16-07-2024 (Important News Clippings)

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16 Jul 2024
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Date: 16-07-24

Probe TN Encounter

Encounters are an outcome of a failed criminal justice system – failures that are politically sustained.

TOI Editorials

The investigation into the murder of BSP politician K Armstrong got murkier with Chennai police killing a suspect in custody, when he allegedly tried to escape – that’s SOP for encounters. Doubts have been raised on two counts by opposition parties AIADMK and state BJP. First, the suspect who allegedly had “surrendered” was not the “real culprit”, and two, he was “encountered” by police.

Nothing new | Supreme Court in 2014 laid down detailed guidelines on how to investigate extrajudicial killings. But that hardly happens because there is hardly a govt that hasn’t normalised encounter killings. Security forces are to use service weapons in self-defence. That’s often the fig leaf. Encounters as justice is routine. UP police, for instance, told court last year that 183 alleged criminals had been killed in close to 11,000 encounters from March 2017 to April 2023. Encounters seems to be a policy UP govt favours. During LS poll campaign, Bengal BJP chief had warned the state’s goons that his party would bring in the “UP treatment” and “encounters” once in office. Normalisation of encounter killings in everyday life is near complete.

Normal practice | States with leftwing extremism, and forces in J&K, normalised encounter killing decades ago. In Chhattisgarh this May, tribals, after the May 10 encounter in Pidiya village which claimed 12 lives, allegedly including 10 innocent villagers, said security forces were trigger happy. A PIL in Punjab HC, also in May, sought a probe into 6,733 encounter killings, custodial deaths, disappearances and illegal cremation of bodies in Punjab during 1984-1995. In 2014, when it spelt out the guidelines for probes into encounters, SC dealt with pleas on the authenticity of nearly 99 such encounters between Mumbai police and alleged criminals that killed 135 people between 1995 and 1997.

Police & political trap | Encounter killings only highlight failures of India’s criminal justice system – poor quality of prosecution and thus conviction, and inordinate delays. All of which are politically sustained – police reforms and funding are everybody’s pet cause and no one’s responsibility. When police kill history sheeters, or alleged rapists, like in the Hyderabad case, killings are celebrated by a public that finds instant justice the only kind being delivered. Questioning such excesses is considered a hit on police morale. Courts have repeatedly upheld the lawlessness of encounter killings. Questions on the probe into Armstrong’s murder can only be settled by a probe, where investigators are insulated from politics. Is that even possible? Will DMK govt respond?


Date: 16-07-24

Raise the Stakes of BIMSTEC Markedly

ET Editorials

The 2-day Bimstec (Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation) foreign ministers’ retreat in New Delhi last week, the first since the group’s charter came into effect in May, should result in an actionable roadmap knitting the seven member countries — India, Sri Lanka, Bangladesh, Myanmar, Thailand, Nepal and Bhutan — into an effective economic grouping. Being the largest economy, India must play a leadership role by leveraging its economy and strengths of each partner to deliver on the promise of engagement. S Jaishankar underlined this fact when he said that Bimstec should harbour higher aspirations, and that it should infuse new energies and resources, and a fresh commitment to bolster cooperation among the BoB countries.

India’s traditional ambivalence toward taking the lead has allowed China to expand its influence. But trade among these seven economies has grown from 5.5% in 2010 to 7.2% in 2018. Yet, it remains woefully low compared to intra-Asean trade (25%). The priority must be increasing intra-Bimstec trade and filling the growing infrastructure investment gap — about $120 bn annually.

New Delhi’s role in enhancing trade volumes with Bimstec constituents and reducing trade barriers among member countries is crucial. Facilitating agricultural trade while ensuring domestic food security and improving connectivity, particularly of clean energy, is paramount. India’s rapidly growing RE sector can be a game-changer. By leveraging this sector, it can establish a cross-border energy infrastructure grid that addresses the group’s concerns about energy security, clean energy transition and sustainable economic growth. India’s aim should, indeed, be ‘solid outcomes and practical collaborations’.


Date: 16-07-24

भ्रष्टाचार और आम आदमी

संपादकीय

बिहार में एक तरफ शासन भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस की नीति पर काम कर रहा है। दूसरी तरफ विपक्ष लगातार भ्रष्टाचार पर हमलावर है। चाहे पुल-पुलिया गिरी हो या तटबंधों की मरम्मत में गड़बड़ी हुई हो, भ्रष्टाचार का आरोप लगता ही रहा है। गंभीर बात यह कि अब मंत्री भी मानने लगे हैं कि निचले स्तर तक भ्रष्टाचारी सक्रिय हैं। राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री डा. दिलीप कुमार जायसवाल का रविवार को आया बयान आम आदमी के जख्म पर थोड़ा मरहम तो लगाता है, लेकिन समस्या का निराकरण नहीं करता। मंत्री सिर्फ अपने हिस्से की बात कर रहे थे। भूमाफिया की गरिफ्त में व्यवस्था का सच बता रहे थे। यदि इतना कुछ पता है तो इस तंत्र को नेस्तनाबूत करने में हिचक कैसी ? सिर्फ कहने से या सिर पीटने से बात नहीं बनेगी। पूरे तंत्र को खंगालने और उसपर कड़ी कार्रवाई की जरूरत है। आम आदमी चाहे जमीन का मामला हो, योजनाओं के लाभ का मामला हो, ऋण का मामला हो, अनुभव करना चाहता है कि वह वास्तविक लाभुक है। यदि कुछ योजनाओं का लाभ सीधे उसके खाते से लिंक न होता तो कल्पना की जा सकती है कि भ्रष्टाचार की व्यापकता किस स्तर पर होती । यदि विपक्ष की आलोचनाओं को गंभीरता से लिया जाए तो कई स्तरों पर गड़बड़ी के ढीले पेच को सका जा सकता है। आम आदमी अपने जीवन को सरल बनाने की छटपटाहट में इन्हीं व्यवस्थाओं के बीच से होकर गुजरता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यदि शीर्ष पर बैठे लोगों की दृष्टि इस ओर गई है तो आम आदमी को राहत मिलेगी। काम कराने के लिए जगह-जगह जेब ढीली नहीं करनी पड़ेगी। सुशासन को धकियाते ऐसे भ्रष्ट तंत्र पर लगातार चोट करने की जरूरत है।


