16-03-2020 (Important News Clippings)
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Date:16-03-20
अराजक तत्वों पर अनुचित आपत्ति
हृदयनारायण दीक्षित, (लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)
निजता असीम नहीं होती। एक व्यक्ति की निजता की सीमा दूसरे व्यक्ति की निजता के दायरे तक सीमित है। संविधान निर्माताओं ने निजता को मौलिक अधिकार नहीं बनाया था। हालांकि उच्चतम न्यायालय की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने 2017 में ‘निजता’ को मौलिक अधिकार घोषित किया कि यह अनुच्छेद 21 के तहत ‘प्राण और दैहिक स्वतंत्रता’ का अविभाज्य भाग है।
बीते दिनों उत्तर प्रदेश में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में अराजक प्रदर्शन हुए। योगी आदित्यनाथ सरकार ने तमाम साक्ष्यों को आधार बनाकर आरोपितों पर कार्रवाई की। संपदा को नष्ट करने में संलिप्त तकरीबन 500 आरोपितों को नोटिस भेजे गए थे। प्रशासन ने विगत पांच मार्च को आरोपितों के चित्र, नाम सहित लखनऊ में होर्डिंग लगाए। भुगतान का आग्रह किया। राजस्व वसूली में बकायेदारों के नाम पते की सूची तहसील मुख्यालयों में लगाई जाती रही है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नाम पता सहित फोटो लगाने का स्वत: संज्ञान लिया। यह काम भी रविवार के दिन हुआ। न्यायालय ने इसे निजता के अधिकार का उल्लंघन बताया। पोस्टर हटाने के निर्देश दिए। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। इस पर तीन सदस्यीय पीठ विचार करेगी। संप्रति ‘निजता के अधिकार के दायरे’ को लेकर सार्वजनिक बहस जारी है।
अदालती आदेश को शिरोधार्य करना और असंतुष्ट होने पर अपील करना प्रत्येक व्यक्ति और संस्था का अधिकार है। योगी सरकार ने यही किया है। निजता का अधिकार नि:संदेह सम्माननीय है, लेकिन हिंसा और तोड़फोड़ के आरोपितों का चित्र सार्वजनिक करना विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। हिंसक वारदातों के दौरान ऐसे चित्र अनेक समाचार माध्यमों ने प्रसारित किए। तमाम घटनाओं में पुलिस द्वारा गिरफ्तार आरोपित के चित्र रोजाना प्रकाशित होते हैं।
क्या निजता के अधिकार की परिधि में ऐसे प्रसारण-प्रकाशन भी आ सकते हैं? टेलीफोन वार्ता निजता है। सुरक्षा एजेंसियों को देश की आंतरिक या वाह्य सुरक्षा प्रभावित करने वाले संदिग्धों की फोन टैपिंग जरूरी लगती है, लेकिन इससे निजता के अधिकार का उल्लंघन होता है। टेलीफोन अधिनियम भी निजता के मौलिक अधिकार के सामने शून्य हो सकता है।
शीर्ष अदालत ने सपा के एक नेता के फोन टैपिंग मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा और निजता के अधिकार में संतुलन बनाने की अपेक्षा की थी। उम्मीद है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में राष्ट्र राज्य की आधुनिक चुनौतियों के मद्देनजर निजता के अधिकार की सीमा की सुसंगत व्याख्या की जाएगी। संविधान के मौलिक कर्तव्यों की सूची में उल्लेख है ‘सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें।’ यहां सार्वजनिक संपदा को तहस-नहस किया गया है। उपद्रवी तत्वों ने हजारों लोगों की निजता का अतिक्रमण किया है। निजता के अधिकार के संरक्षण की जरूरत आम आदमी को है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग में सड़क महीनों से बंद है।
