19-01-2019 (Important News Clippings)
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Date:19-01-19
साख लुटने के बाद सीबीआई में सुधार का उचित कदम
संपादकीय
सीबीआई की साख को गंभीर नुकसान पहुंचाने के बाद आखिरकार सरकार ने विशेष निदेशक राकेश अस्थाना को संगठन से हटा दिया है। इसी तरह पूर्व निदेशक आलोक वर्मा के चहेते अधिकारी एके शर्मा और एमके सिन्हा को उस संस्था से हटाकर दूसरे संगठनों में भेज दिया गया है। निश्चित तौर पर सरकार का यह कदम सीबीआई प्रमुख के पद पर नए अधिकारी को बिठाने की तैयारी है और उसके मार्ग को निष्कंटक करना जरूरी है। अब जो भी अधिकारी सीबीआई प्रमुख बनेगा उसका कार्यकाल दो साल रहेगा और तब तक राजनीतिक परिस्थितियां कैसी होंगी कहा नहीं जा सकता। हालांकि यह अनुमान भी लगाया जा रहा है कि नागरिक उड्डयन सुरक्षा के महानिदेशक बने अस्थाना पर किसी तरह का आरोप सिद्ध नहीं हो रहा है और उनके 2021 में सीबीआई प्रमुख बनने के रास्ते खुले हुए हैं। सरकार ने उनके विरुद्ध लगे आरोपों की जांच कर रहे एके शर्मा और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल तक को आरोपों के घेरे में लेने वाले अधिकारी एके सिन्हा को पुलिस शोध और विकास संस्थान ब्यूरो जैसी मामूली जिम्मेदारी देकर यह इंतजाम भी कर दिया है कि किसी आरोप की जांच खुन्नस के तहत न की जाए।
सीबीआई को दुरुस्त करने की सरकार की यह कार्रवाई स्वागत योग्य है लेकिन, इस पर यही कहा जा सकता है कि बड़ी देर कर दी हुजूर आते आते। अगर सरकार तत्कालीन निदेशक आलोक वर्मा पर यकीन करते हुए अस्थाना को विशेष निदेशक बनाने की जहमत न उठाती तो शायद यह सारा बखेड़ा ही न खड़ा होता और देश की एक महत्वपूर्ण संस्था की ऐसी दुर्गति न होती। आखिर क्यों हमारी व्यवस्था ऐसे अधिकारी नहीं तैयार कर पा रही है जो अपना काम किसी रागद्वेष के बिना पूरी दक्षता के साथ करें और कानून के राज के प्रति जवाबदेह हों? आखिर क्यों राजनीतिक नेतृत्व अपने माफिक आईएएएस और आईपीएस अफसर ढूंढ़ता रहता है और जिसे नियुक्ति देता है उस पर भरोसा नहीं करता। आशा की जाती है कि उच्च स्तरीय चयन समिति जल्दी ही सीबीआई के जिस प्रमुख की नियुक्ति करेगी वह एक पक्षपात रहित और दक्ष अधिकारी होगा और आने वाली कोई भी सरकार उसके साथ न तो राजनीतिक छेड़छाड़ करेगी और न ही विभाग में उसका प्रतिद्वंद्वी खड़ा करके उसे कमजोर करेगी।
Date:19-01-19
पूर्व और दक्षिण की खाई
टी. एन. नाइनन
वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो हम सम्मिलन के दौर से गुजर रहे हैं, जहां कई गरीब देशों की आय अमीर देशों की तुलना में कहीं अधिक तेजी से बढ़ी है। ऐसे में दोनों के बीच का अंतर कम हुआ है। परंतु देश के भीतर अमीर और गरीब के बीच की इस खाई के दूर होने की बात करें तो हकीकत यह है कि ऐसा नहीं हुआ है बल्कि इसमें इजाफा ही हुआ है।
कर राजस्व की बात करें तो मध्य प्रदेश के कर संसाधन कर्नाटक की तुलना में आधे हैं (इसमें केंद्र से हस्तांतरित राशि शामिल नहीं है) जबकि उसकी आबादी 20 फीसदी अधिक है। उत्तर प्रदेश की आबादी तमिलनाडु से ढाई गुना है लेकिन दोनों के कर संसाधन लगभग समान हैं। अनुमान के मुताबिक ही बिहार का स्थान काफी नीचे है। उसकी आबादी आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की सम्मिलित आबादी से ज्यादा है लेकिन उसके कर संसाधन इन दोनों तेलुगू भाषी राज्यों का केवल 12 प्रतिशत हैं। ओडिशा के कर संसाधन केरल से आधे हैं लेकिन आबादी 30 फीसदी ज्यादा है।