Date: 16-07-24

सवालों से घिरी हुई प्रशासनिक सेवा

प्रेमपाल शर्मा, ( लेखक भारत सरकार में संयुक्त सचिव रहे हैं )

प्रशिक्षु आईएएस अधिकारी पूजा खेडकर प्रकरण ने देश की प्रशासनिक सेवा की कई संस्थाओं के कारनामों को एक साथ उजागर कर दिया है। पूजा खेडकर अभी लालबहादुर शास्त्री अकादमी, मसूरी में प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं। उनकी यह ट्रेनिंग अगले साल जुलाई में पूरी होगी। इस दौरान उन्हें फील्ड ट्रेनिंग के लिए असिस्टेंट कलेक्टर के रूप में पुणे भेजा गया। वहां जाते ही उन्होंने सभी नियम-कायदे और नैतिकता को ताक पर रख ऐसे-ऐसे काम किए, जो देश की पूरी प्रशासनिक सेवा के लिए कलंक कहे जा सकते हैं। उन्होंने वहां जाते ही लाल बत्ती लगी सरकारी गाड़ी, एक अलग आफिस, घर और चपरासी इत्यादि की मांग की। यहां तक कि अपनी निजी आडी गाड़ी पर खुद ही अवैध रूप से लाल बत्ती भी लगवा ली, जबकि उस गाड़ी के खिलाफ यातायात नियमों के उल्लंघन के दर्जन भर मामले दर्ज हैं और जुर्माना तक बकाया है। बीते दिनों उसे जब्त कर लिया गया। आईएएस अधिकारी बनने के बाद उन पर ऐसा नशा छाया कि पुणे में तैनात एक अन्य अफसर के कार्यालय से जबरन उनका नाम हटाकर अपनी नेम प्लेट लगा दीं।

हालांकि इस प्रकरण के सामने आना एक मायने में सही साबित हुआ है। इस प्रकरण से न जाने कितने ज्वलंत प्रश्न खुलकर सामने आ गए हैं। पहला सवाल तो यही है कि पूजा खेडकर को ओबीसी सर्टिफिकेट कैसे मिल गया? जब उनकी खुद की संपत्ति 17 करोड़ रुपये दर्ज है। उनके पिता भी एक पूर्व अधिकारी होने के साथ-साथ राजनीति में कदम बढ़ा रहे हैं। उन्होंने हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में अपनी संपत्ति 40 करोड़ रुपये और आय 43 लाख रुपये वार्षिक दिखाई है। यह ठीक है कि पूजा खेडकर ओबीसी समुदाय से आती हैं, लेकिन आठ लाख रुपये से अधिक वार्षिक आय वाले तो क्रीमीलेयर के दायरे में आते हैं। ऐसे लोग आरक्षण के हकदार नहीं होते। इससे स्पष्ट होता है कि उन्हें ओबीसी प्रमाण पत्र गलत तरीके से दिया गया। इसके अलावा उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा ओबीसी कोटे के साथ-साथ दिव्यांग उम्मीदवार के रूप में दी। ऐसे किसी सर्टिफिकेट के मामले में सत्यापन के लिए विशेष मेडिकल परीक्षा होती है, परंतु यूपीएससी द्वारा कई बार बुलाने पर भी वह इसके लिए नहीं गईं। हर बार एक नया बहाना बनाती रहीं, फिर उन्होंने खुद को दिव्यांग साबित करने के लिए एक निजी क्लीनिक से प्रमाण पत्र बनवाकर पेश कर दिया। यह मामला यूपीएससी की तरफ से कोर्ट में भी गया, लेकिन इसके बावजूद निजी क्लीनिक वाला उनका प्रमाण पत्र मान्य हो गया। आखिर यह कैसे स्वीकार हो गया? सवाल है कि यह किसके दबाव में किया गया? ओबीसी और दिव्यांगता के वर्ग में उनकी रैंक 841 थी। यानी उनसे ऊपर अन्य मेधावी और सक्षम उम्मीदवार थे, जिनकी कीमत पर उन्हें जगह मिली। इस प्रकार यह ओबीसी वर्ग के दूसरे छात्रों और दिव्यांगों की हकमारी का मामला भी है। निश्चित रूप से यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाए गए ओबीसी के पैमाने से लेकर उन सभी मानकों की भी अनदेखी है, जिनका उल्लंघन करते हुए वह आईएएस बन गईं। ऐसे लोग मेरिट की कीमत पर लगातार जगह बना रहे हैं।