मूलभूत प्रश्न है कि निजता व विचार अभिव्यक्ति आदि मौलिक अधिकारों के आक्रामक झंडाबरदार समाज के अन्य सदस्यों के मौलिक अधिकारों को क्यों नहीं स्वीकार करते? यह कैसा जनतंत्र है? जहां हिंसक उपद्रवी भी संवैधानिक अधिकार का दावा करते हैं। इंग्लैंड में संसदीय विधि द्वारा स्वतंत्रता सीमित है। वह संसदीय विधि के अधीन है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी गोपालन बनाम मद्रास राज्य मामले में कहा था कि हमारे संविधान (अनुच्छेद 21) ने ‘विधि स्थापित प्रक्रिया’ जोड़कर व्यक्तिगत स्वतंत्रता वाली इंग्लैंड की संकल्पना को अपनाया है, लेकिन यहां विधि तोड़क परम स्वतंत्रता के इच्छुक हैं।’
आंदोलनों में सार्वजनिक संपदा की क्षति लंबे अर्से से राष्ट्रीय चिंता है। 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने इसका स्वत: संज्ञान लिया था। यह प्रशंसनीय पहल थी। न्यायालय ने अध्ययन के लिए न्यायमूर्ति केटी थॉमस व वरिष्ठ अधिवक्ता फाली एस नरीमन की अगुवाई में दो समितियां बनाई थीं। इन्हें जरूरी विधि व नुकसान की भरपाई पर सुझाव देने को कहा गया था। न्यायालय ने समितियों की संस्तुति पर दस सूत्री आधार तय किए थे। थॉमस कमेटी की सिफारिश महत्वपूर्ण थी। यह सभी अराजक आंदोलनों पर लागू होती है। इसमें अभियुक्तों पर ही स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने की जिम्मेदारी डालने की सिफारिश थी।
अमूमन आपराधिक मामलों में अभियुक्त को दोषी सिद्ध करने की जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष/सरकार की होती है। ऐसे मामलों में दोषी सिद्ध होने तक अभियुक्त को निर्दोष माना जाता है। थॉमस कमेटी के अनुसार यह जिम्मेदारी आरोपी की होनी चाहिए। न्यायालय ने विधायिका से अपेक्षा की थी कि विधि संशोधन के माध्यम से अभियुक्त को आरंभ से ही दोषी मानकर न्यायपालिका को सुनवाई का अधिकार मिलना चाहिए।
इस निर्णय के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी 2010 में सार्वजनिक संपदा नष्ट करने पर गंभीर मत व्यक्त किया था, लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में ऐसी चिंता नहीं थी। उत्तर प्रदेश में आंदोलनों की आड़ में सार्वजनिक संपदा को तहस नहस किया जाता रहा है। सरकारों ने इसकी उपेक्षा की। संभवत: इलाहाबाद हाईकोर्ट के प्रभाव में तत्कालीन बसपा सरकार ने जनवरी 2011 में इस संदर्भ में शासनादेश जारी किया, लेकिन वह फलीभूत नहीं हुआ। योगी सरकार ने शासनादेश का सदुपयोग किया।
सरकार ने ‘उत्तर प्रदेश सार्वजनिक व निजी संपदा क्षति वसूली’ अध्यादेश प्रस्तावित किया है। इसमें आक्रामक आंदोलनों से होने वाली क्षति की भरपाई जैसे विषय हैं। इसमें दावे के लिए क्लेम कमिश्नर के भी प्रावधान हैं। विपक्ष ने इसे काला कानून बताया, लेकिन आम लोगों ने इसका स्वागत किया है। इससे अराजक तत्व अपने कृत्यों पर पुनर्विचार को बाध्य होंगे। आरोपितों से वसूली का संदेश देश के अन्य राज्यों तक गया है। बहस राष्ट्रव्यापी हो गई है।
न्यायपालिका, विधायिका व कार्यपालिका सहित सभी संवैधानिक संस्थाएं संविधान से ही शक्ति पाती हैं। मौलिक अधिकार भी संविधान से हैं। मौलिक अधिकारों की सीमा है। प्राण और दैहिक स्वतंत्रता भी विधि स्थापित प्रक्रिया की सीमा में हैं। निजता का अधिकार इसी का अनुषंग है। संविधान और संसद द्वारा पारित विधि का अनादर संपूर्ण नागरिकों की अस्मिता और निजता का उल्लंघन व अतिक्रमण है। निजता के दायरे को पुनर्परिभाषित किया जा सकता है। विषय शीर्ष अदालत में है। इसका निर्वचन स्वागतयोग्य होगा। विश्वास है कि राष्ट्रराज्य के समक्ष ताजा चुनौतियों के समाधान पर भी न्यायपीठ का मार्गदर्शन प्राप्त होगा। राष्ट्र को इस निर्वचन की प्रतीक्षा है।
