It is but natural for Indian participants in the failed Buenos Aires ministerial of the World Trade Organisation (WTO) to focus, in the collapse of the ministerial, on US intransigence on reaching a permanent solution to the question of keeping expenses on public stockholding meant for ensuring food security outside the 10% cap on agricultural subsidies. There was no agreement on ending subsidies on illegal fishing either. The fact is that the US, under President Donald Trump, has no faith in multilateral agreements and prefers bilateral deals or agreements among small groups.
This overall change in developed-country appetite for multilateral liberalising of trade is the primary reason for the collapse of the current ministerial and the probability of ministerials of all member nations gradually giving way to meetings of what US trade representative Robert Lighthizer described as groups of like-minded countries. It is likely that the US would also champion a change in WTO decision-making from consensus among all members to a mixture of plurilateral agreements that like-minded countries can opt into and even decisions by majority.
India would, naturally, have to oppose such moves. However, India and other large developing countries stand to gain from WTO’s continued salience as the primary instrumentality of rules-based world trade, rather than from its gradual decline and disuse. To this end, they must not only stoutly oppose the US-kind of overreach but also build consensus of their own, to enable the body reach definitive agreements.Domestic politics makes governments score brownie points by acting tough at WTO. However, statesmanship lies in balancing short-term political gains with the economy’s long-term gains from making savvy concessions.
Date:15-12-17
All for one
WTO’s Buenos Aires conference was disappointing, it must be strengthened
TOI Editorials
The conclusion of World Trade Organization’s 11th biennial ministerial conference at Buenos Aires was worrisome. From an Indian standpoint, there was no loss as status quo continues in the most important issue: the right to continue the food security programme by using support prices. But the inability of the negotiators to reach even one substantive outcome suggests that WTO’s efficacy is under question. As a 164-country multilateral organisation dedicated to crafting rules of trade through consensus, WTO represents the optimal bet for developing countries such as India. Strengthening WTO is in India’s best interest.
Perhaps the biggest threat to WTO’s efficacy today is the attitude of the US. The world’s largest economy appears to have lost faith in the organisation and has begun to undermine one of its most successful segments, the dispute redressal mechanism. This is significant as the US has been directly involved in nearly half of all cases brought to WTO. Separately, large groups of countries decided to pursue negotiations on e-commerce, investment facilitation and removal of trade obstacles for medium and small scale industries. By itself this should not weaken WTO. But it comes at a time when there is growing frustration with gridlock at WTO.India did well to defend its position on its food security programme. The envisaged reform package which will see a greater use of direct cash transfers to beneficiaries will be in sync with what developed countries do. But it’s important for India to enhance its efforts to reinvigorate WTO. In this context, India’s plan to organise a meeting of some countries early next year is a step in the right direction. WTO represents the best available platform to accommodate interests of a diverse set of nations. Therefore, India should be at the forefront of moves to fortify it.
