18-01-2020 (Important News Clippings)
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प्रदर्शन में ज्यादा औरतों के आने का औचित्य और अर्थ
संपादकीय
शाहीन बाग की औरतों का प्रदर्शन जायज हो या नाजायज। उन्हें इसके लिए पैसे दिए जा रहे हैं या फिर वह खुद, बिना किसी के बहकावे में आए विरोध कर रहीं हों। सभी अफवाहों और हकीकतों के बीच इस पूरे एपिसोड से जो ट्रेंड सामने आया है वह है औरतों का घर की दहलीज से बाहर आकर प्रदर्शनों में भाग लेने का। बात सिर्फ शाहीन बाग में सीएए के खिलाफ जुटी हुई महिलाओं की नहीं है। ऐसा ही एक प्रदर्शन पिछले साल की शुरुआत में सबरीमाला में देखा गया था। जब मंदिर में प्रवेश के हक के लिए महिलाएं सड़कों पर उतरीं थीं। देश के सबसे ज्यादा साक्षर लोगों वाले राज्य केरल में महिलाओं ने रैलियां निकालीं थी। इन रैलियों और आंदोलनों से समझना होगा कि चाहे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हो या जेएनयू दोनों ही आंदोलनकारी भीड़ में महिलाओं की संख्या अब पहले से कहीं ज्यादा है। यहां पढ़नेवाली छात्राएं हॉस्टल का ताला तोड़कर विरोध में शामिल हो रही हैं। यह उनके शिक्षकों के मुताबिक भले गैरकानूनी हो लेकिन इन प्रदर्शनों में महिलाओं की मौजूदगी राजनीति में उनके लिए नई इबारत लिख रही है। महिलाओं का घर की दहलीज से बाहर नौकरी के लिए निकलना आज आम है, पर यूं नारेबाजी करतीं, पुलिस से भिड़तीं, डंडे खातीं और खून से लथपथ हो विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा बनते पहले कब देखा था? कब महिलाएं किसी आंदोलन का चेहरा बनीं थीं? आइशी घोष-शेहला राशिद जैसे नाम इक्का-दुक्का ही सुनाई देते हैं। आश्चर्य होगा यह जानकर कि किसी भीड़ का हिस्सा न बनकर एकला चलो की तर्ज पर प्रदर्शन करने को लेकर गिरफ्तार हुई महिलाओं की संख्या अचानक पुरुषों से दोगुनी हो गई है। ये वह लड़कियां हैं जिन्हें अपनी फेसबुक पोस्ट या किसी चौराहे पर अकेले पोस्टर पकड़कर विरोध करते देखा गया है। यानी अब वह सिर्फ भीड़ का हिस्सा या पुरुषों की आड़ लेकर चलनेवाली नहीं है। महिलाएं अब बोलने लगी हैं, उनका अपना मत है जो काफी मजबूत और मुखर है। वह सोचती और समझती हैं कि उनके लिए क्या सही और क्या गलत है। और इस सबके इतर वह अपने हक को लेकर अब प्रदर्शन करने से हिचकती नहीं। ये देश और दुनिया में एंग्री यंग औरतों की नई पीढ़ी है, जिसे चुप कराना मुश्किल है।
पाक-परस्त चीन
संपादकीय
अमेरिका में परमाणु हथियार संबंधी तकनीक अवैध तरीके से खरीदने के आरोप में पांच पाकिस्तानी नागरिकों की गिरफ्तारी खतरे की नई घंटी है। इन पाकिस्तानियों ने अमेरिका में गुपचुप रूप से वे उत्पाद खरीदकर पाकिस्तान भेजे, जो अमेरिका के सुरक्षा हितों के साथ-साथ दक्षिण एशिया के शक्ति संतुलन के लिए भी खतरा बन सकते हैं। चोरी की तकनीक से अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाने में माहिर पाकिस्तान की इस नई हरकत से भारत और अमेरिका के साथ-साथ विश्व समुदाय को भी चेत जाना चाहिए। वास्तव में सबसे अधिक चेतना चाहिए चीन को, क्योंकि वही है जो पाकिस्तान का अंध-समर्थन करने में लगा हुआ है। ऐसा करके वह पाकिस्तान को और अधिक गैरजिम्मेदार राष्ट्र बनाने का ही काम कर रहा है। इसी के साथ वह खुद भी बदनाम हो रहा है। समझना कठिन है कि हर मोर्चे पर गैरजिम्मेदारी का परिचय देने और साथ ही किस्म-किस्म के आतंकी गुटों का समर्थन करने वाले पाकिस्तान की पैरवी करने से चीन को हासिल क्या हो रहा है? यदि चीनी नेतृत्व यह समझ रहा है कि आतंक समर्थक पाकिस्तान को शह देकर वह भारत की राह रोकने में कामयाब हो सकता है तो यह उसकी भूल ही है।
चीन को यह आभास हो तो बेहतर कि उसकी पाकिस्तानपरस्ती उसकी अंतरराष्ट्रीय छवि को दागदार करने का ही काम कर रही है। उसकी इस अंध पाकिस्तानपरस्ती से विश्व समुदाय न केवल अवगत हो रहा है, बल्कि उसे शर्मिंदा भी कर रहा है। चीन को यह समझना होगा कि आतंकी सरगना मसूद अजहर की ढाल बनने और फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर मसला उठाने से उसे कुछ हासिल हुआ तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय की झिड़की। चीन एक ओर दुनिया की नई महाशक्ति बनने को आतुर है और दूसरी ओर यह देखने से इनकार कर रहा है कि उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे बेलगाम देशों का संरक्षक बनने के कारण उसे विश्व शांति के लिए खतरा माना जाने लगा है। यदि चीन सचमुच पाकिस्तान का हितैषी है तो फिर क्या कारण है कि उसके तमाम समर्थन-संरक्षण के बाद भी वह नाकामी की ओर बढ़ रहा है? माना कि अपनी राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों के प्रति पाकिस्तान की आंखें बंद हैं, लेकिन क्या चीन को भी भले-बुरे की समझ नहीं है? भारत को विश्व समुदाय के समक्ष यह रेखांकित करने के लिए सक्रिय होना चाहिए कि चीन की सरपरस्ती पाकिस्तान को और अधिक बिगड़ैल देश में तब्दील कर रही है। इसी के साथ उसे चीन के समक्ष भी यह स्पष्ट करना चाहिए कि कश्मीर के मामले में उसका रवैया न तो वुहान की भावना के अनुकूल है और न ही मामल्लापुरम में कायम हुई समझ-बूझ के।
Date:18-01-20
सीएए पर तार्किक बहस से इनकार
बैजयंत जय पांडा , (लेखक पूर्व सांसद एवं भाजपा के उपाध्यक्ष हैं)