इस प्रकरण में एक बात साफ नजर आ रही है कि बिना राजनीतिक और प्रशासनिक साठगांठ के पूजा खेडकर यहां तक नहीं पहुंच सकती थीं। आईएएस बनने के लोभ में वह वक्त से पहले भटक गईं और उन सुविधाओं की मांग करने लगीं, जो प्रशासनिक सेवा में शामिल हुए ज्यादातर अफसर करते हैं। आखिर उनके जैसे अधिकारी जनता की सेवा कैसे करेंगे? वह ऐसी अकेली अधिकारी नहीं हैं। उनसे पहले इस सूची में कई नाम दर्ज हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के तमाम मामले दर्ज हैं। चाहे अभी जेल में बंद आईएएस पूजा सिंघल हों या मध्य प्रदेश के आईएएस दंपती। दरअसल नौकरशाही का कोई विभाग इससे अछूता नहीं है। अगर हाल का उदाहरण लें तो तीन वर्ष पहले जिस आइपीएस अधिकारी ने यूपीएससी की एथिक्स यानी नैतिकता के प्रश्नपत्र में सबसे ज्यादा नंबर पाए थे, उसके अगले वर्ष की परीक्षा में उसे नकल करते पकड़ा गया। इससे जाहिर होता है कि भारत जैसे विशाल देश को एक मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था देने वाले इस स्टील फ्रेम में बहुत तेजी से गिरावट आ रही है।

हमारी सभ्यता सदियों पुरानी है। इसकी समृद्धि का गुणगान इतिहास के पन्नों में दर्ज है। इसके बावजूद समाज के विभाजन ने इसे इतना जर्जर कर दिया कि हम हजारों साल तक कभी मुगलों तो कभी अंग्रेजों के गुलाम बने रहे। दुख की बात है कि जाति, पंथ और क्षेत्र के नाम पर लगभग वैसा ही विभाजन आज हमारी प्रशासनिक सेवाओं में प्रवेश कर चुका है। राजनीति और नौकरशाही का गठजोड़ इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। इससे छुटकारा पाने के लिए देश की नौकरशाही के मौजूदा रूप यानी उसकी भर्ती से लेकर ट्रेनिंग और सुविधाओं में तुरंत सुधार करना होगा। नौकरी की सुरक्षा और सुविधाएं ही बार-बार पूजा खेडकर जैसे अधिकारियों को जन्म देती हैं। यदि देश को कोई सही संदेश देना है तो पूजा खेडकर के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। प्रशिक्षण अवधि के दौरान बर्खास्त करने में कोई सेवा नियम आड़े नहीं आता। इसके साथ ही सरकार ने पूजा खेडकर पर लगे आरोपों की जांच के लिए जो समिति बनाई है, उसका यह दायित्व भी बनता है कि उनके मेडिकल सर्टिफिकेट से लेकर ओबीसी सर्टिफिकेट देने के मामलों की जांच करे, क्योंकि यह प्रकरण यूपीएससी और कार्मिक मंत्रालय के साथ-साथ देश की पूरी प्रशासनिक व्यवस्था की साख का भी है।


Date: 16-07-24

सीमित संभावनाएं

संपादकीय

संयुक्त राष्ट्र ने गत सप्ताह विश्व जनसंख्या संभावना रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में व्यापक तौर पर वैश्विक जनांकिकी के भविष्य की राह समेत कई अनुमान जताए गए हैं तथा चुनिंदा देशों और क्षेत्रों को लेकर भविष्यवाणी की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया की आबादी में इजाफा जारी रहेगा और 2080 के दशक के आरंभ तक दुनिया की आबादी 10 अरब का आंकड़ा पार कर जाएगी। उसके बाद आबादी में गिरावट का सिलसिला आरंभ होगा। यह समग्र रुझान क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर उल्लेखनीय अंतर को छिपा लेता है। इस अवधि में बाद के वर्षों में आबादी में होने वाली वृद्धि का अधिकांश भाग अफ्रीका महाद्वीप से आएगा, खासतौर पर सब-सहारा अफ्रीका से। इनमें से कई देश मसलन सोमालिया और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ द कॉन्गो (डीआरसी) फिलहाल आर्थिक रूप से पिछड़े और राजनीतिक रूप से अस्थिर हैं। उनमें से कुछ देश मसलन डीआरसी आदि में भरपूर प्राकृतिक संसाधन भी हैं जिनका मूल्य आने वाले दशकों में बढ़ेगा। इन देशों में युवा आबादी भी होगी और संसाधनों को लेकर प्रतिस्पर्धा भी होगी। जाहिर है भविष्य में ये वैश्विक और भूराजनीतिक दृष्टि से
अहम होंगे।

