16-09-2024 (Important News Clippings)
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Date: 16-09-24
पूर्वोत्तर के लिए भाजपा की नीति
शेखर गुप्ता
बीते एक दशक में जब-जब नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों का जिक्र आया है तो ‘ताकतवर’ शब्द बार-बार देखने को मिला है। प्रश्न यह है कि वर्तमान सरकार वाकई में ताकतवर है या कमजोर? मणिपुर इसकी शुरुआत करने के लिए एक बढ़िया जगह है। अगर आप मोदी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थक हैं तो आप कहेंगे मणिपुर प्रकरण से इस तरह निपटना मजबूती का काम है। आलोचकों के लिए यह सबसे बड़ी नाकामी होगा। अगर हम कहें कि दोनों ही जवाब गलत हैं तो? और हां, मैं यह बिल्कुल नहीं कह रहा कि दोनों थोड़े-थोड़े सही हैं।
जवाब यह है कि मणिपुर पूर्वोत्तर पर शासन करने का भाजपा का अनोखा वैचारिक तरीका दिख रहा है, जहां वह पहचान की राजनीति के जिउ जित्सु (जापानी मार्शल आर्ट) जरिये शासन करना चाहती है। अगर पूर्वोत्तर के राज्यों में शासन के लिए छोटी पहचान की राजनीति चुनौती बन रही है तो भाजपा उसका मुकाबला बड़ी पहचान के माध्यम से करना चाहती है। यही वजह है कि हमने जिउ जित्सु का इस्तेमाल किया क्योंकि उस मार्शल आर्ट में आप प्रतिद्वंद्वी की ताकत और वजन का ही इस्तेमाल कर उसे हराते हैं। भाजपा के लिए यह प्रयोग या प्रक्रिया चल रही है। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं लेकिन पार्टी इस प्रक्रिया को जारी रखना चाहती है।
उनकी नजर में कांग्रेस ने बीते तमाम दशकों के दौरान पूर्वोत्तर में और खासकर जनजातीय राज्यों में पहचान की राजनीति में भयंकर भूल की है। मैं पूर्वोत्तर में काम कर चुके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई नेताओं से यह बात सुन चुका हूं। भाजपा के कुछ लोग भी इनमें शामिल हैं और उनमें से कुछ दूर से ही सही लेकिन इससे अब भी जुड़ना चाहते हैं।
संक्षेप में उनके कहने का अर्थ है कि कांग्रेस कभी वहां की समस्या से दो-दो हाथ नहीं किए। उसने जनजातीय समूहों और ईसाई प्रभाव को पकड़ बनाने दी। उसने उग्रवाद को शांत करने के लिए केंद्र की ताकत का इस्तेमाल किया लेकिन राजनीतिक रूप से स्थानीय तत्वों के साथ नरमी बरतती रही। ऐसा भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में कांग्रेस की कमजोर समझ के कारण हुआ। वह हिंदुस्तान और व्यापक हिंदू बहुमत को राष्ट्रीय इच्छा की अभिव्यक्ति से बाहर रखने पर इस कदर आमादा थी कि उसने कई घावों को बढ़ने दिया। इस प्रकार उसने पूर्वोत्तर के मोर्चे को मुश्किल बनने दिया।
हम बात को और सरल शब्दों में कह सकते हैं कि कांग्रेस ने अपने फायदे के लिए छोटी स्थानीय पहचान की राजनीति का इस्तेमाल तो किया लेकिन केवल वोट बैंक के रूप में। इससे वहां की समस्याएं जस की तस बनी रहीं। संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्र में विविधता बहुत खूबसूरत बात है लेकिन हिंदू हृदय प्रदेश के नजरिये से देखें तो यह राष्ट्रीय हित को प्रभावित करती है। ऐसी जटिल समस्या को हल करने में समय लगेगा और इस दौरान कुछ झटकों के लिए तैयार रहना होगा। मणिपुर को वैसा ही झटका मानें, लेकिन यह भी देखें कि ‘हम वहां क्या कर रहे हैं- छोटी पहचान (कुकी-ईसाई-म्यांमारवासी) से लड़ने के लिए बड़ी पहचान (मेइती-हिंदू-भारतीय) का सहारा ले रहे हैं।’ हर व्यक्ति जानता है कि हम यानी केंद्र किस ओर है। आप पहचान की राजनीति करना चाहते थे? शौक से कीजिए। मगर जाहिर तौर पर इसके बाद हम छोटी जटिलताओं के शिकार हो जाते हैं।
सबसे नई समस्या वहां के भाजपाई मुख्यमंत्री हैं जो खुद हिंदू हैं और जिनके बारे में पार्टी में कहा जाता है कि मेइती लोगों के तो वह भगवान हैं, उन्होंने राज्यपाल को एक ज्ञापन सौंपा और केंद्रीय बलों पर नियंत्रण की मांग की। ठीक पहले उनके दामाद ने इन बलों को हटाने की मांग की थी। मुझे ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं नजर आता जहां केंद्र पर शासन कर रहे दल का मुख्यमंत्री, केंद्र द्वारा पदस्थ राज्यपाल के पास जाए और केंद्रीय बलों पर नियंत्रण की मांग करे यानी परोक्ष रूप से उन्हें हटाए जाने की। मानो वह कह रहे हों- अगर आप चाहते हैं कि हम मेइती हिंदू बनाम कुकी की लड़ाई लड़ें तो इसे हम पर छोड़ दीजिए। हमारे पास हथियार हैं, संख्या बल है और ताकत है बशर्ते कि आपके केंद्रीय बल रास्ते में न आएं। हम पुराने सवाल पर लौटते हैं: यह मजबूत सरकार है या कमजोर?
पार्टी तब जरूर खुद को मजबूत महसूस करती होगी जब उसके भीतर यह मांग उठती है कि मौजूदा विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए संविधान के अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करके पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार को बर्खास्त कर दिया जाए। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल कैमरे पर टेलीप्रॉम्पटर पढ़ते हुए धमकी दे रहे हैं कि वह संविधान का इकबाल बरकरार रखने के लिए शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के लिए तैयार हैं। तब पार्टी अपने ही मुख्यमंत्री का क्या करेगी, जिसके राज्य की आबादी पश्चिम बंगाल की आबादी के बमुश्किल पांच फीसदी है और जो मांग कर रहा है कि केंद्रीय बलों का नियंत्रण उसे सौंपा जाए या उन्हें वापस बुलाया जाए?
मणिपुर में भाजपा का नजरिया है कि राज्य में विदेशी घुसपैठिये और सशस्त्र ईसाई कुकी आदिवासी हमला कर रहे हैं और सरकार बहुत शानदार काम करते हुए हिंदू मेइती समुदाय का बचाव कर रही है। भले ही उनकी आबादी कुकी की तुलना में तीन गुना हो। आप इस मजबूत लड़ाई को रोकने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल नहीं करते। अगर आप आलोचक हैं तो आप इसे विशुद्ध नाकामी मानेंगे। राज्य सशस्त्र अराजकता का शिकार हो चुका है। ठीक है तकनीकी लिहाज से वह अलग दौर था मगर कश्मीर, पंजाब या नागालैंड और मिजोरम में चरम उग्रवाद के दौर में या पूर्वी-मध्य भारत के माओवादी इलाकों में कभी 10 किलोमीटर तक मार करने वाले रॉकेट और ड्रोन के जरिये बम नहीं दागे गए।
