14-02-2020 (Important News Clippings)
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Accountability strike
Parties can spare themselves ignominy of justifying tickets to criminals by choosing clean candidates
TOI Editorials
The Supreme Court verdict – making it mandatory for political parties to provide justification for fielding candidates with criminal records – marks a continuation of its efforts to reverse the criminalisation of politics. In 2013, SC removed a loophole in Representation of The People Act that paved the way for instant disqualification of convicted MPs and MLAs. More recently, SC ordered creation of special courts to try MPs/ MLAs. Henceforth, political parties must publish in newspapers, official websites and social media platforms details of criminal cases against candidates and reasons for choosing them at the expense of clean candidates.
While political parties can be expected to trumpet the usual line that their candidates are victims of political machinations, such perfunctory responses will not pass muster where the charges involve murder, sexual offences against women and corruption. An NGO, ADR, had noted a 109% increase between 2009 and 2019 in elected Lok Sabha MPs with serious criminal cases like murder and rape. Candidates already have to list criminal cases in election affidavits. But SC’s new stricture also forces the political party to take explicit ownership of a blemished choice.
Any attempt to justify a bad candidate or trivialise heinous offences can invite public opprobrium. However, legally debarring candidates facing criminal cases is unworkable given the tendency of police to wantonly book opposition leaders on charges like unlawful assembly, obstructing public servants, rioting, etc even when undertaking peaceful protests. The best course would be for political parties to stop fielding criminals. Why can’t they follow a ‘Swachh Bharat’ policy when it comes to appointing candidates? With parties prioritising winnability over morality, criminals have prospered in politics and greatly contributed to weakening the rule of law.
Parliament can no longer ignore the conflict of interest posed by candidates facing serious criminal charges getting elected and becoming ministers. In Karnataka, the new forest minister Anand Singh is accused of illegal mining and violation of forest laws. Fast tracking cases against politicians could act as a disincentive for criminals to enter politics. It’s likely, however, that parties will offer vague, repetitious explanations for ticket choices in response to SC’s latest ruling. To check non-compliance, SC has directed Election Commission to approach it where parties flout the verdict. As the election watchdog, EC must cast a vigilant eye out for delinquent parties.
चाइल्ड पोर्नोग्राफी के खिलाफ निर्णायक लड़ाई की जरूरत
कैलाश सत्यार्थी, (नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता)
