18-02-2019 (Important News Clippings)
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Date:18-02-19
कश्मीर के हालात से निपटने की चुनौती हुई और कठिन
मिहिर शर्मा
कश्मीर घाटी के इतिहास के सबसे घातक हमले के बाद कुछ ऐसी बातें हैं जिन पर चर्चा करके हम यह देख सकते हैं कि भविष्य में क्या कुछ हो सकता है। ये तमाम बातें बहुत परेशान करने वाली हैं। सबसे पहली बात तो यह कि 2014 के बाद से घाटी में हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। इसकी कई वजह हैं लेकिन सबसे बड़ी वजह यही है कि भारत सरकार ने 2014 के पहले के 10 वर्षों में हासिल लाभ को गंवा दिया। सरकार ने अधिक से अधिक कश्मीरियों को देश की मुख्य धारा के साथ जोडऩे के बजाय, कश्मीर को एक राजनीतिक मुद्दे में बदल दिया। ऐसा नहीं है कि 2014 के पहले घाटी स्वर्ग जैसी थी, लेकिन तब से अब तक हिंसा की घटनाओं में जो इजाफा हुआ है, वह आंकड़ों में स्पष्ट नजर आ रहा है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने संसद के समक्ष आतंकवाद के जो आंकड़े प्रस्तुत किए हैं, उनमें निरंतर इजाफा नजर आया है। वर्ष 2014 में जहां 222 आतंकी घटनाएं हुई थीं वहीं, 2018 में इनकी तादाद 614 हो गई। 2014 में जहां 47 सुरक्षा जवान शहीद हुए थे, वहीं 2017 में 80 और 2018 में 91 जवानों की मृत्यु हुई।
जब मौजूदा सरकार सत्ता में आई, तो उसने नियंत्रण रेखा पर लंबे समय से जारी संघर्ष विराम से अलग रुख अख्तियार किया। इसका उद्देश्य घुसपैठ का मुकाबला करना था। इससे आतंकी घटनाओं में कमी नहीं आई और न ही असली समस्या दूर हुई। यही कारण है कि एक बार फिर कश्मीरी युवा बंदूक उठाते नजर आ रहे हैं। यह बात सन 1990 के दशक की याद दिलाती है जब कश्मीरी युवाओं का हथियार उठाना आम होता था। विदेशी आतंकियों को लेकर चिंतित होने के बजाय हमें स्थानीय युवाओं में बढ़ती कट्टरता की चिंता अवश्य करनी चाहिए। पुलवामा में कार बम से हमला करने वाला 20 वर्षीय युवा भी ऐसे ही लोगों में से एक था। देश के युवाओं में आतंक के प्रति झुकाव दूसरा बिंदु है।
तीसरी चिंता है इस्लामिकों की रणनीतियों में आ रहा बदलाव। इन नीतियों को आसानी से बदला जा सकता है। दुनिया भर के उपद्रवियों और आतंकियों के कार्य व्यवहार का अनुकरण करके ऐसा किया जा सकता है। पुलवामा हमले के बारे में खुफिया जानकारी थी कि यह सीरिया के कार बम हमलों की शैली में किया जा सकता है। कश्मीर में ऐसे आत्मघाती हमले बहुत कम हुए हैं और इस आकार का कार बम हमला तो कभी नहीं। हालांकि जैश-ए-मोहम्मद ने सन 2000 के दशक में श्रीनगर के बादामी बाग कैंट में ऐसा ही एक हमला किया था। मौत के बाद जारी हमलावर का वीडियो भी काफी हद तक पश्चिम एशिया के इतिहास की याद दिलाता है जहां वह तालिबान को अपनी प्रेरणा बताता है और अमेरिका की हार की बात करता है। आईईडी और कार बम तथा आत्मघाती हमलावरों से भरी घाटी, उससे बिल्कुल अलग है जिसका सामना सुरक्षा बलों को अब तक करना पड़ता आया है।
चौथी बात आतंकियों की रणनीति भी बदल रही है। जिहादियों ने अब खासतौर पर सेना या पुलिस बलों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है। आम नागरिकों की सहानुभूति अब उनको सन 1990 के दशक की तुलना में अधिक मिल रही है। धार्मिक कट्टïरपंथ में लगातार इजाफा हो रहा है और स्थानीय स्तर पर धार्मिक परंपराओं का स्थान अब कहीं अधिक कट्टïर और शून्यवादी विचार ले रहे हैं जो पश्चिम एशिया से आयात किए गए हैं। यानी सेना और अर्द्धसैनिक बलों के सामने आगे काफी मुश्किल वक्त आने वाला है। सैन्य बल पहले ही यह शिकायत करते रहे हैं कि आम नागरिकों की भीड़ उन इलाकों के बचाव के लिए घेरेबंदी करती है जहां कथित तौर पर आतंकियों के छिपे होने की आशंका होती है।