वैश्विक जनसंख्या संभावना रिपोर्ट से यह संकेत भी मिलता है कि निकट भविष्य में भारत की आबादी चीन से अधिक रहने वाली है। बहरहाल इसका अनुमान है कि पाकिस्तान की आबादी का बढ़ना भी जारी रहेगा और 39 करोड़ की आबादी के साथ वह अमेरिका से आगे निकल जाएगा। यह बात भारत और विश्व के लिए महत्त्वपूर्ण है। यह देखना शेष है कि भारत की पाकिस्तान को अलग-थलग रखने और अनदेखा करने की नीति क्या तब भी टिकाऊ होगी जब वह दुनिया का तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला मुल्क बन जाएगा? रिपोर्ट के अनुसार भारत की आबादी में 2062 के बाद कमी आनी शुरू हो जाएगी यानी वैश्विक जनसंख्या के सर्वोच्च स्तर पर पहुंचने के करीब दो दशक पहले उसकी आबादी घटने लगेगी।

इससे भी अहम बात शायद यह है कि देश की समस्त आबादी में गिरावट शुरू होने के करीब एक दशक पहले ही उसकी श्रम योग्य आयु की आबादी के बढ़ने की गति आम आबादी की तुलना में कहीं अधिक तेजी से धीमी होगी। निर्भरता अनुपात की बात करें तो 15 वर्ष से कम और 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की संख्या में इजाफा होगा। बढ़ती और उच्च निर्भरता अनुपात वाले देश आमतौर पर उस सीमा से गुजर चुके हैं जहां वे प्रति व्यक्ति आय में इजाफा कर सकते थे। भारत के लिए इसके आर्थिक और नीतिगत निहितार्थ स्पष्ट हैं। उसके पास समृद्ध होने के लिए तीन दशक हैं। अगर हम इस अवधि का समझदारी से इस्तेमाल नहीं कर पाए तो मध्य आय स्तर में उलझ सकते हैं। ऐसे में वह जनसंख्या उत्पादकता में असाधारण वृद्धि करने में भी नाकाम रहेगा।

जो लोग 2054 में श्रम शक्ति में सबसे बुजुर्ग होंगे वे इस समय रोजगार की तलाश में हैं। अल्पशिक्षित युवाओं के सरकारी नौकरी की तलाश में कतार में लगे होना नीति निर्माताओं के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। अगली सदी में तथा उसके बाद देश का भविष्य इन्हीं लोगों पर निर्भर करेगा। क्या उनके पास वह कौशल है कि वे देश को उच्च आय के स्तर पर ले जा सकें? इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक नहीं लगता। ऐसे में कौशल उन्नयन सरकार की पहली प्राथमिकता होना चाहिए। केवल रोजगार निर्माण करना उस आबादी के लिए पर्याप्त नहीं है जो अवसरों का लाभ लेने का कौशल नहीं रखती। उच्च और जीवनपर्यंत शिक्षा के विविध मॉडलों को आजमाना चाहिए। व्यावसायिक प्रशिक्षण का विस्तार होना चाहिए। भारत के जनांकिकीय लाभ का वक्त हाथ से फिसल रहा है। उम्रदराज होने की प्रक्रिया को पलटा नहीं जा सकता है और भारत को अगले तीन दशक में अपनी जनांकिकी का लाभ लेना चाहिए।


Date: 16-07-24

लोकतंत्र में हिंसा

संपादकीय

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर हुए हमले के बाद स्वाभाविक ही वहां की सुरक्षा और खुफिया एजंसियों पर सवाल उठने लगे हैं। ट्रंप इस बार के राष्ट्रपति चुनाव में फिर से उम्मीदवार हैं। वे पेन्सिल्वेनिया के बटलर में एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे कि एक युवक ने पास की एक छत से उन पर गोली दाग दी। गनीमत है कि निशाना चूक गया और गोली ट्रंप के दाहिने कान को चीरती हुई निकल गई। सुरक्षाकर्मियों ने हमलावर को वहीं ढेर कर दिया। राष्ट्रपति जो बाइडन ने घटना की सख्त निंदा की है। उन्होंने कहा कि अमेरिकी लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं है। मगर इस घटना के बाद राजनीतिक बयानबाजियां शुरू हो गई हैं।

रिपब्लिकन पार्टी के कुछ नेताओं ने आरोप लगाया कि जो बाइडेन के भाषणों से ट्रंप पर हमला करने की शह मिली। यह हत्या का प्रयास था। हालांकि अमेरिका में यह पहली घटना नहीं है, जब किसी नेता पर जानलेवा हमला हुआ। मगर दुनिया भर में सबसे सतर्क और चाक-चौबंद मानी जाने वाली अमेरिकी सुरक्षा प्रणाली पर सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं कि ट्रंप पर हमला करने वाले के बारे में घटना से कुछ समय पहले सूचना दे दी गई थी। एक प्रत्यक्षदर्शी ने बताया है कि हमलावर को पास के घर की छत पर स्पष्ट रूप से देखा गया था और उसने सुरक्षाकर्मियों को इसकी सूचना भी दी थी।