हाल ही में देहरादून में घटी यह एक शर्मनाक घटना है। घर में अकेला पाकर एक भाई ने अपने चार दोस्तों के साथ मिलकर अपनी ही आठ साल की बहन का दुष्कर्म कर दिया। पांचों बच्चों की उम्र 9 से 14 साल के बीच थी। पुलिस जांच में पता चला कि घटना को अंजाम देने से पहले इन बच्चों ने मोबाइल फोन पर पोर्न फिल्म देखी थी। स्मार्ट फोन की सुलभता और इंटरनेट की आसान पहुंच ने पोर्न फिल्मों को लोगों की जेब में पहुंचा दिया है। देहरादून की घटना इसके खतरनाक परिणामों का संकेत है। सोशल मीडिया के माध्यम से बच्चों को पोर्नोंग्राफी के जाल में फंसाया जा रहा है और ऑनलाइन चाइल्ड सेक्स ट्रैफिकिंग को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसका सबसे खतरनाक पहलू यह है कि बच्चों की अश्लील फिल्में देखकर लोग बच्चों को शिकार बना रहे हैं।
आज दुनिया के करीब 4.5 अरब लोगों की इंटरनेट तक पहुंच है। हर तीन इंटरनेट उपभोक्ता में से एक 18 वर्ष से कम उम्र का बच्चा है। दुनियाभर में 10 लाख से अधिक बच्चे जबरिया यौन शोषण के शिकार हैं। जिस तरह से चाइल्ड सेक्स ट्रैफिकिंग के लिए तेजी से डिजिटल प्लेटफॉर्म विकसित हो रहे हैं, वह दुनिया को भयावह अपराध की गिरफ़्त में ले जा रहा है। ट्रैफिकर सोशल मीडिया के माध्यम से आसानी से बच्चों से संपर्क करते हैं। वैसे वे बच्चे ट्रैफिकरों के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं, जो अकेलेपन, चिंता, तनाव या पारिवारिक समस्याओं से घिरे होते हैं। ट्रैफिकर एक साथ कई बच्चों को ‘ई-मीट’ कराते हैं और उन्हें झूठे वादों के साथ फुसलाते हैं। बच्चों को लुभाने के लिए कुछ ट्रैफिकर उनके मोबाइल के बिल का भुगतान करते हैं या ई-कॉमर्स साइट के जरिये उन्हें उपहार भेजते हैं। इस तरह एक बार बच्चा जब इनके चंगुल में फंस जाता है तो फिर वह इस दलदल से नहीं निकल पाता।
ऑनलाइन चाइल्ड सेक्स कारोबार से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए कारगर कानूनी, राजनीतिक, सामाजिक और तकनीकी उपायों की आवश्यकता है। सभी देशों को ऑनलाइन चाइल्ड सेक्स ट्रैफिकिंग के अपराध को परिभाषित करने और इसे अपने राष्ट्रीय दंड संहिता में शामिल करना चाहिए। इस मुद्दे के प्रति वैश्विक स्तर पर जन जागरूकता बढ़ाने की भी जरूरत है। विशेष रूप से विकासशील देशों में, जहां अशिक्षा, गरीबी और स्कूलों में उम्र के हिसाब से सेक्स शिक्षा का अभाव बच्चों को इस धंधे में घसीटने के लिए जिम्मेदार होते हैं। स्वयंसेवी संस्थाएं बच्चों, किशोरों और अभिभावकों में ऑनलाइन बाल यौन शोषण के खिलाफ जागरूकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। भारत में हमने लोगों को बाल यौन शोषण के खिलाफ जागरूक करने के लिए देशव्यापी ‘भारत यात्रा’ का आयोजन किया था। 22 राज्यों से गुजरते हुए 12 हजार किलोमीटर की दूरी तय करने वाली इस 35 दिनी यात्रा में करीब 12 लाख लोगों ने सीधे सड़क पर उतरकर मार्च किया था। कानूनी बदलाव के रूप में इसके कई सुखद परिणाम भी रहे। हाल में चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर गठित राज्यसभा की समिति ने जो सुझाव दिए हैं, उस पर अमल करने से भी भारत में बच्चों के यौन शोषण को रोकने में मदद मिलेगी। बच्चों को ऑनलाइन चाइल्ड सेक्स ट्रैफिकिंग से बचाने में इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर और आईटी कंपनियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐसी कंपनियों को जिम्मेदार और जवाबदेह बनाने की जरूरत है। इसी तरह से सोशल-नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म को भी 18 साल से कम उम्र के किसी भी बच्चे को निजी चैट रूम में प्रवेश करने से रोकना चाहिए। उन्हें बाल यौन शोषण वाली ऑनलाइन सामग्री को हटाने के लिए सर्च इंजन में अपने तकनीकी कौशल का इस्तेमाल करना चाहिए।