यह पूछने पर आपको जवाब मिलेगा: सीमापार देखिए। खतरा वहां से आ रहा है। देखिए म्यांमार की हालत क्या है। परंतु म्यांमार की स्थिति तो हमेशा ऐसी ही खस्ता थी और भारत की सीमा से लगे उसके उत्तरी इलाके में तो खास तौर पर हमेशा बिखराव रहा। आज म्यांमार की सेना नाटकीय गति से नियंत्रण खो रही है। इसका यह मतलब तो नहीं कि भारत अपनी सेना भेजकर वहां व्यवस्था बनवाए। भारत का काम अपने यहां की व्यवस्था बनाना है।
चूंकि पूर्वोत्तर पर भाजपा का रुख हिंदू पहचान और उसके वैचारिक राष्ट्रवाद से चल रहा है तो पार्टी यह नहीं कह सकती है यह कारगर नहीं है। मगर इस रुख ने मणिपुर में कुछ पुराने जख्म कुरेद दिए हैं और दूसरे घाव भी सामने आ गए हैं। मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में नागा विद्रोहियों (एनएससीएन) के साथ अंतिम फ्रेमवर्क समझौता करके पूर्वोत्तर में एक शानदार शुरुआत की थी। मोदी ने अपने आवास पर एक टेलीविजन कार्यक्रम में इसे ऐतिहासिक माना था और वहां नगा नेता भी मौजूद थे। उसके 10वें साल में कोई हलचल नहीं है। केंद्र के पहले वार्ताकार खुफिया ब्यूरो के पूर्व विशेष निदेशक आर.एन. रवि इस समय तमिलनाडु के राज्यपाल हैं जबकि एनएससीएन ने 2020 में ही उन पर फ्रेमवर्क समझौते के साथ छेड़खानी का इल्जाम लगाया था। उनके उत्तराधिकारी एके मिश्रा (वह भी खुफिया ब्यूरो के विशेष निदेशक रह चुके हैं) सक्रिय नहीं हैं और गुरुवार को नागालैंड सरकार द्वारा बुलाई गई एक बड़ी बैठक जिसमें नागरिक समाज, जनजातीय और चर्च के नेता शामिल थे, में यह मांग रखी गई कि संवाद को मंत्री स्तर या राजनैतिक स्तर तक बढ़ाया जाए। एनएससीएन ने यह भी कहा कि देर करने से नुकसान बढ़ेगा।
अगर नौ साल में नगालैंड में कोई प्रगति नहीं हुई और वह कुछ हद तक पीछे ही चला गया तो इस बीच नई अप्रत्याशित जगहों से चिंगारियां निकल रही हैं, खास तौर पर एनआरसी/सीएए की प्रतिक्रिया में। खासी छात्र संगठन ने बाहरी लोगों के विरुद्ध अपना आंदोलन तेज कर दिया है। गत माह मेघालय विधानसभा ने मेघालय आइडेंटिफिकेशन, रजिस्ट्रेशन (सेफ्टी ऐंड सिक्योरिटी) ऑफ माइग्रेंट वर्कर्स अमेंडमेंट बिल, 2024 पारित कर दिया। अब निरीक्षकों के पास ‘बाहरी’ कर्मचारियों की पहचान, पंजीयन और उन्हें चिह्नित करने के अधिक अधिकार होंगे।
मिजोरम में भी 1986 के शांति समझौते के बाद से शांति थी और वह भारत के सबसे शांत तथा कानून सम्मत क्षेत्रों में था। अब वहां भी पहचान का मुद्दा फिर से उठ रहा है और यह सीमापार तक फैल रही समस्या है। मुख्यमंत्री लाल्डुहोमा भी सबसे बड़ी मिजो जनजाति के पक्ष में आवाज उठाकर ग्रेटर मिजोरम की मांग नए सिरे से उठा रहे हैं। असम में हाल ही में खूनी संघर्ष हुए हैं जहां भाजपा एक पहचान (बंगाली मुसलमान) को दूसरी पहचान (हिंदू) से भिड़ाने में जुटी है।
2014 से ही भाजपा ने इस क्षेत्र पर केंद्र के रुख में वैचारिक और दार्शनिक किस्म का बदलाव किया है। परंतु पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए इसके परिणाम अब तक बुरे ही साबित हुए हैं। मणिपुर इसका ज्वलंत उदाहरण है। लेकिन भाजपा के लिए काम अभी चल रहा है। उसके लिए यह वैचारिक, दार्शनिक और बिना शक राजनीतिक काम है।