बीते कुछ सप्ताह से नागरिकता संशोधन कानून को लेकर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का दौर जारी है। देश यह देख रहा है कि राजनीतिक दल, एक्टिविस्ट, छात्र और आम लोग नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन अथवा विरोध में सड़कों पर उतर रहे हैं। संसद के दोनों सदनों से पारित कानून को लेकर इस तरह की गतिविधियों की जरूरत नहीं पड़ती, अगर इस मसले पर तार्किक ढंग से बहस की जाती। जो लोग इस कानून के विरोध में हैं, वे इस कानून को लाने के सरकार के उद्देश्य को समझने के लिए तैयार नहीं दिखते और इसीलिए इस मसले पर सार्थक बहस की जरूरत है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नागरिकता कानून के अधिकतर विरोधी पूर्वाग्रह से भरे हुए दिखते हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में गए बगैर कुछ लोग यह सवाल उछाल रहे हैं कि आखिर इस कानून में मुसलमानों को शामिल क्यों नहीं किया गया? इसका साधारण-सा जवाब यही है कि नागरिकता संशोधन कानून के रूप में की गई मानवीय पहल पड़ोसी देशों के प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को राहत देने के लिए की गई है। ये दरअसल वे पड़ोसी देश हैं, जहां इस्लाम राजकीय धर्म है और जहां की आबादी का ढांचा भारत जैसा नहीं है। यह ठीक उसी तरह की पहल है, जिसका समर्थन अतीत में मनमोहन सिंह और अन्य अनेक नेताओं ने किया, लेकिन राजनीतिक कारणों से अब वे पीछे हट रहे हैं।
यह महत्वपूर्ण है कि नागरिकता कानून के विरोधी इस तरह का कानून बनाए जाने के पीछे के कारणों को समझें। इसी क्रम में उन्हें यह भी समझना होगा कि इस कानून के दायरे में पड़ोसी देशों के मुसलमानों को शामिल करना क्यों उचित नहीं होता? जिन तीन पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को इस कानून के दायरे में रखा गया है, वे न केवल मुस्लिम-बहुल हैं, बल्कि उन्हें संवैधानिक महत्ता भी हासिल है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि नागरिकता संशोधन कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो इन देशों के मुसलमानों को भारत की नागरिकता हासिल करने में आड़े आता हो। मोदी सरकार के कार्यकाल में ही इन देशों के करीब छह सौ मुसलमानों को भारत की नागरिकता प्रदान भले ही नागरिकता कानून के विरोधी यह मानते हों कि यह कानून पक्षपातपूर्ण है, लेकिन सच्चाई यही है कि किसी देश के ऐसे अल्पसंख्यकों को चिह्नित कर उन्हें राहत देना कोई असामान्य या अस्वाभाविक बात नहीं है, जो अपने देश में उत्पीड़न का शिकार हों। बतौर उदाहरण 2000 के दशक में जब इराक में सैकड़ों ईसाई प्रताड़ित होकर वहां से भागे, तो ओबामा प्रशासन ने उन्हें ऐसे समूह के रूप में माना, जो नरसंहार का शिकार हो सकता है और जिसका कुछ इसी तरह का मामला बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों का है। ये वे देश हैं, जहां एक उपासना पद्धति को अन्य उपासना पद्धतियों के मुकाबले श्रेष्ठता प्राप्त है। इस बहस में पड़ने का कोई मतलब नहीं कि आखिर कैसे माना जाए कि किसी का नरसंहार हो रहा है या फिर यह कैसे तय होगा कि कोई समुदाय अपनी धार्मिक आस्था के कारण उत्पीड़न का शिकार हो रहा है? उत्पीड़न चाहे धार्मिक आस्था के कारण हो रहा हो या फिर भाषा के कारण, लेकिन कोई भी उन रपटों से मुंह नहीं मोड़ सकता, जो यह बताती हैं कि इन तीन देशों में अल्पसंख्यक समुदाय गंभीर खतरे का सामना कर रहे हैं। वे जबरन धर्मांतरण के बाद जबरिया विवाह के भी शिकार हैं और अपहरण, हत्या सरीखी संगीन आपराधिक गतिविधियों का भी। इन देशों के अल्पसंख्यक हर स्तर पर बहुसंख्यकों की प्रताड़ना से इस हद तक दो-चार हैं कि उनकी आबादी घटती जा रही है। उनकी तेजी से घटती चूंकि ये सभी अल्पसंख्यक अविभाजित भारत का हिस्सा हैं, इसलिए नैतिक स्तर पर भारत की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वह उन्हें भीषण उत्पीड़न से बचाकर राहत दे। इसके लिए उसी रास्ते पर चला गया, जो गांधी, नेहरू, पटेल और अन्य महान नेताओं ने सुझाया था। इन सब नेताओं ने इन अल्पसंख्यकों को शरण देने की बात कही थी।विरोधी कुछ भी कहें, नागरिकता संशोधन कानून उन वैश्विक मापदंडों के अनुकूल है, जो यह रेखांकित करते हैं कि धार्मिक उत्पीड़न के शिकार शरणार्थी स्वाभाविक तौर पर उन लोगों के मुकाबले कहीं अधिक प्राथमिकता पाने के हकदार हैं, जो आर्थिक कारणों से किसी देश आते हैं। राजनीतिक और आर्थिक कारणों से होने वाले भेदभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती, लेकिन धार्मिक आधार पर होने वाले उत्पीड़न पर अधिक ध्यान देना ही होगा, क्योंकि यह सबसे खराब किस्म का उत्पीड़न होता है। इसी कारण अतीत में भारत ने उगांडा के शरणार्थियों की मदद की यह राहतकारी है कि हिंसा से भरे विरोध प्रदर्शन थम गए हैं, लेकिन यह देखना पीड़ाजनक रहा कि कई जगह कुछ प्रदर्शनकारियों ने आगजनी और तोड़फोड़ का सहारा लिया। कुछ जगह तो पुलिस पर हमले भी किए गए। पुलिस की ओर से तमाम सतर्कता बरते जाने के बाद भी कई लोग हताहत हुए। यह नहीं कहा जा सकता कि सभी विरोध प्रदर्शन हिंसक थे, लेकिन हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि कई जगहों पर अराजकता ऐसे हिंसक तत्वों की ओर से की गई, जिन्हें यही नहीं पता था कि वे किसलिए प्रदर्शन कर रहे हैं और मसला क्या है? यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि शरारती तत्वों ने उन्हें उकसाया। सुप्रीम कोर्ट ने इस हिंसा पर तत्काल हस्तक्षेप करने से इनकार करके सही किया। पुलिस की कार्रवाई पर भी उसने यही कहा कि पहले हिंसा रुकनी चाहिए।
