला तर्क देने में लगे हुए हैं कि दोषी साबित न होने तक हर किसी को निदरेष ही माना जाना चाहिए। इसी कारण जेल में बंद दागी छवि वाले लोग भी चुनाव लड़ने में समर्थ हैं। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि जेल में बंद नागरिक मतदान नहीं कर सकता, लेकिन उसे चुनाव लड़ने की छूट होती है। सुप्रीम कोर्ट को न केवल यह देखना चाहिए कि ऐसे प्रविधान राजनीति के अपराधीकरण को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं, बल्कि इस पर भी गौर करना चाहिए कि वे विशेष अदालतें दागी नेताओं के मामलों का निपटारा तेजी के साथ नहीं कर पा रही हैं, जिन्हें यह विशेष दायित्व सौंपा गया है।
Date:19-01-22
दागियों पर अंकुश
संपादकीय
राजनीति के अपराधीकरण के मसले पर लगभग सभी दलों के बीच ऊपरी तौर पर यह आम सहमति दिखती है कि दागी छवि वाले लोगों को चुनावों में उम्मीदवार नहीं बनाया जाए। लेकिन इस चिंता के बरक्स हकीकत यह है कि ऐसी पार्टियां उंगलियों पर गिनी जाने लायक हैं जो इस विचार पर कुछ हद तक अमल करती दिखती हैं। व्यवहार में ज्यादातर बड़ी पार्टियां कानून के किसी कोण का लाभ उठा कर चुनावों में ऐसे व्यक्ति को भी उम्मीदवार बनाने से नहीं हिचकतीं, जो या तो फितरतन अपराधी रहे हों या उनके गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त रहने की पृष्ठभूमि हो। हालांकि समय-समय पर चुनाव आयोग से लेकर अदालतों तक की ओर से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों से चुनावी प्रक्रिया और लोकतंत्र को मुक्त करने के लिए सख्त कानून बनाने की बातें होती रही हैं। लेकिन अब तक दागियों के राजनीति में दखल की रोकथाम की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो सकी है। यह बेवजह नहीं है कि आज भी संसद और राज्यों की विधानसभाओं में बड़ी तादाद में ऐसे लोग जनप्रतिनिधि के रूप में मौजूद हैं, जिन पर कई आपराधिक मुकदमे दर्ज रहे।
सवाल है कि भारत में चुनावी लोकतंत्र के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में मौजूद होने के बावजूद इस समस्या को लेकर देश के राजनीतिक हलके में कोई चिंता क्यों नहीं दिखाई देती है। आखिर क्या वजह है कि आज भी आम नागरिकों को इस मामले में राजनीतिक दलों से कोई खास उम्मीद नहीं है और राजनीति को आपराधिक छवि के लोगों से मुक्त करने के लिए उन्हें अदालत का रुख करना पड़ रहा है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर चुनाव को उन राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने का निर्देश देने की मांग की गई है, जो अपने उम्मीदवारों के आपराधिक मामलों के बारे में ब्योरा सार्वजनिक करने और अपने आधिकारिक वेबसाइट पर उसे प्रकाशित करने में विफल रहते हैं। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक इतिहास के प्रकाशन से संबंधित निर्देशों के उल्लंघन के लिए अदालत की अवमानना के लिए आठ राजनीतिक दलों को दोषी ठहराया था। अदालत ने राजनीति के अपराधीकरण की ‘खतरनाक’ वृद्धि को ध्यान में रखते हुए को ध्यान में रखते हुए सभी राजनीतिक दलों को लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अपने उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास का विवरण उम्मीदवार के चयन के अड़तालीस घंटे के भीतर नामांकन के दो सप्ताह के भीतर, जो भी पहले हो, प्रकाशित करने का निर्देश दिया था।