आतंकियों से लड़ाई एक बात है, उपद्रवियों से निपटना कहीं अधिक मुश्किल हो सकता है और एक बड़ी आबादी से निपटना बेहद मुश्किल भरा हो सकता है। पांचवीं बात, पड़ोस में जो कुछ घट रहा है, उसे भी एकदम आसानी से महसूस किया जा सकता है। अमेरिका ने अफगानिस्तान से हड़बड़ी में बाहर निकलने का ऐलान किया जो खतरनाक रूप से मूर्खतापूर्ण बात है। इससे दुनिया भर के जिहादियों को वैसी प्रेरणा मिलेगी जैसी मुजाहिदीन के हाथों तत्कालीन सोवियत संघ की हार से मिली थी। इस संभावित विदाई की बात ने पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान का उत्साह बढ़ा दिया। चीन की ओर से मिल रहा समर्थन तो है ही। पिछली बार पाकिस्तान समर्थक जिहादियों को तीन दशक पहले छूट मिली थी जब एक महाशक्ति का अंत हुआ था। हमें इस आशंका से डर लगना चाहिए कि पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा पर दबाव कम होने का क्या असर हो सकता है?
छठी बात, कश्मीर पर तो पाकिस्तान में भी उतनी अधिक बातचीत नहीं होती है। फिलहाल पाकिस्तान अपनी क्रिकेट लीग और सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस के स्वागत की तैयारियों में व्यस्त है। जानकारी के मुताबिक उनकी यात्रा के लिए 3,500 कबूतर खरीदे जा रहे हैं। पाकिस्तान में कश्मीर आज उस कदर सुर्खियों में नहीं है जैसा कि वह कुछ दशक पहले हुआ करता था। परंतु इसके बावजूद वहां घरेलू राजनीति में कश्मीर के मुद्दे के इस्तेमाल में आई कमी का कोई लाभ उठाने का खास प्रयास नहीं किया गया गया है।
सातवां, भारत में कश्मीर एक जीवंत राजनीतिक मसला है। वह भी पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण बनकर उभरा है। सन 1990 के दशक में भारत को उपद्रवियों से निपटना था और वह यह काम बिना राष्ट्र की मर्दवादी छवि की चिंता किए कर सकता था। अब कश्मीर का इस्तेमाल एक रूपक के रूप में किया जाता है। हमारा सामना अब सन 1990 के दशक की अशांति जैसी परिस्थितियों से नहीं है। तमाम तरह के कुप्रबंधन, बढ़ते कट्टरपंथ और राजनीतिकरण के कारण खतरा आज कई गुना बढ़ चुका है।
Date:18-02-19
Strategic Challenge
Respond in kind to Pakistan’s hybrid warfare, protect Kashmiri students at home
TOI Editorials
Following the Pulwama terror attack, Washington has supported India’s right to self-defence against cross-border terrorism emanating from Pakistan. Those hoping for instant retribution, however, will need to be patient and remember there is no magic key here. Only sustained, strategic pressure on Pakistan can work. Even if, let us say, a strike on terror facilities in Pakistan should go through successfully, very likely they will already have been evacuated by now, and can always be rebuilt later. What’s needed to alter Pakistan’s fundamental strategic calculus is a larger, more comprehensive, hybrid and long-term strategy – comparable to the strategy of hybrid warfare Pakistan deploys against India.