चूंकि अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की सरगर्मी है और ट्रंप की दावेदारी मजबूत मानी जा रही है, इस घटना को राजनीति के केंद्र में ला दिया गया है। कई विश्लेषक मानते हैं कि इस घटना से ट्रंप को सहानुभूति मिलेगी और उनकी दावेदारी और मजबूत होगी। हालांकि अमेरिका में मतदाताओं को इस तरह प्रभावित करना थोड़ा कठिन माना जाता है। अमेरिकी खुफिया एजंसी एफबीआइ अभी पता नहीं लगा सकी है कि हमलावर का उद्देश्य क्या था। उसका कहना है कि हमलावर ने अकेले हमले की योजना बनाई थी, उसका किसी अन्य समूह से कोई संबंध नहीं था, इसलिए उसके मकसद के बारे में जान पाना कठिन है। मगर अमेरिका में पिछले कुछ समय से जिस तरह का वातावरण बना है, उसमें युवाओं के भीतर पनपे हिंसक व्यवहार का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। पिछले चुनाव में जब ट्रंप चुनाव हारे थे, तब उनके समर्थक अमेरिकी संसद में घुस गए और वहां भारी तोड़-फोड़ की थी। वहां नस्लीय हिंसा और दूसरे देशों के नागरिकों के प्रति युवाओं में नफरत का जैसा मानस बना है, उससे वहां के वातावरण का अंदाजा लगाया जा सकता है।

छिपी बात नहीं है कि अमेरिका में महंगाई और बेरोजगारी के कारण बहुत सारे युवाओं में नाराजगी है। इस कुंठा में कई युवा हिंसक बर्ताव करते देखे जाते हैं। हालांकि ट्रंप पर हमला करने वाले युवक ने उनके समर्थक के रूप में खुद को पंजीकृत कराया था, पर जब तक ठीक-ठीक पता नहीं चल जाता कि उसने उन पर हमला क्यों किया, तब तक कुछ भी दावे के साथ कहना मुश्किल है। मगर यह घटना अमेरिकी लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय इसलिए है कि ऐसी चुनावी हिंसा इससे पहले वहां नहीं देखी गई। अगर अमेरिकी युवाओं में ऐसी प्रवृत्ति पनप रही है, तो निस्संदेह इसे लेकर तुरंत सावधान हो जाने की जरूरत है। अच्छी बात है कि बाइडेन प्रशासन इस घटना की जांच में कोई राजनीतिक दुराग्रह नहीं दिखा रहा है।


Date: 16-07-24

अनदेखी से बिगड़ती पारिस्थितिकी

जयप्रकाश त्रिपाठी

पर्यावरण को भारी नुकसान और जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया का ध्यान लगातार भविष्य की गंभीर चुनौतियों की ओर बना हुआ है। भारी विनाश के आसार नजर आने के बावजूद, ‘स्टैटिस्टिकल रिव्यू आफ वर्ल्ड एनर्जी’ के एक ताजा अध्ययन में खुलासा हुआ है कि जीवाश्म ईंधनों की खपत और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन उच्च स्तर पर पहुंच चुका है। हालांकि अक्षय ऊर्जा स्रोतों में हुई वृद्धि के कारण वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र में जीवाश्म ईंधनों की हिस्सेदारी में मामूली गिरावट आई है। वैश्विक प्राथमिक ऊर्जा की खपत अब तक के सबसे ऊंचे स्तर 620 एक्साजूल पर पहुंच गई है। पहली बार कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन 40 गीगाटन के पार चला गया है। यह रपट विश्वमंच और पर्यावरण विश्लेषकों को यह समझने में मदद करती है कि निकट भविष्य की चुनौतियां कितनी भयावह हैं।

वैश्विक तापमान में एक डिग्री का हर अंश प्राकृतिक प्रणालियों, मानव समाजों और अर्थव्यवस्थाओं के लिए महत्त्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम उत्पन्न कर सकता है। वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए 2022 के स्तर से कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन में लगभग 37 गीगाटन की कटौती करने और 2050 तक ऊर्जा क्षेत्र में शुद्ध-शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने की आवश्यकता है। कुछ प्रगति के बावजूद, ऊर्जा संक्रमण प्रौद्योगिकियों की वर्तमान तैनाती और इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों के 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित करने के पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक स्तरों के बीच महत्त्वपूर्ण अंतर बना हुआ है। 1.5 डिग्री सेल्सियस के अनुकूल मार्ग के लिए समाज द्वारा ऊर्जा के उपभोग और उत्पादन के तरीके में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है।

दीर्घकालिक निम्न ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन विकास रणनीतियां और शुद्ध-शून्य लक्ष्य, अगर पूरी तरह से क्रियान्वित किए जाते हैं, तो 2022 के स्तर की तुलना में 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में छह फीसद और 2050 तक 56 फीसद की कमी आ सकती है। हालांकि, अधिकांश जलवायु प्रतिज्ञाओं को अभी विस्तृत राष्ट्रीय रणनीतियों और योजनाओं में तब्दील और क्रियान्वित किया जाना है, जिसके लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन चाहिए। नियोजित ऊर्जा परिदृश्य के अनुसार, ऊर्जा से संबंधित उत्सर्जन अंतर 2050 तक 34 गीगाटन तक पहुंचने का अनुमान है। डेढ़ डिग्री सेल्सियस पर बने रहने के लिए हर साल करीब एक हजार गीगावाट अक्षय ऊर्जा की जरूरत होती है। दो साल पहले वैश्विक स्तर पर करीब 300 गीगावाट अक्षय ऊर्जा जोड़ी गई, जो नई क्षमता का 83 फीसद है, जबकि जीवाश्म ईंधन और परमाणु ऊर्जा के लिए संयुक्त हिस्सेदारी 17 फीसद है। अक्षय ऊर्जा की मात्रा और हिस्सेदारी दोनों में पर्याप्त वृद्धि की जरूरत है, जो तकनीकी रूप से संभव है।