सवाल है कि राजनीति में अक्सर शुचिता और नैतिकता की बात करने में सबसे आगे रहने वाली पार्टियां आखिर अपनी ओर से इसके लिए ठोस और स्पष्ट कदम उठाने के बजाय अमूमन हर मौके पर उम्मीदवारों के चयन को लेकर खुद इसके उलट फैसले लेती क्यों दिखती हैं! चुनाव आयोग से लेकर अदालतों तक में लंबे समय से दागी उम्मीदवारों के जनप्रतिनिधि के रूप में संसद और विधानसभाओं में चुन कर आने के मसले पर चिंता जताई जाती रही है। मगर वे कौन-सी परिस्थितियां और कानून की कसौटी पर कमजोर बिंदु हैं, जो देश में राजनीतिक दलों को दागी लोगों को अपना उम्मीदवार बनाने से नहीं रोक पाती हैं? आज भी अगर जनता की नुमाइंदगी करने वालों में खासी संख्या हत्या, बलात्कार, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध में शामिल रहे दागी पृष्ठभूमि वाले नेताओं की देखी जाती है, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? मतदाताओं से उम्मीद की जाती है कि वे आपराधिक छवि वाले नेता को वोट न दें। लेकिन शायद इस दिशा में अभी लोगों के बीच लोकतंत्र और उसके मूल्यों को लेकर सशक्तिकरण की प्रक्रिया को और मजबूत करने की जरूरत है।
Date:19-01-22
ये कैसी अमीरी
संपादकीय
अमीर-गरीब के बीच चौड़ी होती खाई को बताने वाली आक्सफेम की नई रिपोर्ट आ गई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अरबपतियों की संख्या और बढ़ गई है। सिर्फ एक साल के भीतर चालीस और लोग अरबपतियों की सूची में शुमार हो गए। यानी भारत में अब एक सौ बयालीस अरबपति हैं और इनमें से बयालीस अरबपति पिछले साल (2021) में बने हैं। भारत अपने इन अरबपतियों की बढ़ती संख्या पर खुश इसलिए हो सकता है क्योंकि दुनिया में भारत से ज्यादा अरबपति सिर्फ अमेरिका और चीन में हैं। ऐसे में कौन कहेगा कि भारत अमीरों का देश नहीं है! लेकिन एक देश के तौर पर हम कितने संपन्न हैं, यह भी कोई छिपा नहीं है। गरीबी की तस्वीर कहीं ज्यादा भयावह है। ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि बढ़ते अमीरों के देश में गरीब और गरीब क्यों होते जा रहे हैं?
गौरतलब है कि स्विटजरलैंड के दावोस शहर में विश्व आर्थिक मंच का सालाना सम्मेलन शुरू हो चुका है। यह सम्मेलन हर साल इसी शहर में जनवरी के तीसरे हफ्ते में होता है। इसमें दुनिया के विकसित और विकासशील देशों के राष्ट्र प्रमुख और उद्योगपति जुटते हैं और खासतौर से भविष्य की आर्थिकी को लेकर चर्चा करते हैं, रणनीतियां बनाते हैं। लेकिन साथ ही गरीबी का सवाल भी इसी समय उठता है। भारत में अमीर बढ़ रहे हैं, यह बात तो सुकून देती है, लेकिन उस सुकून से ज्यादा चिंताजनक और दुखदायी हकीकत यह है कि देश में गरीब और तेजी से गरीब हो रहे हैं और इनकी संख्या बढ़ रही है। भारत में पिछले एक साल में बयालीस अरबपतियों का बढ़ जाना हैरानी इसलिए पैदा करता है कि क्योंकि इसी एक साल में देश में आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे चला गया। मोटे तौर पर गरीबों का यह आंकड़ा सात से दस करोड़ के बीच का है। कोरोना महामारी के दौर में पिछले साल यानी 2021 में करीब चौरासी फीसद लोगों की आय में भारी गिरावट आई। रोजाना कमाने-खाने वाले तबके पर तो असर पड़ना ही था, लेकिन उससे भी ज्यादा असर मध्यवर्ग पर पड़ा। छोटे-मोटे उद्योग-धंधे बंद हो गए। करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई। ऐसे में आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी के गर्त में चला गया।