केंद्रीय हस्तांतरण से कुछ ही भरपाई हो पाती है। मध्य प्रदेश को कर्नाटक की तुलना में केंद्र से दो तिहाई अधिक धन मिलता है और बिहार को तेलुगू भाषी राज्यों से 50 फीसदी अधिक। सामाजिक क्षेत्र के प्रति व्यक्ति व्यय की बात करें तो वह गरीब राज्यों में अभी भी कम बना हुआ है। अगर पिछड़े राज्यों को अन्य राज्यों की बराबरी करनी है तो यह ठीक नहीं है। बिहार सामाजिक क्षेत्र में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 76 रुपये व्यय करता है जबकि केरल 139 रुपये खर्च करता है। उत्तर प्रदेश में यह 69 रुपये जबकि महाराष्ट्र में 120 रुपये है। पश्चिम बंगाल में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति सामाजिक व्यय 95 रुपये और कर्नाटक में 124 रुपये है। कुछ अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों का प्रदर्शन बेहतर है। छत्तीसगढ़ में यह व्यय 150 रुपये और ओडिशा में 115 रुपये है लेकिन आमतौर पर उन्हीं राज्यों का प्रदर्शन बेहतर है जो समृद्घ हैं। निजी क्षेत्र के निवेश में यह असमानता अधिक मुखर होकर सामने आती है। मसलन उड़ानों की संख्या, अच्छे रोजगार आदि की संख्या इसकी बानगी हैं।
देश के पूर्वी और उत्तरी इलाकों में स्थित गरीब राज्यों को केंद्रीय हस्तांतरण की भरपाई दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों के कर संसाधन सहयोग से होती है। अब तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया है लेकिन पिछले साल से विरोध की आवाजें उठने लगी हैं जब यह बात जाहिर हो गई कि वित्त आयोग (जो राज्यों को केंद्रीय स्थानांतरण का निर्धारण करता है) से गरीब राज्यों का हस्तांतरण बढ़ाया जा सकता है। यह इजाफा उन राज्यों की कीमत पर होना है जहां से अधिक राजस्व आता है। निश्चित तौर पर 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के आगमन के बाद उम्मीद की गई थी कि वह राज्य जीएसटी का पैसा उत्पादक राज्यों से खपत करने वाले राज्यों को हस्तांतरित करेगा। यह भी एक वजह थी जिसके चलते बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने जीएसटी का विरोध किया था। उन्हें राज्य को राजस्व हानि होने का डर था। चौंकाने वाली बात है कि ऐसा नहीं हुआ। संभव है भविष्य में ऐसा हो।
इस बीच राज्यवार लोकसभा सीट के आवंटन का मुद्दा करीब आधी सदी से अटका हुआ है। जबकि देश के पूर्वी और उत्तरी बीमारू राज्यों में आबादी, दक्षिण की तुलना में अधिक बढ़ी है। आज परिणाम यह है कि बिहार में लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में औसतन 26 लाख मतदाता हैं जबकि केरल में इनकी तादाद 16.5 लाख, मध्य प्रदेश में 25 लाख है और तमिलनाडु में 18.4 लाख है। राज्यवार सीटों के आवंटन की समीक्षा का काम 2026 में निर्धारित है। अगर उस वक्त निर्णय लिया गया कि प्रति सीट नागरिकों का अनुपात समान किया जाए तो उम्मीद की जानी चाहिए कि दक्षिण भारत से इसका तीखा विरोध होगा। इस बीच अगर मौजूदा सीट आवंटन को निरंतर जारी रखा गया तो विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधित्व में और अधिक असमानता आएगी क्योंकि दक्षिण के राज्यों की आबादी उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही है।
एक बात तो स्पष्ट है कि राज्यों में वित्तीय समता और लोकसभा के प्रतिनिधित्व में समता एक साथ नहीं लाई जा सकती। परंतु, अगर असमानताओं को यूंही जारी रहने दिया गया तो हालत और बिगड़ती जाएगी जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। इन मुद्दों को फिलहाल टाला जा सकता है लेकिन वह कोई हल नहीं है।
Date:19-01-19
स्वास्थ्य नीति की कैसी हो बुनियाद ?