Date:14-02-20
टैक्स वसूलने के लिए अपील से ज्यादा सख्ती की जरूरत
संपादकीय
प्रधानमंत्री ने जनता, खासकर संपन्न वर्ग से अपील की है कि वे पूरी ईमानदारी से अपने टैक्स दें। उन्होंने कहा कि 2022 में देश की आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाई जाएगी, ऐसे में लोगों को अपने व्यक्तिगत हितों को उन लोगों की कुर्बानियों के साथ समाहित करना चाहिए, जिनकी वजह से देश आजाद हुआ। साथ ही ईमानदारी से टैक्स देने की प्रतिज्ञा करनी होगी, ताकि देश खुशहाल हो सके। प्रधानमंत्री ने कहा कि यह दुःख की बात है कि आज केवल 1.50 करोड़ लोग ही टैक्स देते हैं और केवल 2200 प्रोफेशनल लोग (जिनमें डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं) ही अपनी आय एक करोड़ से ज्यादा घोषित करते हैं, जबकि पिछले पांच साल में तीन करोड़ लोग व्यापार के सिलसिले में या घूमने विदेश गए हैं। ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार देश की आर्थिक स्थिति बदतर हो रही है। महंगाई वृद्धि और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट यानी बेरोजगारी की मार और गहरी होती जा रही है। इससे पहले वित्त मंत्री ने दावा किया था कि देश आर्थिक मंदी के चंगुल से बाहर आ सकेगा, क्योंकि अर्थव्यवस्था में हरी कोंपलें दिखने लगी हैं। दरअसल, जहां प्रधानमंत्री की अपील उचित और अनुपालन योग्य है, वहीं केवल अपील से ताकतवर व्यक्तिगत स्वार्थ की दुर्भावना को बदलना असंभव है। दशकों से यह आम जनता की नाराजगी का विषय रहा है कि प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाला एक डॉक्टर दिनभर में दस हजार से दो लाख रुपए या और अधिक कमाता है पर शायद ही समुचित टैक्स भरता है। सुप्रीम कोर्ट के एक वकील की एक केस में मात्र एक दिन की बहस की फीस लाखों रुपए होती है। पर इनसे टैक्स वसूलने की जिम्मेदारी किसकी है? ये प्रोफेशनल जब बेनामी संपत्ति खरीदते हैं या आलीशान घरों में विदेशी टाइल्स लगवाते हैं या लाखों खर्च कर इटली के झाड़-फानूस लगवाते हैं तो क्या टैक्स वालों की आंख पर पट्टी बंधी होती है? स्वच्छ भारत अभियान के लिए अपील करना तो समझ में आता है, क्योंकि वह समाज में गलत आदत से जुड़ा मुद्दा है, लेकिन किसी अपराधी से अपराध न करने की अपील सत्ता के मुखिया द्वारा करना जाने-अनजाने में यह संकेत देता है कि सरकार अक्षम है। इसलिए आज टैक्स वसूलने के लिए अपील से ज्यादा सख्ती की जरूरत है।
राष्ट्रीयता की अनदेखी के दुष्परिणाम
मनमोहन वैद्य, (लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं)
भारतीय समाज की कुछ विशेषताएं हजारों वर्षों की सामाजिक यात्रा के कारण उसकी पहचान बन गई है। इस विशिष्ट पहचान को बनाए रखने का अर्थ है राष्ट्रीय होना। अपनी स्थापना के करीब 20 वर्ष बाद कांग्रेस ने ब्रिटिश विरोधी स्वतंत्रता आंदोलन का रूप लिया था। तब कांग्रेस के सभी नेता भारत के परंपरागत समाज की उस विशिष्ट पहचान की साथ खड़े थे, जो वास्तव में सदियों की सामूहिक यात्रा के कारण निर्मित हुई थी और जो अनेक आक्रमणों और संघर्षों-टकरावों के बाद भी टिकी हुई थी। भारत के समाज का एक वैचारिक अधिष्ठान है, जिसका आधार आध्यात्मिक है। इसके कारण भारत का एक व्यक्तित्व और स्वभाव बना। भारत की विशाल भौगोलिक इकाई में रहने वाला विविध जाति-पंथ-भाषा के नाम से जाना जाने वाला संपूर्ण समाज भारत की इन विशेषताओं को साझा करता है।