भारत के सामने अब यह चुनौती और गंभीर हो गई है कि और लोगों को गरीबी के गड्ढे में गिरने से कैसे बचाया जाए। क्योंकि जिस तरह के आर्थिक हालात बने हुए हैं, उन्हें अभी पटरी पर लाने में लंबा समय लगेगा। कहने को सरकार ने पिछले दो साल में उद्योगों को कई तरह की रियायतें दी हैं। लेकिन इन सबसे गरीबों का कोई भला होता दिख नहीं रहा। कुछ महीनों के लिए मुफ्त राशन जैसे कदम गरीबों के लिए तात्कालिक मरहम तो साबित हो सकते हैं, पर गरीबी से उबारने में ये मददगार नहीं होते। आज हालत यह है कि एक दिन में महज सौ-डेढ़ सौ रुपए भी नहीं कमा पाने वालों की संख्या करोड़ों में पहुंच गई है। यह बड़ा संकट है। बेरोजगारी और महंगाई ने गरीबी पर और हमला किया है। इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि अमीर के और अमीर बनने के पीछे सरकारी नीतियां ही होती हैं। इसलिए ऐसी आर्थिक नीतियों की जरूरत है जो गरीबों को भी खुशहाली के रास्ते पर ले जाने वाली हों, यानी रोजगार पैदा करने वाली हों। काम होगा, हाथ में पैसा आएगा, तभी लोग गरीबी के चंगुल से निकल पाएंगे।
Date:19-01-22
अपराध का नया रूप
डॉ. दिव्या तंवर, ( लेखिका संस्कृति यूनिवर्सिटी की निदेशक एवं साइबर क्राइम विशेषज्ञ हैं )
आतंकवाद सुनते ही सब के दिमाग में दिल दुखा देने वाली तस्वीर सामने आती है। कुछ ही वर्षो में हमने न केवल भारत, बल्कि अनेक देशों में आतंकवाद की झलक देखी है। यह वो आतंकवाद है जो आप देख, सुन और समझ सकते हैं पर जरा सोचिए वो आतंकवाद जो आप न देख सकते हैं, और न समझ सकते हैं, जो धीरे-धीरे हमारे अवचेतन मन में घर बना देता है। साइबर आतंकवाद शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी जा सकती पर निश्चित तौर पर यह ऐसा अपराध है जो हमें प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देता पर इसका परिणाम कई गुना भयानक है।
रोजमर्रा की कार्यप्रणाली में साइबर स्पेस का दायरा उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है। सरकारें, प्रशासन, शिक्षा, संचार और सूचना के विस्तार में इसका बढ़-चढ़कर इस्तेमाल कर रहे हैं। दूसरी ओर आतंकवादी समूह साइबर तकनीक का उपयोग अपने प्रचार, विभिन्न गुटों के साथ समन्वय तथा अर्थ प्रबंधन के लिए कर रहे हैं? अब इस आतंकवाद के साथ एक कीबोर्ड है, जो सोशल मीडिया पर कुछ भी लिख कर टैग कर सकता है, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस है, जो समझ सकता है कि कौन से शब्दों का प्रयोग किस समूह और जाति को मानसिक रूप रूप से क्षति पहुंचाकर उनका उपयोग अपने व्यक्तिगत स्वाथरे के लिए कर सकता है। अब सोचिए वो दिमाग कितना बीमार होगा जो किसी औरत की प्रतिष्ठा को धूमिल करके उसकी बोली लगाकर उसको सामान की तरह बेच सकता है जैसा कि हाल में बुल्ली बाई डील्स केस में देखा गया। आप सोचिए कितना चिंताजनक है कि आप बार-बार किसी संप्रदाय को वायरल मैसेज, वायरल इमेज, कुछ भद्दे कमेंट्स के साथ उसकी मानसिकता के साथ खेल रहे। साइबर अपराध का बीज बोने वाले लोग धीरे-धीरे हमारी मानसिकता के साथ खेलते हैं। हमें वो सब सोचने के लिए मजबूर करते हैं, जो हम से भविष्य में करवाना चाहते हैं। क्या आपने सोचा है कि सुबह-सुबह उठ कर जब आप अपना व्हाट्सएप देखते हैं, तो उसमें तमाम तरीके की ऐसी चीजें जो किसी संप्रदाय, जाति, धर्म और व्यक्ति विशेष की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाती हैं, क्यों आपके पास आती हैं।
