14-04-2018 (Important News Clippings)

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14 Apr 2018
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Date:14-04-18

Mission 2025

Dodgy record clouds defence manufacturing plans

TOI Editorials

The four-day DefExpo 2018 showcasing India as an “emerging defence manufacturing hub” comes soon after the draft defence production policy’s target of achieving self-reliance in most weapon systems by 2025. These include fighter aircraft, warships, land combat vehicles, autonomous weapons, missiles, gun systems, small arms and surveillance equipment. Considering that imports meet 70% of defence needs currently the 2025 target is ambitious – some would argue so overly ambitious as to be irrelevant. Even as DefExpo displays a wide catalogue of indigenous products to prospective buyers, defence minister Nirmala Sitharaman’s statement that Indian armed forces cannot be compelled to buy indigenous weapons reveals gross shortfalls in achieving global standards.

Buyers will be circumspect towards weapons rejected by our armed forces or inducted after long years of testing. India is the world’s largest arms importer and the lack of enthusiasm among foreign firms for Make in India is not surprising. The private sector which thrives on surety and continuous flow of orders remains perplexed by the slow pace of weapons acquisition from drafting requirements to testing and signing contracts. With four defence ministers in as many years, the political signalling is no better with NDA than in UPA years under AK Antony.

As a result, India’s strategic heft suffers with ageing weapon systems imported from abroad. With just Rs 1.17 crore in FDI until December 2017, Make in India’s failure has complicated efforts to build a military industrial complex. Without FDI, the target of Rs 1.7 lakh crore turnover in defence manufacturing by 2025, up from Rs 56,000 crore in 2016-17, can only be achieved with spending directed towards private companies and away from the public sector defence establishment comprising DRDO, defence PSUs and Ordnance Factory Boards. Having witnessed public sector sloth at close quarters, Modi government must repose faith in private enterprise and untangle bureaucratic red tape.


Date:14-04-18

Death as Distraction

Bad law is no answer to public anger

TOI Editorials

As outrage mounts over the rape, torture and murder of an eight-year-old girl in Kathua, Jammu, both J&K chief minister Mehbooba Mufti and Union minister for Women and Child Development, Maneka Gandhi, have spoken of introducing the death penalty for child rapists. This would be a disproportionate and counterproductive response, even though two other states, Rajasthan and Madhya Pradesh have such laws. Severity of punishment is not the answer, certainty of punishment is.

Child rape is a heinous crime, and existing laws already acknowledge its gravity. Both the Prevention of Children from Sexual Offences (POCSO) Act and the 2013 criminal amendments provide for sentences that can go up to life imprisonment. Death cannot be meted out in any but the rarest of rare cases. In a case like the Kathua rape-murder where a child was killed, the death penalty is already a possibility, it does not require a special law.

In the majority of instances of sexual offences against children, the perpetrators are known to them (nearly 95% by NCRB 2016 figures). Given this proximity and the child’s vulnerability, a punishment as harsh as death would deter the filing of cases, and may even lead to destruction of evidence by murdering the victim. Punishing sexual crimes against children requires system strengthening – improving investigation, taking the child’s testimony seriously and supporting him or her, improving pendency and conviction rates. Lawmakers must have the patience to work and improve the laws we have, rather than make bad new ones to satisfy the inflamed mood on the streets.


Date:14-04-18

कठोर कानून के साथ पुलिस और न्याय प्रक्रिया भी दुरुस्त करने की जरुरत

संपादकीय

दुष्कर्म की घटनाओं में भयावह वृद्धि के साथ जिस तरह बच्चियों को भी बड़े पैमाने पर दुष्कर्म का शिकार बनाया जा रहा है उसे देखते हुए अब यह अनिवार्य हो गया है कि ऐसे वीभत्स अपराध के दोषियों को कठोरतम सजा देने के कुछ उपाय किए जाएं। इस मामले में और देर इसलिए नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि निर्भया कांड के बाद दुष्कर्म रोधी कानून को कठोर करने के जो उपाय किए गए थे वे पर्याप्त नहीं सिद्ध हुए। न तो दुष्कर्म के मामलों में कोई उल्लेखनीय कमी देखने को मिली और न ही बच्चियों के साथ होने वाली दुष्कर्म की घटनाओं में। उलटे इस तरह की घटनाएं बढ़ती ही दिख रही हैं। ऐसे में दुष्कर्म के अपराधियों पर लगाम लगाने के लिए जो कुछ भी संभव हो, उसे प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए।