भारत के व्यक्तित्व के चार पहलू है। पहला है, एकम् सत् विप्रा: बहुधा वदंति। भारत ने अपने आचरण से इस बात को सिद्ध किया है। इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने वर्ष 1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजिद धर्म संसद में अपने व्याख्यान में कहा था कि हम सभी मार्गों को सत्य मानकर उनका सम्मान करते हैं। दूसरा है, विविधता के मूल में रही एकता की अनुभूति करना। गुरुदेव रबीद्रनाथ टैगोर ने लिखा है, अनेकता में एकता देखना और विविधता में ऐक्य प्रस्थापित करना ही भारत का अंतर्निहित धर्म है।
भारत विविधता को भेद नहीं मानता और पराए को दुश्मन नहीं समझता। इसीलिए नए मानव समूह के संघात से हम भयभीत नहीं होंगे। उनकी विशेषता को पहचान कर उसे सुरक्षित रखते हुए उन्हें अपने साथ लेने की विलक्षण क्षमता भारत रखता है। तीसरी विशेषता भारत की यह मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का अंश है। चौथा लक्षण, यहां प्रत्येक व्यक्ति को अपना-अपना ‘मुक्ति का मार्ग चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता होना है।
भारत का स्वभाव धर्म है। यह धर्म ‘रिलीजन अथवा उपासना नहीं है। मंदिर में जाना, भगवान की पूजा करना, व्रत करना इत्यादि धर्म नहीं, उपासना है। उपासना करने से धर्म का आचरण करने के लिए शक्ति मिलती है। धर्म तो समाज को अपना समझ कर देना है। यह धर्म संकल्पना भारत की है। भारत की प्रत्येक भाषा के अभिजात्य और लोकसाहित्य में इसका वर्णन विपुलता से मिलता है। इसीलिए अंग्रेजी में धर्म का प्रयोग करना ही ठीक होगा। विद्या प्राप्त करने की इच्छा वालों को विद्या देना, प्यासे को पानी, भूखे को रोटी, निराश्रित को आश्रय, रोगी को दवाई देना- ये सब धर्म कार्य माना गया है। इसीलिए धर्मशाला, धर्मार्थ अस्पताल शब्द प्रचलित हैं। धर्म का एक वर्णन कर्तव्य भी कर सकते हैं। धर्म माने बिना भेदभाव परस्पर सहयोग से सामाजिक समृद्धि को बढ़ाना है।
भगिनी निवेदिता ने कहा है कि जिस समाज में लोग, अपने परिश्रम का पारिश्रमिक अपने ही पास न रखकर समाज को देते है, ऐसे समाज के पास एकत्र हुई पूंजी के आधार पर समाज संपन्न् और समृद्ध बनता है और इसके परिणामस्वरूप समाज का प्रत्येक व्यक्ति संपन्न्-समृद्ध बनता है। परंतु जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक समाज को न देकर अपने ही पास रखते हैं, उस समाज में कुछ लोग तो संपन्न् और समृद्ध होते हैं, लेकिन शेष समाज दरिद्र रहता है।
जो सहायता करते समय भेदभाव करता है, वह धर्म हो ही नहीं सकता। धर्म समाज को जोड़ता है और इसीलिए धर्म की परिभाषा है, जो धारणा करता है, वह धर्म है। भारत के संविधान निर्माण के समय संविधान समिति के सदस्यों को इस ‘धर्म तत्व की जानकारी थी। इसीलिए सर्वोच्च न्यायलय का बोधवाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जय: है। लोकसभा में ‘धर्मचक्र प्रवर्तनाय लिखा है। राज्यसभा में ‘सत्यं वद धर्मं चर लिखा है। राष्ट्रध्वज पर जो चक्र अंकित है, वह धर्म चक्र है।
वर्ष 1988 में गुजरात के कुछ हिस्से में भीषण अकाल था। मैं तब वडोदरा में प्रचारक था। अकालग्रस्त क्षेत्र में भेजने के लिए ‘सुखड़ी नामक एक पौष्टिक पदार्थ घर-घर बनवाकर संघ कार्यालय में एकत्र हो रहा था। एक दिन एक वृद्धा वहां आई। क्षीण आवाज में उसने एक कार्यकर्ता से कहा- सुखड़ी। एक कार्यकर्ता ने उससे कहा- माताजी, यह सुखड़ी अकालग्रस्त लोगों को भेजने के लिए है। तब उस वृद्धा ने अपनी साड़ी में समेटी एक पुड़िया निकाली और उसे देते हुए कहा- बेटा, मैं मांगने नहीं, देने आई हूं। ऐसे छोटे-छोटे कृत्यों द्वारा धर्म पुष्ट होता है और धर्मचक्र प्रवर्तन होता रहता है।