कौन लोग हैं, जो इस तरीके के ग्राफिक्स बनाते हैं, हमें सुबह के नाश्ते के साथ परोसते हैं, जिसको हम बगैर सोचे-समझे आगे फॉर्वर्ड करते हैं। बहुत जरूरी है कि हमारे लिए और हमारी सुरक्षा के लिए कि जब कभी हम इस तरह के मैसेज अपने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, जो आपका फोन हो सकता है, कंप्यूटर हो सकता है, पर आते हैं को बगैर सोचे-समझे न तो किसी को फॉर्वर्ड करें और न ही ऐसी मानसिकता को अपने दिलोदिमाग पर हावी होने दीजिए। साइबर अपराध करने की शैली कुछ अलग है, जिसमें दो महत्त्वपूर्ण तत्व होते हैं-टेलीलॉजिकल तत्व और वाद्य तत्व। जिसको आसान भाषा में वायरल करना और कराना भी कह सकते हैं जैसा कि वो तमाम तरह के फॉर्वड जो किसी व्हाट्सएप ग्रुप, किसी स्पैम मेल की उपज होती है, और वो काम हम सब सुबह उठ कर गुड मॉर्निग मैसेज के साथ एक दूसरे को फॉर्वर्ड करते हैं। जब बगैर सोचे-समझे हम सोशल मीडिया पर किसी संप्रदाय के बारे में, व्यक्ति विशेष के बारे में कुछ मैसेज को एक दूसरे को भेजते हैं, उन्हें टैग करते हैं तो सोचा है कि भविष्य में इसका नुकसान कितना गुना हो सकता है। कभी-कभी राजनीतिक एजेंडे के माध्यम से हम उस साइबर अपराध में वाहक का काम करते हैं, इसके कारण लोगों के मन में आतंक की भावना पैदा होती है, डर का माहौल बनता है, और हम अपने अवचेतन मन में धारणा बना लेते हैं कि दूसरा संप्रदाय, देश, जाति हमें भविष्य में हानि पहुंचाने वाला है। साइबर तकनीक का इस तरह दुरुपयोग देखते हुए विशेषज्ञ भी खासे चिंतित हैं। साइबर स्पेस ऐसा क्षेत्र है जहां बिना खून-खराबे के किसी भी देश की सरकार को आतंकित किया जा सकता है। साइबर के जरिए आतंकवादी कंप्यूटर से जानकारियां निकालकर सेवाओं को बाधित करने में कर सकते हैं।
आज रेलवे, एयरलाइंस, बैंक, स्टॉक मार्केट, हॉस्पिटल के अलावा सामान्य जनजीवन से जुड़ी हुई सभी सेवाएं कंप्यूटर नेटवर्क के साथ जुडी हैं, इनमें से कई तो पूरी तरह से इंटरनेट पर ही आश्रित हैं। इनके नेटवर्क के साथ छेड़छाड़ की गई तो क्या परिणाम हो सकते हैं। अब तो सैन्य प्रतिष्ठानों का कामकाज और प्रशासन भी कंप्यूटर नेटवर्क के साथ जुड़ चुका है। जाहिर है कि यह क्षेत्र भी साइबर आतंक से अछूता नहीं बचा है। सामान्य तौर पर साइबर अपराध के जो छोटे-मोटे अपराध सामने आते हैं, वे प्राय: युवा या विद्यार्थी वर्ग द्वारा महज मजा लेने या खुराफात करने के होते हैं, लेकिन इन्हीं तौर-तरीकों का उपयोग व्यापक पैमाने पर आतंकवादी समूह करने लगें तो मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। इसलिए कभी भी ऐसे वर्चुअल ग्रुप का हिस्सा न बनें जो किसी नकारात्मक विचारधारा के लिए उकसा रहा हो क्योंकि ऐसा करके अनजाने में आप भी साइबर आतंकवाद में अपनी हिस्सेदारी निभा रहे होंगे।
मोटी मलाई ले उड़ते धनाढ्य
हिमांशु, ( एसोशिएट प्रोफेसर, जेएनयू )