अजय शाह
यदि गुणवत्ता और मूल्य के आधार पर देखा जाए तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर निरंतर कमजोर बना हुआ है। इस समस्या को दूर करना तो महत्त्वपूर्ण है ही लेकिन सबसे बेहतर स्थिति तो वह होगी जहां लोग कम से कम बीमार पड़ें। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि जन स्वास्थ्य के पारंपरिक एजेंडे पर ध्यान दिया जाए। इसके तहत पुराने बचाव संबंधी हस्तक्षेपों का प्रयोग किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य सेवाओं के पुनर्गठन की भी आवश्यकता है। आदर्श स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था वह है जहां चिकित्सकों का पूरा तंत्र लोगों के साथ जुड़कर काम करता है और यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि उन्हें अस्पताल जाना ही न पड़े।
हमारे देश में यह व्यवस्था अच्छी नहीं है। यहां चिकित्सक और मरीज का रिश्ता मुनाफा कमाने वाले और ग्राहक का है। अक्सर चिकित्सक की कमाई अधिक से अधिक जांच और दवाइयों से जुड़ी होती है। साफ है कि लोगों के बीमार रहने पर उनकी कमाई अधिक होती है। मौजूदा व्यवस्था में कोई लोगों की सेहत को लेकर फिक्रमंद नहीं है। हमारे देश में नीतिगत बहस काफी हद तक स्वास्थ्य सुविधाओं पर होने वाले आम परिवार के खर्च पर केंद्रित रही है। हमें बीमा योजनाएं अच्छी लगती हैं जहां बीमार लोगों के स्वास्थ्य का खर्च स्वस्थ लोग उठाते हैं। परंतु इससे स्वास्थ्य सुविधाओं की बढ़ी हुई लागत और बढ़ती बीमारियों जैसी समस्या दूर नहीं होती। हमारा ध्यान प्रमुख रूप से देश की आबादी के स्वास्थ्य पर होना चाहिए। भारत के लिए हमारा स्वप्न एक स्वस्थ देश का होना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति बीमार नहीं पड़ता है तो इसमें सबकी बेहतरी है। जन स्वास्थ्य की पारंपरिक अवधारणा में बीमारियों से बचाव ही प्राथमिक है।
भारत दुनिया के उन देशों में से है जहां टीकाकरण कार्यक्रम सर्वाधिक कमजोर हैं। अगर हम इनके दायरे में आने वाली बीमारियों को लेकर अपना प्रदर्शन सुधार सकें और टीकाकरण कार्यक्रमों का सफल क्रियान्वयन कर सकें तो बीमार पडऩे वालों की तादाद कम हो जाएगी। ज्यादातर संक्रामक बीमारियों की जड़ में पानी और सफाई की समस्या है। मच्छर जैसे बीमारी के वाहकों से निपटना आवश्यक है। इस दिशा में आज हमारे प्रयास सन 1970 के दशक से भी कमजोर हैं। इस बीच स्वास्थ्य के क्षेत्र में नए मोर्चे तैयार हो गए हैं। हवा की गुणवत्ता एक बड़ी समस्या बनकर उभरी है। हमें अपनी नई सड़कों पर गर्व है लेकिन राज्यमार्गों पर इंजीनियरिंग का स्तर कमजोर है। प्रति वाहन-प्रति किलोमीटर दुर्घटना दर के मामले में हम दुनिया में शीर्ष पर हैं। नीतिगत कमियों की बदौलत बाढ़ जैसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं और भूकंप अधिक नुकसानदेह साबित हो रहे हैं।