भारत का यह वैचारिक अधिष्ठान जिस कारण बना, उसका एक व्यक्तित्व और स्वभाव है। इसे दुनिया ‘हिंदुत्व के नाम से जानती है। इसीलिए भारत और भारतीय समाज की पहचान दुनिया में हिंदू है। यह हिंदुत्व सबको जोड़ने वाला, सबको साथ लेकर चलने वाला, किसी भी प्रकार का भेदभाव न करने वाला है। विविधता से संपन्न्, अनेक भाषा बोलने वाला, विविध उपासना पंथों का अनुसरण करने वाला भारत का राष्ट्रीय समाज एक है। विविधता भेद न होकर हमारा वैशिष्ट्य है।
आवागमन और संदेश व्यवहार के आधुनिक साधनों के कारण अब दुनिया बहुत करीब आ गई है। दुनिया में भाषा, वंश, उपासना, विचार का वैविध्य रहने वाला ही है। इस विविधता के मूल में एकता को देखने की दृष्टि भारत के पास है। इसीलिए भारत ने ‘वसुधैव कुटुंबकम को प्रस्थापित किया है।
स्वतंत्रता के पहले कांग्रेस के अधिकांश नेता और असंख्य कार्यकर्ता राष्ट्रीय वृत्ति के थे। कांग्रेस में साम्यवाद का प्रभाव बढ़ने से इस ‘राष्ट्रीय को हाशिये पर धकेलने की वृत्ति बढ़ती गई। वर्ष 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद यह प्रक्रिया और तेज हुई। इसी के साथ किसी भी प्रकार सत्ता में आना अथवा सत्ता में बने रहने की दिशा में कांग्रेस की यात्रा शुरू हुई। इसी कालखंड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अनेक लोक नेता और साधु-संतों के प्रयास से राष्ट्रभाव जागरण का कार्य अधिक गति से हुआ और उसका प्रभाव समाज में दिखने लगा।
एक तरफ राष्ट्रीय जागरण हो रहा था, जिसके परिणामस्वरूप समाज जाति, पंथ, प्रांत, भाषा आदि पहचान से ऊपर उठकर राष्ट्रीय दृष्टि से विचार और आचरण करने लगा तो दूसरी तरफ कांग्रेस जाति, पंथ, प्रांत, भाषा आदि विविधताओं को भेद की तरह प्रस्तुत कर, भावनाएं भड़काकर सत्ता में टिके रहने या सत्ता प्राप्त करने के प्रयासों में उलझी रही। इसके फलस्वरूप कांग्रेस ने राष्ट्रीयता से किनारा कर लिया और जाग्रत जनता ने राष्ट्रीयता से दूर हुई कांग्रेस को किनारे कर दिया। वास्तव में कांग्रेस की कमजोर होती स्थिति का यही एक बड़ा कारण है।
घाटी के अतीत में छिपी उम्मीदें
कर्ण सिंह, (पूर्व सांसद और महाराजा हरि सिंह के पुत्र)
जम्मू और कश्मीर को लेकर होने वाली सभी चर्चाओं और लेखन में ‘डोगरा की भूमिका’ को कमोबेश भुला दिया जाता है। जबकि तथ्य यही है कि जम्मू-कश्मीर राज्य अस्तित्व में नहीं आता, यदि महाराजा गुलाब सिंह (1792-1858) के नेतृत्व में डोगराओं द्वारा कूटनीति और वीरता का अद्भुत प्रदर्शन न किया गया होता। महाराजा गुलाब सिंह शुरुआती दिनों में महाराजा रणजीत सिंह के पसंदीदा सेनाधिकारी थे। उन्होंने अफगानिस्तान में सिख युद्धों में अपनी वीरता दिखाई, जिसके कारण, महाराजा रणजीत सिंह ने 1822 में चेनाब के किनारे खुद राजतिलक करके उन्हें जम्मू के राजा का खिताब दिया।
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में ही, गुलाब सिंह ने जम्मू इलाके को एकजुट किया था और हिमालय में डोगरा की बाशिंदगी शुरू करवाई। इस महान पंजाब शासक की मौत के बाद, 1846 में हुई अमृतसर की संधि ने महाराजा गुलाब सिंह का राज्य-विस्तार कश्मीर घाटी तक कर दिया। वह इलाका उपेक्षित नहीं था, बल्कि वहां के मुस्लिम गवर्नर ने डोगराओं का कड़ा विरोध किया। इसी दरम्यान, जम्मू और हिमाचल प्रदेश के डोगरा सैनिकों ने ट्रांस-हिमालय में एक महत्वपूर्ण सैन्य अभियान को अंजाम दिया और बड़ी ऊंचाई पर सफल लड़ाई लड़ी। महान डोगरा सेनापति जोरावर सिंह ने, जिनकी गिनती विश्व इतिहास में सबसे बहादुर सैन्याधिकारियों में होती है, लद्दाख को स्थानीय साम्राज्य के कड़े विरोध के बाद जीता। जनरल बाज सिंह, मेहता बस्ती राम और अन्य डोगरा जनरलों ने गिलगित-बाल्टिस्तान पर जीत हासिल की। सफलता की इस यात्रा में डोगराओं को भी भारी नुकसान हुआ, मगर जम्मू-कश्मीर के डोगरा साम्राज्य की स्थापना करने में वे सफल रहे, जो ब्रिटिश भारत में सबसे बड़ी रियासत के रूप में उभरा। गुलाब सिंह के उत्तराधिकारी महाराजा रणबीर सिंह ने हुंजा और नगर को डोगरा साम्राज्य में शामिल किया। स्पष्ट है, जम्मू-कश्मीर की अनूठी बहु-क्षेत्रीय, बहु-भाषायी, बहु-धार्मिक और बहु-सांस्कृतिक विशेषता डोगराओं की देन है, जिसके लिए इतिहासकारों ने उन्हें पर्याप्त श्रेय नहीं दिया।