किसी मसले पर न्यायसंगत बहस के लिए यह आवश्यक होता है कि दूसरा पक्ष भी तार्किक रवैया अपनाए, न कि अपनी ही रट लगाए रहे। विपक्षी राजनीतिक दलों को इस पर आत्मचिंतन करना चाहिए कि आखिर इस मसले पर खुद उनका रवैया क्या होता? अब जब नागरिकता कानून के समर्थन में भी प्रदर्शन हो रहे हैं, तब यह देखने को मिल रहा है कि उसके विरोधियों ने अपने विरोध के दायरे को बढ़ाते हुए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को भी लपेट लिया है। चूंकि विपक्ष के विरोध का आधार सरकार के इरादों को संदिग्ध समझने पर आधारित है, इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि सरकार लोगों तक अपनी बात पहुंचाए। अच्छी बात है कि यह काम शुरू हो गया है।
आम समझ से अलग
टी. एन. नाइनन
मोदी सरकार को अभी जो सबक सीखने हैं उनमें से एक यह भी है कि आर्थिक समस्याओं का हल आम समझ के प्रतिकूल भी हो सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जरूरी नहीं कि पहली नजर में जो आपको अच्छा लगे वही सही हो। जैसा कि हमने नोटबंदी के समय देखा, काले धन की समस्या का हल नकदी की जमाखोरी पर हल्लाबोल कर नहीं निकाला जा सका क्योंकि अधिकांश पुराने नोट रिजर्व बैंक के पास वापस आ गए। इसी तरह कर में कमी का हल अनिवार्य तौर पर कर दरों में इजाफा करना नहीं है। गौरतलब है कि वस्तु एवं सेवा कर के संदर्भ में थोड़े समय के लिए ही सही, यह हल सुझाया गया था। इसी तरह व्यापार घाटे का हल आयात प्रतिबंधित करना नहीं है। सन 1991 का अनुभव हमें दिखा चुका है कि व्यापक व्यापार घाटे का हल अर्थव्यवस्था को खोलना ही है, न कि संरक्षणवादी उपाय अपनाना। इसी प्रकार निर्यात को प्रोत्साहन देने का काम निर्यात सब्सिडी समाप्त करके अधिक बेहतर ढंग से किया जा सकता है, बजाय कि रुपये के बाहरी मूल्य को समायोजित करने के।
यदि हालिया अनुभवों को देखें तो लगता है कि ये अथवा ऐसे अन्य सबक सीखे नहीं गए हैं। ऐसे में औषधि कीमतों में बढ़ोतरी की प्रतिक्रिया स्वरूप कीमतों की अधिकतम सीमा तय कर दी गई। गत सितंबर में घरेलू बाजार में प्याज की कमी की प्रतिक्रिया स्वरूप निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जैसा कि डॉनल्ड ट्रंप की व्यापारिक नीतियों का विरोध करने वालों ने कहा भी था कि चीन से आने वाली वस्तुओं पर अतिरिक्त आयात शुल्क लागू करने से घरेलू आपूर्ति की लागत में इजाफा हुआ। जेपी मॉर्गन के अनुसार इससे एक परिवार के सालाना बजट में 1,000 डॉलर का बोझ पड़ा। भारत में भी किसी को ऐसी कवायद करनी चाहिए ताकि इस्पात आयात पर लगे अतिरिक्त शुल्क, टैरिफ बढ़ोतरी और देश को विनिर्माण केंद्र बनाने के लिए दी जाने वाली निर्यात सब्सिडी, कुछ वस्तुओं के आयात पर लगने वाले अतिरिक्त शुल्क आदि की लागत निकाली जा सके। इसके अलावा मलेशिया से पाम ऑयल के आयात पर लगे प्रतिबंध और तुर्की से पेट्रोलियम आयात पर रोक आदि की भी लागत निकाली जानी चाहिए।
इसके बाद जेफ बेजोस और एमेजॉन को लेकर हमारी प्रतिक्रिया में बेअदबी की झलक रही। विश्व व्यापार में एक फर्म के भीतर होने वाले कारोबार और वैश्विक आपूर्ति शृंखला का हिस्सा बनने के महत्त्व को देखते हुए बेजोस के 10 अरब डॉलर के अतिरिक्त निर्यात के वादे की सरकार को सराहना करनी चाहिए थी या कम से कम शांत रहना चाहिए था। परंतु इसके उलट सरकार का उत्तर मित्रतापूर्ण होने से कोसों दूर था। यकीनन इसमें इस तथ्य का भी योगदान होगा कि बेजोस एक समाचार पत्र के मालिक भी हैं जो मोदी सरकार का आलोचक है। इसकेअतिरिक्त छोटे व्यापारियों की लॉबी का दबाव भी होगा जिन्हें डर है कि वे भारी नकदी वाली एमेजॉन जैसी कंपनी का मुकाबला नहीं कर पाएंगे। ऐसी ही समस्याओं से निपटने के लिए प्रतिस्पर्धा आयोग का गठन किया गया था। हालांकि वह उस वक्त कदम नहीं उठाता जब उसे उठाना चाहिए। जियो का मामला हमारे सामने है। व्यापक बात यह है कि छोटे स्टोर मालिकों के पास यह क्षमता नहीं है कि वे व्यापक आपूर्ति शृंखला बना सकें। वे विनिर्माण आधार भी नहीं बना सकते और न ही गुणवत्तापूर्ण रोजगार दे सकते हैं। जाहिर है सरकार का रुख गलत था।
झारखंड इसका विशेष उदाहरण प्रस्तुत करता है जहां वस्त्र उद्योग में नियोक्ताओं को प्रति कर्मचारी प्रति माह 5,000 रुपये की सब्सिडी प्रदान की जाती है। यह देश में वस्त्र उद्योग में प्रतिस्पर्धा की कमी को दर्शाता है। ध्यान रहे कि श्रम की लागत को प्रतिस्पर्धा में कमी की सबसे अहम वजह नहीं माना जा सकता है क्योंकि चीन दुनिया का सबसे बड़ा वस्त्र निर्यातक है जबकि उसकी श्रम लागत काफी ज्यादा है। हालांकि उक्त सब्सिडी पर उद्योग जगत सकारात्मक दिख रहा है। परंतु इसे अच्छी खबर मानने में संदेह ही है। किसी भी उद्योग को यदि व्यापक प्रोत्साहन मिलेगा तो वह निवेश करेगा लेकिन करदाताओं के पैसे का इससे कहीं बेहतर उपयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए। बेहतरीन की तलाश में ऐसे तमाम शिथिल समझौते कर लिए जाते हैं जो दिक्कतदेह हो सकते हैं। ऐसे समझौतों से ही उच्च लागत वाली ऐसी अर्थव्यवस्था निर्मित हो जाती है जिसके साथ हम लंबे अरसे तक रहे और अभी हाल फिलहाल तक हम जिससे दूरी बनाने में लगे थे।
खतरे का तापमान
संपादकीय
