
17-04-2025 (Important News Clippings)
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क्या उत्तर-दक्षिण के बीच भेद बढ़ रहा है?
शशि थरूर, ( पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद )
सरकार संसदीय सीटों का परिसीमन करने जा रही है। ऐसा अगले कुछ सालों में नई जनगणना के बाद किया जा सकता है। दक्षिणी राज्यों का तर्क है कि इससे राजनीतिक शक्ति का संतुलन अनुचित रूप से उत्तरी राज्यों की ओर चला जाएगा। लोकसभा में सीटें आम तौर पर जनसंख्या के हिसाब से बांटी जाती हैं। ऐसे में ज्यादा लोगों का मतलब होता है ज्यादा सीटें।
चूंकि लोकसभा में ज्यादा सीटें जीतने वाला ही सरकार बनाता है, इसलिए ज्यादा जनसंख्या का मतलब बड़ा फायदा होता है। लेकिन बेलगाम जनसंख्या वृद्धि की कीमत समृद्धि और सामाजिक प्रगति को चुकानी पड़ सकती है। इसलिए 1976 में भारत ने परिसीमन को रोक दिया, जिससे राज्यों को यह दिलासा मिला कि वे राजनीतिक असर की चिंता किए बिना जनसंख्या वृद्धि को धीमा करने की कोशिश कर सकते हैं। यह रोक शुरू में 2001 तक के लिए तय की गई थी, लेकिन संवैधानिक संशोधन के जरिए इसे बढ़ा दिया गया।
इसका मतलब है कि आज की सीमाएं 1971 की जनगणना पर आधारित हैं। इस रोक के बाद से भारत के दक्षिणी राज्य प्रजनन दर काफी नीचे ला चुके हैं। साथ ही, उन्होंने साक्षरता दर, स्वास्थ्य सेवा, मातृ एवं शिशु मृत्यु दर और लैंगिक समानता सहित कई मानव-विकास संकेतकों पर काफी प्रगति की है। उत्तर भारत ने इन श्रेणियों में तो खराब प्रदर्शन किया ही है, जातिगत भेदभाव, बेरोजगारी और आर्थिक विकास के मामले में भी स्थिति खराब है। लेकिन यहां आबादी लगातार बढ़ रही है। परिसीमन पर रोक की हमेशा एक समयसीमा रही है।
अब सत्तारूढ़ भाजपा ने संकेत दिया है कि रोक को फिर से बढ़ाने के बजाय वह जनगणना कराने का इरादा रखती है और उसी के अनुसार भारत के चुनावी मानचित्र को फिर से तैयार करना है। यह जनगणना 2021 में होनी थी और उसे बार-बार स्थगित किया जाता रहा। भाजपा का कहना है कि यह निष्पक्षता का मामला है।
‘एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य’ के सुस्थापित सिद्धांत का मतलब है कि संसद का हर सदस्य लगभग समान संख्या में लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। उसका तर्क है कि यह अलोकतांत्रिक है कि एक सांसद केवल 18 लाख केरलवासियों का प्रतिनिधित्व करे, जबकि दूसरा उत्तर प्रदेश के 27 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करे।
दक्षिणी राज्यों के नेताओं का कहना है कि प्रतिनिधित्व को सिर्फ जनसंख्या के आधार पर तय करने से उत्तरी राज्यों को ज्यादा आबादी होने का फायदा मिलता है, जबकि दक्षिणी राज्यों को उनकी जनसंख्या स्थिर करने और मानव विकास को आगे बढ़ाने के लिए सजा मिलती है। यही वजह है कि केंद्रीय कर राजस्व में दक्षिणी राज्यों की हिस्सेदारी में पहले से ही गिरावट दिख रही है।
अगर समाज एक जैसा हो तो उसमें जनप्रतिनिधित्व निर्धारित करने के लिए जनसंख्या एक फैक्टर हो सकती है, लेकिन बहुत विविधता वाले समाज के लिए यह नाकाफी है। उदाहरण के लिए, इसी वजह से अमेरिका जनसंख्या की परवाह किए बिना प्रत्येक राज्य को दो सीनेट सीटें आवंटित करता है। वहीं ईयू छोटे देशों को यूरोपीय संसद में उनकी जनसंख्या हिस्सेदारी की तुलना में ज्यादा सीटें देता है।