राज्य की स्थापना के अलावा, डोगरा ने लगभग एक सदी तक यानी 1846 से 1947 तक इस पर सफलतापूर्वक राज भी किया। 1947 में 20 अक्तूबर को मेरे पिता ने राज्य के भारत में विलय को मंजूर किया। इस पूरी सदी में यहां चार शासक हुए- महाराजा गुलाब सिंह, महाराजा रणबीर सिंह, महाराजा प्रताप सिंह और महाराजा हरि सिंह। इस सच के बावजूद कि राज्य में 80 फीसदी मुस्लिम आबादी थी, डोगराओं ने इस राज्य को एक करके रखा। उन दिनों प्रशासन चलाने में न सिर्फ प्रतिभाशाली कश्मीरी पंडितों ने मदद की, बल्कि राज्य के बाहर के जहीन लोग भी इसमें शामिल हुए। इन लोगों में सर वजाहत हुसैन, सर गोपालस्वामी आयंगर शामिल थे, जो 1933 से 1939 तक राज्य के प्रधानमंत्री रहे। भारत का संविधान तैयार करने वाले प्रमुख नामों में एक बीएन राव भी कुछ समय तक यहां के प्रधानमंत्री रहे।
डोगरा के शासन काल में कई प्रगतिशील और दूरगामी सामाजिक सुधार शुरू किए गए, विशेषकर मेरे पिता महाराजा हरि सिंह द्वारा, जो 1925 में राजगद्दी पर बैठे। यह दुखद है कि उन्हें आमतौर पर अपने शासन के आखिरी महीनों के लिए याद किया जाता है, जिसमें कबायली हमला, भारत में राज्य का विलय और बाद के युद्ध की गिनती होती है। इसने उन उल्लेखनीय सुधारों को फीका कर दिया, जो मेरे पिता ने शुरू किए थे, जैसे बेगारी (जबरन मजदूरी) का अंत, 1929 में ही हरिजन/दलितों के लिए तमाम मंदिरों के दरवाजे खोलना, जबरी स्कूलों की शुरुआत (इनमें मुस्लिम लड़कियां उस वक्त पढ़ने के लिए आती थीं, जब ऐसी कोई संकल्पना भारत में कहीं और न थी) और राज्य-संस्था द्वारा बाहरी मजबूत ताकतों से राज्य के स्थाई बाशिंदों के भूमि स्वामित्व और सेवा-रोजगार की रक्षा करना। सामंतवाद से लोकतंत्र तक के सफर का मैं किस तरह अगुवा रहा, इसकी बानगी है कि मैंने सदर-ए-रियासत और केंद्रीय कैबिनेट मंत्री, दोनों के रूप में अपनी सेवाएं दी हैं।
भारतीय सेना में उत्कृष्ट योगदान के अलावा सांस्कृतिक सहयोग में भी डोगरा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, फिर चाहे वह पारंपरिक नृत्य-संगीत हो या बसोहली, गुलेर और कांगड़ा जैसी विश्व प्रसिद्ध पहाड़ी चित्रकला। डोगरी भाषा को तो संविधान की आठवीं अनुसूची में भी शामिल किया गया है। डोगरा बेशक संख्या में कम हैं, लेकिन सार्वजनिक जीवन के कई क्षेत्रों में वे उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।
जम्मू और कश्मीर की सांविधानिक स्थिति बदलने के बाद भी वे दोनों जुड़े हुए हैं। कई मायनों में, दोनों इलाकों की अर्थव्यवस्थाएं परस्पर सहायक हैं। अमरनाथ की पवित्र गुफा में आने वाले श्रद्धालुओं का बड़ा हिस्सा जहां जम्मू होकर गुजरता है, वहीं कश्मीर के बागवानी व हस्तशिल्प के ज्यादातर उत्पाद जम्मू के बाजारों से होकर गुजरते हैं। सच है कि दोनों क्षेत्रों को एक संयुक्त केंद्र शासित क्षेत्र के रूप में समेट दिया गया है, जिसका दोनों क्षेत्रों में स्वागत नहीं हुआ है। कश्मीरियों को लगता है कि विशेष दर्जा और संविधान का आनंद लेने के बाद अब उनका रुतबा अन्य भारतीय राज्यों से कम हो गया है, जबकि डोगराओं का मानना है कि भारत की उत्तरी सीमा के विस्तार और मजबूती में उनके योगदान को देखते हुए उनकी यह अपेक्षा गलत नहीं कि दोनों इलाकों की क्षेत्रीय स्वायत्तता के साथ उन्हें पूर्ण राज्य का दर्जा मिले।