हमारे स्वास्थ्य मंत्रालय की प्रशासनिक सीमा भी समस्या का हिस्सा है। जन स्वास्थ्य के अधिकांश निर्धारक तत्त्व स्वास्थ्य मंत्रालय के दायरे से बाहर हैं। ऐसे में स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक ध्यान देने की आवश्यकता है जो स्वास्थ्य मंत्रालय का कार्यक्षेत्र हैं। अगर भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण कम से कम लागत में सड़क बनाने पर केंद्रित रहा तो सड़क सुरक्षा और आपदा नियंत्रण के मसले पर ज्यादा बदलाव आता नहीं दिखता। हमें अपनी नीतियों को ठीक करना होगा ताकि सरकार के सभी विभाग स्वास्थ्य को लेकर सोचें और जन स्वास्थ्य को लेकर पारंपरिक क्षेत्रों में क्षमता विकास किया जा सके। इससे स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत कम होगी। इसके अलावा हमें स्वास्थ्य सेवाओं पर पुनर्विचार करने की भी आवश्यकता है। जब चिकित्सकों को जांच आदि से भी लाभ हो और वे इनसे पैसा कमाने लगें तो जाहिर है लोगों के बीमार होने में उनका फायदा होगा। यह गलत किस्म का प्रोत्साहन है।
क्या इस काम को अलग तरह से अंजाम दिया जा सकता है? इस दिशा में एक अंतर्दृष्टि यह भी कहती है कि सेवा प्रदाताओं के नेटवर्क और मरीजों के बीच एक अनुबंध हो जिसमें तयशुदा मासिक भुगतान के बदले किसी व्यक्ति के ताउम्र इलाज की बात शामिल हो। यह अनुबंध किसी एक चिकित्सक के बजाय चिकित्सा के सभी पहलुओं को समेटे नेटवर्क के साथ होना चाहिए। ऐसे में बीमार व्यक्ति सीधे नेटवर्क में जाकर बिना किसी अतिरिक्त लागत के स्वास्थ्य सुविधाएं प्राप्त कर सकता है। एक बार अनुबंध की यह शैली निर्धारित होने के बाद स्वास्थ्य सेवा प्रक्रिया पूरी तरह बदल जाएगी। अब स्वास्थ्य सेवा नेटवर्क के लिए हर माह भुगतान करना होगा। जब तक मैं बीमार नहीं पड़ता यह भुगतान उनके लिए विशुद्ध मुनाफा होगा। जब मैं बीमार पड़ता हूं तो इसका बोझ उन्हें उठाना पड़ता है। ऐसे में उन्हें अतिरिक्त दवाएं या जांच आदि लिखने का कोई लाभ नहीं होगा। उनका फायदा हमें स्वस्थ रखने में है।
अब स्वास्थ्य सेवा नेटवर्क का फायदा इस बात में है कि वह हमें नियमित जांच के लिए बुलाए ताकि समस्या का जल्दी पता लग सके। यह नेटवर्क टीकाकरण को भी बढ़ावा देगा ताकि बीमारी से जुड़ी लागत का बोझ न आए। फिलहाल देश में चिकित्सक और मरीज के बीच की बातचीत में लक्षणों की व्याख्या कर उपचार किया जाता है। अब वक्त आ गया है कि इस व्यवहार को बदला जाए। चिकित्सक का कुछ मिनटों का बेहतर व्यवहार स्वास्थ्य और व्यवहार पर सकारात्मक असर डालता है। उदाहरण के लिए चिकित्सक कह सकता है, ‘मैं आपको कुछ व्यायाम बता रहा हूं। मैं चाहता हूं आप तीन महीने बाद आएं और तब हम देखेंगे कि आपके कॉलेस्ट्रॉल के स्तर में क्या बदलाव आया है?’ यह अधिकांश मरीजों को प्रेरित करेगा। इससे लागत कम होगी और स्वास्थ्य सेवा नेटवर्क का मुनाफा सुधरेगा।
ऐसे नेटवर्क के चिकित्सक को अगर संक्रामक बीमारियों में इजाफा दिखता है तो वह स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों से बातचीत करके कुछ ऐसी पहल करा सकता है जो बीमारी की जड़ को ही समाप्त करें। ऐसा करने से स्वास्थ्य सेवा नेटवर्क को और अधिक आय जुटाने में मदद मिलेगी क्योंकि कम लोग बीमार पड़ेंगे। हमारे देश में मौजूदा बहस में पूरा ध्यान परिवारों पर बीमारी के कारण कोई बोझ न पडऩे देने पर केंद्रित है। यह एक मुद्दा है लेकिन हमें गहराई से पड़ताल करने की आवश्यकता है। स्वास्थ्य नीति का प्राथमिक उद्देश्य होना चाहिए एक ऐसी परिदृश्य रचना जहां लोग बीमार न पड़ें। इसके लिए स्वास्थ्य आधारित विचार प्रक्रिया की आवश्यकता है जिसमें विभिन्न सरकारी विभाग शामिल हों।
Date:18-01-19
लोकपाल का इंतजार
आम आदमी को सबसे ज्यादा परेशानी राज्यों की नौकरशाही के भ्रष्ट तौर-तरीकों से ही उठानी पड़ती है।
संपादकीय