भारत में भी, गोवा, पूर्वोत्तर के राज्य और अंदमान, दीव, लक्षद्वीप में प्रति व्यक्ति सांसदों की संख्या बड़े राज्यों की तुलना में ज्यादा है। भारत में भाषाओं, धर्मों, जनसांख्यिकीय प्रोफाइल और विकास के स्तरों में बहुत ज्यादा विविधता है। इसके अलावा भारत की ‘अर्ध-संघीय’ प्रणाली के तहत राज्य भी एक तय मात्रा में शक्ति रखते हैं। इसलिए जहां समान प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण है, वहीं राज्य की स्वायत्तता और सांस्कृतिक विविधता का भी सम्मान किया जाना चाहिए।
इसका मतलब यह सुनिश्चित करना है कि एक समूह (उत्तर के हिंदी-भाषी) दूसरों की जरूरतों, प्राथमिकताओं, अनुभवों और आकांक्षाओं की परवाह किए बिना निर्णय लेने की प्रक्रिया पर हावी न हो सके। गृह मंत्री अमित शाह ने दक्षिण भारतीयों को भरोसा दिलाया है कि नए परिसीमन में उनकी एक भी सीट कम नहीं होगी।
लेकिन इसका मतलब यह है कि सरकार ज्यादा आबादी वाले उत्तरी राज्यों को ज्यादा सीटें देगी, जहां भाजपा को ज्यादा समर्थन प्राप्त है। कुछ लोगों का अनुमान है कि सांसदों की संख्या 543 से बढ़ाकर 753 की जा सकती है, जबकि कुछ लोग नए संसद भवन में 888 सांसदों के लिए जगह होने पर भी गौर कर रहे हैं। अगर ऐसा होता है, तो दक्षिणी राज्यों का सापेक्ष राजनीतिक प्रभाव कम हो जाएगा और देश के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस के लिए एक महत्वपूर्ण मंच कमजोर हो जाएगा।
पहले से ही, कुछ लोग संसदीय बहस के गिरते मानकों से निराश हैं। ज्यादा विस्तार के बाद लोकसभा काफी हद तक चीनी पीपुल्स पॉलिटिकल कंसल्टेटिव कॉन्फ्रेंस जैसी बन सकती है, जो इतनी बड़ी संस्था है कि वहां कोई सार्थक चर्चा नहीं हो पाती और वह बस सरकार के निर्णयों की पुष्टि ही कर पाती है। तमिलनाडु सीएम स्टालिन के नेतृत्व में दक्षिण भारतीय राज्यों ने एक संयुक्त कार्यसमिति का गठन किया है, जिसमें मांग की गई है कि मौजूदा व्यवस्था को 25 वर्षों के लिए बढ़ाया जाए।
लेकिन यह व्यवस्था भारत को कम लोकतांत्रिक बनाती है, क्योंकि प्रति नागरिक प्रतिनिधित्व समान नहीं होगा। समस्या यह है कि केवल जनगणना के आधार पर फॉर्मूला बदलना भी लोकतंत्र के लिए इतना ही बुरा होगा। इससे राष्ट्रीय सद्भाव और सामंजस्य के कमजोर होने की आशंका है।
अगर दक्षिण के लोग राजनीतिक रूप से वंचित महसूस करेंगे, तो वे सत्ता के विकेंद्रीकरण और राज्यों को अधिक स्वायत्तता देने के लिए संवैधानिक व्यवस्था की मांग कर सकते हैं। अगर इन मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो दक्षिण में कुछ नाराज लोग अलगाव के लिए भी दबाव बना सकते हैं। जबकि मौजूदा विवाद भारतीय एकता को मजबूत करने का मौका होना चाहिए।
Date: 17-04-25
अदालत में वक्फ कानून
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट ने संशोधित वक्फ कानून की सुनवाई करते हुए इस कानून के विरोध के बहाने हुई हिंसा पर चिंता तो जताई, लेकिन अच्छा होता कि वह केवल इतने तक ही सीमित नहीं रहता। उसे वक्फ कानून के विरोध के नाम पर हिंसा करने वालों को सख्त संदेश देने के साथ ही राज्य सरकारों और विशेष रूप से बंगाल सरकार को निर्देश देने चाहिए थे कि इस हिंसा पर हर हाल में लगाम लगे।