Prime Minister Narendra Modi has given the armed forces freedom to retaliate at a time and place of their own choosing. Matters should be left at that, while India should work on complementary diplomatic and economic instruments that raise the cost to Pakistan for offering safe haven and assistance to terror groups. MEA should set up a permanent department whose job is to lobby foreign governments and missions offering evidence of Pakistan’s complicity in terror.
Indian agencies are preparing a dossier for global financial watchdog FATF where it will seek the blacklisting of Pakistan, a good step in this direction. Pakistan’s dire financial straits should be leveraged. India has pulled Pakistan’s MFN status, but that in itself won’t matter much as India-Pakistan trade was already limited. New Delhi could impose sanctions which designate Pakistan as a terror state and force companies and businesses to choose between Pakistan and India’s larger market. The same logic should be applied to China as a whole, as the country is Pakistan’s strategic patron and mentor. The ‘Wuhan spirit’ cannot, after all, be exclusively a brown man’s burden – China must do some of the heavy lifting as well.
Finally, given that the suicide bomber attacking the CRPF convoy was a local, the internal dimensions of the Kashmir crisis must also be addressed. There is widespread alienation as well as jihadi intimidation in Kashmir, buttressed by a radical narrative online. This should be countered by an equally strong narrative that’s staunchly secular, while Kashmiri students looking for education and safe spaces outside the state should be protected rather than threatened or beaten up in supposed retaliation for the CRPF killings. Overall, policy must no longer be kneejerk and react only to immediate provocations, but rather proactive, sustained and well coordinated among internal and external dimensions.
Date:17-02-19
India’s problem is poverty, not economic inequality
Amit Verma
Steven Pinker, in his book Enlightenment Now, relates an old Russian joke about two peasants named Boris and Igor. They are both poor. Boris has a goat. Igor does not. One day, Igor is granted a wish by a visiting fairy. What will he wish for? “I wish,” he says, “that Boris’s goat should die.” The joke ends there, revealing as much about human nature as about economics. Consider the three things that happen if the fairy grants the wish. One, Boris becomes poorer. Two, Igor stays poor. Three, inequality reduces. Is any of them a good outcome? I feel exasperated when I hear intellectuals and columnists talking about economic inequality. It is my contention that India’s problem is poverty — and that poverty and inequality are two very different things that often do not coincide.
To illustrate this, I sometimes ask this question: In which of the following countries would you rather be poor: US or Bangladesh? The obvious answer is US, where the poor are much better off than the poor of Bangladesh. And yet, while Bangladesh has greater poverty, the US has higher inequality. Indeed, take a look at the countries of the world measured by the Gini Index, which is that standard metric used to measure inequality, and you will find that US, Hong Kong, Singapore and the United Kingdom all have greater inequality than Bangladesh, Liberia,Pakistan and Sierra Leone, which are much poorer. And yet, while the poor of Bangladesh would love to migrate to unequal US, I don’t hear of too many people wishing to go in the opposite direction.
Indeed, people vote with their feet when it comes to choosing between poverty and inequality. All of human history is a story of migration from rural areas to cities — which have greater inequality. If poverty and inequality are so different, why do people conflate the two? A key reason is that we tend to think of the world in zero-sum ways. For someone to win, someone else must lose. If the rich get richer, the poor must be getting poorer, and the presence of poverty must be proof of inequality. But that’s not how the world works. The pie is not fixed. Economic growth is a positive-sum game and leads to an expansion of the pie, and everybody benefits. In absolute terms, the rich get richer, and so do the poor, often enough to come out of poverty. And so, in any growing economy, as poverty reduces, inequality tends to increase. (This is counter-intuitive, I know, so used are we to zero-sum thinking.) This is exactly what has happened in India since we liberalised parts of our economy in 1991.