सन 2022 में रेकार्ड अक्षय ऊर्जा क्षमता में वृद्धि हुई, इस वर्ष जीवाश्म ईंधन सबसिडी का उच्चतम स्तर भी देखा गया, क्योंकि कई सरकारों ने उपभोक्ताओं और व्यवसायों के लिए उच्च ऊर्जा कीमतों के झटके को कम करने की कोशिश की। सभी ऊर्जा संक्रमण प्रौद्योगिकियों में वैश्विक निवेश 2022 में 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डालर के उच्च स्तर पर पहुंच गया, फिर भी जीवाश्म ईंधन में पूंजी निवेश अक्षय ऊर्जा निवेश से लगभग दोगुना था। जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए अक्षय ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता के साथ-साथ ऊर्जा सुरक्षा और ऊर्जा सामर्थ्य उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में होने के कारण, सरकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए कि निवेश सही रास्ते पर हैं, अपने प्रयासों को दोगुना करने की आवश्यकता है।

ऊर्जा संक्रमण संकेतक ऊर्जा क्षेत्रों और प्रौद्योगिकियों में महत्त्वपूर्ण तेजी की आवश्यकता दर्शाते हैं। भविष्य में ये स्थितियां निवेश की जरूरतों और जलवायु परिवर्तन के बिगड़ते प्रभावों की लागत को भी बढ़ाएंगी। दूसरी ओर, अक्षय ऊर्जा के उत्पादन में वृद्धि के बावजूद जीवाश्म ईंधन की बढ़ती मांग भी गंभीर चिंता का विषय है। इससे पता चलता है कि स्वच्छ ऊर्जा की बढ़ती मांग का मुकाबला दुनिया नहीं कर पा रही है। यानी, ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने की दिशा में दुनिया को ऊर्जा उत्पादन में जिस बदलाव की जरूरत है, उसकी गति अब भी अपेक्षित नहीं है।

जानकार, जीवाश्म ईंधनों के इस्तेमाल में गिरावट न आने पर चिंता जताते हुए बताते हैं कि एक ऐसे वर्ष में, जहां हमने अक्षय ऊर्जा स्रोतों के योगदान को रेकार्ड स्तर पर बढ़ते देखा, दुनिया में ऊर्जा की मांग का स्तर भी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ा है। इसका मतलब है कि जीवाश्म ईंधनों से प्राप्त ऊर्जा के हिस्से में कोई बदलाव नहीं आया है। भारत के ऊर्जा मिश्रण में कोयले की हिस्सेदारी करीब 55 फीसद है। भारत इसे अपने लिए सबसे अहम जीवाश्म ईंधन बताता है, क्योंकि देश में कोयले का बड़ा भंडार है। भारत ने सौर और पवन ऊर्जा में काफी विकास किया है, लेकिन ऊर्जा क्षेत्र में इनकी भागीदारी अब भी काफी कम है।

एक सच्चाई यह भी है कि दुनिया भर में जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल एक जैसा नहीं है। मसलन, यूरोप में जीवाश्म ईंधन की खपत का रुझान बदल रहा है। औद्योगिक क्रांति के बाद से पहली बार यहां जीवाश्म ईंधनों से मिलने वाली ऊर्जा का स्तर 70 फीसद से नीचे रहा है। इसकी एक वजह यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद रूसी गैस की खपत में आई कमी भी है। जर्मनी का कार्बन उत्सर्जन सात दशक में सबसे कम रहा है और कोयले की कम खपत ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। अमेरिका में भी कोयले के इस्तेमाल में 17 फीसद तक की गिरावट आई है। भारत में जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल बढ़ा है और इनकी कुल खपत में आठ फीसद की वृद्धि हुई है। देश में ऊर्जा की बढ़ी मांग का तकरीबन पूरा हिस्सा जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा से पूरा हो रहा है।

चीन में एक ओर जहां सौर और पवन ऊर्जा के क्षेत्र में काफी काम हुआ, वहीं पिछले वर्ष तक यहां भी जीवाश्म ईंधनों का उपभोग छह फीसद बढ़ा है। हालांकि, अक्षय ऊर्जा स्रोतों में चीन के बड़े निवेश में जानकार काफी संभावनाएं देखते हैं।

पिछले वर्ष दुबई जलवायु सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय समुदाय पहली बार तेल, गैस और कोयले से दूरी बनाने पर सहमत हुआ था। इस बात पर भी सहमति बनी कि सदस्य देशों को 2030 तक वैश्विक स्तर पर अक्षय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करने और उसी अवधि के भीतर ऊर्जा दक्षता की दर को दोगुना करने का प्रयास करना चाहिए। 2050 तक, शुद्ध कार्बन उत्सर्जन को शून्य तक कम किया जाना चाहिए। इस प्रकार जीवाश्म ईंधन युग के अंत की शुरुआत को चिह्नित किया और मान्यता दी कि नवीकरणीय ऊर्जा जलवायु कार्रवाई और जलवायु न्याय के लिए वैश्विक समाधान है। सवाल है कि उस जलवायु सम्मेलन के निर्णयों की दिशा में अब तक कैसी पहल हो सकी है। बदलती जलवायु, धूसर पर्यावरण, मानसूनी विचलनों के बीच इस बार की गर्मी ने कहर बरपा दिए। तब भी आंखें खुल जाएं तो गनीमत है।