Date: 16-09-24
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विवादों के मायने
देवांशु दत्ता
सोशल मीडिया कंपनी एक्स पर ब्राजील में प्रतिबंध लगा दिया गया है। भारत में दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने मानहानि से जुड़े एक मामले में विकिपीडिया को बंद करने की धमकी दी है। अमेरिका में इंटरनेट आर्काइव (आर्काइव डॉट ओआरजी) को कॉपीराइट मामले में सामग्री हटाने का निर्देश मिला है। फ्रांस ने टेलीग्राम ऐप के संस्थापक पावेल दुरोव को इस आरोप में गिरफ्तार कर लिया है कि इस ऐप का इस्तेमाल बच्चों के अश्लील वीडियो प्रसारित करने के लिए हो रहा है। इन सभी मामलों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को चोट पहुंची है। ये सभी मामले उन देशों में हुए हैं, जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार माना गया है और इसे कई प्रावधानों के जरिये सुरक्षा दी गई है।
अप्रैल में ब्राजील में एक न्यायाधीश अलेक्जांड्र डी मोरैस ने एक्स पर चल रहे कुछ अकाउंट बंद करने का आदेश दिया था। आरोप था कि इन अकाउंट के जरिये ब्राजील के बारे में गलत जानकारी फैलाई जा रही है। मगर एक्स ने यह आदेश मानने से इनकार कर दिया और इसके मालिक ईलॉन मस्क ने न्यायाधीश मोरैस को ‘ब्राजील का तानाशाह’ बता दिया। दोनों पक्षों के बीच जबानी जंग तेज हो गई, जिसके बाद ब्राजील के उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों के पीठ ने न्यायाधीश मोरैस के आदेश को सही ठहराते हुए बहाल रखा। भारत में समाचार एजेंसी एएनआई ने विकिपीडिया के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया है। एएनआई का आरोप है कि विकिपीडिया ने उसके खिलाफ अनर्गल आरोप लगाए हैं और उसे ‘भारत सरकार के प्रचार का माध्यम’ बताया है। न्यायाधीश नवीन चावला ने उन तीन अकाउंट का ब्योरा मांगा, जिन्होंने एएनआई से जुड़ी जानकारी को बदला था। मगर विकिपीडिया को अकाउंट की जानकारी देना सही नहीं लगा। इसके बाद न्यायाधीश चावला ने विकिपीडिया को धमकी दी है कि वह सरकार को उस पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहेंगे। इंटरनेट आर्काइव निःशुल्क डिजिटल लाइब्रेरी है, जिसमें बंद हो चुकी वेबसाइट, पुरानी फिल्मों, संगीत और पुस्तकों से जुड़ी सामग्री मौजूद होती हैं।
यह नि:शुल्क पुस्तकालय की ही तरह उपयोगकर्ताओं को एक बार में स्कैन की हुई एक डिजिटल पुस्तक पढ़ने देता था। कोविड महामारी के दौरान और बाद में कई सार्वजनिक पुस्तकालय बंद होने के कारण इंटरनेट आर्काइव ने ‘एक पुस्तक एक व्यक्ति’ की शर्त हटा दी ताकि लोगों को कोई दिक्कत नहीं हो। मगर प्रकाशकों ने यह कहते हुए इंटरनेट आर्काइव पर मुकदमा दायर कर दिया कि इन डिजिटल पुस्तकों का पढ़ने के अलावा दूसरे तरीकों से भी इस्तेमाल किया गया, जो कॉपीराइट नियमों के खिलाफ थे। प्रकाशक हशेट सर्किट ने अमेरिका के एक न्यायालय में आर्काइव के खिलाफ मुकदमा जीत लिया है। अब आर्काइव के लिए लगभग 50,000 पुस्तकें लोगों को उपलब्ध कराना मुश्किल हो जाएगा। रूस, ईरान और चीन जैसे कई