कश्मीर में लंबे समय से इंटरनेट पर रोक और कई राजनीतिक नेताओं की नजरबंदी (जिनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल हैं और यह अब छठे महीने में प्रवेश कर गया है) का लोगों पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक असर पड़ने लगा है। व्यापक राष्ट्रीय हित में यह महत्वपूर्ण है कि जल्द से जल्द राजनीतिक हालात सामान्य किए जाएं और इंटरनेट की बहाली हो। इन सबके बाद ही अगस्त 2019 के बाद से इस केंद्र शासित क्षेत्र को हो रहे हजारों करोड़ो रुपये के भारी नुकसान की भरपाई हो सकेगी और वे तमाम फायदे, जो पुनर्गठन के बाद होने का भरोसा दिया गया था, वास्तव में पूर्व के डोगरा राज्य के लोगों तक पहुंच सकेगा।
Balance the needs
The Finance Commission should fairly assess fiscal position of Centre and states while finalising its report
Editorial
The terms of reference of the 15th Finance Commission have been a source of immense controversy. Southern states have in particular argued that using the 2011 Census data puts them at a disadvantage as they have fared better on family planning. The Commission has sought to assuage their concerns in its interim report by decreasing the population weight from 17.5 per cent to 15 per cent, and providing a counter-balance by assigning a weight of 12.5 per cent for their demographic performance. However, the interim report has left some uncomfortable issues unanswered, which will need to be resolved in its final report.
First, under the current arrangement, states were supposed to be compensated for any shortfall in their GST collections for a five-year period. While there is little clarity over the Centre’s obligation to compensate states if collections from the compensation cess fall short of what is needed to compensate states for their shortfall in revenue, the five-year compensation period ends in 2022. With GST collections falling short of expectations, states have demanded that the compensation period be extended. However, there is no clear indication either on its continuation after 2022, or whether it will be distributed to states, and if so to what extent. This ambiguity poses a grave risk to state finances, impacting both stability and predictability of their budgets. It also makes the job of the commission to project states’ revenue for the balance period difficult, affecting its ability to make a fair assessment of their requirements. Second, in its interim report, the Commission has proposed performance-based incentives for states in six areas, some of which such as agriculture and power distribution fall on the state list. While this is not a new proposal — the 13th Finance Commission had provided states incentives for reducing infant mortality — how will this be funded? Will the Commission, while keeping overall transfers to states at the existing level, reduce tax devolution to states, thereby creating fiscal space for providing these incentives?