Date:15-03-20
बैंकिंग नहीं,डकैती
पी चिदंबरम
बैंक के पास पैसे चालू खातों, बचत खातों और सावधि जमा के रूप में आते हैं और बैंक इन पर (कोषों की लागत) ब्याज देते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक की शर्तों के अनुसार जमा राशि का एक बड़ा हिस्सा आरक्षित रूप में रखा जाता है। बाकी बचा पैसा ही बैंक उधार दे सकते हैं और इसी से ब्याज कमाते हैं, जिसे ब्याज आय कहते हैं। फिर भी, इस राशि पर सीआरएआर [कैपिटल टू रिस्क (वेटेड) असेट रेशियो] जिसे सामान्यतया कैपिटल एडीक्वेसी रेशियो यानी पूंजी पर्याप्तता अनुपात कहा जाता है, की ऊपरी सीमा रहती है। ‘ब्याज आय’ और ‘कोष की लागत’ के बीच अंतर ही शुद्ध ब्याज मार्जिन (एनआईएम) होता है और यही बैंक का मुनाफा है। अगर एनआईएम हमेशा सकारात्मक रहेगा, तो सामान्यतौर पर बैंकों को मुनाफा होना चाहिए।
किसी भी कर्जदाता बैंक को उधार लेने वाले के खाते पर कड़ी निगरानी रखने की जरूरत होती है – कि वह ब्याज नियमित रूप से चुका रहा है? क्या मूल रकम की किस्तों का भुगतान निर्धारित तारीखों पर किया जा रहा था? क्या बैलेंस शीट और लाभ-हानि के खातों का समय से ऑडिट कराया गया और इस आडिट में उधार लेने वाले की सही वित्तीय स्थिति को दिखाया गया?
कई स्तर पर निगरानी
बैंकों में कई स्तर पर निगरानी रखी जाती है। पहली बैंक की वित्तीय समिति है। दूसरा निदेशक मंडल है। तीसरा आंतरिक अंकेक्षक (आडिटर) होता है। चौथा बाहर का अंकेक्षक होता है। पांचवा आरबीआई की ओर से स्वीकृत वैधानिक अंकेक्षक होता है। छठा निगरानी तंत्र शेयरधारकों की सालाना सामान्य सभा है। सातवां, रिजर्व बैंक में बैंकिंग परिचालन और विकास विभाग (डीबीओडी) है। यह अंतिम तंत्र पैनी नजरें रखता है। ये सब एक अदृश्य बाजार की तरह हैं जो एक सूचीबद्ध बैंक के मामले में उसे ईनाम या सजा देंगे। वित्त मंत्रालय में वित्तीय सेवा प्रभाग (डीएफएस) भी है जिसके बारे में माना जाता है कि वह सभी सरकारी बैंकों सहित एक निश्चित आकार वाले हर व्यावसायिक बैंक पर नजर रखता है।
इस बहुस्तरीय निगरानी के बावजूद विशुद्ध कारोबारी नाकामी के कारण कुछ कर्ज एनपीए में तब्दील हो जाएंगे। किस तरह का कर्ज एनपीए के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा, यह आरबीआई के नियमों और निर्देशों से तय होता है। एक बार एनपीए में आ जाने के बाद बैंक को एक ‘प्रावधान’ करना होता है जो उसका मुनाफा कम कर देता है या लाभांश घोषित करने या आय को पुनर्निवेश करने की उसकी क्षमता को प्रभावित करता है।
लगता है येस बैंक निगरानी के इन सारे स्तरों से बचता गया और हर तिमाही में मुनाफा घोषित करता गया। इसने पहली बार जनवरी-मार्च 2019 की तिमाही में नुकसान होने का एलान किया था। तब भी डीबीओडी या डीएफएस को खतरे की घंटी सुनाई नहीं दी थी।
कर्ज बांटने में तेजी
अप्रैल 2014 से येस बैंक तेजी से कर्ज दिए जा रहा था। यहां पेश हैं बैंक की बैलेंस शीट से लिए गए आंकड़े-
वर्ष बकाया कर्ज (करोड़ रुपए)
मार्च 2014, 55,633
मार्च 2015, 75,550
मार्च 2016, 98,210
मार्च 2017, 1,32,263
मार्च 2018, 2,03,534
मार्च 2019, 2,41,499
गौर कीजिए कि मार्च 2014 से मार्च 2019 के बीच कर्ज देने में किस कदर उछाल आया, कर्ज देने की रफ्तार हर साल पैंतीस फीसदी की दर से बढ़ी!