जलवायु में बढ़ते तापमान को लेकर चिंताएं नई नहीं हैं। इसके नतीजे में वैश्विक स्तर पर कितनी बड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है, यह भी दुनिया के सभी देशों को पता है। इससे संबंधित व्यापक अध्ययन और उनके निष्कर्ष अक्सर ही सामने आते रहते हैं। विडंबना यह है कि यह सब कुछ सामने होने के बावजूद अब तक इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाहिर की जाने वाली चिंताएं सम्मेलनों से आगे किसी ठोस पहलकदमी तक नहीं पहुंच सकी हैं। इसी क्रम में संयुक्त राष्ट्र ने बुधवार को बढ़ते वैश्विक तापमान पर एक बार फिर चिंता जताई और कहा कि पिछला दशक सबसे ज्यादा गरम रहा। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र ने यह चेतावनी भी जारी की कि वर्ष 2020 और उसके बाद आने वाले सालों में उच्च तापमान के कारण मौसम कभी अत्यधिक ठंडा और कभी बेहद गरम रह सकता है। ये अनुमान संयुक्त राष्ट्र के विश्व मौसम संगठन की ओर से जाहिर किए गए हैं। हालांकि इस तरह की आशंकाएं पहले भी जताई जाती रही हैं, लेकिन दुनिया भर में शायद ही कभी इनके मद्देनजर ठोस कार्ययोजना पर काम किया गया।
यह बेवजह नहीं है कि आज वैश्विक स्तर पर बढ़ता तापमान इस हालत में आ गया है कि न केवल जल, जंगल, हवा और धरती के पर्यावरण में भारी उथल-पुथल दर्ज की जा रही है, बल्कि मानव जीवन के सामने भी कई तरह की चुनौतियां खड़ी हो रही हैं। यों विश्व स्तर पर पर्यावरण को लेकर जिस तरह के संकट खड़े हो रहे हैं, उसके लिए मुख्य रूप से मानव ही जिम्मेदार है और इस मसले पर होने वाले वैश्विक अध्ययनों में भी यह बात जाहिर होती रही है। मुश्किल यह है कि पर्यावरण संकट और चुनौतियों का सामना करने के मकसद से समय-समय पर होने वाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में दुनिया के सक्षम और विकसित देश चिंता तो खूब जताते हैं, लेकिन उसमें अपनी भूमिका का सवाल आने पर आरोप तीसरी दुनिया या विकासशील देशों पर पर मढ़ने लगते हैं। जबकि यह सवाल लंबे समय से बना हुआ है कि जब तक कार्बन उत्सर्जन के मामले में विश्व के तमाम देश एक ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचेंगे, इस पर रोक या इसके उपयोग को कम करने के लिए एक व्यापक कार्ययोजना का निर्माण और उस पर ईमानदारी से अमल नहीं होगा, तब तक पर्यावरण पर संकट से लड़ाई शायद ही कोई परिणाम दे।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के विश्व मौसम विज्ञान संगठन की एक रिपंर्ट में बताया गया था कि कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन में काफी बढ़ोतरी की वजह से समुद्र के जलस्तर में भी वृद्धि दर्ज की गई है। इसके अलावा, अंटार्कटिक और ग्रीनलैंड में बर्फ की परतों के पिघलने के क्रम में समुद्र के जलस्तर में जिस रफ्तार से वृद्धि होगी, क्या उससे होने वाली तबाही का अंदाजा हम लगा पा रहे हैं? एक ओर संयुक्त राष्ट्र का विश्व मौसम विज्ञान संगठन दुनिया के देशों को यह सलाह देता है कि कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए तत्काल तेजी से कोशिश की जानी चाहिए, दूसरी ओर अमेरिका सहित ज्यादातर विकसित देश कार्बन उत्सर्जन में अपनी बड़ी भागीदारी के बावजूद इस तरह की सलाहों को नजरअंदाज करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इस समस्या में विकासशील या तीसरी दुनिया के देशों को भी अपनी अहम भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन क्या विकसित देशों के इस तरह के रवैये के साथ वैश्विक स्तर पर बढ़ते तापमान की चुनौतियों से निपटा जा सकता है?
भारत की अहम भूमिका
संपादकीय
ईरान और अमेरिका के बीच जारी चरम तनाव के बीच भारत की भूमिका काफी महवपूर्ण हो गई है। यह इस बात से भी विश्वसनीय हो जाता है क्योंकि खुद ईरान का मानना है कि उनके और अमेरिका के बीच जारी तनाव में भारत शांतिदूत का रोल अदा कर सकता है। रायसीना ड़ायलॉग के मंच से ईरान के विदेश मंत्री जवाद जरीफ का यह कहना कि तनाव कम करने में भारत अहम भूमिका निभा सकता है‚ वाकई समझने वाली बात है। स्वाभाविक तौर पर भारत के ईरान से सदियों पुराने सांस्कृतिक (सूफी परंपरा का रिश्ता)‚ आर्थिक‚ राजनीतिक और व्यापारिक संबंध रहे हैं। कई मौकों पर ईरान और भारत ने एक–दूसरे की भावनाओं को तरजीह देने में रत्ती भर की कंजूसी नहीं दिखाई। चाहे वह ईरान–इराक युद्ध के वक्त भारत का तटस्थ रहना हो या भारत–पाकिस्तान के बीच पैदा तनाव के दौरान ईरान का निष्पक्ष रहना। दोनों ही मुल्कों ने हमेशा ही एक–दूसरे की भावनाओं को जगह दी है। इस दृष्टिकोण से देखें तो अगर भारत ने वाकई ईरान और अमेरिका के बीच जारी तनाव और बयानबाजी को कम या खत्म कर दिया तो वैश्विक मंच पर भारत की विश्वसनीयता न केवल बढ़ेगी बल्कि मजबूत भी होगी। शायद जरीफ के कहने का आशय भी ऐसा ही कुछ होगा। हालांकि भारत पर अमेरिका का काफी दबाव है। यही वजह है कि ईरान पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद भारत ने ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया था। यानी भारत को दोनों देशों के बीच मध्यस्थता के दौरान बिल्कुल तटस्थ रहने का संतुलन रचना होगा। अमेरिका में जब से ड़ोनाल्ड़ ट्रंप के नेतृत्व में सरकार बनी है‚ भारत से उसके रिश्तों में ताजगी और भरोसा भी बढ़ा है। इस वजह से भारतीय नेतृत्व के समक्ष कूटनीतिक‚ आर्थिक और नैतिक चुनौती है। भारत को अपने हितों को भी बचाकर चलना होगा। वैसे रायसीना ड़ायलॉग के जरिये ईरान को अंतरराष्ट्रीय मंच उपलब्ध कराना एक प्रकार से भारत का मजबूत कदम ही माना जाएगा। एक तरह से कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों के सामने ईरान ने अपनी बात खुलकर रखी है तो इसमें भारत के योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता है। ईरान के जनरल कासिम सुलेमानी की अमेरिकी हमले में हत्या के बाद खाड़़ी देशों में हालात खतरनाक स्थिति में है। अगर भारत की मदद की पहल से ईरान की आठ करोड़़ की आबादी को सुकून मिले तो इससे बेहतर बात कुछ और नहीं हो सकती। मगर इसके वास्ते भारत के पास वक्त कम और दबाव ज्यादा है।