गरीबी कम करने की दिशा में काम करने वाली वैश्विक संस्था ऑक्सफेम ने अपनी असमानता रिपोर्ट जारी की है, जो बताती है कि कोरोना महामारी के बावजूद दुनिया भर में धनपतियों का खजाना तेजी से बढ़ा है। भारत भी इसी रास्ते पर आगे बढ़ा। यहां बेशक 84 फीसदी परिवारों की आमदनी महामारी की वजह से कम हो गई, लेकिन अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई है। इतना ही नहीं, मार्च 2020 से लेकर 30 नवंबर, 2021 के बीच अरबपतियों की आमदनी में करीब 30 लाख करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है और वह 23.14 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये हो गई है, जबकि 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक नए भारतीय अति-गरीब बनने को विवश हुए।
बावजूद एक तरह से यही कहा जाएगा कि रिपोर्ट में कोई खास बात नहीं है। ऐसा इसलिए, क्योंकि ऑक्सफेम अरसे से यही बात कह रही है। विश्व आर्थिक मंच के सालाना सम्मेलन के आसपास जारी होने वाली इस रिपोर्ट का मकसद ही यह बताना होता है कि विश्व आर्थिक मंच भले पूंजीपतियों की वकालत करे, पर असमानता की भी बातें होनी चाहिए। इसकी पुरानी रिपोर्ट भी यही बताती है कि अमीरी और गरीबी की खाई बढ़ती जा रही है। हां, इस साल इसलिए ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि पिछले दो वर्षों से हम महामारी से गुजर रहे हैं और यह उम्मीद थी कि कम से कम कोरोना काल में गरीबों को ज्यादा मदद दी जाएगी और उनकी आमदनी सुरक्षित रखी जाएगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। आंकड़े यही बता रहे हैं कि महामारी में जिस वर्ग ने सबसे ज्यादा फायदा उठाया, वह धनाढ्य है। उसकी संपत्ति और आमदनी बढ़ी है, जबकि गरीबों का जीना और दुश्वार हो गया है।
बढ़ती असमानता को पाटने के लिए किसी जादुई छड़ी की जरूरत नहीं। यह बहुत आसान काम है। इसके लिए सरकारों को निचले तबके की आमदनी में इजाफा करने और धनाढ्य तबके से जायज टैक्स वसूलने की कोशिश करनी होगी। असमानता घटाने का तरीका ही यही है कि मजदूरों को उनकी वाजिब मजदूरी मिले, खेती करने वालों को अपनी उपज का उचित दाम मिले, मजदूरों को खून-पसीने की कमाई मिले और कोई भी इंसान व्यवस्था का लाभ उठाकर जरूरत से ज्यादा अपनी तिजोरी न भर सके। नहीं तो, समाज और व्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है।
मगर असलियत में ऐसा हो नहीं रहा है। अपने यहां वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने टैक्स में छूट देकर देश के पूंजीपति वर्ग को दो लाख करोड़ रुपये की माफी दे दी। जबकि, 2016 में हुई नोटबंदी और 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू किए जाने के कारण 2018 तक हमारी अर्थव्यवस्था काफी कमजोर हो चुकी थी और विकास दर 8.25 फीसदी से घटकर चार फीसदी पर आ गई थी। ऐसे में, मदद की जरूरत धनाढ्यों को नहीं, गरीबों को थी। असंगठित क्षेत्र के लोग थे, जिनको सहायता मिलनी चाहिए थी। मगर वे मुंह ताकते रह गए और मलाई धनाढ्य ले उड़े। सच यही है कि पिछले पांच साल से लोगों की वास्तविक आमदनी नहीं बढ़ी है। मनरेगा की मजदूरी, जो सरकार खुद तय करती है, वह भी बाजार में मिलने वाली मजदूरी से कम है। जबकि इसके बरक्स शेयर बाजार नित नई ऊंचाइयों पर दिखने लगा है। इन सबसे स्वाभाविक तौर पर असमानता बढ़ रही है।