देशों ने एक्स पर स्थायी रूप से पाबंदी लगा रखी है। मगर ब्राजील में एक्स का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या लगभग 2 करोड़ है। एक्स अक्सर सरकार के निर्देश पर अकाउंट बंद कर दिया करती है। उदाहरण के लिए कश्मीर, मणिपुर, किसानों के आंदोलन सहित अन्य विषयों पर केंद्रित अकाउंट आम तौर पर भारत में नहीं देखे जा सकते। एक्स उन अकाउंट को भी बंद कर देती है, जो इसकी आंतरिक नीतियों का उल्लंघन कर सामग्री प्रकाशित या प्रसारित करते हैं। ब्राजील में अकाउंट बंद करने से एक्स का इनकार करना थोड़ा असामान्य है और इससे कंपनी को राजस्व का नुकसान उठाना पड़ सकता है।
आर्काइव मामले के बाद कई शोधकर्ता कई पुस्तकें नहीं पढ़ पाएंगे। अमेरिकी न्यायालय ने स्वीकार किया कि सामग्री देकर आर्काइव ने मुनाफा नहीं कमाया था। निःशुल्क सार्वजनिक पुस्तकालय भी कॉपीराइट वाली किताबें एवं उनकी डिजिटल प्रतियां लोगों को पढ़ने के लिए देते रहते हैं। इस आदेश के बाद उन जगहों पर रहने वाले लोगों को मुश्किल हो सकती है, जहां पुस्तकालय (फिजिकल लाइब्रेरी) नहीं हैं। विकिपीडिया 300 भाषाओं में उपलब्ध है और कोई भी इस पर किसी भी तरह की सामग्री जोड़ या हटा सकता है या फिर नई प्रविष्टि दाखिल कर सकता है। मगर जो तथ्य जोड़े या दिए जा रहे हैं उनकी पुष्टि करने वाली सूचना अथवा स्रोत सार्वजनिक पटल पर अवश्य उपलब्ध होने चाहिए। विकिपीडिया पर उपलब्ध जानकारी में कभी-कभी त्रुटियां एवं पूर्वग्रह भी होते हैं मगर स्वयं सुधार या सेल्फ करेक्शन की व्यवस्था होने से उपयोगकर्ता सामग्री पर सवाल उठा सकते हैं, उसे संशोधित कर सकते हैं या उस पर चर्चा कर सकते हैं। इंटरनेट आर्काइव की तरह यह भी शोधकर्ताओं के लिए एक बड़ा मंच है। टेलीग्राम भी चैनल है, जहां व्हाट्सऐप की तरह ही उपयोगकर्ता पोस्ट डालते है। टेलीग्राम यूक्रेन युद्ध और गाजा से संबंधित सामग्री पोस्ट करने के लिए बड़ा प्लेटफॉर्म है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करने वाले लोग इनमें कम से कम तीन प्रतिबंधों के खिलाफ आवाज उठाएंगे। एक्स का रवैया ब्राजील में थोड़ा अटपटा जरूर रहा है क्योंकि यह सरकार के विशेष अनुरोध पर कोई खास राजनीतिक सामग्री किसी विशेष इलाके में उपलब्ध नहीं होने देती। फिर भी एक्स पर पूर्ण प्रतिबंध अतिवाती प्रतिक्रिया लगती है।
विकिपीडिया के लिए अज्ञात संपादकों के बारे में जानकारी मुहैया कराना थोड़ा कठिन है। एएनआई के बारे में विवादास्पद सामग्री की पुष्टि करने वाले सार्वजनिक लिंक दिए गए हैं। यहां भी जानकारी या सूचना देने वाले किसी गैर-लाभकारी प्लेटफॉर्म पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की बात अत्यधिक कठोर जान पड़ती है और इससे भारत में लाखों लोगों को नुकसान होगा। आर्काइव का मामला कॉपीराइट सामग्री के निःशुल्क इस्तेमाल (लार्ज लैंग्वेज मॉडल में इस सामग्री के इस्तेमाल सहित) पर कई सवाल खड़े करता है। सार्वजनिक पुस्तकालयों को भी किताबें उपलब्ध कराने के अधिकार से वंचित करने के लिए भी ऐसे ही तर्क दिए जा सकते हैं। सभी की नजरों में बच्चों