Date:17-01-20
न्याय का भरोसा
संपादकीय
केंद्र सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में 1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले में न्यायमूत धींगरा की अध्यक्षता वाली एसआइटी की सिफारिशें स्वीकार कर कार्रवाई करने का बयान अत्यंत महवपूर्ण है। इसके बाद भारी संख्या में साढ़े तीन दशक पूर्व एकपक्षीय हिंसा के मामले में सलिप्त व्यक्तियों‚ तत्कालीन पुलिस और न्यायिक अधिकारियों तक पर मुकदमा चलने वाला है। वैसे भी मोदी सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही एक एसआईटी का गठन किया था जो बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एसआईटी में मिल गया। उसी कारण नये सिरे से मुकदमा आरंभ हुआ तथा काफी लोगों को सजा मिलना सुनिश्चित हुआ है। चंकि न्यायमूत धींगरा समिति ने 186 मामलों का उल्लेख किया है इसलिए उन सबमें मुकदमा चलेगा। ये मामले वे हैं‚ जो पहले बंद किए जा चुके थे। एक साथ इतने बंद मामलों की जांच का यह पहला वाकया है। साथ ही पहली बार पुलिस के साथ निचली अदालतों की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा किया गया है। उदाहरण के लिए इनमें पांच मामले वह हैं जिनमें एक और दो नवम्बर‚ 1984 को नांगलोई‚ किशनगंज‚ दयाबस्ती‚ शहादरा व तुगलकाबाद रेलवे स्टेशनों में सिख यात्रियों को ट्रेनों से खींच–खींचकर कत्ल किया था। लेकिन पुलिस ने मौके से किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया। मारे गए लोगों के कटे–जले शव प्लेटफार्मों और रेल पटिरयों पर पाए गए थे। केंद्र सरकार की मांग पर सर्वोच्च न्यायालय ने एसआइटी को आदेश दे दिया है कि वह मामले से जुड़ा सारा रिकार्ड गृह मंत्रालय को वापस करे। मुकदमा न चले इसलिए एक साथ कई–कई मामलों को नत्थी करके न्यायालय में पेश किया गया और इसमें सुनवाई आगे बढ़ना मुश्किल था। यहां न्यायालय को पुलिस को नियमानुसार अधिकतम पांच मामले डालने का आदेश देना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ। परिणामस्वरूप कभी कोई आरोपी नहीं आता तो कभी दूसरा। यह केवल हत्यारों और लुटेरों को बचाने की साजिश थी‚ जिसमें प्रशासन सफल रहा। जाहिर है‚ जब तक उस प्रक्रिया को नये सिरे से शुरू नहीं किया जाएगा 1984 में सिखों के नरसंहार में न्याय नहीं हो सकता है। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों का कत्लेआम हमारी पूरी व्यवस्था पर ऐसा धब्बा है जिसको न्याय से ही धोया जा सकता है। उम्मीद करनी चाहिए कि पांच वषा में जिस दिशा में न्यायिक कार्रवाई बढ़ी है‚ धींगरा रिपोर्ट के बाद उसमें और वृद्धि होगी।
Date:17-01-20
बदल रही है राजनीतिक फिजा
संपादकीय
नगरिकता कानून विरोधी आंदोलन की गहराई और विस्तार ने भारत को आज सचमुच बदल डाला है । सिर्फ छह महीने पहले पूर्ण बहुमत से चुन कर आए नरेन्द्र मोदी और उनके विश्वासपात्र अमित शाह का आज देश के आठ राज्यों में तो जैसे प्रवेश ही निषिद्ध हो गया है और एक भी ऐसा राज्य नहीं बचा है जहां वे भारी विरोध की आशंका से मुक्त हो कर निश्चिंतता से घूम–फिर सकते हो। देश हो या विदेश हर जगह उनके लिए काले झंडे तैयार पड़े हैं।
दुनिया के राजनीतिक इतिहास में हम इसे स्वयं में एक विरल घटना के रूप में देख पा रहे हैं‚ जैसे कभी भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भी स्वयं में एक विरल संघर्ष था। राजनीति का सबसे बड़ा सच यही है कि वह कहीं भी कभी हू–ब–हू दोहराया नहीं जा सकता है। यह विज्ञान का कोई प्रयोग या गणित का समीकरण नहीं है जिसे आप बार–बार दोहरा कर एक ही परिणाम हासिल कर सकते हैं। राजनीति के घटनाक्रमों में कितनी ही एकसूत्रता क्यों न दिखाई दे‚ हर घटना अपने में अद्वितीय होती है। इसीलिए भारत में पूरे देश के पैमाने पर अभी जो लहर उठी है‚ वह भी अद्वितीय है। मोदी ने अपने शासन के इस दूसरे दौर में अपनी बुद्धि के अनुसार आजादी के अधूरे कामों को पूरा करने के इरादों से राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बदलने का जो संघी खेल कश्मीर से शुरू किया था‚ उसी का अब कुल जमा परिणाम यह दिखाई देता है कि आजादी की लड़ाई में अर्जित मूल्यों और संविधान के मूलभूत आदर्शों को हमेशा के लिए सुरक्षित कर देने के लिए पूरा भारत अब मचल उठा है। मोदी के जहरीले सांप्रदायिक इरादों और शाह की दमनकारी हुंकारों ने जैसे अंग्रेजों के शासन के दंश के बोध को छात्रों‚ नौजवानों में जिंदा कर दिया है और तमाम देशवासियों में आजादी की लड़ाई का हौसला पुनर्जीवित हो गया है।