आर्थिक ऊंच-नीच की इस खाई को खत्म करने के लिए सबसे जरूरी काम यही है कि लोगों की जेब में पैसे पहुंचे। इसके लिए विशेषकर निम्न एवं मध्य वर्ग की आमदनी को सुरक्षित करना होगा। ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि किसानों को उनकी फसलों का पूरा मूल्य मिले। यह रवैया बदलना होगा कि धनाढ्य तबके को बिन मांगे दो लाख करोड़ रुपये की टैक्स छूट दे दी जाए और लंबा संघर्ष करने के बाद भी किसानों को उनका पूरा-पूरा हक न मिले। अनौपचारिक क्षेत्र की तरफ भी हमारा बिल्कुल ध्यान नहीं है, जबकि यही क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था की कुंजी है। लोगों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना और उन्हें बेहतर शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराना भी जरूरी है। हमारे नीति-नियंताओं को समझना होगा कि अगर कोरोना काल में लोगों ने कर्ज लेकर अपना महंगा इलाज कराया है, तो उसका बोझ वे कई वर्षों तक उठाने को बाध्य हो गए हैं। अगर उनके बोझ को कम नहीं किया गया, तो असमानता घटाने के दावे कतई सच नहीं माने जाएंगे।
सरकारों को लंबी अवधि और छोटी अवधि, दोनों के लिए योजनाएं बनानी होंगी। अल्पावधि कार्यक्रमों में जहां असंगठित क्षेत्र को समर्थन देना, उस तक सीधी नकदी पहुंचाना बहुत जरूरी है (जैसा कि कई अन्य देशों ने किया है), तो वहीं मनरेगा जैसी योजनाओं का बजट बढ़ाना भी जरूरी है, ताकि मजदूर वर्ग तक नकद राशि पहुंचे। हमारे गांवों में एक बड़ा तबका अब भी कृषि पर आधारित है। उन लोगों की आमदनी बढ़ाने के लिए जरूरी है कि उनकी लागत कम की जाए और आय बढ़ाई जाए। इसके लिए खाद के दाम करने होंगे, डीजल की कीमत घटानी होगी और बिजली की दरों में कमी करनी होगी। विडंबना है कि विधानसभा चुनावों के समय ये घोषणाएं की जा रही हैं। क्या सरकार के शुरुआती वर्षों में ऐसा नहीं किया जा सकता था?
दीर्घावधि की योजनाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और रोजगार पर खर्च करने की जरूरत है। यह किसी एक साल के बजट का मसला नहीं है। आने वाली तमाम सरकारों को इस दिशा में संजीदा होना होगा। इसके लिए एक लंबी समझ और सोच की जरूरत है। यह कहीं ज्यादा जरूरी है कि सरकार काम करने के अपने तौर-तरीके बदले। जब तक सरकारों की प्राथमिकता में किसान, मजदूर और गरीब तबके नहीं होंगे, अमीरी और गरीबी का अंतर कम नहीं किया जा सकता। ऑक्सफेम की पिछली तमाम असमानता रिपोर्ट इसी की पुष्टि करती है।
Date:19-01-22
परमाणु शक्ति संपन्न देशों की कथनी-करनी में भेद
सैयद अकबरुद्दीन, ( भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी )
आज वैश्विक एजेंडा अनसुलझे महत्वपूर्ण मुद्दों से भरा हुआ है। कोरोना महामारी थमने का नाम नहीं ले रही है। जलवायु संकट एक प्रमुख चिंता का विषय बना हुआ है। आपूर्ति शृंखला बाधित होने से व्यापार प्रभावित हो रहा है। साइबर खतरे असुरक्षा बढ़ा रहे हैं। महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता अनजाने क्षेत्र में प्रवेश कर रही है। ऐसे समय में नए साल पर कथित पी 5 के नेताओं, संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्यों (चीन, फ्रांस, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका), का परमाणु युद्ध को रोकने और हथियारों की दौड़ से बचने पर बयान आया है।