दुष्कर्म और खासकर बच्चियों से दुष्कर्म के मामले समाज को शर्मिंदा करने के साथ ही देश की छवि को भी खराब करते हैं।ऐसी घिनौनी घटनाएं सभ्य समाज के चेहरे पर एक दाग की तरह तो चस्पा होती ही हैं, आम लोगों में सिहरन पैदा करने का भी काम करती हैं। कठुआ में एक बच्ची से दुष्कर्म की जघन्य घटना ने ठीक ऐसा ही किया है। यह स्वाभाविक ही है कि कठुआ की घटना को लेकर देश में कुछ वैसा ही रोष-आक्रोश देखने को मिल रहा है जैसा निर्भया कांड के समय देखने को मिला था। यदि केंद्रीय समाज कल्याण मंत्रालय बच्चों को यौन अपराधों से बचाने वाले पोक्सो कानून की धाराओं में बदलाव लाकर 12 साल से कम उम्र की लड़कियों से दुष्कर्म के अपराधियों के लिए मौैत की सजा के प्रावधान पर विचार कर रहा है तो यह वक्त की मांग भी है और जरूरत भी।

बच्चियों से दुष्कर्म के अपराधियों को मौत की सजा संबंधी कानून हरियाणा, मध्यप्रदेश और राजस्थान में बनाए जा चुके हैं। इन राज्यों ने ऐसे कानून इसलिए बनाए, क्योंकि बच्चियों से दुष्कर्म थमने का नाम नहीं ले रहे थे।चूंकि इन राज्यों जैसी स्थिति सारे देश में दिख रही है इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि समाज कल्याण मंत्रालय अपने विचार को अमल में लाने के मामले में तेजी दिखाए। बच्चियों से हैवानियत के सिलसिले को जारी रहते हुए नहीं देखा जा सकता।

इसमें दो राय नहीं कि दुष्कर्मी तत्वों के मन में खौफ पैदा करने और उन्हें ऐसी सजा देने की जरूरत है जो सबक सिखाने वाली हो, लेकिन यह ध्यान रहे कि केवल कठोर कानून बनाने से उद्देश्य की पूर्ति होने वाली नहीं है। कठोर कानून बनाने के साथ ही पुलिस जांच और न्याय प्रकिया को दुरुस्त करने की भी जरूरत है। दुर्भाग्य स यह कार्य हमारे नीति-नियंताओं के एजेंडे में नहीं नजर आता और इसका उदाहरण है उन्नाव का मामला। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं जिनसे यह पता चलता है कि दुष्कर्म के मामलों की जांच में न्यूनतम संवेदनशीलता का भी परिचय नहीं दिया जाता। नि:संदेह कठोर कानून तभी प्रभावी सिद्ध होते हैं जब उन पर अमल होता है, लेकिन ऐसे कानून बनाते समय यह भी देखना होगा कि उनका दुरुपयोग न होने पाए, क्योंकि अपने देश में यह काम भी खूब होता है।


Date:14-04-18

जजों की नियुक्तियों के मामले में सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच समझबूझ का संकट

मुख्य संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसेफ की ओर से लिखी गई चिट्ठी यही बता रही है कि जजों की नियुक्तियों के मामले में सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच वैसी समझबूझ नहीं है जैसी कि होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम की ओर से जजों की नियुक्तियों की अनुशंसा पर सरकार को किसी नतीजे पर पहुंचना ही होगा। या तो वह यह स्पष्ट करे कि उसे कोलेजियम की ओर से सुझाए गए नाम मंजूर क्यों नहीं हैं या फिर इन नामों को अपनी स्वीकृति प्रदान करे। उसके समक्ष एक विकल्प कोलेजियम व्यवस्था के स्थान पर न्यायाधीशों की नियुक्ति की नई व्यवस्था बनाने का भी है। यह ठीक है कि विगत में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक नियुक्ति आयोग को खारिज कर दिया था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सरकार ऐसे किसी आयोग के गठन की नए सिरे से तैयारी न करे। उचित यह होगा कि सरकार सुप्रीम कोर्ट की आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए न्यायिक आयोग की स्थापना करने वाले संविधान संशोधन विधेयक को नए सिरे से संसद के समक्ष रखें। यह जटिल कार्य अवश्य है, लेकिन यह ठीक नहीं कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते रहें। दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में ऐसा नहीं है। न्यायाधीशों की ओर से अपने साथियों की नियुक्ति करना लोकतांत्रिक सिद्धांतों के भी विपरीत है। उचित यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट भी यह समङो कि यदि वह कार्यपालिका के दखल की आशंका को रेखांकित कर कोलेजियम व्यवस्था की वकालत करता रहेगा तो उस पर सवाल उठते ही रहेंगे।