Date:15-12-17
एनजीटी की पर्यावरण चिंता में धर्म रक्षा भी शामिल है
संपादकीय
राष्ट्रीय हरितपंचाट (एनजीटी) ने दक्षिण कश्मीर में 3,888 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अमरनाथ की गुफा में घंटा बजाने और जयकारा लगाने पर रोक लगाकर भले पर्यावरण की रक्षा के लिए कदम उठाया है लेकिन, उसके इस कदम से हिंदू धर्म के स्वयंभू ठेकेदार चिढ़ गए हैं। दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता तेजिंदर पाल बग्गा ने हिंदू विरोधी कहते हुए इसे चुनौती दे डाली है। एनजीटी के अध्यक्ष स्वतंत्र कुमार ने इससे पहले अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आदेश दिया था कि वह यात्रियों को हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराए। अब अमरनाथ गुफा में दिखने वाले बर्फीले शिवलिंग और आसपास के पर्यावरण की रक्षा को ध्यान में रखते हुए पंचाट ने आदेश दिया है कि वहां ध्वनि प्रदूषण के कारण हिमस्खलन का खतरा बढ़ जाता है इसलिए तो घंटा बजाया जाना चाहिए और ही जयकारा तथा मंत्रोच्चार किया जाना चाहिए। पंचाट ने यात्रियों को नारियल और मोबाइल ले जाने से भी रोका है और यात्रियों के स्पष्ट दर्शन हेतु लोहे की बाड़ हटाने को भी कहा है। अदालत की इस पर्यावरण चिंता में धर्म की रक्षा अंतर्निहित है पर यह उसे ही दिखाई देगी, जो धर्म की उदार और सद्भावपूर्ण व्याख्या में आस्था रखता है और जिसके लिए धर्म प्रकृति का ही हिस्सा है। जिन लोगों के लिए धर्म राजनीतिक सत्ता की सीढ़ी है उन्हें यह आदेश बुरा लगा है। इसीलिए उन्होंने चुनौती दी है कि वे अमरनाथ जाएंगे और जयकारा लगाएंगे। वैसे तो सनातन धर्म के व्याख्याकार दावा करते हैं कि उसमें पर्यावरण की चिंता आदिकाल से है लेकिन जब धर्म और उसके रीति-रिवाजों को आज की पर्यावरण आवश्यकताओं के लिहाज से संवारने की बात उठती है तो धर्म के रक्षक धर्मध्वजा लेकर खड़े हो जाते हैं। पर्यावरण का दर्शन धर्म और परम्परा में भी हो सकता है और विकास के चिंतन में भी लेकिन, उसका इन दोनों से टकराव भी है। पहले विकास की राजनीति प्रबल थी और अब धर्म की राजनीति प्रबल होती जा रही है। ऐसे में पर्यावरण चिंता को या तो एनजीओ का सहारा है या फिर अदालतों का। अदालतें कभी उज्जैन के महाकालेश्वर, कभी अमरनाथ गुफा और कभी यमुना के कछार के बहाने सुविचारित आदेश दे रही हैं। इसके बावजूद अगर धार्मिक दबाव में चुकी सरकारी मशीनरी उसे नहीं मानेगी तो पर्यावरण के पास अपनी राजनीति के समय आने का इंतजार करने के अलावा कोई उपाय नहीं है।
Date:14-12-17
दागी नुमाइंदे
संपादकीय
राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के प्रवेश पर लंबे समय से सवाल उठाए जाते रहे हैं। इसके अलावा, नेताओं के किसी गैरकानूनी काम में लिप्त होने या फिर उन पर किसी अनियमितता के आरोप लगने के बाद उनकी राजनीतिक भूमिका को सीमित करने से संबंधित नियम-कायदों को भी एक कानूनी स्वरूप देने की बातें होती रही हैं। लेकिन अब तक इस दिशा में कोई ठोस पहलकदमी नहीं हो सकी है। हालांकि करीब डेढ़ महीने पहले इसी मसले पर दायर एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा था कि दागी नेताओं पर दर्ज मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित की जानी चाहिए। तब अदालत ने सरकार से छह हफ्ते के भीतर यह भी बताने को कहा था कि इसमें कितना समय और धन लगेगा। इसी मसले पर मंगलवार को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह सूचित किया कि नेताओं की संलिप्तता वाले आपराधिक मामलों की सुनवाई और फैसलों के लिए कम से कम बारह विशेष अदालतें गठित की जाएंगी। इसमें एक मुश्किल यह है कि इसके लिए सबसे पहले देश भर में सभी ऐसे सांसदों और विधायकों का विवरण इकट्ठा करने की जरूरत होगी, जिनके खिलाफ मामले चल रहे हैं।
