17-07-2017 (Important News Clippings)
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Date:16-07-17
विपक्ष वहां नहीं, जहां आप देखना चाहते हैं
किसी दूर ग्रह से कोई भारत की राजनीति पर नजर डालेगा तो उसे लगेगा कि भारत में सिर्फ एक ही राजनैतिक दल है, और एक ही राजनीतिज्ञ बल्कि उसे यह अनुभव हो सकता है कि कोई राजनैतिक दल भी नहीं है, सिर्फ एक राजनीतिज्ञ है, जो निरंतर विदेश के दौरे पर रहता है और भारत में रहता है, तो विभिन्न विषयों पर अपने विचार व्यक्त करता रहता है। उसे एक संगठन का जरूर एहसास हो सकता है, जिसका हाथ गोरक्षकों द्वारा की जाने वाली हिंसा और मुसलमानों के विरु द्ध तीव्र हिंसक अभियान के पीछे दिखाई पड़ सकता है। यह संगठन उन प्रगतिशील हिंदुओं के भी खिलाफ है, जो भारतीय समाज को आधुनिक और वैज्ञानिक सोच तथा जीन पद्धति से जोड़ना चाहता है। लेकिन कोई दूर ग्रह से न देखे, सिर्फ अखबार पढ़ता रहे और टीवी देखता रहे, तब भी उसे ऐसा ही अनुभव होगा।किसी भी देश के लिए यह एक असाधारण स्थिति है कि उसकी राजनीति इस कदर सिमट कर रह जाए। लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि इस व्यवस्था में हर समय कोई न कोई दल या दलों का गठबंधन सत्तारूढ़ दल का स्थान लेने के लिए तैयार रहता है। यानी सरकार को फेल होने नहीं दिया जा सकता। एक सरकार विफल होती है तो उसका स्थान लेने के लिए तत्काल दूसरी सरकार आ जाती है। अनुकूल स्थिति के अभाव में यह प्रतीक्षारत दल ही विपक्ष की भूमिका निभाता है। कह सकते हैं कि सत्ता दल और विपक्ष एक ही तराजू के दो पल्ले हैं। कोई भी पल्ला ज्यादा नीचे आ गया तो दूसरा पल्ला ज्यादा ऊपर चला जाएगा, जिसके बाद राजनीति का स्वाभाविक संतुलन गड़बड़ा जाएगा और लोकतंत्र मुश्किल में पड़ जाएगा।विपक्ष का दम उसकी मात्रा से नहीं, सक्रियता से देखा जाता है। राममनोहर लोहिया अकेले भारत की संसद को हिला सकते थे और नेहरू जैसे नेता की घिग्घी बंध जाती थी। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के पास अच्छा-खासा बहुमत था, और उसके मुकाबले तृणमूल कांग्रेस के विधायकों की संख्या कुछ न थी, लेकिन ममता बनर्जी ने अकेले दम इस वामपंथी लंका में आग लगा दी। एक जमाने में विश्वनाथ प्रसाद सिंह ने, विपक्ष में रहते हुए, राजीव गांधी के साथ ऐसा ही किया था। राष्ट्रपति बनने की उम्मीद से खारिज हो चुके लालकृष्ण आडवाणी भी राम जन्मभूमि मंदिर का टेंडर लिए हुए देश भर में अकेले घूम रहे थे। और तो और, जिन्हें हम अब भारतीय राजनीति के खलनायक के रूप में पहचानते हैं, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद ने भी अपने-अपने उर्वर समय में तूफान मचाया हुआ था। फिर सीताराम येचुरी आदि को किसने रोका हुआ है?तो क्या विपक्ष का यह सन्नाटा ही हमारी राजनैतिक नियति है? मेरा खयाल है, इस प्रश्न को घुमा कर विचार करें तो एक संतोषजनक उत्तर मिल सकता है। वास्तव में जिसे हम विपक्ष के रूप में देखना चाहते हैं, वही भारत का अपना पक्ष है, जिसका शीराजा बिखर रहा है। अपने को स्वतंत्रता आंदोलन का उत्तराधिकारी मानने के कारण कांग्रेस ने देश निर्माण का बीड़ा उठाया, लेकिन जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी। इंदिरा का युग नेहरू के स्वप्न के क्षय का युग था। वे सत्ता के रचनात्मक इस्तेमाल से ज्यादा सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने की ज्यादा कायल थीं। कह सकते हैं कि नेहरू का स्वप्न आपातकाल आते-आते आंख मूंद लेता है, और कांग्रेस एक खूसट पार्टी बन जाती है। अब किसी भी कॉस्मेटिक से उसके सौंदर्य को बहाल नहीं किया जा सकता।