उसे इसका भी संज्ञान लेना चाहिए था कि मुर्शिदाबाद में वक्फ कानून विरोधियों की भीषण हिंसा के चलते वहां के अनेक हिंदुओं को जान बचाने के लिए पलायन करना पड़ा है और इसका कोई ठिकाना नहीं कि वे अपने घरों को लौट सकेंगे या नहीं? उससे मुर्शिदाबाद की हिंसा पर ध्यान देने की अपेक्षा इसलिए थी, क्योंकि उसके समक्ष इसकी गुहार लगाई जा चुकी है।
वक्फ कानून पर सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट ने जहां इस कानून में कुछ सकारात्मक बदलावों का उल्लेख किया, वहीं उसके कुछ प्रविधानों पर सवाल खड़े करते हुए सरकार को नोटिस भी जारी किया। कहना कठिन है कि इन सवालों के जवाब मिलने पर उसका दृष्टिकोण क्या होगा, लेकिन पहली ही सुनवाई के दौरान एक समय उसने अंतरिम आदेश पारित करने का जो संकेत दिया, उसकी आवश्यकता नहीं थी।
वक्फ कानून पर पहले संयुक्त संसदीय समिति में व्यापक चर्चा हुई और फिर संसद के दोनों सदनों में। जिस कानून में महीनों की बहस के बाद संशोधन किए गए हों, उस पर अंतरिम आदेश जारी करने की जल्दबाजी नहीं दिखाई जानी चाहिए।
यह ठीक है कि वक्फ कानून को लेकर 70 से अधिक याचिकाएं दायर की गई हैं, जिनमें अधिकतर उसके विरोध में हैं, लेकिन इसकी अनदेखी न की जाए कि यह एक महत्वपूर्ण कानून है और उसके कुछ प्रविधानों में संशोधन आवश्यक हो गए थे। वक्फ कानून की संवैधानिकता की परख में हर्ज नहीं।
सुप्रीम कोर्ट को ऐसा करना ही चाहिए, लेकिन अंतरिम आदेश देने के पहले दोनों पक्षों के विचार सुनना आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति के साथ ही संसद से पारित किसी कानून का सड़कों पर उतरकर हिंसक तरीके से विरोध करने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित भी किया जाना चाहिए। तब तो और भी, जब उस कानून पर सुनवाई हो रही हो।
पिछले कुछ समय से यह प्रवृत्ति बढ़ी है। इसके पहले नागरिकता संशोधन कानून का सड़कों पर उतरकर विरोध किया गया था। इस दौरान अराजकता का भी प्रदर्शन किया गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसका यथोचित तरीके से संज्ञान नहीं लिया।
इससे खराब स्थिति तब बनी, जब कृषि कानूनों का उग्र तरीके से विरोध किया गया। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों की वैधानिकता पर विचार किए बिना उनके अमल पर रोक लगा दी थी। अब ऐसा नहीं होना चाहिए।
Date: 17-04-25
हम सबकी उर्दू
संपादकीय
सर्वोच्च न्यायालय ने उर्दू को भारतीय भाषा बताते हुए बिल्कुल सही, कहा है कि भाषा एक समुदाय, एक क्षेत्र और लोगों की होती है; किसी धर्म की नहीं। उर्दू का इस्लाम से कोई संबंध नहीं। भारत में जन्मी यह भाषा गंगा-जमुनी तहजीब या हिन्दुस्तानी तहजीब का बेहतरीन नमूना है। अदालत के इस फैसले की तारीफ होनी चाहिए। हम एक ऐसे दौर में रह रहे हैं, जब जीवन से जुड़ी तमाम चीजों को मजहब की रोशनी में देखने की कोशिश हो रही है। ऐसे में उर्दू को भी चुनौती दी जा रही है। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और के विनोद चंद्रन की पीठ ने पातुर शहर के पूर्व पार्षद की याचिका उचित ही खारिज कर दी है। अफसोस, पातुर की नगर परिषद के साइनबोर्ड पर उर्दू के इस्तेमाल को चुनौती दी गई थी और मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया था। अदालत ने साफ कर दिया कि संविधान के तहत उर्दू और मराठी को समान दर्जा प्राप्त है। यह दावा ठीक नहीं कि उर्दू को हटाकर केवल मराठी का ही प्रयोग किया जाए। निस्संदेह, भाषा के मामले में संवेदनशील रहना जरूरी है।