लोकपाल व्यवस्था के निर्माण में देरी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भले ही संबंधित सर्च कमेटी को अपना काम पूरा करने यानी नामों का पैनल फरवरी के अंत तक तैयार करने का निर्देश दिया हो, लेकिन लगता नहीं कि हाल-फिलहाल लोकपाल का गठन होने वाला है। इससे संबंधित मामले की अगली सुनवाई अब मार्च में होगी। तब तक आम चुनावों की घोषणा हो सकती है। ऐसे में लगता नहीं कि नई सरकार के गठन के पहले देश को लोकपाल मिल पाएगा। यह एक विडंबना ही है कि जिस लोकपाल के लिए इतना बड़ा आंदोलन हुआ उसके प्रति अब कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई जा रही है। लोकपाल संबंधी कानून बने हुए चार वर्ष से अधिक बीत चुके हैैं, लेकिन अभी तक उसके गठन संबंधी कुछ बुनियादी काम ही नहीं हो सके हैैं। इस सबसे यही अधिक लगता है कि भ्रष्टाचार से लड़ने वाली इस व्यवस्था के निर्माण की जरूरत ही नहीं महसूस की जा रही है।
यह समझ आता है कि केंद्र सरकार लोकपाल के गठन को लेकर बहुत उत्साहित नहीं, लेकिन केवल उसे ही दोष नहीं दिया जा सकता। लोकपाल के लिए नामों का पैनल तैयार करने का काम जिस सर्च कमेटी को सौंपा गया था वह भी सुस्त दिख रही है। इस कमेटी का गठन पिछले साल सितंबर में हो गया था, लेकिन अभी तक उसकी केवल एक बैठक ही हो सकी है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद यदि यह कमेटी लोकपाल का हिस्सा बन सकने वाले नामों को पैनल तैयार भी कर लेती है तो फिर ये नाम चयन समिति के पास जाएंगे। यह चयन समिति जब तक अपना काम करेगी तब तक शायद देश में चुनाव हो रहे हों। क्या यह उचित होगा कि लोकपाल और उसके सहयोगियों के नाम तय करने का काम चुनाव के मुहाने पर खड़ी सरकार में शामिल लोग करें? इस सवाल का जवाब जो भी हो, यह किसी से छिपा नहीं कि लोकपाल संबंधी चयन समिति की बैठकें इसलिए भी बाधित हुईं, क्योंकि लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता के तौर पर कांग्रेस के सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे उसका हिस्सा बनने के लिए तैयार नहीं हुए।
समस्या केवल यह नहीं है कि लोकपाल के गठन का काम प्राथमिकता में नहीं दिख रहा है, बल्कि यह भी है कि राज्य सरकारें लोकपाल की तर्ज पर लोकायुक्त के गठन में भी दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैैं। एक समस्या यह भी है कि कुछ लोग अपने मन मुताबिक लोकपाल व्यवस्था का निर्माण होते देखना चाहते हैैं। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे लोगों को झिड़का। पता नहीं लोकपाल का गठन कब होगा, लेकिन यह ठीक नहीं कि राज्य सरकारें लोकायुक्त को लेकर ढिलाई बरतें। वे इससे अनजान नहीं हो सकतीं कि आम आदमी रोजमर्रा के भ्रष्टाचार से अभी भी त्रस्त है। माना कि केंद्र सरकार उच्च स्तर के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में एक बड़ी हद तक कामयाब रही है, लेकिन राज्यों के स्तर पर नौकरशाही के भ्रष्टाचार में कोई उल्लेखनीय लगाम लगती नहीं दिखी है। ध्यान रहे कि आम आदमी को सबसे ज्यादा परेशानी राज्यों की नौकरशाही के भ्रष्ट तौर-तरीकों से ही उठानी पड़ती है।
Date:18-01-19
Collegium controversy
An unusual change of decision brings the judicial appointments system under scrutiny
Editorial