लगभग यही हाल उन अन्य राजनैतिक धाराओं का है, जिन्होंने अपने को कांग्रेस के विकल्प के रूप में पेश किया था। वे या तो पथभ्रष्ट हो गई हैं, या उन्हें लकवा मार गया है। इसी निर्वात में भाजपा का वह पौधा खिल रहा है, जिसे 1925 से सींचा जा रहा है। जब तक कांग्रेस तथा दूसरी वैकल्पिक पार्टयिों में दम था, भाजपा ज्यादा सफल नहीं हो पाई। संयोग से उसे मोदी जैसा प्रधानमंत्री भी मिल गया है। अब उस भारत को नष्ट किया जा रहा है, जिसका निर्माण राजा राममोहन राय के समय से जारी है। भाजपा सफलतापूर्वक आधुनिक भारत के सशक्त विपक्ष का काम कर रही है, और इसके स्थान पर हमें एक लिजलिजा, क्रूर, बुद्धि-विरोधी तथा कुंठित भारत दे रही है।भाजपा नाम के इस विपक्ष को खत्म करने के लिए सिर्फ उसकी आलोचना करना काफी नहीं है। ऐसी कितनी ही आलोचनाएं खा कर उसने अपनी सेहत बनाई है, और अब उसकी पाचन शक्ति राक्षसी स्तर की हो चुका है। विपक्ष का वास्तविक विरोध विपक्ष में नहीं, पक्ष खड़ा करने में होता है। इसलिए जो लोग भारत का पुनर्निर्माण करना चाहते हैं, उन्हें एक अधूरी क्रांति को पूरा करने की जिम्मेदारी अपने सिर पर उठानी होगी। भाजपा का भारत हमें नहीं चाहिए, यह तार्किक ढंग से तभी समझाया जा सकता है, जब हम जनता के सामने यह तस्वीर रखेंगे कि हमें कैसा भारत चाहिए।क्या यह वही भारत नहीं होगा, जिसकी खोज गांधी, भगत सिंह, नेहरू, अम्बेडकर, लोहिया और जेपी कर रहे थे?
Date:16-07-17
टकरातीं अस्मिताओं की बेकली
अब छोटी-छोटी अस्मिताओं की बड़ी टकराहटें ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती जा रही हैं। अस्मिताओं के नये गढ़ बन कर खड़े हो रहे हैं, जिनके चलते विभिन्न समुदायों के बीच नित्य नये-नये द्वंद्व और संघर्ष जन्म ले रहे हैं। ये प्रवृत्तियां सामाजिक शांति और सद्भाव के लिए खतरनाक होती जा रही हैं
एक जमाना था, जब मार्क्सवाद और पूंजीवाद बड़े ही प्रखर रूप में दो ध्रुव बन चुके थे और सारी दुनिया उन्हीं के दो खेमों में बंटी लगती थी। पर देखते-देखते दृश्य बदल गया। हम सबने देखा कि साम्यवाद अपने ही दबाव में टूट-बिखर गया और अब पूंजीवाद स्वयं अपने ही भारों तले कुचला जा रहा है। ऐसे में जीवन की संभावना अगर कहीं बची-खुची है, तो वह शायद बहुलता की विचारधारा में ही है। आज के दौर में एक नहीं कई-कई, अलग अलग, भिन्न-भिन्न किस्म की राजनैतिक विचारधाराएं पनप रही हैं, और कम से कम कालखंड के नजरिये से उनका सहअस्तित्व है। अब प्रचंड विचारधाराओं का पहले जैसा भय तो नहीं रहा पर शातिपूर्ण सहअस्तित्व अभी भी दूर की कौड़ी बनी है। यह जरूर हुआ है कि अब छोटी-छोटी अस्मिताओं की बड़ी टकराहटें ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती जा रही हैं। अस्मिताओं के नये गढ़ बन कर खड़े हो रहे हैं, जिनके चलते विभिन्न समुदायों के बीच नित्य नये-नये द्वंद्व और संघर्ष जन्म ले रहे हैं। ये प्रवृत्तियां सामाजिक शांति और सद्भाव के लिए खतरनाक