यह ठीक नहीं है कि एक अरसे से सुप्रीम कोर्ट कुछ ऐसे कारणों से चर्चा में है जो उसकी छवि के अनुकूल नहीं हैं। एक ओर कुछ वरिष्ठ जज प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं तो दूसरी ओर न्यायाधीशों की नियुक्तियों का मसला विवाद से घिरा हुआ है। बेहतर होगा कि एक और जहां सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अपने आंतरिक प्रशासन को आपस में मिल-बैठकर दुरुस्त करें वहीं दूसरी ओर न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मसले पर कार्यपालिका के साथ विचार-विमर्श करके ऐसी कोई व्यवस्था बनाएं जो लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं के अनुकूल हो। विवाद के मसलों को लेकर चिट्ठियां लिखना अथवा प्रेस कांफ्रेंस करना समस्या का हल नहीं है। यह ठीक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज प्रधान न्यायाधीश को कठघरे में तो खड़ा करने में लगे हुए हैं, लेकिन यह नहीं स्पष्ट कर पा रहे हैं कि वह मुकदमों के आवंटन के अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए किस तरह न्याय प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं? स्पष्ट है कि इन स्थितियों में एक संदेह का वातावरण उत्पन्न हो रहा है। ऐसा वातावरण सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा के लिए उचित नहीं। बेहतर होगा कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश यह समङों कि जिस कोलेजियम व्यवस्था को सिद्धांत रूप में वे भी सही नहीं मानते उसे जारी रखने पर क्यों जोर दे रहे हैं? इसके अतिरिक्त उन्हें यह भी समझना होगा कि न्यायपालिका का नेतृत्व करने के नाते उनकी भी जवाबदेही बनती है। विडंबना यह है कि यह जवाबदेही मुश्किल से ही नजर आती है और यही कारण है कि देश का न्यायिक तंत्र समस्याओं से उबरने का नाम नहीं ले रहा है।


Date:13-04-18

सुप्रीम हैं सीजेआई

संपादकीय

निस्संदेह, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह साफ करना कि न्यायालय में पीठों का गठन और न्यायाधीशों का कार्य आवंटन मुख्य न्यायाधीश का विशेषाधिकार है, अनेक लोगों को पसंद नहीं आएगा। किंतु एक बार फैसला आ जाने के बाद इस पर विवाद समाप्त कर देना चाहिए। न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने यह फैसला एक जनहित याचिका पर दिया है। चार न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने बाजाब्ता पत्रकार वार्ता आयोजित कर प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा द्वारा पीठों के गठन से लेकर कार्य आवंटन के तरीकों पर प्रश्न खड़ा किया था।

यह सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में पहली बार था जब इस तरह चार न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ आए। उस समय से देश में यह बहस चल रही थी कि आखिर किसी मामले पर पीठ का गठन या किस मुकदमे को किस न्यायाधीश को देना है, इन सबका निर्णय मुख्य न्यायाधीश का विशेषाधिकार है या इसके लिए कोई नियम और परंपरा स्थापित है? यह भी प्रश्न उठाया जा रहा था कि क्या इसके लिए कुछ नियम और परंपराएं बनाई जानी चाहिए? अब इन सब प्रश्नों का उत्तर दे दिया गया है। मसलन, कौन सा मामला कौन न्यायाधीश सुनेंगे, इसका सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के आधार पर कायम वरिष्ठता से कोई लेना-देना नहीं है। व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के बाद सभी न्यायाधीश हैं और उनका फैसला सर्वोच्च न्यायालय का ही फैसला होता है।