Date: 16-07-24

धर्मस्थल और पारदर्शिता

संपादकीय

भारत में धर्मस्थलों से जुडे़ तथ्यों, रहस्यों की भरमार है और उनका यथोचित खुलासा सुखद और स्वागतयोग्य है। धर्मस्थलों से जुड़े तमाम जरूरी पहलुओं पर से परदा उठाना इसलिए भी जरूरी है, ताकि समय-समय पर बेवजह उठने वाले विवादों का पटाक्षेप हो सके। इसी कड़ी में मध्य प्रदेश स्थित भोजशाला का विवाद है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने सोमवार को भोजशाला-कमाल-मौला मस्जिद परिसर की अपनी वैज्ञानिक सर्वेक्षण रिपोर्ट मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर पीठ को सौंप दी है। एएसआई के अधिवक्ता हिमांशु जोशी ने 2,000 पेज से अधिक की रिपोर्ट हाईकोर्ट को सौंपी है, जिस पर 22 जुलाई को सुनवाई होगी। 11वीं सदी की इस इमारत में तीन महीने से सर्वेक्षण का कार्य चल रहा था और जो तथ्य सामने आए हैं, उन पर अदालत को फैसला करना है। यह ऐसा संवेदनशील मामला है, जिस पर तमाम संबंधित पक्षों को बहुत सावधानी और समझदारी से कदम आगे बढ़ाने चाहिए। ध्यान रहे, हिंदू समुदाय इसे वाग्देवी (देवी सरस्वती) का मंदिर मानता है, जबकि मुस्लिम पक्ष इसे मस्जिद कहता है। लंबे समय से यह मांग हो रही थी कि इस इमारत को वैज्ञानिक ढंग से परखा जाए।

वैसे, पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट में क्या है, इसकी आधिकारिक सूचना अदालती सुनवाई में ही सामने आएगी, पर एक पक्ष का दावा है कि भोजशाला परिसर में बडे़ पैमाने पर मूर्तियों के प्रमाण मिले हैं। प्रमाणों को सियासी मंचों पर नहीं, बल्कि अदालत में परखा जाना चाहिए। विभिन्न पक्षों की खींचातानी या तनाव बढ़ाने की कोशिशें सराहनीय नहीं हैं। यहां यह भी ध्यान में रखना होगा कि अदालती आदेश के अनुसार, पिछले 21 वर्षों से ‘मंगलवार को भोजशाला में पूजा करने की अनुमति है, जबकि शुक्रवार को नमाज अदा करने की मंजूरी है। इस प्रचलित व्यवस्था में किसी भी तरह के बदलाव से असर पड़ सकता है, अत: यह फूंक-फूंककर कदम बढ़ाने का समय है। इस पूरे मामले को तथ्यों की रोशनी में देखने की जरूरत है, ताकि हिंदू-मुस्लिम विवाद बनने और बढ़ने न पाए। सभ्य संगठन, सभ्य तौर-तरीकों और लोकतांत्रिक उदारता के साथ भोजशाला विवाद को सुलझाना चाहिए। क्या ऐसी कोई भी मांग किसी धर्म के नाम पर न होकर न्याय और सच्चाई के आधार पर की जा सकती है? यहां खास तथ्य है कि ‘हिंदू फ्रंट फॉर जस्टिस’ की याचिका की वजह से यह सर्वेक्षण हुआ है।

यह संयोग है कि भोजशाला मामले की चर्चा के साथ ही पुरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर के खजाने की भी चर्चा हो रही है। इस मंदिर का खजाना 46 साल बाद खोला गया। खूब कयास लगाए जाते थे कि इस खजाने की रक्षा सांप करते हैं। सांप पकड़ने वाले विशेषज्ञों को भी तैनात किया गया था, पर एक भी सांप या कीड़ा वहीं नहीं मिला है। खजाने की पूरी सूची तो बाद में सामने आएगी, पर वर्तमान रत्न भंडार, बाहरी रत्न भंडार और आंतरिक रत्न भंडार में 150 किलोग्राम से ज्यादा सोना और 180 किलोग्राम से ज्यादा चांदी का अनुमान है। सरकार से अदालत तक हर कोई यह मानता है कि मंदिर के खजाने का विवरण स्पष्ट होना जरूरी है। एक लोकतांत्रिक देश में धर्मस्थलों से जुड़े किसी भी खजाने के बारे में आम लोगों को पूरी जानकारी होनी चाहिए। धर्मस्थलों को लेकर जितनी पारदर्शिता होगी, उनके प्रति लोगों की आस्था उतनी ही बढ़ेगी और सबसे जरूरी यह है कि खजाने का सदुपयोग हो, ताकि हमारे धर्मस्थलों की शोभा में चार चांद लग जाएं और रहस्यों व विवादों की गुंजाइश भी कम से कम बचे।


Date: 16-07-24

पानी के लिए फिर टकरा रहे कर्नाटक और तमिलनाडु

एस. श्रीनिवासन, ( वरिष्ठ पत्रकार )