The controversial collegium system of judicial appointments is under public scrutiny once again. This time, the potential for embarrassment to the superior judiciary is much higher. Former Chief Justices of India, a sitting Supreme Court judge, and the Bar Council of India have taken exception to the collegium’s unusual action of revisiting decisions made at an earlier meeting, and recommending the elevation to the apex court of Justice Dinesh Maheshwari and Justice Sanjiv Khanna, instead of two judges whose names had been considered earlier. The allegation is not merely one concerning the seniority or the lack of it of the two appointees; rather, it is the much graver charge of arbitrarily revoking a decision made on December 12 last year. The official reasons are in the public domain in the form of a resolution on January 10. It claims that even though some decisions were made on December 12, “the required consultations could not be undertaken and completed” in view of the winter vacation. When the collegium met again on January 5/6, its composition had changed following the retirement of Justice Madan B. Lokur. It was then decided that it would be “appropriate” to have a fresh look at the matter, as well as the “additional material”. The only rationale for the names of Rajasthan High Court Chief Justice Pradeep Nandrajog and Delhi High Court Chief Justice Rajendra Menon being left out is the claim that new material had surfaced. However, it is not clear what the material is and how it affected their suitability.
Former Chief Justice of India R.M. Lodha is right in underscoring the institutional nature of decisions by the collegium. Can the retirement of one judge be a ground to withdraw a considered decision, even if some consultations were incomplete? There is little surprise in the disquiet in legal circles. Another curious element in the latest appointments is that Justice Maheshwari, who had been superseded as recently as last November, when a judge junior to him was appointed a Supreme Court judge, has been found to be “more suitable and deserving in all respects” than any of the other chief justices and judges. There is no objection to the elevation of Justice Khanna except his relative lack of seniority. There is little substance in this criticism, as it is now widely accepted that seniority cannot be the sole criterion for elevation to the Supreme Court. However, the fact that there are three other judges senior to him in the Delhi High Court itself — two of them serving elsewhere as chief justices — is bound to cause some misgivings. The credibility of the collegium system has once again been called into question. The recent practice of making public all resolutions of the collegium has brought in some transparency. Yet, the impression that it works in mysterious ways refuses to go away. This controversy ill-serves the judiciary as an institution.