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले महीने एक नवंबर को केंद्र से सांसदों और विधायकों की संलिप्तता वाले उन 1581 मामलों के बारे में विवरण पेश करने का निर्देश दिया था जो 2014 के आम चुनावों के दौरान नामांकन दाखिल करने के क्रम में सामने आए थे। जाहिर है, इससे संबंधित ब्योरा इकट्ठा करने में कुछ समय लग सकता है। लेकिन अगर सरकार के भीतर राजनीति को अपराध से मुक्त करने की इच्छाशक्ति है तो उसे इस मसले पर ज्यादा टालमटोल नहीं करना चाहिए। यह किसी से छिपा तथ्य नहीं है कि अदालतों में पहुंचे मामलों में सुनवाई और फैसलों की क्या गति है। मगर राजनीतिकों से जुड़े मामलों में एक खास स्थिति यह बन जाती है कि वे किसी अपराध के आरोप को अपने साथ लिए हुए आम जनता की नुमाइंदगी कर रहे होते हैं। यह एक विडंबना से भरी हुई स्थिति है कि कोई नेता खुद किसी अपराध के आरोप के तहत अदालत के कठघरे में खड़ा हो और वही कानून बनाने या उसे लागू करने की प्रक्रिया में भी शामिल हो।हालांकि निर्वाचन आयोग और विधि आयोग की एक सिफारिश पर अमल होता है तो आपराधिक मामलों में दोषी साबित हुए नेताओं को उम्र भर के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किया जा सकता है। लेकिन अगर मौजूदा कानून-व्यवस्था में किसी आरोपी को चुनाव लड़ने और सांसद या विधायक बनने की सुविधा प्राप्त है भी तो यह अपने आप में एक सुधार का सवाल है। फिर एक पहलू यह भी है कि अब तक राजनीतिकों पर लगे आरोपों में दोषसिद्धि की दर बेहद कम रही है। ऐसे मामले हो सकते हैं, जिनमें राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की वजह से किसी नेता को झूठे आरोपों के चलते भी मुकदमे में उलझना पड़ता है। लेकिन यह एक सामान्य स्थिति नहीं हो सकती। ऐसे तमाम मामले जगजाहिर है, जिनमें आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग भी कानूनी प्रावधानों में राहत का फायदा उठा कर चुनाव लड़ते हैं और जीत कर विधायक या सांसद बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में किसी आपराधिक मामलों में स्पष्ट संलिप्तता के आरोपों की सुनवाई और उन पर फैसला अगर जल्दी हो तो यह समूची भारतीय राजनीति के लिए अच्छा होगा।
Date:14-12-17
लालच का निवेश, छलावे का प्रतिफल
आलोक पुराणिक, निवेश विशेषज्ञ
बिटक्वाइन चर्चा में है। आसपास आपके कई लोग ऐसे मिल जाएंगे, जो यह बता रहे होंगे कि कितनी गति से उन्होंने बिटक्वाइन में पैसे बना लिए। कुछ रिटायर्ड लोग होंगे, जो बता रहे होंगे कि उन्होंने रिटायरमेंट पर मिली रकम का कितना बड़ा हिस्सा बिटक्वाइन में लगा दिया। कुछ गृहिणियां किट्टी पार्टी में बता रही होंगी कि बिटक्वाइन से बेहतर निवेश तो कुछ है ही नहीं। 2017 के पहले दिन बिटक्वाइन की कीमत थी 1,000 डॉलर, यह अब कई जगहों पर 17,000 डॉलर पर पहुंच गई है। यानी करीब 12 महीनों में 1,600 प्रतिशत रिटर्न। इसके मुकाबले भारत में तेजी से ऊपर जाते मुंबई शेयर बाजार सूचकांक को देखें, तो पिछले करीब 12 महीनों में यह 28 प्रतिशत के आसपास बढ़ा है। 28 प्रतिशत एक साल में शेयर बाजार से रिटर्न, किसी निवेश सलाहकार से पूछेंगे, तो वह बताएगा कि एक साल में 28 प्रतिशत रिटर्न बेहतर ही नहीं, बल्कि बहुत शानदार रिटर्न है। पर यह 28 प्रतिशत रिटर्न 1,600 प्रतिशत रिटर्न के सामने कितना कमजोर सा लगता है। जिस निवेश में 1,600 प्रतिशत रिटर्न एक साल में आ रहा हो, वह निवेश तो बहुत ही जोरदार होना चाहिए और जो उसमें निवेश न करे, उसे बेवकूफ होना चाहिए। पर निवेश का इतिहास अभूतपूर्व बेवकूफियों से भरा हुआ है और इसे इंसानी लालच का कमाल कहें कि हर बार कोई माध्यम बन ही जाता है इंसानी लालच का।
पर यह बिटक्वाइन क्या बला है? अक्सर इसे एक करेंसी के तौर पर चिह्नित किया जाता है। नहीं, यह करेंसी नहीं है। करेंसी का कोई जारीकर्ता होता, करेंसी के पीछे कोई गारंटी होती है। भारतीय रुपयों के ऊपर लिखा होता है कि मैं धारक को इतने रुपये देने का वचन देता हूं। ऐसी कोई गारंटी बिटक्वाइन के साथ नहीं जुड़ी। फिर बिटक्वाइन क्या कोई संपत्ति है, जैसे शेयर, मकान, बैंक डिपॉजिट, सोना? शेयर किसी कंपनी में हिस्सेदारी होती है, किसी कंपनी में मिल्कियत का एक हिस्सा है। जैसे-जैसे उस कंपनी का कारोबार बढ़ता है, उसका मुनाफा बढ़ता है, वैसे-वैसे उस कंपनी की कीमत बढ़ती जाती है। जब कीमत बढ़ती है, तो उसकी हिस्सेदारी की चाह रखने वालों की संख्या भी बढ़ती है, यानी मांग बढ़ती है। इसलिए अच्छी कंपनियों के शेयर लगातार ऊपर जाते हैं। पर बिटक्वाइन किसी कंपनी में कोई भागीदारी नहीं देती। मकान जैसी कोई भौतिक संपत्ति यह है नहीं। बैंक डिपॉजिट यह है नहीं, कोई बैंक इसकी जिम्मेदारी नहीं लेता। सोना यह है नहीं, तो यह है क्या? यह तकनीक द्वारा तैयार ऐसा उत्पाद है, जिसे लेकर तरह-तरह की गलतफहमियां हैं। सबसे बड़ी गलतफहमी यह कि इसके भाव लगातार ऊपर जाएंगे, हमेशा।