दक्षिण भारत में दो पड़ोसी राज्य – कर्नाटक और तमिलनाडु, फिर कावेरी नदी के जल के लिए लड़ पड़े हैं। रविवार को कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने सर्वदलीय बैठक बुलाई, जहां निर्णय लिया गया कि राज्य नदी का पानी तभी साझा करेगा, जब कर्नाटक में बारिश होगी। अब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने भी इसी मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाई है।

कर्नाटक द्वारा तमिलनाडु को जल देने से इनकार के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाना और तमिलनाडु द्वारा कर्नाटक को जल देने के लिए मजबूर करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाना अब करीब तीन दशक से बार-बार दोहराई जा रही कहानी बन गई है। कोई अचरज नहीं, दोनों राज्य जानते हैं कि सर्वदलीय बैठकें सिर्फ सियासी चाल हैं, इनका कोई नतीजा नहीं निकलेगा।

मुख्यमंत्री स्टालिन तमिलनाडु में जबरदस्त सियासी दबाव में हैं, क्योंकि उन पर राज्य के अधिकारों की रक्षा में नाकाम रहने का आरोप लग रहा है। वैसे, कर्नाटक में कांग्रेस की अनुकूल सरकार है, फिर भी जल साझा करने पर तकरार जारी है। डेल्टा क्षेत्र, जिसे राज्य में धान का कटोरा माना जाता है, वहां के किसान सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, क्योंकि बुआई का मौसम खत्म हो रहा है। दोनों पड़ोसी राज्यों की मानसून संरचनाएं थोड़ी अलग हैं। भारत की दो मानसून प्रणालियों में से एक- दक्षिण पश्चिम मानसून, जो जून और सितंबर के बीच भारत के ज्यादातर हिस्सों को कवर करता है, कर्नाटक से टकराती है। यह राज्य कावेरी सहित यहां की ऐसी अधिकांश नदियों का स्रोत है, जो समुद्र में गिरने से पहले तमिलनाडु से होकर बहती हैं। जब दक्षिण-पश्चिम मानसून की सहायता से अच्छी बारिश होती है, तो कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कोई समस्या नहीं होती है। समस्या और संघर्ष की स्थिति तब बनती है, जब मानसून नाकाम हो जाता है। कावेरी नदी आज भी तमिलनाडु में सिंचाई, पेयजल और औद्योगिक उपयोग के लिए पानी का प्राथमिक स्रोत है। 1892 में मद्रास प्रेसीडेंसी (अब तमिलनाडु) और मैसूर साम्राज्य (अब कर्नाटक) के बीच एक जल समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। हालांकि, समाधान आज भी नहीं हो सका है।

पिछले कुछ वर्षों में कर्नाटक ने कई बांध बनाए हैं और उनमें से कम से कम चार – हरंगी, काबिनी, हेमवती और कृष्णराज सागर – कर्नाटक के किसानों की मदद के लिए जल भंडारण करते हैं। विवाद बढ़ने पर दोनों राज्य अदालत भी गए हैं और 1992 में दोनों राज्यों के बीच जल आवंटन, विवाद समाधान, जल प्रबंधन और जल के प्रवाह की निगरानी पर निर्णय लेने के लिए कावेरी नदी जल ट्रिब्यून की स्थापना भी की गई थी।

बहरहाल, जब विवाद लगातार बढ़ता गया, तब 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक को बारिश के मौसम में तमिलनाडु के लिए 177.24 टीएमसीएफटी (हजार मिलियन क्यूबिक फीट) पानी छोड़ने का निर्देश दिया था, पर कर्नाटक सिर्फ 135 टीएमसीएफटी पानी जारी करने पर सहमत हुआ। इसे सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के उल्लंघन के रूप में देखा गया, पर न्यायालय के फैसले की व्याख्या पर विवाद जारी रहा और दोनों पक्ष राहत के लिए अदालत में गुहार लगाते रहे हैं।

दोनों राज्यों के बीच जल विवाद इतना जटिल है कि एक समझदार पाठक भी भ्रमित हो सकता है। यह विडंबना ही है कि विवाद सुलझाने के लिए बहुत विस्तार से काम हुआ है, जल का कोटा तय हुआ है, इसके बावजूद विवाद कायम है। दोनों ही राज्यों में कृषि का विस्तार हुआ है और दोनों को ज्यादा पानी चाहिए।

वैसे, पिछले वर्षों में तमिलनाडु के किसानों ने जलाभाव से निपटना सीखा है। वे खेती के ऐसे तरीके अपना रहे हैं, जिनमें कम पानी का उपयोग होता है, पर उनकी चिंताएं शुष्क मौसम के दौरान बढ़ने लगती हैं, जब जल स्तर खतरनाक रूप से गिर जाता है।

खैर, दोनों राज्यों में विपक्षी दलों के पास राज्य सरकारों के खिलाफ भावनाएं भड़काने और आंदोलन करने का मौका है। हालांकि, जब वे स्वयं सत्ता में आते हैं, तो उनके सुर बदल जाते हैं। केंद्र सरकार विवाद में पड़ना नहीं चाहती है और दोनों राज्यों के बीच मनमुटाव का सिलसिला खत्म होता नहीं दिखता है।