इस सर्वोच्च अदालत के सभी न्यायाधीशों को उनके अपने पद के अनुरूप योग्य एवं सक्षम माना जाता है। इसी आधार पर किसी मामले को कुछ विशेष न्यायाधीशों को सौंपते हैं कि उनकी नियुक्ति पहले हुई है तो फिर हम यह भी मान लेते हैं कि फलां-फलां न्यायाधीश इस मामले की सुनवाई की योग्यता नहीं रखते। यह सोच कितना गलत होगा इसे बताने की आवश्यकता नहीं। इसी तरह, प्रधान न्यायाधीश दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के साथ ही पीठ में बैठें या पांच सदस्यीय पीठ के गठन के लिए न्यायाधीशों की श्रेणी तय किया जाए; आदि जैसे मसलों को उठाना प्रधान न्यायाधीश के कार्यक्षेत्र में दखल देना होगा। फैसले में साफ कहा गया है कि पीठों का गठन और मामले का आवंटन का अधिकार प्रधान न्यायाधीश को संविधान के तहत मिला हुआ है और उन्हें स्वयं में एक संस्था माना गया है। इसके बाद विवाद पर विराम लगना चाहिए।


Date:13-04-18

तेल की धार

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी का यह आह्वान दरअसल वक्त की मांग है कि तेल की कीमतों का निर्धारण तर्कसंगत तरीके और जिम्मेदारी से किया जाए। बुधवार को अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा मंच के सोलहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि गैर-वाजिब तरीकों से कच्चे तेल की कीमतों को प्रभावित करना ठीक नहीं है और इसकी वाजिब कीमत तय करने के लिए विश्व-स्तर पर सहमति बननी चाहिए। इस सम्मेलन में सऊदी अरब, ईरान और कतर जैसे प्रमुख तेल उत्पादक देशों के मंत्रियों ने शिरकत की। आखिर मोदी को तेल के दाम की बाबत जिम्मेदारी पर जोर देने की जरूरत क्यों महसूस हुई? असल में इस समय कच्चे तेल की कीमत चढ़ी हुई है और यह सत्तर डॉलर प्रति बैरल के साथ साढ़े चार साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। यह यों ही नहीं हुआ है। सऊदी अरब समेत तेल उत्पादक देशों के संगठन यानी ओपेक ने उत्पादन में कटौती करके कच्चे तेल की कीमत को यहां तक पहुंचाया है। हालांकि रूस ओपेक में शामिल नहीं है, पर कोई सवा साल से वह भी सऊदी अरब के साथ मिल कर कच्चे तेल की कीमत बढ़ाने की रणनीति पर काम करता रहा है। यही नहीं, सऊदी अरब ने पिछले दिनों कहा था कि कच्चा तेल प्रति बैरल अस्सी डॉलर तक जा सकता है। इससे भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है।

भारत अपनी जरूरत या खपत का अस्सी फीसद तेल आयात करता है। अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत चढ़ती है, तो भारत की अर्थव्यवस्था पर इससे दोहरी मार पड़ती है। एक तो यह कि आयात का खर्च बढ़ जाने से व्यापार घाटा बढ़ता है। दूसरे, पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाने पड़ते हैं, इसके फलस्वरूप परिवहन और ढुलाई की लागत बढ़ती है और इसका नतीजा बहुत सारी चीजों की मूल्यवृद्धि के रूप में आता है। ऐसे वक्त में, जब आने वाले विधानसभा चुनावों और फिर लोकसभा चुनावों के लिए सरकार खुद को राजनीतिक रूप से तैयार करने में लगी हो, पेट्रोल और डीजल की कीमतें उसके लिए परेशानी का सबब साबित हो सकती हैं। लेकिन क्या प्रधानमंत्री की अपील रंग लाएगी? क्या ओपेक में शामिल देश कच्चे तेल की कीमत में कमी करेंगे, या कम से कम और चढ़ने नहीं देंगे? इस तरह की उम्मीद पालना अति उत्साह होगा, क्योंकि ऐसी चीजें व्यापारिक स्वार्थ और दुनियादारी के हिसाब से चलती हैं। इसलिए भारत जैसे बड़े पैमाने पर तेल आयात करने वाले देशों को अपने स्तर पर रणनीति बनानी होगी।