कीमत चाहे आलू की हो, शेयर की या बिटक्वाइन की, मूल अर्थशास्त्र एक ही होता है- मांग ज्यादा हो और आपूर्ति कम, तो भाव बढ़ते हैं। जैसे एचडीएफसी बैंक के शेयर के भाव को लें। करीब एक साल में इसके भाव 50 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ चुके हैं, वजह दिखती है कि बैंक के मुनाफे बढ़ रहे हैं। बैंक के शेयर यानी मिल्कियत सीमित है, मांग बढ़ेगी, आपूर्ति सीमित है, तो भाव बढेंगे। पर यहां कारोबार दिखाई पड़ रहा है, मुनाफा बढ़ता दिख रहा है। एक और कारण होता है दुर्लभता। सोना कुछ नहीं करता, कोई धंधा नहीं करता, सिर्फ लॉकर में रखा जाता है। पर सोना दुर्लभ है, इसकी आपूर्ति सुलभ नहीं है। मकान के भावों के बढ़ने के मूल में भी वही कारण है, आपूर्ति सीमित है। पर बिटक्वाइन की आपूर्ति को लेकर कुछ भी स्पष्ट नहीं है। कोई कुछ कंप्यूटर पहेलियां सुलझा ले, तो उसे बिटक्वाइन मिल जाते हैं। इसे बिटक्वाइन माइनिंग कहते हैं। फिर इनकी खरीद-फरोख्त आगे होती है। बिटक्वाइन का कोई ऐसा प्रयोग नहीं है, जैसे सोने का है। सोने को पहनकर सामाजिक स्टेटस बढ़ाया जा सकता है या मकान का है, जिसमें रहा जा सकता है या शेयर का है, जिसे खरीदकर भविष्य में लाभांश हासिल किया जा सकता है। बिटक्वाइन न शेयर है, न सोना है, न मकान है, न करेंसी है। फिर इसके भाव आसमान क्यों छू रहे हैं?
इंसानी मनोवृत्तियों में से एक बहुत बुनियादी है- लालच। लालच विवेक की कब्र पर ही उगता है। जहां बड़े समझदार निवेशक कह रहे हैं कि एक साल में सेंसेक्स की करीब 28 प्रतिशत बढ़ोतरी भी सामान्य नहीं है, वहां 1,600 प्रतिशत की बढ़ोतरी के बावजूद बिटक्वाइन को एक निवेश माध्यम बताया जा रहा है। लालच के ऐसे नमूने पहली बार नहीं दिखे हैं। वित्तीय इतिहास के जानकारों ने पढ़ा है कि 17वीं शताब्दी की शुरुआत में ट्यूलिप के फूलों को लेकर ऐसा जुनून लालच नीदरलैंड में देखा गया था। लोगों में यह भरोसा बैठ गया कि ट्यूलिप के फूलों के भाव सिर्फ ऊपर ही जाएंगे। लोगों ने घर गिरवी रखकर ट्यूलिप खरीदे, फिर एक दिन भाव जमीन पर आ गए, और बहुत से लोग बर्बाद हो गए। वित्तीय जगत में बहुत कारोबार बड़े मूर्ख की उपलब्धता पर चलता है। किसी ने बिटक्वाइन लिया 500 डॉलर का, उसे 1,000 डॉलर में खरीदने वाला एक और बड़ा मूर्ख मिल गया। मंगल ग्रह के प्लॉट भी खरीदे-बेचे जा सकते हैं। एक दिन पता लगता है कि कोई खरीदार नहीं है, और सब धड़ाम हो जाता है। 1992 में हर्षद मेहता के घोटाले भरे दिनों में कई शेयर रातोंरात दोगुने हो रहे थे। मूर्खों को और बड़े मूर्ख मिल रहे थे, बतौर खरीदार। फिर सब धड़ाम हो गया।
किसी भी चीज के भाव बढ़ने के तर्क होने चाहिए। उसकी दुर्लभता, उसकी आपूर्ति, उसकी मांग को लेकर स्पष्टता होनी चाहिए। वरना तो कई बाबा दो मिनट में गहने दोगुने करने के वादे पर माल लेकर चंपत हो जाते हैं। रिजर्व बैंक ने कई बार चेतावनी दी है, जिसका आशय है कि बिटक्वाइन को लेकर स्पष्टता नहीं है। बिटक्वाइन का कारोबार किसी भारतीय अथॉरिटी के दायरे में नहीं है। कल को अगर बिटक्वाइन डूब जाता है, तो किसकी जिम्मेदारी होगी? यह कोई भौतिक संपत्ति नहीं है। बिटक्वाइन की कोई भी ऐसी केंद्रीय अथॉरिटी नहीं है, जहां शिकायत दर्ज की जा सके। इंटरनेट ने कई तरह की लूट को ग्लोबल कर दिया है, क्योंकि लालच भी ग्लोबल और इंसानी प्रवृत्ति है। जो भी निवेश एक साल में 12 प्रतिशत से ज्यादा का रिटर्न देने की बात करे, उसे गहराई से शक की निगाहों से देखा जाना चाहिए। विडंबना यह है कि लालच शक को खत्म कर देता है। लालच का अंत छलावे पर होता है। देखना यह है कि अंत कब होता है?