Date:18-01-19
Federal Imbalance
The order to involve the UPSC in the selection of state police chiefs violates the principles of federalism
Editorial
The Supreme Court’s directive that the states must select their police chiefs from a list of officers empanelled by the Union Public Service Commission is against the federal principles outlined in the Constitution. Public order is exclusively a state subject and hence, the appointment of the Director General of Police (DGP) should be left to the discretion of the state governments. The SC, however, on Wednesday dismissed applications by five states that had sought a modification of the Court’s order in July last year, where it had reiterated the directives issued in Prakash Singh and others vs. Union of India & others in 2006. In Prakash Singh, the SC had ruled that the DGP of the state shall be selected by the state government from a list of the three senior-most officers of the department who have been empanelled for promotion to that rank by the UPSC. It also said the DGP should have a fixed tenure of at least two years. However, only five out of 29 states had approached the UPSC for empanelment.
Last year, the SC had reiterated the directions spelt out in Prakash Singh, whereby the states have to “send their proposals in anticipation of the vacancies to the UPSC well in time at least three months prior to the date of retirement of the incumbent on the post of Director General of Police” and indicated its disapproval of states appointing acting DGPs. There is no logic or reason for the UPSC, an institution under the Union government, to be involved in the selection process of DGPs. The responsibility of law enforcement is with the state government, which does it through the police machinery. Voters penalise the state government if it fails to enforce law and order. The involvement of the UPSC, whose members are appointed by the Union government, allows the Centre to have a foothold in what is clearly a domain of the states. This has implications for federalism: When the Union and state governments are run by different parties, it could become a matter of friction.
The Supreme Court may have unwittingly upset the balance of federal powers in this matter and tilted it in favour of the Centre. The SC has said the choice of a DGP has to be made “on the basis of their length of service, very good record and range of experience for heading the police force”. A state government, surely, could be trusted to make this choice, especially since the police force, including the officers, serves under it.
Date:18-01-19
An opaque bench
It’s time for the Collegium system to go
Ajit Prakash Shah,( The writer is a former chief justice of the Delhi High Court.)
In the inaugural session of the Supreme Court of India (SC), held 69 years ago, we were promised an independent judiciary that would be the third pillar in India’s constitutional framework, counterbalancing the legislature and the executive. In the Constituent Assembly debates that preceded the creation of the SC, Jawaharlal Nehru, speaking on higher judicial appointments, said that the judges selected should be of the “highest integrity” and be persons “who can stand up against the executive government and whoever might come in their way”. I fear that we may have forgotten these important words.
The process for the appointment of judges lies at the heart of an independent judiciary. Over the years, this process has manifested itself in the questionable form of the Collegium of judges, which decides on appointments to both the SC and the high courts. The recent decision of the Collegium to inexplicably replace two high court chief justices selected for elevation has reaffirmed my long-standing concerns about the methods of working of the Collegium.
The Collegium process has once again shown that it is opaque, with its members working as if in a cabal. More problematically, the Collegium is not accountable to any other authority. Its present decision to appoint Justice Dinesh Maheshwari and Justice Sanjiv Khanna, by retracting and superseding earlier selections of fine judges in their own right, is especially concerning. Justice Maheshwari was earlier rejected by the Collegium in its December 2018 meeting. Justice Khanna has been selected over his three senior colleagues, Justices Pradeep Nandrajog, Gita Mittal and S Ravindra Bhat. My issue is less about the seniority convention than about the lack of transparency.