इसमें पहला तकाजा यह है कि तेल पर निर्भरता घटाई जाए और दूसरे स्रोतों से ऊर्जा पाने की तकनीक का अधिक से अधिक विकास और प्रसार किया जाए। यों चुनावी साल के मद्देनज़र राहत की कुछ कवायद सरकार ने शुरू कर दी है। मसलन, सरकार ने वित्तमंत्री और पेट्रोलियम मंत्री को तेल और गैस ब्लॉक आबंटित करने की अनुमति दे दी है। इस फैसले से लाइसेंस देने में तेजी आएगी और कारोबार में सहूलियत होगी। पहले इस तरह का आबंटन करने का अधिकार मंत्रिमंडल को ही था। ओपेक की आंच से बचने के लिए अमेरिका, अजरबैजान आदि देशों से तेल की खरीदारी शुरू की गई है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल-खरीदार है। इससे जहां बाहर से तेल मंगाने की उसकी जरूरत या मजबूरी का अंदाजा लगता है, वहीं यह तथ्य इस बात की ओर भी संकेत करता है कि भारत तेल के विश्व-बाजार के गणित को प्रभावित कर सकता है। इसलिए मोदी की अपील को तेल उत्पादक देशों को हल्के ढंग से नहीं लेना चाहिए।


Date:13-04-18

In CJI’s Court

CJI Misra’s position as master of roster is underlined. Now he must attend to issues of, and threats to, judicial independence

Editorial

In January, in a dramatic and unprecedented press conference, four senior-most judges of the Supreme Court went public with their grave concerns about its functioning. They raised questions about the conduct of the Chief Justice of India, especially on the constitution of benches and allocation of cases. On Wednesday, an SC bench, led by the CJI, underlined that the CJI is “first among equals” with “exclusive prerogative” to allocate cases and constitute benches and that “there cannot be a presumption of mistrust” about the discharge of the CJI’s constitutional responsibilities. While questions have been raised in the legal fraternity over whether the CJI should have heard a matter involving the powers of his own office, Wednesday’s judgment is unequivocal about the “entrustment of authority” to his office — not just for “the efficient transaction of the administrative and judicial work of the court”, but also, significantly, for “the purpose of securing the position of the Supreme Court as an independent safeguard for the preservation of personal liberty.” Now, CJI Dipak Misra, the pre-eminence of his position as master of the roster underlined, needs to urgently turn his attention to a matter that concerns the position and independence of the Court in the matrix of institutions. He must address the critical issues flagged by a letter written to him by Justice Kurian Joseph, which have to do with the propriety and process of judicial appointments.

Justice Joseph, a member of the collegium, has pointed to the government’s unprecedented act of sitting on the collegium’s recommendation to elevate a judge and a senior advocate to the apex court. It is a matter, he suggests, that concerns — and threatens — the “very life and existence” of the Supreme Court. Reportedly, the central government is sitting on the name of one of the two candidates, Justice K M Joseph, who had ruled in April 2016 against the Centre in the case of imposition of President’s Rule in Uttarakhand. But it is not just the appointment of Justice K M Joseph that has invited allegations of undue executive interference. Last month, Justice Chelameswar, also a member of the collegium, had written to the CJI on the questionable propriety of the law ministry writing directly to the Karnataka High Court, despite the collegium reiterating a name for elevation to the high court. The stalled appointment of judicial officer P Krishna Bhat, accused of sexual harassment by a woman judicial officer and cleared by the court’s inquiry, has also provoked controversy and a busy exchange of letters between the Union Law Ministry, CJI Misra, Chief Justice of Karnataka HC Dinesh Maheshwari and Justice Chelameswar.

These matters — government withholding assent to the elevation of a judge who gave a politically inconvenient verdict, or government blocking an appointment cleared by the court — have gained gravity in the current political moment. Anxieties have gained ground that institutions appear more vulnerable in the face of a political executive armed with a decisive mandate. It is on CJI Misra to step up to the responsibility and challenge of upholding the independence of his institution, to assert its capacity to govern itself and self-regulate. The option of brushing the concerns expressed by Justices Chelameswar and Kurian under the carpet simply does not exist.