भारत का यह महा–आलोड़न स्वयं में विरल है‚ क्योंकि न यह किसी कैंपस विद्रोह की अनुकृति है और न ही किसी ‘अरब बसंत’ की तरह का कोरा विध्वंसक तूफान। हर बीतते दिन के साथ यह आंदोलन अपने अंदर एक नये भारत का निर्माण कर रहा है। इसीलिए जो यह समझते हैं कि समय के साथ यह आंदोलन शिथिल हो जाएगा या यह किसी अंजाम तक नहीं जाएगा या इसे दमन के बल पर कुचल दिया जाएगा–वे भारी मुगालते में हैं। इस आंदोलन में अनंत संभावनाएं है‚ इसकी गहराई और विस्तार का कोई ओर–छोर नहीं है और इसकी आंतरिक ऊर्जा अकूत है‚ इसके सारे संकेत इसी बीच मिलने लगे हैं। जो आंदोलन शुरू में असम के साथ ही भारत के चंद विश्वविद्यालयों के कैंपस से शुरू हुआ था‚ वह इसी बीच भारत के सभी उत्तर–पूर्व के राज्यों के शहरों‚ कस्बों और गांवों तक को पूरी तरह से अपनी जद में ले चुका है। बंगाल का कोई जिला केंद्र ऐसा नहीं है जहां रोजाना लाखों की संख्या में लोग प्रदर्शन न कर रहे हों। पूरा दक्षिण भारत आज इसके विरोध में उबल रहा है। पश्चिम में महाराष्ट्र‚ गोवा‚ और गुजरात में भी भारी प्रदर्शन हो रहे हैं। बिहार और उड़ीसा भी पीछे नजर नहीं आते। उत्तर प्रदेश का सच किसी से छिपा नहीं है। दिल्ली तो आंदोलन का एक केंद्र–स्थल बना हुआ है। देश के तकरीबन 16 राज्यों की सरकारों ने ऐलान कर दिया है कि उनके राज्यों में इस नागरिकता कानून को लागू नहीं किया जाएगा। केरल की राज्य सरकार ने तो सीधे सुप्रीम कोर्ट में जाकर केंद्र सरकार को ललकारा है। इसी सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने भी धारा 188 के प्रयोग और इंटरनेट सेवाओं पर रोक के बारे में एक ऐतिहासिक फैसला देकर मोदी सरकार को थोड़़ा असहज कर दिया। मोदी अपनी जिन संघ वाली बुराइयों को अंधेरे में रखना चाहते थे‚ उनकी इन कोशिशों को ही उन्होंने प्रकाश में ला दिया है। मोदी और शाह बिना लाग–लपेट के इस बात को दोहराते रहते हैं कि सीएए नागरिकता देने के लिए है‚ किसी की नागरिकता छीनने के लिए नहीं। जबकि आज देश का हर समझदार आदमी जानता है कि इस कानून से धर्म के आधार पर भेद–भाव की जो जमीन तैयार की गई है‚ वही तो शुद्ध वंचना है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी का कहना कि सीएए १३० करोड़ लोगों में से यदि एक को भी प्रभावित करेगा तो वे इस कानून को वापस ले लेंगे। यह नहीं मालूम कि यह किसी एक को नहीं‚ सारे 130 करोड़ लोगों को‚ भारत के संविधान को प्रभावित करेगा। और जो चीज सबको समान रूप से प्रभावित करती है‚ उसके प्रभाव को किसी एक पर प्रभाव के जरिये नहीं समझा जा सकता है। फासीवाद‚ नाजीवाद इटली‚ जर्मनी में किसी एक के विरु द्ध नहीं था। उसने इन देशों के प्रत्येक नागरिक के जीवन को प्रभावित किया था।
राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को नष्ट करके मोदी सरकार अपने हाथ में नागरिकों के बीच भेदभाव करने का जो अधिकार लेना चाहती है‚ वह देश के हर नागरिक के जीवन को नर्क बनाने के लिए काफी होगा। जेएनयू के छात्रों पर हमलों के लिए जिस प्रकार गुंडों और पुलिस का प्रयोग किया गया‚ वह इनके नाजी चरित्र की सचाई को ही खोलता है। चिह्नीकरण नागरिकों पर जर्मन नाजियों के जुल्मों का पहला चरण था। जेएनयू में पहले से चि्न्तित करके होस्टल के कमरों पर हमले किए गए। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने इस कानून के नियमों के बनने के पहले ही इस प्रकार का चिह्नीकरण शुरू कर दिया है। इनके सीएए–एनपीआर–एनआरसी के पूरे प्रकल्पकों ही राष्ट्रव्यापी नाजी चिह्नीकरण का प्रकल्प कहना हर लिहाज से सही होगा। सचमुच राजनीति हमेशा एक असंभव की साधना है। राजनीति ही किसी भी रास्ते से अलग सामूहिक संभावनाओं की नई दिशा खोलती है और नई परिस्थिति के सूत्र प्रदान करती है। वही तमाम मान ली गई प्रभुत्वशाली चीजों से हमें अलग करती है। बस इसके लिए इतना ही जरूरी है कि वह अपनी जड़ता को छोड़कर इस नई संभावना में प्रवेश करे। ॥ अपनी परंपरागत स्थिति से हट कर विमर्श की एक व्यापक प्रक्रिया में शामिल होना‚ और इस प्रकार एक असामान्य स्थिति की ओर बढ़ना राजनीति की सच्ची भूमिका की एक प्रमुख शर्त है‚ जो राजनीति ऐसा नहीं करती‚ वह इतिहास के कूड़े में फेंक दिए जाने के लिए अभिशप्त विचारशून्य नेताओं की कोरी भीड़ होती है। जो भी यह कहता है कि शाहीन बाग में संविधान की रक्षा की लड़ाई का अंत गैर–राजनीतिक तरीके से ही संभव है‚ वह मूर्ख नहीं महामूर्ख है। बल्कि यहीं पर तो राजनीति के सामने खुद को साबित करने की सबसे बड़ी चुनौती है। देश की प्रमुख धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक राजनीतिक ताकतों का इस आंदोलन में शामिल होना ही इसके सकारात्मक विकास के लिए जरूरी है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के मैदान में भी मोदी–शाह–आरएसएस को पूरी तरह से पराजित करके इस ऐतिहासिक आंदोलन का युगांतकारी ताकक अंत संभव होगा।
तेल की बदलती धार और हम
सौरभ चंद्र
कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय व्यापार की कई बुनियादी विशेषताएं हैं। मसलन, यह वैश्विक राजनीति से सर्वाधिक प्रभावित होने वाली वस्तु है। गुणवत्ता के कारण कच्चे तेल के मूल्य में मामूली क्षेत्रीय अंतर बेशक दिखते हों, लेकिन इसका वैश्विक मूल्य है। कोई भी देश इसकी कीमत के उतार-चढ़ाव से अछूता नहीं रह सकता। मूल्यों की यही अनिश्चितता कच्चे तेल का अटल सत्य है। कच्चा तेल और पेट्रोलियम पदार्थ विश्व की सर्वाधिक आयातित-निर्यातित वस्तु हैं। चंद अपवादों को छोड़ दें, तो इनका अंतरराष्ट्रीय व्यापार डॉलर में होता है। डॉलर के अंतरराष्ट्रीय रिजर्व मुद्रा बनने की मूल वजह यही है कि अमेरिका किसी भी अन्य मुद्रा में व्यापार के प्रयास को सहन नहीं करता।
