15-12-2017 (Important News Clippings)

Afeias
15 Dec 2017
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Date:15-12-17

Failing WTO not good news for India

ET Editorials 

It is but natural for Indian participants in the failed Buenos Aires ministerial of the World Trade Organisation (WTO) to focus, in the collapse of the ministerial, on US intransigence on reaching a permanent solution to the question of keeping expenses on public stockholding meant for ensuring food security outside the 10% cap on agricultural subsidies. There was no agreement on ending subsidies on illegal fishing either. The fact is that the US, under President Donald Trump, has no faith in multilateral agreements and prefers bilateral deals or agreements among small groups.

This overall change in developed-country appetite for multilateral liberalising of trade is the primary reason for the collapse of the current ministerial and the probability of ministerials of all member nations gradually giving way to meetings of what US trade representative Robert Lighthizer described as groups of like-minded countries. It is likely that the US would also champion a change in WTO decision-making from consensus among all members to a mixture of plurilateral agreements that like-minded countries can opt into and even decisions by majority.

India would, naturally, have to oppose such moves. However, India and other large developing countries stand to gain from WTO’s continued salience as the primary instrumentality of rules-based world trade, rather than from its gradual decline and disuse. To this end, they must not only stoutly oppose the US-kind of overreach but also build consensus of their own, to enable the body reach definitive agreements.Domestic politics makes governments score brownie points by acting tough at WTO. However, statesmanship lies in balancing short-term political gains with the economy’s long-term gains from making savvy concessions.


Date:15-12-17

All for one

WTO’s Buenos Aires conference was disappointing, it must be strengthened

TOI Editorials 

The conclusion of World Trade Organization’s 11th biennial ministerial conference at Buenos Aires was worrisome. From an Indian standpoint, there was no loss as status quo continues in the most important issue: the right to continue the food security programme by using support prices. But the inability of the negotiators to reach even one substantive outcome suggests that WTO’s efficacy is under question. As a 164-country multilateral organisation dedicated to crafting rules of trade through consensus, WTO represents the optimal bet for developing countries such as India. Strengthening WTO is in India’s best interest.

Perhaps the biggest threat to WTO’s efficacy today is the attitude of the US. The world’s largest economy appears to have lost faith in the organisation and has begun to undermine one of its most successful segments, the dispute redressal mechanism. This is significant as the US has been directly involved in nearly half of all cases brought to WTO. Separately, large groups of countries decided to pursue negotiations on e-commerce, investment facilitation and removal of trade obstacles for medium and small scale industries. By itself this should not weaken WTO. But it comes at a time when there is growing frustration with gridlock at WTO.India did well to defend its position on its food security programme. The envisaged reform package which will see a greater use of direct cash transfers to beneficiaries will be in sync with what developed countries do. But it’s important for India to enhance its efforts to reinvigorate WTO. In this context, India’s plan to organise a meeting of some countries early next year is a step in the right direction. WTO represents the best available platform to accommodate interests of a diverse set of nations. Therefore, India should be at the forefront of moves to fortify it.


Date:15-12-17

एनजीटी की पर्यावरण चिंता में धर्म रक्षा भी शामिल है

संपादकीय

राष्ट्रीय हरितपंचाट (एनजीटी) ने दक्षिण कश्मीर में 3,888 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अमरनाथ की गुफा में घंटा बजाने और जयकारा लगाने पर रोक लगाकर भले पर्यावरण की रक्षा के लिए कदम उठाया है लेकिन, उसके इस कदम से हिंदू धर्म के स्वयंभू ठेकेदार चिढ़ गए हैं। दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता तेजिंदर पाल बग्गा ने हिंदू विरोधी कहते हुए इसे चुनौती दे डाली है। एनजीटी के अध्यक्ष स्वतंत्र कुमार ने इससे पहले अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आदेश दिया था कि वह यात्रियों को हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराए। अब अमरनाथ गुफा में दिखने वाले बर्फीले शिवलिंग और आसपास के पर्यावरण की रक्षा को ध्यान में रखते हुए पंचाट ने आदेश दिया है कि वहां ध्वनि प्रदूषण के कारण हिमस्खलन का खतरा बढ़ जाता है इसलिए तो घंटा बजाया जाना चाहिए और ही जयकारा तथा मंत्रोच्चार किया जाना चाहिए। पंचाट ने यात्रियों को नारियल और मोबाइल ले जाने से भी रोका है और यात्रियों के स्पष्ट दर्शन हेतु लोहे की बाड़ हटाने को भी कहा है। अदालत की इस पर्यावरण चिंता में धर्म की रक्षा अंतर्निहित है पर यह उसे ही दिखाई देगी, जो धर्म की उदार और सद्‌भावपूर्ण व्याख्या में आस्था रखता है और जिसके लिए धर्म प्रकृति का ही हिस्सा है। जिन लोगों के लिए धर्म राजनीतिक सत्ता की सीढ़ी है उन्हें यह आदेश बुरा लगा है। इसीलिए उन्होंने चुनौती दी है कि वे अमरनाथ जाएंगे और जयकारा लगाएंगे। वैसे तो सनातन धर्म के व्याख्याकार दावा करते हैं कि उसमें पर्यावरण की चिंता आदिकाल से है लेकिन जब धर्म और उसके रीति-रिवाजों को आज की पर्यावरण आवश्यकताओं के लिहाज से संवारने की बात उठती है तो धर्म के रक्षक धर्मध्वजा लेकर खड़े हो जाते हैं। पर्यावरण का दर्शन धर्म और परम्परा में भी हो सकता है और विकास के चिंतन में भी लेकिन, उसका इन दोनों से टकराव भी है। पहले विकास की राजनीति प्रबल थी और अब धर्म की राजनीति प्रबल होती जा रही है। ऐसे में पर्यावरण चिंता को या तो एनजीओ का सहारा है या फिर अदालतों का। अदालतें कभी उज्जैन के महाकालेश्वर, कभी अमरनाथ गुफा और कभी यमुना के कछार के बहाने सुविचारित आदेश दे रही हैं। इसके बावजूद अगर धार्मिक दबाव में चुकी सरकारी मशीनरी उसे नहीं मानेगी तो पर्यावरण के पास अपनी राजनीति के समय आने का इंतजार करने के अलावा कोई उपाय नहीं है।