यह एक गलत धारणा है कि हिंदी केवल हिंदुओं की भाषा है और उर्दू केवल मुस्लिमों की अदालत ने बहुत साफगोई से यही बात कही है और भाषा को धर्म की ओर धकेलने के लिए औपनिवेशिक शक्तियों को दोषी ठहराया है। सचमुच, यह एक गलत धारणा है कि उर्दू भारत के लिए विदेशी है। यह एक ऐसी सुंदर भाषा है, जो भारत भूमि पर ही विभिन्न भाषाओं के मेल से बनी है। यह बात भी समझना जरूरी है कि धर्म की कोई भाषा नहीं और भाषा का कोई धर्म नहीं होता। भाषा का आधार केवल क्षेत्रीयता और समाज की जरूरत है। समाज की जरूरत के हिसाब से भाषा का रूप बदलता रहता है। भारत जैसे विविध धर्मों और भाषाओं वाले देश में तो भाषा व धर्म के बीच कोई भी जुड़ाव देखना एक बांटने वाली बात भाषा का मूल मकसद आपसी संवाद या संचार है। परस्पर संवाद के लिए ही उर्दू का जन्म हुआ था, समाज ने सुविधा के अनुरूप एक भाषा को गढ़ा और उसमें बेहतरीन साहित्य लिखा गया । उर्दू के साथ समस्या यह हुई कि देश के विभाजन के समय जो देश मजहब के आधार पर बना, उसने उर्दू को अपनी भाषा के रूप में प्राथमिकता दी। पाकिस्तान में उर्दू आज मुख्य भाषा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह कोई मजहबी भाषा हो। यह भी ध्यान रखने की बात है कि जब पाकिस्तान ने उर्दू के साथ जरूरत से ज्यादा लगाव दिखाया, तो वह टूट गया। मतलब, किसी भी भाषा को थोपने से समाज में टूटन पैदा होती है और सर्वोच्च अदालत में पेश याचिका को तोड़ने की ही एक साजिश कहा जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्कुल सही इशारा किया है कि हमें अपनी विविधता का सम्मान करना चाहिए और उसमें आनंद लेना चाहिए। भारत में सौ से ज्यादा प्रमुख भाषाएं हैं। ऐसी अन्य भाषाएं भी हैं, जिन्हें बोलियां कहा जाता है। बोलियां भी अनगिनत हैं। भाषा और बोली के ऐसे अप्रिय विवादों से हमें बचना चाहिए। उर्दू की शिकायत करते हुए या उर्दू को किसी साइन बोर्ड से हटाने के लिए याचिकाकर्ता ने पांच साल से भी ज्यादा समय गंवाया है। इतना ही समय अगर भारतीय भाषाओं के प्रेम, प्रचार और समन्वय में लगता, तो ज्यादा बेहतर होता। हम भारतीयों के लिए यह जरूरी है कि हम किसी भी ऐसी भाषा के विरोध से बचें, जिसे सांविधानक मान्यता मिली हुई है। भाषा का काम हर हाल में लोगों को जोड़ना है और किसी भी भाषा से यही काम हमें लेना चाहिए। ऐसी ही संवेदना की मांग इस देश का संविधान हमसे करता है।
Date: 17-04-25
संजीदा मामलों में न्यायाधीशों से ज्यादा संवेदना की उम्मीद
कमलेश जैन, ( वरिष्ष्ठ अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट )
हाल-फिलहाल ऐसी घटनाएं बढ़ती दिख रही हैं, जिनमें उच्च न्यायालय संवेदनहीन टिप्पणी करता है और शीर्ष अदालत उसे फटकार लगाती है। पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय में बलात्कार के एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा गया कि शिकायतकर्ता ने खुद ही मुसीबत को आमंत्रित किया, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने आपत्ति जताई है। अभियुक्त के बुलाने पर किसी लड़की का उसके घर जाना महज औपचारिकता है, आमंत्रण नहीं | स्त्री-पुरुष साथ खाते-पीते, बातें करते एक-साथ बैठ सकते हैं। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि पुरुष बिना सहमति के यौनाचार (अपराध) करे और यदि ऐसा होता है, तो अदालत का काम है कि वह उचित सजा सुनाए । मगर इलाहाबाद हाईकोर्ट इस उम्मीद पर खरा नहीं उत्तर सका। 