Date:14-12-17
भ्रष्टाचार के खिलाफ
संपादकीय
जिस देश में ‘पावर और मनी’ राजनीति की मूलभूत शर्तें बन चुकी हों, उस देश में भ्रष्टाचार और राजनीति का साथ कब खत्म होगा, कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन सच है कि इस असंभव दिखते हालात में भी अदालतें बार-बार अपने सख्त फैसलों से नजीर पेश कर रही हैं। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और कभी अपनी युवा राजनीतिक उपस्थिति से चौंकाने वाले मधु कोड़ा को राज्य के बहुचर्चित कोयला घोटाला मामले में सजा जो भी मिले, लेकिन उन पर आरोप तय कर अदालत ने उनके गुनाहों पर मुहर तो लगा ही दी है। सीबीआई की विशेष अदालत ने कोड़ा के साथ पूर्व कोयला सचिव एच सी गुप्ता, झारखंड के पूर्व मुख्य सचिव अशोक कुमार बसु और एक अन्य अधिकारी को 2007 में झारखंड की राजहरा नॉर्थ कोल ब्लॉक गलत तरीके से आवंटित करने की आपराधिक साजिश का दोषी पाया। मामला 2012 में कैग की रिपोर्ट से सामने आया, जिसमें सरकार के कुछ मंत्रियों पर गड़बड़ी के आरोप लगे थे। मामले में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी नाम घसीटा गया, पर अदालत ने उन्हें क्लीन चिट दे दी थी।
राजनीति में भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि रातोंरात इसमें किसी क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद नहीं दिखती। जब तक कुछ भी करके चुनाव जीतने-जिताने या सरकार बनाने-गिराने के शौक रहेंगे, राजनीति से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा। राजनीति ने भ्रष्ट होने के तमाम रास्ते निकाल लिए और वह नए-नए रास्ते तलाशती रही, लेकिन अपनी शुचिता और सुधार के लिए कोई ईमानदार पहल या जद्दोजहद इसमें कभी नहीं दिखी। यह तभी तक दिखती है, जब तक आप प्रतिपक्ष में होते हैं, लेकिन सत्ता में आते ही नैतिकताएं और नियम के साथ नैतिकता की परिभाषाएं भी बदल जाती हैं। कुछ पुराने दरवाजे बंद होते हैं, लेकिन यह बंद होना जाने कितने नए चोर दरवाजे खोल जाता है।
काश, कोई ऐसी व्यवस्था बनती कि सत्ता में रहते भ्रष्टाचार संभव न होता, लेकिन यह तभी संभव है, जब हमारी नियामक इकाइयों में तनकर खड़े होने की क्षमता और दक्षता होती। लोकपाल और लोकायुक्त इसीलिए बने, लेकिन आज ये सुधार के अंतिम पायदान पर अटके पड़े हैं। राजनीति ने इनका इस्तेमाल भी अपने तरीके से कर लिया। जब तक लोकायुक्तों की नियुक्ति का रास्ता नहीं निकलेगा, तब तक इससे बेखौफ और ईमानदार न्याय की कल्पना भी कैसे की जा सकती है? वैसे सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही सही, सरकार ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों की विशेष फास्ट ट्रैक अदालतों में त्वरित सुनवाई कर मामले एक साल के अंदर निपटाने का जो वादा किया है, वह किसी हद तक आश्वस्त करने वाला है। हालांकि यह अपने आप में सोचने का विषय है कि जिस देश में सरकारी कर्मचारी या अफसर को अपराध साबित होते ही न सिर्फ नौकरी से हाथ धोना पड़ता हो, वरन हमेशा के लिए अयोग्य ठहरा दिया जाता हो, उस देश की सरकारें ना-मालूम कारणों से अपराधी साबित होने के बाद भी सांसदों-विधायकों पर आजीवन प्रतिबंध की बात गले नहीं उतार पा रहीं। जब राजनीति के सारे हमाम एक जैसे ही हों, तो उसमें डूबने-उतराने वालों की फितरत भी सहज ही समझी जा सकती है। शायद यही कारण है कि ऐसे नेताओं के समर्थकों के उत्साह में न उनके बाहर रहने पर कमी आती है, न उनके जेल जाने के बाद। इन कारणों की तलाश अभी बाकी है कि इन नेताओं के अपराध साबित हो जाने के बाद भी जनता या उनके समर्थकों का उनसे मोहभंग क्यों नहीं होता? जब तक जनता का मोहभंग नहीं होगा, कितने ही मधु कोड़ा इसी तरह पैदा होते रहेंगे।
Date:14-12-17
कुंभ की स्वीकार्यता
रीता सिंह