कीमत की जिस अनिश्चितता को इसकी बुनियादी विशेषता बताई जाती है, अंतरराष्ट्रीय बाजार इन दिनों इसी से जूझ रहा है। खासतौर से गत 3 जनवरी के बाद से, जब अमेरिका ने ईरान के सैन्य कमांडर कासिम सुलेमानी की हत्या इराक में कर दी। इस घटना से खाड़ी में युद्ध के बादल मंडराने लगे थे। 1990-91 के खाड़ी युद्ध और 2003 के इराक युद्ध के बाद पैदा हुई स्थिति की पुनरावृत्ति की आशंका बढ़ चली थी। तेल के मूल्यों में भारी उछाल आ गया था। हालांकि तमाम आशंकाओं के विपरीत स्थिति जल्द ही काबू में आ गई, और तेल के दाम पुराने स्तर पर लौट आए। वैसे भी, अमेरिका में घरेलू तेल के दामों पर अंकुश लगाना राष्ट्रपति ट्रंप की मजबूरी है, क्योंकि इसी साल के अंत में उन्हें अगले कार्यकाल के लिए चुनाव में उतरना है।
रही बात भारत की, तो हम जितना तेल का उत्पादन करते हैं, उससे हमारी महज 17 प्रतिशत जरूरतें ही पूरी हो सकती हैं। बाकी तेल हमें दूसरे देशों से खरीदना पड़ता है। दुखद है, आयातित तेल का प्रतिशत गत वर्षों से निरंतर बढ़ रहा है। इसकी मुख्य वजह घरेलू उत्पादन में कमी और बढ़ती हुई मांग है। देश में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की बढ़ोतरी के लिए ऊर्जा की आवश्यकता किसी से छिपी नहीं है। पेट्रोलियम पदार्थ ‘एनर्जी बास्केट’ (ऊर्जा की कुल जरूरत) का महत्वपूर्ण घटक हैं। लिहाजा तेल का निरंतर बढ़ता हुआ आयात सामरिक चिंता का विषय है। इसका सीधा प्रभाव देश की ऊर्जा सुरक्षा पर पड़ता है। खासकर, जब आयातित तेल का बड़ा हिस्सा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से मंगवाया जाता है।
यह क्षेत्र दरअसल तेल की अत्यधिक उपलब्धता के कारण करीब सौ वर्षों से महाशक्तियों का क्रीड़ास्थल रहा है। यह वही इलाका है, जहां पिछले साल सितंबर में सऊदी अरब के दो तेल ठिकानों पर ड्रोन से हमला हुआ था, जिसका आरोप ईरान पर लगाया गया था, पर यह साबित नहीं हो सका। हालांकि इस हमले के बाद कुछ अवधि के लिए सऊदी अरब की 57 लाख बैरल प्रतिदिन की उत्पादन-क्षमता प्रभावित हुई थी। वैसे, इसी क्षेत्र में ईरान भी है, जिसका निर्यात अमेरिका द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के कारण लगभग शून्य हो गया है, और उसकी आर्थिक सेहत काफी बिगड़ गई है।
भारत की अर्थव्यवस्था के लिए तेल के दाम काफी मायने रखते हैं। कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर प्रति बैरल की वृद्धि से आयात बिल में लगभग 6,300 करोड़ रुपये की बढ़त हो सकती है। आयात लागत में वृद्धि की पूर्ति यदि निर्यात द्वारा न हो, तो रुपये की कीमत गिर जाती है। विनिमय दर में डॉलर की तुलना में एक रुपये की बढ़ोतरी से कच्चे तेल का आयात-बिल 5,900 करोड़ रुपये बढ़ सकता है। व्यापार घाटे और चालू खाता में घाटा का सीधा असर जीडीपी पर पड़ता है। कच्चे तेल के दाम सरकार की राजकोषीय स्थिति और महंगाई को सीधे रूप से प्रभावित करते हैं।
ईरान और अमेरिका के आपसी तनाव में कमी के कारण कच्चे तेल के मूल्यों में बेशक कमी आई है, और भारत ने भी राहत की सांस ली है, लेकिन चुनौती अब भी कम नहीं हुई है। भू-राजनीति और भू-आर्थिकी के कारण विषम स्थिति का जो आकलन किया गया था, वह फिलहाल निर्मूल साबित हुआ है। इसीलिए अब कच्चे तेल की मांग और आपूर्ति में संतुलन पर गौर करने का समय आ गया है।
हमें यह समझना चाहिए कि कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा से बचने के लिए बनाए गए समूह दशकों से तेल की कीमत को प्रभावित करते रहे हैं। 1930 से टेक्सास रेलरोड कमीशन उत्पादकों का कोटा निर्धारित करके कच्चे तेल के दामों को नियंत्रित करने का प्रयास करता रहा। सन 1960 में स्थापित ओपेक को भी इसी तर्ज पर ढाला गया है। 14 देशों का यह समूह विश्व के कुल तेल उत्पादन में 40 फीसदी का योगदान देता है। इसके सदस्य देशों के पास 80 फीसदी से अधिक तेल भंडार हैं। इसी संगठन ने 2017 में रूस और नौ अन्य देशों के साथ मिलकर तेल उत्पादन में 12 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती का निर्णय लिया था, जो इस साल मार्च तक वैध है। अमेरिका के बढ़ते तेल-उत्पादन और मांग बढ़ने की दर में कमी को देखते हुए ओपेक ने दिसंबर, 2019 में उत्पादन में पांच लाख बैरल प्रतिदिन की अतिरिक्त कटौती का भी फैसला लिया है।
जाहिर है, तेल-उत्पादन में कटौती से कीमत चढ़ेगी। इन दिनों तेल के दाम में कुछ उछाल देखने को मिल भी रहा है। हालांकि इसका कारण अमेरिका और चीन में हुए व्यापार समझौते को भी बताया जा रहा है। इस समझौते पर हस्ताक्षर की पूर्व-संध्या पर अमेरिका के ट्रेजरी सेक्रेटरी ने बयान देकर यह आश्वस्त किया था कि तेल की टैरिफ में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा। उनके अनुसार, टैरिफ को समझौते के दूसरे चरण के लागू होने तक ज्यों का त्यों रखा जाएगा। नए समझौते केे मुताबिक, चीन द्वारा अमेरिका को निर्यात की जाने वाली दो-तिहाई लागत पर टैरिफ में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा।
हालांकि चीन का निर्यात प्रभावित ही रहेगा, क्योंकि मांग बढ़ना ही चीन में तेल की खपत में वृद्धि का मुख्य आधार रहा है। तेल के अंतरराष्ट्रीय मूल्यों का सीमा में रहना भारत के नीति-नियंताओं के लिए संतोष की बात है। इसके कारण राजकोषीय घाटे, मुद्रास्फीति और चालू खाते घाटे को नियंत्रित करने में सहायता मिलेगी। जीडीपी की बढ़ोतरी की रफ्तार बढ़ाने के लिए भी जमीन तैयार करना आसान हो सकेगा। मगर सवाल यह है कि क्या यह लाभ उठाने के लिए हम तैयार हैं?