17 मार्च को उसने एक अन्य मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि किसी महिला की छाती पकड़ना या उसकी सलवार का नाड़ा खींचना बलात्कार की नीयत साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह नितांत आपत्तिजनक टिप्पणी थी, जिसकी स्वाभाविक ही सार्वजनिक निंदा हुई। नए कानून में ऐसा करना दुष्कर्म की कोशिश माना गया है। दरअसल, भारतीय न्यायपालिका में तीन पायदान (निचली, उच्च और सर्वोच्च न्यायालय) वाली व्यवस्था इसलिए बनाई गई, क्योंकि यह माना गया था कि एक ही पायदान होने पर तथ्यों को जुटाना, उनकी व्याख्या करना और अंतिम फैसला सुनाना काफी दुरूह हो सकता है। यह किसी एक कोर्ट से संभव नहीं। इसीलिए निचली अदालतों में पुलिस की मदद से तथ्यों (साक्ष्यों) को इकट्ठा किया जाता है और एक निश्चय पर पहुंचकर फैसला सुनाया जाता है। जबकि, उच्च न्यायालय में तमाम तथ्यों को कानून के तराजू पर तौलकर, अलग-अलग चिंतन-प्रक्रिया के जरिये न्याय किया जाता है। असल में, हरेक व्यक्ति की प्रतिभा और उसका परिवेश अलग होता है। लालन-पालन और पृष्ठभूमि के कारण ही कुछ जजों में अतिवादी सोच दिखती है। इससे फैसलों में कुछ कमी रह जा सकती है। नतीजतन, लोग सर्वोच्च न्यायालय का रुख करते हैं, ताकि ज्यादा परिपक्व और हरेक पहलू पर काम कर चुके न्यायाधीश उचित फैसला सुना सकें।
सवाल है, मौजूदा व्यवस्था में सुधार किस तरह लाया जाए? होना तो यह चाहिए कि प्रधान न्यायाधीश को, जो तमाम न्यायाधीशों को विभिन्न प्रकार के मुकदमे सुनवाई के लिए सौंपते हैं, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चों और स्त्रियों के मामले इनके प्रति अतिरिक्त संवेदनशील व इन मामलों के गहन जानकार न्यायाधीशों को ही सौंपे जाएं। वैसे भी, जिस तरह से आजकल घर से लेकर बाजार, संस्थान, यहां तक कि अस्पतालों व पुलिस चौकियों तक में महिलाओं को निशाना बनाया जाने लगा है, यह जरूरी है कि जजों में संवेदनशीलता बढ़े। इसी तरह, पुलिस, न्यायाधीश (निम्न से उच्च अदालत तक) और अधिकारियों को बाल व महिला हितैषी कानूनों की जानकारी, व्याख्या, निपटारा और फैसलों को लेकर खास प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। ऐसा न हो कि एक कोर्ट को दूसरे से रोजाना फटकार मिलती रहे। शालीनता से ऐसे फैसलों का निपटारा होना चाहिए, ताकि पीड़ितों को न्याय मिले। तलाक, दहेज उत्पीड़न आदि के मामले भी अदालतों में थोक के भाव में पहुंच रहे हैं। वादी स्त्रियों के सामने तीन चार मुकदमों में फंसाने का विकल्प दे देते हैं और वे ऐसा करती भी हैं। ऐसे मामलों में भी अदालतों को संवेदनशीलता दिखाने की जरूरत है। तलाक, गुजारा भत्ता, दहेज प्रताड़ना, घरेलू हिंसा आदि को लेकर एक ही जगह मुकदमा होना चाहिए, ताकि आरोपी लड़का इन मुकदमों में अलग-अलग न जूझता रहे। कई ऐसे मामले आए हैं, जिनमें ऐसे मुकदमों से घबराकर आरोपी ने आत्महत्या तक कर ली। यही कारण है कि आज न्यायपालिका पर जिम्मेदारी कहीं अधिक बढ़ गई है। फिर, जिस तरह से न्यायाधीशों के घर से पैसों की बरामदगी होने लगी है, उससे भी लोगों में यह सोच घर करने लगी है कि कुछ मुकदमों में भ्रष्ट आचरण का पालन किया जाता है। इस सूरतेहाल में अदालतों को अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए शीघ्र और उचित न्याय प्रक्रिया अपनानी ही होगी।