Most people who complain about inequality in India are using the wrong word, and are really worried about poverty. Put a millionaire in a room with a billionaire, and no one will complain about the inequality in that room. But put a starving beggar in there, and the situation is morally objectionable. It is the poverty that makes it a problem, not the inequality. You might think that this is just semantics, but words matter. Poverty and inequality are different phenomena with opposite solutions. You can solve inequality by making everyone equally poor. Or you could solve it by redistributing from the rich to the poor, as if the pie was fixed. The problem with this, as any economist will tell you, is that there is a trade-off between redistribution and growth. All redistribution comes at the cost of growing the pie — and only growth can solve the problem of poverty in a country like ours.
It has been estimated that in India, for every 1% rise in GDP, two million people come out of poverty. That is a stunning statistic. When millions of Indians don’t have enough money to eat properly or sleep with a roof over their heads, it is our moral imperative to help them rise out of poverty. The policies that will make this possible — allowing free markets, incentivising investment and job creation, removing state oppression — are likely to lead to greater inequality. So what? It is more urgent to make sure that every Indian has enough to fulfil his basic needs — what the philosopher Harry-Frankfurt in his fine book On Inequality, called the Doctrine of Sufficiency. The elite in their air-conditioned drawing rooms, and those who live in rich countries, can follow the fashions of the West and talk compassionately about inequality. India does not have that luxury.
Date:17-02-19
विदेश नीति की अग्नि-परीक्षा
डॉ. दिलीप चौबे
देश की जनता प्रधानमंत्री मोदी से यह पूछ रही है कि पूरी दुनिया का कई बार चक्कर काटने के बाद आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मोर्चे पर भारत को क्या हासिल हुआ? भारत को अपने कूटनीतिक प्रयासों से पाकिस्तान को अलग-थलग करने और उसे आतंकवादियों को संरक्षण और प्रोत्साहन देने से रोकने में कितनी सफलता मिली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में अपनी सक्रिय विदेश नीति की उपलब्धियों और कमियों को आंकने का एक दुखद अवसर मिला है। पुलवामा आतंकी हमले में सीआरपीएफ के चवालीस जवानों के शहीद होने के बाद देश में उपजे दुख और आक्रोश के बीच देश की जनता प्रधानमंत्री मोदी से यह पूछ रही है कि पूरी दुनिया का कई बार चक्कर काटने के बाद आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मोर्चे पर भारत को क्या हासिल हुआ? भारत को अपने कूटनीतिक प्रयासों से पाकिस्तान को अलग-थलग करने और उसे आतंकवादियों को संरक्षण और प्रोत्साहन देने से रोकने में कितनी सफलता मिली। ये दोनों सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और वहां की सेना से नियंत्रित होने वाले जेहादी आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद पहले भी भारतीय सैन्य प्रतिष्ठानों पर हमला कर चुका है। पुलवामा हमले के बाद दुनिया भर के नेताओं ने शोक संदेश भेजे, लेकिन यह रस्म अदायगी तो पहले भी होती रही है। अब देखना यह है कि यदि भारत पाकिस्तान के खिलाफ कोई जवाबी कार्रवाई करता है तो उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से कितना सहयोग और समर्थन मिलेगा।