Crime and impunity
Sexual harrassment of athletes, lack of punishment to guilty, must make SAI look within, take urgent corrective action
Ramnath Goenka
A pay reduction of Rs 910 per month was the penalty a Sports Authority of India (SAI) coach paid for being found guilty of sexual harassment, according to an RTI response sought by The Indian Express. Denying increments for a year was as harsh as it got for a few other offenders who sexually abused young athletes left in their care and guardianship at residential sports camps that churn out athletes, many of whom go on to represent India. The report in this paper about 45 complaints of sexual harassment, most of them against coaches by minor girls, has exposed a disconcerting truth. Sports isn’t, as it is generally believed to be, just a celebration of exemplary resilience, strong self-belief and feel-good Cinderella stories. It has an ugly side, too. And this isn’t a case of a few bad apples, but a systemic failure in protecting the country’s hand-picked sporting stars when they were most vulnerable — away from home, dealing with the complications of a transitional age.
The sports ministry, under which the SAI functions, cannot escape the blame. It has been found to be too lenient on those who have inflicted life-long psychological trauma on proven match-winners with exemplary athletic prowess and unflinching on-court temperament. These cases also bring into focus the lack of strict security protocols at these year-long camps. Since these are places where offenders are toughest to corner given the sheer nature of physical engagement between ward and coach, the SAI needs more eyes and sensitive ears. Things are far from perfect at these sports campuses. While there’s a strict code of conduct for players, there are no dos and don’ts for the coaches. Long dragging inquiries and some dodgy acquittals have triggered talk of the SAI being more concerned about its image than the victims. Current provisions of law and the absence of a central registry that lists such predators means that predatory coaches could be repeating their crimes at other establishments — private schools and academies.
The crime and the impunity leads to many athletes staying silent, even giving up on their sporting dream. Most girls come from humble backgrounds and can be persuaded or compelled to change their statements or take back their complaints. For many, their future in sports, a way out of poverty, is in the hands of the same coaches who prey on them. This injustice should rattle the conscience of sports lovers who will start demanding Olympic medals this leap year without sparing a thought for the abusive systems where the athletes learn to give up without a fight very early in life.
Date:17-01-20
An Assault On Reason
The targeting of university campuses is part of a campaign to discredit dissent
D Raja , [The writer is general secretary, CPI.]
The last few years have seen people from all over the country join hands to protest the policies of the BJP government. Currently, people are out on the streets against the Citizenship (Amendment) Act and the brutal attack on JNU students and faculty. People are asserting their right to protest, resist and dissent, which are essential for the functioning of any democracy. However, the ruling dispensation, to gain support for their authoritarian rule, is running a sustained campaign, especially on social media, to discredit thinking minds and intellectuals. This campaign is nothing short from an assault on reason itself, a typical characteristic of fascism.
All fascist regimes target universities, since intellectuals have put up the greatest resistance against attacks on reason, freedom of expression and liberty. Since this government came to office, the budgetary allocation for education has been cut, there have been attempts to tamper with history and impose pseudo-science and hearsay in the curriculum. We have also seen university campuses being turned into battlegrounds for refusing to bow to the sinister designs of the BJP-RSS combine. What happened in JNU on January 5 is not an isolated incident. It was a deliberate attempt to weaken the anti-fee-hike movement. It was an attempt to intimidate the student community, not just of JNU, but of the entire country, and ward off their demand for quality and inexpensive public education.
Starting from the FTII, Pune and Ambedkar-Periyar Study Circle in Chennai, students have resisted the government’s attempts to impose its nefarious agenda. Whether it was the Occupy UGC movement or the protests after the institutional murder of Rohith Vemula, the attempt to malign JNU after the sedition row or the recent police atrocities on the students of Jamia and AMU, students have resisted shoulder-to-shoulder with intellectuals and activists.
This unity is a cause of worry for the RSS-BJP and therefore, they have tried their best to demean intellectuals and activists. This virulent campaign was started by the prime minister when he drew parallels between “hard-work” and “Harvard” to taunt Amartya Sen. Dissenters from JNU and other universities were dubbed anti-nationals. Many human rights’ activists were trolled for their justified criticism of police and army excesses. Nobel laureate Abhijit Banerjee was attacked on social media when he criticised the government’s economic policies. Union Minister Piyush Goyal dubbed him a “Leftist” as though being a Leftist is bad or unreasonable.
India has a long tradition of dialogue and debate, arguments and counterarguments. Tolerance for difference gave rise to this beautiful and diverse country. In modern times, intellectual leaders of varied hues such as Rammohun Roy, Vivekananda, Tilak, Gandhi, Nehru, Maulana Azad, Bhagat Singh, Ambedkar, Periyar, etc. produced a diversity of views and enabled India to become a plural and tolerant nation. This legacy is being challenged by the BJP-RSS. From Mussolini, Hitler and Franco to Narendra Modi and Amit Shah, this pattern of delegitimising thoughtful voices can be traced. These leaders made populist appeals to the youth based on demagoguery and emotion and downplayed reason and critical thinking. In Italy and Germany, they turned the youth into cadres of Blackshirts or Brownshirts. In India, the ruling regime is trying to turn the unemployed and frustrated sections into compliant robots or rancorous mobs. The government treats citizens as subjects who need to follow and obey its command.
During the infamous dictatorship of General Franco in Spain, the philosopher Miguel de Unamuno said: “It torments me to think that General Millan Astray might dictate the norms of the psychology of the masses”. Spanish General Millan Astray summed up the fascist argument on intellectuals and critical minds when he replied to Unamuno. The General said: “Death to intelligence! Long live death!” The reply of Unamuno is of special significance to us today in India. He said, “You will win, because you have enough brute force. But you will not convince. In order to convince it is necessary to persuade, and to persuade you will need something that you lack: Reason and right in the struggle.”
History shows that the Left cannot be intimidated. It will emerge as the hope for the people and future.