Date:14-12-17

दागी नुमाइंदे

संपादकीय

राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के प्रवेश पर लंबे समय से सवाल उठाए जाते रहे हैं। इसके अलावा, नेताओं के किसी गैरकानूनी काम में लिप्त होने या फिर उन पर किसी अनियमितता के आरोप लगने के बाद उनकी राजनीतिक भूमिका को सीमित करने से संबंधित नियम-कायदों को भी एक कानूनी स्वरूप देने की बातें होती रही हैं। लेकिन अब तक इस दिशा में कोई ठोस पहलकदमी नहीं हो सकी है। हालांकि करीब डेढ़ महीने पहले इसी मसले पर दायर एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा था कि दागी नेताओं पर दर्ज मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित की जानी चाहिए। तब अदालत ने सरकार से छह हफ्ते के भीतर यह भी बताने को कहा था कि इसमें कितना समय और धन लगेगा। इसी मसले पर मंगलवार को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह सूचित किया कि नेताओं की संलिप्तता वाले आपराधिक मामलों की सुनवाई और फैसलों के लिए कम से कम बारह विशेष अदालतें गठित की जाएंगी। इसमें एक मुश्किल यह है कि इसके लिए सबसे पहले देश भर में सभी ऐसे सांसदों और विधायकों का विवरण इकट्ठा करने की जरूरत होगी, जिनके खिलाफ मामले चल रहे हैं।

गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले महीने एक नवंबर को केंद्र से सांसदों और विधायकों की संलिप्तता वाले उन 1581 मामलों के बारे में विवरण पेश करने का निर्देश दिया था जो 2014 के आम चुनावों के दौरान नामांकन दाखिल करने के क्रम में सामने आए थे। जाहिर है, इससे संबंधित ब्योरा इकट्ठा करने में कुछ समय लग सकता है। लेकिन अगर सरकार के भीतर राजनीति को अपराध से मुक्त करने की इच्छाशक्ति है तो उसे इस मसले पर ज्यादा टालमटोल नहीं करना चाहिए। यह किसी से छिपा तथ्य नहीं है कि अदालतों में पहुंचे मामलों में सुनवाई और फैसलों की क्या गति है। मगर राजनीतिकों से जुड़े मामलों में एक खास स्थिति यह बन जाती है कि वे किसी अपराध के आरोप को अपने साथ लिए हुए आम जनता की नुमाइंदगी कर रहे होते हैं। यह एक विडंबना से भरी हुई स्थिति है कि कोई नेता खुद किसी अपराध के आरोप के तहत अदालत के कठघरे में खड़ा हो और वही कानून बनाने या उसे लागू करने की प्रक्रिया में भी शामिल हो।हालांकि निर्वाचन आयोग और विधि आयोग की एक सिफारिश पर अमल होता है तो आपराधिक मामलों में दोषी साबित हुए नेताओं को उम्र भर के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किया जा सकता है। लेकिन अगर मौजूदा कानून-व्यवस्था में किसी आरोपी को चुनाव लड़ने और सांसद या विधायक बनने की सुविधा प्राप्त है भी तो यह अपने आप में एक सुधार का सवाल है। फिर एक पहलू यह भी है कि अब तक राजनीतिकों पर लगे आरोपों में दोषसिद्धि की दर बेहद कम रही है। ऐसे मामले हो सकते हैं, जिनमें राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की वजह से किसी नेता को झूठे आरोपों के चलते भी मुकदमे में उलझना पड़ता है। लेकिन यह एक सामान्य स्थिति नहीं हो सकती। ऐसे तमाम मामले जगजाहिर है, जिनमें आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग भी कानूनी प्रावधानों में राहत का फायदा उठा कर चुनाव लड़ते हैं और जीत कर विधायक या सांसद बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में किसी आपराधिक मामलों में स्पष्ट संलिप्तता के आरोपों की सुनवाई और उन पर फैसला अगर जल्दी हो तो यह समूची भारतीय राजनीति के लिए अच्छा होगा।


Date:14-12-17

लालच का निवेश, छलावे का प्रतिफल