Admittedly, the seniority convention for higher judicial appointments is not set in stone. While plenty of skirmishes took place between the judiciary and the executive in the early decades of the republic, the first major appointments-related decision that turned this convention on its head was the executive’s move to anoint A N Ray, the fourth most senior judge of the SC at the time, as the Chief Justice of India. This was the era before the Collegium came into being, and was an appointment that provoked much-heated debate. The Second Judges’ case of 1993, which led to the formation of a collegium of high-ranking judges identifying persons for appointment to the SC and high courts, chose to re-state the seniority convention in appointments. The decision clarified that “Unless there be any strong cogent reason to justify a departure, that order of [inter-se] seniority [amongst Judges of High Courts] must be maintained between them while making their appointment to the Supreme Court.”
The decision to create a Collegium in the first place was disastrous in more ways than one. H M Seervai, for example, wrote that “never has a majority judgment of the Supreme Court reached a lower level of judicial incompetence”. Justice Krishna Iyer described this judgment as “an egregious fraud on the Constitution”. Lord Cooke of Thorndon also criticised this judgment in an essay that borrowed its title from Alexander Pope’s famous words, “fools rush in where angels fear to tread”. In my view, one of the many problems of the Collegium is precisely that it emphasises excessively on seniority. That said, I must admit that following the seniority convention offers a semblance of certainty and transparency, even though it takes away from selecting judges on other objective (and far more important) criteria such as merit and competence. In the present instance, however, all notions of seniority have been thrown to the wind, for no apparent reason. The SC’s exhortations that seniority should be deviated from only if there are “cogent reasons” to do so seem to have been ignored; at least, no reasons — cogent or otherwise — have been offered in this surprising decision. We should all be concerned.
There is also the matter of principle — the Collegium has decided that the sanctity of its own decisions no longer stands. Its own previous decision to appoint other persons to the Supreme Court was reversed, without any explanation or justification. Besides this, of course, no one — still — knows how judges are selected, and the appointments made reek of biases of self-selection and in-breeding. Sons and nephews of previous judges or senior lawyers tend to be popular choices for judicial roles. With its ad hoc informal consultations with other judges, which do not significantly investigate criteria such as work, standing, integrity and so on, the Collegium remains outside the sphere of legitimate checks and balances.
In the last half a decade or so, there was some agreement that the Collegium system of appointments had failed, and that we needed a more transparent and accountable system. The proposal for a National Judicial Appointments Commission (NJAC) came about, seeking to guarantee the independence of the system from inappropriate politicisation, strengthen the quality of appointments, enhance the fairness of the selection process, promote diversity in the composition of the judiciary, and rebuild public confidence in the system.
Unfortunately, the SC, in its majority decision declaring the NJAC unconstitutional, missed a terrific opportunity to introduce important reformatory changes in the functioning of the judiciary. It could have read down the law, and reorganised the NJAC to ensure that the judiciary retained majority control in its decisions. But it did nothing. It did not amend the NJAC Act to have safeguards that would have made it constitutionally valid. It also did not reform the Collegium in any way to address the various concerns voiced by one and all, including the Court itself. Instead, to the disappointment of all those who hoped for a strong, independent and transparent judiciary, it reverted to the old Collegium-based appointments mechanism.
As a democracy, it seems anomalous that we continue to have a judiciary whose essence is determined by a process that is evidently undemocratic. That reforms in the existing selection process are urgently needed is stating the obvious. Justice Chelameswar, the sole judge who upheld the NJAC, tried to make a statement on this front, by walking out of the Collegium and insisting on transparent procedures. The Supreme Court, too, had referred to the need to introduce reforms while deciding the NJAC matter. But I have been hard-pressed to find any apparent sign of reform in the system.
The lack of a written manual for functioning, the absence of selection criteria, the arbitrary reversal of decisions already taken, the selective publication of records of meetings — all of these point to the fact that the Collegium is not only as opaque as it was, it may perhaps have become worse. This is a time to revisit the Collegium issue, either through a Presidential reference to the Supreme Court, or a constitutional amendment with appropriate changes in the original NJAC law. We would do well to remember Nehru’s words on the importance of identifying judges of the highest integrity for appointment to the highest courts of the land. This is the best we can do for our country, and this is what we deserve.