पाकिस्तान ने लंबी चुप्पी के बाद पुलवामा हमले की निंदा करते हुए भारत के इस आरोप को खारिज कर दिया है कि इस हमले में इस्लामाबाद का हाथ है। हांलाकि भारत के पास पाकिस्तान के विरुद्ध पुख्ता प्रमाण हैं। गौर करने वाली बात यह है कि पाकिस्तान की धरती पर पैदा हुआ आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है। इस संगठन का सरगना आतंकी मसूद अजहर है। उसने 2014 में भारत के विरुद्ध जेहाद का ऐलान किया था। इसी मंसूबे के तहत उसने सितम्बर 2016 में उरी के सैन्य प्रतिष्ठान में हमला कराया था जिसमें 19 जवान शहीद हो गये थे। कहा जा रहा है कि पिछले साल अक्टूबर में उसका भतीजा उस्मान हैदर त्राल में सेना के साथ मुठभेड़ में मारा गया था। तब से वह अपने भतीजे की मौत का बदला लेने के लिए कश्मीर में बड़ा आतंकी वारदात करने का रणनीति बना रहा था। आखिर पाकिस्तान किस मुंह से हमले की जांच की मांग कर रहा है। जबकि फिदायीन हमला करने वाला आतंकी आदिल अहमद डार का वीडियो जैश-ए-मोहम्मद ने ही जारी किया है। इस वीडियो में डार ने खुद को जैश का सदस्य बताते हुए कहा है कि हिंदुस्तान के लोगो गौर से सुनो.. मुझ जैसे अभी तमाम तुम्हारी तबाही के लिए तैयार बैठे हैं। इस वीडियो के बाद पाकिस्तान को और किस तरह के प्रमाण देने की क्या जरूरत रह जाती है।नयी दिल्ली चाहता है कि पाकिस्तान जैश समेत अन्य सभी आतंकी संगठनों को समर्थन देना पूरी तरह से बंद करे।
इसके लिए वह कुटनीतिक स्तर पर इस्लामाद के विरुद्ध विश्व समुदाय को लामबंद करने की कोशिश कर रहा है। उसे इस दिशा में बड़ी सफलता तब मिली जब अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार जॉन बोल्टन ने अपने भारतीय समकक्ष अजीत डोभाल से फोन पर अपनी संवेदना जतायी। उन्होंने सीमा पार आतंकवाद के विरुद्ध भारत के आत्मरक्षा के अधिकार का समर्थन किया और हमले के दोषियों को सजा दिलाने के लिए भारत की हर तरह से मद्द करने की पेशकश की, लेकिन भारत के असली चुनौती चीन है जो कूटनीतिक और सैनिक दोनों स्तरों पर पाकिस्तान का समर्थन करता है। भारत ने पुलवामा हमले के बाद विश्व समुदाय से यह अपील की है कि वह संयुक्त राष्ट्र द्वारा मसूद अजहर को नियंत्रण आतंकवादी घोषित करने के प्रस्ताव का समर्थन करे। जाहिर है भारत का इशारा चीन की ओर है क्योंकि पुलवामा हमले के बाद चीन ने भारत की इस अपील का समर्थन करने से इनकार कर दिया है। आने वाले दिनों में भारतीय कूटनीति की यह अग्नि परीक्षा होने वाली है कि वह चीन के ऊपर यह दवाब बनाने में कितना सफल हो पाता है कि वह अजहर को नियंत्रणआतंकवादी घोषित करने की राह में अपना वीटो पावर का इस्तेमाल न करे। अब इस बात पर सबकी नजर है कि भारत किस तरह की जवाबी कार्रवाई करता है। उरी के बाद भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक की थी, लेकिन अब ऐसी कार्रवाई दोहराई नहीं जा सकती। भारत की प्रतिक्रिया क्या हो, इस पर भी उलझाव आ गया है कि देश आम चुनाव में जाने वाला है। इसके मद्देनजर मोदी पर कार्रवाई करने का दवाब भी है, लेकिन किसी बड़ी सैनिक कार्रवाई को लेकर उनके ऊपर बंधन भी है।
Date:16-02-19
दिल्ली का दबंग कौन
संपादकीय
सरकार और दिल्ली सरकार के बीच अधिकार क्षेत्र को लेकर चल रही लड़ाई पर सुप्रीम कोर्ट का एक और फैसला आ गया। इसके मुताबिक भ्रष्टाचार निवारक ब्यूरो और जांच आयोग गठित करने का अधिकार केंद्र के पास ही रहेगा, जबकि दिल्ली सरकार के पास लोक अभियोजकों की नियुक्ति जैसे कुछ अधिकार रहेंगे। फैसले के बावजूद एक ऐसा मसला है, जो अब भी अनसुलझा रह गया, क्योंकि खुद सुप्रीम कोर्ट के जजों में मतभेद पैदा हो गया। मसला अधिकारियों की तैनाती और स्थानांतरण से जुड़े अधिकार का है। अब सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच इस मसले पर विचार करेगी। यानी उसका फैसला आने तक यह अधिकार केंद्र के पास ही रहेगा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद भी यह विवाद अभी थमने वाला नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के पास यह मसला आगे भी लंबित रहेगा। पर इसका दूसरा पहलू इस पर होने वाली राजनीति है। फैसले पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जिस प्रकार की प्रतिक्रिया दी है, वह सुखद नहीं है। उन्होंने फैसले को संविधान और लोकतंत्र के खिलाफ बताया। इसके विपरीत भाजपा ने उन्हें अराजकतावादी बता दिया। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की प्रतिक्रिया इस मामले में परिपक्वतापूर्ण रही, जिनके कार्यकाल में ऐसी विकट समस्या सामने नहीं आई। चूंकि केंद्र और राज्यों के अधिकार स्पष्ट तौर पर परिभाषित हैं, इसलिए विवाद उठने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है।