भारत राष्ट्र के लिए गर्व की बात है कि कुंभ मेले को संयुक्त राष्ट्र संघ के शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन ‘‘यूनेस्को’ ने अपनी प्रतिष्ठित मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल कर लिया है। यूनेस्को के अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों के दायरे में मौखिक परंपराओं और अभिव्यक्तियों, प्रदर्शन कलाओं, सामाजिक रीतियों-रिवाजों और ज्ञान इत्यादि को ही सम्मिलित किया जाता है। हाल ही में यूनेस्को ने भारत की सांस्कृतिक विरासत योग और नवरोज को भी अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। इस तरह कुंभ मेले और योग समेत भारत की कुल 14 धरोहर मसलन छाऊ नृत्य, लद्दाख में बौद्ध भिक्षुओं का मंत्रोच्चारण, संकीर्तन-मणिपुर में गाने-नाचने की परंपरा, पंजाब में ठठेरों द्वारा तांबे व पीतल के बर्तन बनाने का तरीका और रामलीला इत्यादि यूनेस्को की सूची में शामिल हो चुकी हैं। यूनेस्को ने कुंभ मेले को अपनी सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल करने का जो तक दिया है, उसके मुताबिक प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में लगने वाला कुंभ मेला धार्मिक उत्सव के तौर पर सहिष्णुता और समग्रता को रेखांकित करता है। यह खासतौर पर समकालीन दुनिया के लिए अनमोल है। कुंभ मेले को लेकर यूनेस्को की यह उदात्त व पुनीत भावना इसलिए भी सारगर्भित है कि कुंभ हिन्दुओं के लिए ही महज एक धार्मिक उत्सव भर नहीं है बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक विरासत की एक महान पूंजी भी है, जिसमें त्याग, तपस्या और बलिदान का भाव निहित है।
दुनिया भर के करोड़ों लोग कुंभ मेले की पवित्रता से अभिभूत होकर खींचे चले आते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘‘माघे वृष गते जीवे मकरे चंद्र भाष्करौ, अमवस्याम तदा कुंभ प्रयागे तीर्थ नायके।’ यानी माघ का महीना और गुरु, वृष राशि पर होते हैं। सूर्य और चंद्रमा मकर राशि पर होते हैं और अमावस्या होती है तब प्रयागराज तीर्थ में कुंभ पर्व पड़ता है। उल्लेखनीय है कि प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व नासिक इन चारों स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष कुंभ महापर्व का आयोजन होता है। प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम, हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में शिप्रा और नासिक में गोदावरी के तट पर कुंभ महापर्व का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पवरे के बीच 6 वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी लगता है। शास्त्रीय और खगोलीय गणनाओं के अनुसार कुंभ महापर्व की शुरुआत मकर संक्रांति के दिन से होता है और कई दिनों तक चलता है। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को ‘‘कुंभ स्नान योग’ कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार यह दिन मांगलिक होता है और ऐसी मान्यता है कि इस दिन पृवी से उच्च लोकों के द्वार खुलते हैं और कुंभ में स्नान करने से आत्मा को जीवन-मरण के बंधन से मुक्ति मिल जाती है। शास्त्रों में कुंभ स्नान की तुलना साक्षात स्वर्ग दर्शन से की गई है। पौराणिक मान्यता है कि महाकुंभ के दरम्यान गंगा का जल औषधिपूर्ण और अमृतमय हो जाता है और इसमें स्नान करने वाले तमाम विकारों से मुक्त हो जाते हैं। कुंभ मेले के इतिहास में जाएं तो इसका प्रारंभ कब हुआ कोई निचित प्रमाण नहीं है। चूंकि वैदिक और पौराणिक काल में इतिहास लिखने की परंपरा नहीं रही और कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज की तरह कोई प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप भी नहीं था इसलिए कुंभ मेले का कोई लिखित ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। लेकिन शास्त्रों में कुंभ मेले का विशद वर्णन उपलब्ध है। गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने के साक्ष्य उपलब्ध हैं। जहां तक प्रमाणिक तयों का सवाल है तो शिलादित्य हर्षवर्धन के समय प्रयाग की महत्ता के साक्ष्य उपलब्ध हैं। हालांकि शास्त्रों में जाएं तो कुंभ से जुड़ी कई कथानकें भारतीय जनमानस में व्याप्त हैं। इनमें सर्वाधिक मान्य कथानक देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूंदे गिरने को लेकर है। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु की सलाह पर दैत्यों को पराजित करने के लिए देवताओं ने समुद्र मंथन कर अमृत निकाला और अमृत कला पर कब्जा जमाने की होड़ में कला से अमृत की कुछ बूंदे प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिर पड़ी। इसी वजह से यहां कुंभ लगता है। कुंभ की सारगर्भित महत्ता, भव्यता और पवित्रता के परिप्रक्ष्य में ही ‘‘यूनेस्को’ ने इसे अपनी प्रतिष्ठित मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल कर इसके महत्त्व को दुनिया भर में स्थापित किया है।
Date:14-12-17
Disqualification moves
Was the Vice-President’s action against two JD(U) MPs a case of speedy justice or a hasty decision?