होती जा रही हैं। अस्मिता के ये संघर्ष आज विचारधाराओं की तुलना में कहीं ज्यादा ही मारक या घातक साबित हो रहे हैं। विभिन्न देशों में अस्थिरता को जन्म देते और आम जनता में मौजूद स्वाभाविक समरसता को तोड़ते हुए अस्मिताओं को लेकर लोग एक दूसरे के साथ पारस्परिक द्वेष में बस रहे हैं, और उलझ रहे हैं। अस्मिताओं के साथ लोग आज एक दूसरे के जानी दुश्मन बनते जा रहे हैं। अब जिसे मौका मिल रहा है वह देश, समुदाय और धर्म आदि सामाजिक श्रेणियों को उभार कर समाज के ताने-बाने को मजबूत करने और जोड़ने के बदले तोड़ने के काम में ला रहा है।एक अवधारणा के रूप में अस्मिता व्यक्ति में उसकी निजी एकता और ऐतिहासिक यानी कल के आयाम पर निरंतरता को द्योतित करती है। इसी पर हमारी कानूनी व्यवस्था भी टिकी हुई है, जिसमें व्यक्ति को उसके कार्य के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। हालांकि आदमी जीवनपर्यत सतत बदलता रहता है, उसका स्वभाव बदलता है, और उसके अस्तित्व के हर पहलू में भांति-भांति के परिवर्तन होते रहते हैं। यह अजीब सी बात है कि ‘‘सदा एक सा रहना’ और ‘‘बदलते रहना’ परस्पर विरोधी होते हुए अस्मिता के बारे में सच हैं। वस्तुत: हमारी अस्मिता के कई स्तर होते हैं। निजी अस्मिता हमारी अपनी छवि है, जो हम खुद गढ़ते-बनाते हैं। दूसरी सामाजिक अस्मिता है, जो समूह में सदस्य रहने के कारण जैसे जाति, जेंडर, क्षेत्र और भाषा आदि के चलते हमें समाज से मिलती है। सामाजिक अस्मिता हमारे गौरव का स्रेत भी होती है, और प्रेरक का भी कार्य करती है। हम सबने अनुभव किया है कि अंधानुकरण के चलते ये अस्मिताएं सांप्रदायिक मनमुटाव और झगड़ों का भी कारण बनती हैं। व्यक्ति समाजीकरण के दौरान अपनी पुरानी पड़ती सभी पहचानों को बाद के तादात्मीकरणों के साथ समेटने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति के निजी जीवन में होने वाले विकास और उसके सामाजिक समूह, दोनों का असर रहता है। हम वही रहते हैं, और हमारे अस्तित्व की देश-काल में निरंतर मौजूदगी भी रहती है, लोग अस्मिता बनाते हैं और उसकी रक्षा करते हैं।वस्तुत: हम सबकी कई अस्मिताएं होती हैं। कुछ अस्मिताएं हमारे द्वारा चुनी जाती हैं, और कुछ अनचाहे हम पर लाद दी जाती हैं। व्यवसाय, धर्म, जाति, भाषा आदि को लेकर अस्मिताओं का निर्माण होता है। पर इस विविधता के बावजूद भी हर व्यक्ति को एक सुगठित व्यक्तित्व वाला होने का अहसास होता है। वह यही मानता है : ‘‘मैं मैं हूं और मेरी सारी विभिन्न अस्मिताएं मिल कर मुझे बनाती हैं’। भूमिकाओं में संघर्ष होता है पर अक्सर उनका हल मिल जाता है, और बहुलता से संघर्ष ही हो यह जरूरी नहीं है। शायद विविधताओं से भरी दुनिया में एक अकेली अस्मिता न संभव है, न स्वास्यकर। मुश्किल तब आती है जब कुछ अस्मिताओं को भुनाने की कोशिश शुरू हो जाती है। तब उनको लेकर भेदभाव और घृणा को हवा दी जाती है। अस्मिताओं को सुलझाने के लिए हमारे सामने तीन विकल्प होते हैं : दूसरी अस्मिता को अपने में मिला कर एक बनाना, दूसरी अस्मिता को अपने अधीन बनाना या फिर दूसरी भिन्न अस्मिता को स्वीकार करना। बहुलता की स्थिति में तीसरा विकल्प ही श्रेयस्कर होता है। हमारी चेतन-शक्ति को समावेशी और बहुलता वाली अस्मिता की दिशा में अग्रसर होना चाहिए।
Date:17-07-17