इसके बावजूद कोई विवाद पैदा होता है, तो उसे आपसी तालमेल से सुलझा जाए, ताकि जनता में नकारात्मक संदेश न जाए। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस टकराव के कारण कई तरह के कार्य प्रभावित हो रहे हैं। अगर राजनीतिक कारणों से ही ऐसा किया जा रहा है, तो भी इससे अंतत: जनता का ही नुकसान होगा। अगर यह अपनी विफलता छिपाने की ही राजनीति है, तो यह ज्यादा कारगर होने वाली नहीं है। कारण यह है कि जनता के सामने पूर्ववर्ती सरकारों का दृष्टांत मौजूद है। एक सरकार के बदलने से अगर यह स्थिति पैदा होती है, तो अंतत: राजनीति की ही विफलता मानी जाएगी। यहां यह ध्यान रखना होगा कि दिल्ली देश की राजधानी है, जहां राष्ट्रीय संस्थाओं के कार्यालय से लेकर विभिन्न राज्यों के निवासी रहते हैं। इसलिए दिल्ली की वैधानिक स्थिति के बारे कोई भी मांग या प्रावधान करने से पहले इस महानगर की प्रकृति के बारे में ध्यान रखना होगा, अन्यथा इसकी कीमत संपूर्ण राष्ट्र-समाज को चुकानी पड़ सकती है।
Date:16-02-19
अवरुद्ध सूचनाएं
संपादकीय
सूचना का अधिकार कानून बना था तो उम्मीद जगी थी कि इससे भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी, सरकारी कर्मचारियों की जवाबदेही सुनिश्चित होगी, वे अपने कर्तव्यों के प्रति सावधान होंगे। शुरू में कुछ सालों तक ऐसा देखा भी गया। मगर अब उस कानून का असर खत्म-सा हो गया लगता है। इसकी एक वजह यह भी है कि केंद्र और राज्यों में सूचना आयुक्तों के पद समय से भरे नहीं जाते। कई जगह इन पदों को भरने में जानबूझ कर लापरवाही बरती जाती है। इसी के मद्देनजर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा है कि सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में इतनी देर क्यों होती है? क्यों इस पद पर सिर्फ नौकरशाहों की नियुक्ति की जाती है, इसके लिए दूसरे क्षेत्रों के लोगों को क्यों नहीं चुना जाता! अदालत ने सुझाव दिया है कि सूचना आयुक्तों की नियुक्ति निर्वाचन आयुक्त की तरह होनी चाहिए। किसी सूचना आयुक्त के अवकाश ग्रहण करने से दो महीने पहले ही उसकी जगह दूसरे व्यक्ति को तैनात करने की प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए। इसके लिए खोज समिति को तत्पर रहना चाहिए।
हालत यह है कि केंद्र में मुख्य सूचना आयुक्त सहित ग्यारह सूचना आयुक्त होने चाहिए, पर कई सालों से यह संख्या पूरी नहीं हो पाती। यही स्थिति राज्यों में है। अवकाश प्राप्त सूचना आयुक्त की जगह नई नियुक्ति की प्रक्रिया लंबे समय तक रुकी रहती है। इसका नतीजा यह हुआ है कि करीब साढ़े तेईस हजार शिकायतें निपटारे का इंतजार कर रही हैं। सूचना आयुक्त का काम सूचनाधिकार संबंधी शिकायतों का निपटारा करना होता है। क्योंकि इस कानून के तहत देश का कोई भी नागरिक किसी भी कामकाज से जुड़ी कोई जानकारी मांग सकता है और उसे उपलब्ध कराना संबंधित विभाग की जिम्मेदारी है। अगर वह मांगी गई सूचना उपलब्ध कराने में किसी प्रकार की टाल-मटोल करता है, तो उसके खिलाफ दंड के प्रावधान हैं। जब यह कानून बना था तो शुरुआती दिनों में इसके चलते अनेक बड़े खुलासे हुए। इससे सरकारी कर्मचारियों में अपने कामकाज के प्रति कुछ मुस्तैदी भी देखी गई, पर उनमें हमेशा इस कानून का भय बना रहता था, इसलिए जल्दी ही सूचनाएं उपलब्ध कराने को लेकर वे कोई न कोई गली निकालने लगे। सरकारें भी इस कानून के चलते असहज देखी गईं। जो लोग भ्रष्ट तरीकों से अपना काम कराते थे, उनके हाथ बंध गए। यही वजह है कि कई राज्यों में सूचनाधिकार कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले भी हुए।