Vivek K. Agnihotri,(Vivek K. Agnihotri is former secretary-general of the Rajya Sabha)
The objective of the landmark anti-defection law of 1985 was to enhance the credibility of the country’s polity by addressing rampant party-hopping by elected representatives for personal and political considerations. While this enactment brought about some order in the system, some politicians found ways of circumventing it over the years. On December 4, when Chairman of the Rajya Sabha, M. Venkaiah Naidu, decided to disqualify two dissident Janata Dal (United) leaders without referring it to the committee of privileges, was it a hasty decision or a case of speedy justice?
The rules
A member of Parliament or the State legislature incurs disqualification if he either voluntarily gives up the membership of the party or votes or abstains from voting in his legislature, contrary to the direction (whip) of the party. In the present cases, that of Sharad Yadav and Ali Anwar Ansari, the allegation against the members was that by indulging in anti-party activities they had “voluntarily” given up the membership of their party, namely the JD(U). According to a Supreme Court judgment, “voluntarily giving up the membership of the party” is not synonymous with “resignation”. It could be “implied” in participation of the member in anti-party activities.
In two orders pronounced simultaneously, Mr. Naidu declared that Mr. Ansari and Mr. Sharad Yadav had ceased to be members of the Rajya Sabha with immediate effect on account of having incurred disqualification in terms of paragraph 2(1)(a) of the Tenth Schedule to the Constitution. Mr. Ansari was going to complete his term as a member of the Rajya Sabha on April 2, 2018 while Sharad Yadav’s term is set to expire on July 7, 2022.
The orders of the Chairman have established a benchmark, both in terms of speedy disposal (about three months) as well as the quality of the decisions. Since the anti-defection law came into place, there have been a large number of cases where proceedings have dragged on for years.
A reading of the rules prescribed by the Rajya Sabha show that the Chairman is required either to proceed to determine the question himself or refer it to the committee of privileges for a preliminary inquiry. But reference to the committee is contingent upon the Chairman satisfying himself that it is necessary or expedient to do so; it is not mandatory. As a matter of fact, in several cases in the past, the Speaker of the Lok Sabha and the Chairman of the Rajya Sabha, whenever “the circumstances of the case” so warranted, have “determined the question” themselves, without referring it to the committee.
Facts of the cases
In the present case, there was little dispute about the facts relating to anti-party activities undertaken by the respondents, including aligning with a rival political party (Rashtriya Janata Dal). The thrust of the arguments in defence was that the members being proceeded against were the ‘real party’ and, as a matter of fact, they filed a counter-petition for disqualification of the member of the JD(U), who had petitioned for their disqualification. However, this argument fell through because the Election Commission of India “recognised” that the JD(U) under the leadership of Mr. Nitish Kumar was “the party”. In any case, in the interests of natural justice, the respondents were given adequate opportunity to present their arguments on the petitions filed against them. Apart from the written statements, the members were given the opportunity of personal hearing, which they availed. The cases were decided in a short period of three months, but not in a hurry.