के अश्लील वीडियो या चाइल्ड पोर्नोग्राफी प्रसारित करना गलत और अक्षम्य अपराध है मगर टेलीग्राम अपने बचाव में कह सकता है कि सामग्री पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है और अधिक से अधिक वह यही कर सकता है कि कुछ खास मामलों में जानकारी देने के लिए अधिकारियों का सहयोग करे। ये मामले 21वीं शताब्दी में डिजिटल माहौल के बीच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नियमों को नए तरीके से परिभाषित करने पर विवश करते हैं। चूंकि ये मामले बड़े लोकतांत्रिक देशों में चल रहे हैं, इसलिए वहां इन्हें स्वेच्छाचारी देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगे प्रतिबंधों की तुलना में गंभीरता से लिया जाएगा।
Date: 16-09-24
दांपत्य में दरार
संपादकीय
हिन्दू विवाह को अनुबंध के तहत भंग नहीं किया जा सकता, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक पीठ ने एक महिला की अपील स्वीकार करते हुए यह कहा। शास्त्र सम्मत विधि आधारित हिन्दू विवाह को सीमित परिस्थितियों में भंग किया जा सकता है। वह भी संबंधित पक्षों पेश साक्ष्यों के आधार पर । पीठ ने कहा कि पारस्परिक सहमति के बल पर तलाक मंजूर करते समय भी निचली अदालत अपीलकर्ता को मूल सहमति पर कायम रहने के लिए बाध् नहीं कर सकती। अदालत ने कहा, ऐसा करना न्याय का उपहास होगा। पति ने आरोप लगाया कि 2007 में उसकी बीवी उसे छोड़ गई तथा 2008 में विवाह भंग करने की अदालत में अर्जी लगाई। मध्यस्थता प्रक्रिया के दौरान पति- पत्नी ने अलग रहने पर सहमति जताई। वाद के लंबित रहने के कारण पत्नी ने विचार बदल लिए पर पति ने उसे साथ रखने से इंकार कर दिया | हालांकि सेना के अधिकारियों की मध्यस्थता के बाद दोनों साथ रहने को राजी हो गए। इस दौरान इनके दो बच्चे भी हुए। 2011 में बुलंदशहर के अपर जिला जज द्वारा जारी निर्णय के खिलाफ उच्च न्यायालय में महिला ने अपील दायर की जिसमें पति की तरफ से दाखिल तलाक की अर्जी मंजूर कर ली गई थी। मामला उतना पेंचीदा नहीं लगता जितना दंपति ने इसे खुद उलझा लिया। अपने यहां घरेलू हिंसा के बावजूद अभी भी दो फीसद से ज्यादा तलाक नहीं होते हैं। पूरी जिंदगी दंपति आपसी झगड़ों में काट लिया करते हैं। यह दंपति अदालत की शरण में जाने के बावजूद मध्यस्थों के दबाव में या नये सिरे से सामंजस्य बिठाने की उम्मीद में पुनः साथ रहने को राजी हो गया। कई दफा विपरीत स्वभाव या आदतों वाले दंपतियों को साथ रहने में दिक्कतें आती हैं परंतु वे विवाहविच्छेद का कड़ा निर्णय लेने में घबरा जाते हैं, या पारिवारिक दबाव के आगे उन्हें साथ रहने को बाध्य होना पड़ता है। ऐसे में उनकी काउंसलिंग कराई जानी चाहिए। उन्हें सामाजिक-पारिवारिक रूप से समझाया जाना चाहिए। खासकर इस मामले दो बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी भी दंपति को मिल कर उठानी होगी । विवाह भंग होने से इन बच्चों का भविष्य भी प्रभावित होगा। तलाक की अर्जी लगाने के बावजूद यदि दंपति साथ रह रहा है, तो पारिवारिक या निचली अदालत को उसे आखिरी मौका देने का प्रयास करना चाहिए।