इस तरह सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में जानबूझ कर की जाने वाली देरी की कुछ वजहें समझना मुश्किल नहीं है। यह अकारण नहीं है कि पिछले साढ़े चार-पांच सालों में सूचनाधिकार के तहत मांगी और प्राप्त की जाने वाली सूचनाओं की दर काफी कम हो गई है। अब तो कई बार स्थिति यह भी देखी जाती है कि इस कानून के तहत मांगी गई जानकारी को संबंधित विभाग यह कह कर ठुकरा देते हैं कि गोपनीयता के चलते वह जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा सकती। या वे लंबे समय तक उस आवेदन को रोक कर रखते हैं, जबकि नियम के मुताबित निर्धारित समय सीमा के भीतर मांगी गई सूचना उपलब्ध कराना उनकी जिम्मेदारी है। कहना न होगा, इस तरह सूचना के अधिकार कानून को एक तरह से अप्रभावी बनाने का प्रयास होता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती से उम्मीद जगी है कि यह कानून एक बार फिर से अपने प्रभावी रूप में दिखेगा।
Date:16-02-19
चीन का दोहरापन
संपादकीय
पुलवामा में गुरुवार को हुए अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले ने भारत को तो हिलाया ही है, दुनिया के कई देश भी इस हमले से सकते में हैं। अब यह किसी से छिपा नहीं रह गया है कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान है, भले पाकिस्तान सरकार इसका खंडन कर रही हो। पुलवामा के इस हमले की जिम्मेदारी जैश-ए-मोहम्मद ने ली है और जैश का सरगना मौलाना मसूद अजहर पाकिस्तान में ही रहता है। इस आतंकी संगठन का संचालन परदे के पीछे से पाकिस्तान सरकार और आइएसआइ ही करती है। दुनिया के ज्यादातर देश पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कर चुके हैं। यह सब जानते-बूझते भी चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा है और उसकी आतंकवादी नीतियों और गतिविधियों को खुल कर समर्थन दे रहा है। संकट की इस घड़ी में भारत को एक बड़ा झटका यह लगा है कि चीन ने एक बार फिर मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कराने से साफ इंकार कर दिया है। हैरान करने वाली बात यह है कि एक तरफ तो चीन भारत के साथ दोस्ती का दम भरता है और दूसरी ओर भारत के कट्टर दुश्मन मसूद अजहर को वह आतंकवादी मानने को तैयार नहीं है। हालांकि पुलवामा हमले की चीन ने निंदा की है, लेकिन यह उसका ढोंग भर है।
भले चीन वैश्विक मंचों से कहता रहे कि वह आतंकवाद के खिलाफ और भारत के साथ है, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। मसूद अजहर के बचाव में चीन का उतरना कोई नई बात नहीं है। जब-जब सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर का मामला गया, परिषद के सदस्य देश भारत के साथ खड़े नजर आए और इस पक्ष में रहे कि मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किया जाना चाहिए। लेकिन ऐन वक्त पर चीन ने ऐसे अड़ंगे लगाए कि भारत के प्रयास विफल होते गए। सबसे पहले अप्रैल, 2016 में चीन ने सुरक्षा परिषद की प्रतिबंधित आतंकियों की सूची में मसूद अजहर का नाम डालने की भारत की कोशिश को तकनीकी आधार पर रुकवा दिया था। फिर उसी साल अक्तूबर में मसूद को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने की भारत की अपील पर बाधा पैदा की। तीसरी बार फरवरी, 2017 में मसूद अजहर पर पाबंदी के अमेरिका के प्रयास को वीटो कर दिया। जाहिर है, उसके ये सारे प्रयास भारत विरोधी हैं।