While delivering the order, Mr. Naidu made it clear that while dissent is a political right, it should be articulated appropriately without striking at the roots of the functioning of the party-based democratic system. The order of Mr. Naidu concludes with a reference to the malady of delays in deciding cases of disqualification. “I am of the considered opinion that, such petitions which go to the root of the democratic functioning and which raise the question, whether a particular legislator (lawmaker) is entitled to sit in the Legislature or not, should not be kept pending and dragged on by the Presiding Officers, with a view to save the membership of the persons, who have otherwise incurred disqualification or even to save the Government, which enjoys majority only because of such type of persons. I am of the view that, all such petitions should be decided by the Presiding Officers within a period of around three months, of course, by giving an opportunity, as per law, to the concerned Members against whom there are allegations, which lead to their disqualification under the Tenth Schedule to the Constitution of India, so as to effectively thwart the evil of political defections, which if left uncurbed are likely to undermine the very foundations of our democracy and the principles which sustain it.”
It is pertinent here to mention that the Chairman recalled that the then Law Minister, A.K. Sen, while piloting the bill in 1985 in the Lok Sabha had clearly stated that if defection was to be outlawed effectively “then we must choose a forum which will decide the matter fearlessly and expeditiously”.
Elaborating on the intention behind the anti-defection bill, the former Prime Minister Rajiv Gandhi had this to say in the Rajya Sabha in 1985: “What we have tried to do in this bill is to make it as black and white as possible so that there are no grey areas where somebody has to take a decision. The decision should be automatic, backed by a sequence of events, which are on record, so that there is no debate about it…”
Further, Rule 7(3) of the Members of Rajya Sabha (Disqualification on Grounds of Defection) Rules clearly stipulates that a member against whom the petition has been made, has to forward his comments to the chairman within seven days of the receipt of copy of the petition. The seven-day time clearly indicates the need for expeditious disposal of the petition.Mr. Naidu’s orders assume significance in the context of instances where members have switched sides and became ministers in the governments, which are formed by parties against whom they contested and won. Yet, no action was taken in such instances defeating the very objective of the anti-defection law. It is hoped that presiding officers of State legislatures will take the advice of the Chairman of the Rajya Sabha in the right spirit.
Date:14-12-17
The outsider
On adultery law
The real issue about our adultery law is whether it should be treated as a crime
EDITORIAL
here is no doubt at all that a reconsideration of the law on adultery is long overdue. By agreeing to have another look at the constitutional validity of Section 497 of the Indian Penal Code, under which men can be prosecuted for adultery, the Supreme Court has re-opened a question that has been decided thrice in the past. This time the court will have to do more than pronounce on whether the provision discriminates against men on the basis of gender and gives an unconstitutional exemption to women. While agreeing to issue notice to the government, the Bench has observed that the provision is archaic. It has further noted that in a case of adultery, one person is liable for the offence but the other is absolved, and that the concept of gender neutrality, on which criminal law normally proceeds, is absent. The court has also noted that once the consent or connivance of the husband is established, there is no offence of adultery at all. It rightly describes this as subordination of a woman and something that “creates a dent on the independent identity of a woman”. In the past, the Supreme Court has emphasised that a married woman is a “victim” and the man is “the author of the crime”. It has treated the exemption given to women as a special provision that has the protection of Article 15(3). It has rejected the argument that it is discriminatory by pointing out that neither a man nor a woman can prosecute their disloyal spouses. It is only the ‘outsider’ to the matrimonial relationship who can be prosecuted, and that too by the aggrieved husband alone. This is made clear in Section 198(2) of the Code of Criminal Procedure, a provision also under challenge.
The matter now before the court goes beyond the limited question of the culpability of women involved in a relationship outside their marriage. It raises the related question whether there is an implicit subordination of the will of a woman. However, merely positing the issue as one of discrimination in the way the law treats two parties in a consensual relationship because of their gender is misleading. The real problem is the very fact that adultery remains a crime in the form of an archaic colonial era provision. Many countries across the world do not treat it as an offence any longer. In 2012, a United Nations Working Group on laws that discriminate against women wanted countries that treat adultery as a crime, to repeal such laws. It is one thing for adultery to be a ground for divorce, a civil proceeding, and quite another for it to be a basis for incarceration. It will be a travesty if in the name of empowering women the ambit of the criminal law is extended to cover both genders. The correct course will be to dispense with this archaic provision altogether; it serves no real purpose in the criminal statute.