जरा इस पर भी गौर करें कि नोटबंदी के बाद लगातार दो सालों 2016-17 और 2017-18 में किस तेजी से बढ़ोतरी हुई।
कुछ प्रासंगिक सवाल उठते हैं- मार्च 2014 के बाद किस समिति या किसने नए कर्जों की मंजूरी दी? क्या आरबीआई या सरकार को इस बात की जानकारी नहीं थी कि फिजूल में कर्ज बांटे जा रहे हैं? क्या हर साल के अंत में आरबीआई या सरकार में किसी ने भी बैंक की बैलेंस शीट को नहीं देखा? जनवरी 2019 में आरबीआई ने पुराने सीईओ को हटा कर नए सीईओ की नियुक्ति की, तब कोई भी बदलाव क्यों नहीं किया गया? मई 2019 में जब आरबीआई के एक डिप्टी गवर्नर को येस बैंक के बोर्ड में नियुक्त किया गया, उसके बाद भी कोई बदलाव क्यों नहीं किया गया? जब जनवरी-मार्च 2019 की तिमाही में येस बैंक ने नुकसान होने की बात कही तो क्यों नहीं खतरे की घंटी बजी?
कौन जवाबदेह ?
सात मार्च 2020 को ये सवाल उठाए जाने के बाद सरकार या आरबीआई में किसी के पास भी इनका जवाब नहीं है। ऐसा लगता है कि सरकार की इच्छा है कि जनता के बीच से येस बैंक की कहानी खत्म हो जाए। लेकिन इसकी कोई ऐसी संभावना नहीं है। इसके लिए सोशल मीडिया का आभार। प्रिंट और टीवी मीडिया के पास इस दुखदायी खबर देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
आरबीआई द्वारा येस बैंक और डीबीओडी में लोगों की जवाबदेही सुनिश्चित किए जाने से पहले ही सीबीआई और ईडी के मैदान में कूद जाने से मैं कोई प्रभावित नहीं हूं। अब मुझे इस बात की आशंका है कि जब तक ‘जांच’ पूरी नहीं हो जाती, तब तक किसी की जवाबदेही तय नहीं की जाएगी। मनचाही और चटकारे भरी खबरें मीडिया में आती रहेंगी और जवाबदेही दूर के भविष्य के लिए टलती रहेगी।
लोगों और संसद को इस बात की मांग करनी चाहिए कि कर्जखोरों के नाम (खासतौर से बड़े कर्जखोर) उजागर किए जाएं और जिन लोगों ने या समितियों ने कर्जों की मंजूरी दी, उनसे स्पष्टीकरण मांगे जाएं। इसके अलावा, हमें यह मांग करनी चाहिए कि डीबीओडी और डीएफएस में निगरानी की सीधी जिम्मेदारी किसकी बनती थी, उनसे स्पष्टीकरण मांगा जाए। मुझे लगता है कि हमें न सिर्फ असावधानियों का पता चलेगा, बल्कि आपराधिक लापरवाही भी सामने आएगी।
आरबीआई और सरकार बचाव की जिस योजना को लागू करने में लगे हैं, उसे सिर्फ बेतुका ही कहा जा सकता है। 12 मार्च को घोषित की गई इस योजना के अनुसार एसबीआई अन्य निवेशकों के साथ मिल कर येस बैंक में 7250 करोड़ रुपए निवेश करेगा और येस बैंक की पुनर्गठित पूंजी में 49 फीसद हिस्सेदारी खरीदेगा, जिसका मूल्य दस रुपए प्रति शेयर से कम नहीं होगा, जबकि बैंक की नेटवर्थ शायद शून्य है और उसके शेयरों का कोई मूल्य नहीं रह गया है। बुरे के बाद अच्छा पैसा लगाने के पहले कई विकल्प हैं जिन पर विचार होना चाहिए। येस बैंक की कहानी अभी खत्म नहीं हुई है।