भारत लंबे समय से इस कोशिश में लगा है कि मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किया जाए ताकि इसके जरिए उस पर शिकंजा कसा जा सके और उसके भारत प्रत्यर्पण के लिए पाकिस्तान पर दबाव बनाया जा सके। मसूद अजहर ने 2001 में भारत की संसद पर हमले को अंजाम दिया था, उसके बाद पठानकोट और उड़ी हमले की साजिश भी उसी ने रची और उसके संगठन जैश ने ही इन हमलों को अंजाम दिया। वह पाक अधिकृत कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद सहित पाकिस्तान के शहरों में भारत के खिलाफ रैलियां निकालता रहा है और जहर उगलता रहा है। यह वही अजहर मसूद है, जिसे 1994 में श्रीनगर में गिरफ्तार किया गया था और 1999 में कंधार अपहरण कांड के बाद विमान यात्रियों की सुरक्षित रिहाई के बदले उसे भारत सरकार ने छोड़ा था। यह सब जानते हुए भी चीन अगर मसूद अजहर के साथ खड़ा है और उसे बचा रहा है तो ऐसे में भारत के साथ उसकी दोस्ती संदेह के घेरे में आ जाती है।
Date:16-02-19
Re-Imagining Delhi
Centre and Delhi government face-off must be addressed through a new idea of statehood.
Editorial
The battle over the legislative and executive control of the National Capital Territory of Delhi remains unresolved. The split verdict by a two-judge bench comprising Justices A K Sikri and Ashok Bhushan has, in essence, affirmed the power of the Union government (through the office of the lieutenant governor) over the elected state government on crucial matters: The Centre remains the cadre-controlling authority in Delhi and the Delhi Anti Corruption Branch cannot investigate central government officers. The two judges, however, differed on whether the state government can manage cadre below the rank of joint secretary and the matter will now be referred to a larger bench. Not surprisingly, Delhi Chief Minister Arvind Kejriwal expressed his displeasure at the verdict while the BJP celebrated it.
Part of the blame for the conflict and theatrics over governance in the capital lies with the current cast of political actors. The AAP has certainly been more shrill than its predecessors, choosing spectacle and agitation over quiet and patient negotiation. Equally, the Centre, through successive LGs and the home ministry, has tried to hobble a government with an impressive mandate using Delhi’s constitutional peculiarity — it’s legally a Union Territory with an elected government whose powers are circumscribed. But it is only through a mature politics that the root cause of the over-politicisation of governance, playing at least since 2015, must be addressed. The courts are limited by the letter of the law, by the contours of the distribution of powers laid down in the Constitution and previous judgments. What Delhi needs is a bold re-imagination of the skewed federal contract that currently determines its executive and legislative boundaries.
Since Independence, the National Capital Region has gone from being just the seat of power to a vibrant, growing city, its diversity enriched by waves of migration, its economy by industry and services. The tussle between the Centre and state, between the people and the law, can only be addressed through a new idea of statehood, one which recognises that sovereignty ultimately derives from the people. Delhi’s exceptionalism, the power imbalance in favour of the Centre, emerges from the needs of a national capital — the seat of government and power, the nerve centre of administration. A mature discussion between stakeholders that looks beyond short-term political gains holds the potential to resolve the embedded contradiction. Both the current Union and Delhi governments enjoy impressive mandates. Unfortunately, instead of using their opportunity to bring in a much-needed redefinition of the division of powers, they have passed the buck to the courts.