परमाणु हथियार अप्रसार संधि (एनपीटी) के तहत परमाणु हथियार वाले राष्ट्र के रूप में मान्यता प्राप्त केवल पांच देशों का एक साथ आना कोई असामान्य बात नहीं है। इसमें नई बात है इन देशों का बयान। हर पांच साल पर आयोजित होने वाली एनपीटी की 10वीं समीक्षा जनवरी में आयोजित करने की योजना ओमीक्रॉन लहर से जब बाधित हो गई है, तब उस आयोजन के लिए तैयार किया गया बयान नए साल पर जारी कर दिया गया है। यह पहली बार है, जब पी 5 सामूहिक रूप से रीगन-गोर्बाचेव युग के एक संदेश की याद दिलाता है, ‘परमाणु युद्ध जीता नहीं जा सकता और इसे कभी लड़ा नहीं जाना चाहिए।’ 1985 का यह संदेश बहुत हद तक कारगर भी रहा था और अब पिछले कुछ महीनों में ही इस संदेश का दो बार इस्तेमाल हो चुका है। जून 2021 में जिनेवा में अपने शिखर सम्मेलन के बाद राष्ट्रपति जो बाइडन और व्लादिमीर पुतिन ने इसका इस्तेमाल किया था। राष्ट्रपति पुतिन और शी जिनपिंग (चीन) ने उसी महीने बाद में एक संयुक्त बयान में भी इसका उल्लेख किया था। लेकिन ब्रिटेन ने मार्च 2021 में घोषणा की थी कि वह अपने सामरिक हथियार बढ़ाएगा। क्या वह अपने बयान पर पुनर्विचार कर रहा है? फ्रांस भी परमाणु हथियार निषेध संधि (टीपीएनडब्ल्यू) के पक्ष में नहीं है। अब जो पी 5 की ओर से बयान जारी हुआ है, वह परमाणु हथियार निषेध संधि के प्रति पी 5 के सामूहिक रुख के किसी भी आत्मनिरीक्षण का जिक्र नहीं करता है।
बयान में यह दावा है कि परमाणु हथियार केवल रक्षात्मक उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। जबकि पी 5 के अधिकांश देशों की नीतियां इसका खंडन करती हैं। यदि परमाणु हथियार रक्षात्मक उद्देश्यों के लिए हैं, तो इन सभी देशों को पहले उपयोग नहीं (एनएफयू) की नीति घोषित करनी चाहिए। इन देशों ने उस प्रोटोकॉल पर भी हस्ताक्षर नहीं किए हैं, जो इस बात के लिए पाबंद करता है कि वे परमाणु हथियार हीन देशों के खिलाफ परमाणु हथियार इस्तेमाल नहीं करेंगे। संक्षेप में कहें, तो पी 3 देशों की कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट है। जैसे चीन भी भारत की परमाणु संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिए कुछ नहीं कर रहा है और अपने परमाणु शस्त्रागार बढ़ा रहा है।
चीन ने पहले भी परमाणु कूटनीति को अपने अनुकूल चलाने के लिए पी 5 मंच का इस्तेमाल किया था। यह चीन ही था, जिसने जून 1998 में दक्षिण एशिया में परमाणु परीक्षणों के बाद जिनेवा में पी 5 मंत्रिस्तरीय बैठक की शुरुआत की थी। उस समय जारी संयुक्त विज्ञप्ति में चीन ने परमाणु पक्षपात को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसने सुनिश्चित किया कि सीमा पार आतंकवाद की अनदेखी करते हुए कश्मीर सहित भारत-पाकिस्तान तनाव के कारणों को संबोधित करने की जरूरत को प्रस्ताव में जोड़ा जाए। पी 5 के दृष्टिकोण ने अतीत में भारत के लिए नुकसानदायक काम किया है। एक ऐसा देश जिसके साथ हमारी गंभीर सुरक्षा चिंताएं हैं, जिसके साथ परमाणु मोर्चे पर भी चिंता है, वह अगर परमाणु हथियार संबंधी बयान पर एक उल्लासपूर्ण मुद्रा में है, तो हमें सतर्क रहने की जरूरत है।
जिस तरह हम भारत में जलवायु संकट को वैश्विक मुद्दे के रूप में देखते हैं और संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था के तहत इसे संबोधित करना चाहते हैं, उसी तरह हमें इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि परमाणु मुद्दों पर बातचीत के लिए एकमात्र विश्व स्तरीय स्वीकृत मंच जिनेवा का निरस्त्रीकरण सम्मेलन ही हो। दुनिया में देशों के अलग-अलग स्तर पर परमाणु कूटनीति समीचीन नहीं है, यह काम नहीं करेगी। नए बदलाव को जगह देने की जरूरत है। तभी परमाणु कूटनीति नए साल की पवित्र पेशकश से आगे बढ़ सकती है, जैसा कि बयान है।