Third, the creation of a separate mechanism for funding defence and internal security, if carved out of gross tax revenues, will further reduce the divisible tax pool that is shared with states. A cash-strapped Centre will undoubtedly welcome any proposal that provides it with greater fiscal space. But state finances are equally under pressure. As a constitutional body, the Finance Commission should impartially assess the fiscal position and expenditure requirements of both the Centre and states while finalising its report.
Date:13-02-20
Misreading history
Partition did not validate the two-nation theory
Rajmohan Gandhi, [Research professor at Centre for South Asian and Middle Eastern Studies, University of Illinois]
In February 1943, some months after his Quit India call, prisoner Gandhi went on a 21-day fast in protest against the British empire’s worldwide anti-Quit India propaganda. That month Gandhi discussed the Muslim League’s Pakistan demand with a visitor, Chakravarti Rajagopalachari, the only senior Congress leader not in jail at the time. Having openly disagreed with the Quit India move, Rajagopalachari had not been imprisoned.
In their Pune talks, Gandhi and Rajagopalachari quietly agreed under what was later called the C R formula that if the League joined the Congress in a common campaign for independence, the Congress could accept a post-independence plebiscite in contiguous Muslim-majority districts in the north-west and the east of undivided India. If the plebiscite favoured Partition, a bond of alliance would cover the subjects of defence, commerce and communications.
Nineteen months later, in September 1944, a freed Gandhi met Jinnah 14 times in Mumbai to sell him the CR formula. The talks failed. Jinnah offered five grounds for rejecting this formula’s Pakistan. One, it was not large enough: West Bengal and East Punjab were excluded. Two, he said, it was not sovereign enough: The proposed bond of alliance clipped sovereignty. Three, the scheme gave all residents in the contiguous Muslim-majority areas the right to vote on Pakistan, whereas Jinnah wanted the right restricted to Muslims. Four, while Gandhi wanted voting for separation to follow independence, Jinnah wanted the British to divide India before quitting.
Finally, complained Jinnah, while Gandhi was conceding the right of contiguous Muslim-majority areas to separate, he was refusing to admit that Hindus and Muslims were two different nations. “Let us call in a third party or parties to guide or even arbitrate between us,” Gandhi suggested. Jinnah did not agree. Three years later, in August 1947, Jinnah obtained no more than the Pakistan area that Gandhi had offered, but he obtained it without any bond of alliance.
Though a sad Gandhi acquiesced in the 1947 Partition, neither he nor any of the Congress’s prominent leaders such as Jawaharlal Nehru, Sardar Patel, Rajagopalachari, Maulana Azad or Rajendra Prasad agreed that Hindus and Muslims comprised two nations.
What took place in August 1947 was emphatically not the creation of two nations, one Hindu and the other Muslim. It was only the separation of contiguous Muslim-majority areas in the subcontinent’s north-west and east. Later, Pakistan indeed chose to become an Islamic nation, yet India remained a nation for all, with equal rights, firmly entrenched in its Constitution, for all its citizens, irrespective of religion (or race, gender or caste).
Prime Minister Narendra Modi has blamed Partition on Nehru. Assigning sole or main responsibility for that painful event to Nehru lacks any historical basis. It should be recognised, moreover, that if Partition had not occurred, all the residents of today’s Pakistan and Bangladesh would have been free to move to any corner of today’s India.
This should be realised by persons like Union minister G Kishan Reddy of the BJP who claimed, on February 9, that if Indian citizenship was offered, half the population of Bangladesh would migrate to India.
Who should be held responsible for Partition is not this article’s theme. Nor am I focusing here on movements or migrations of people. My purpose is to recall that though the two-nation theory was indeed advanced by the Muslim League after March 1940 and by the Hindu Mahasabha from 1937, India’s 1947 partition did not validate the two-nation theory. It should also be remembered that the Constitution of India adopted at the end of 1949 totally rejected that theory.
Opinion: Gandhi’s philosophy remains relevant in resilience, imagination of young India
Ignorance about one another is a reality in almost every society. So is prejudice about groups different from ours. But the history of human beings is, among other things, a story of growing awareness that all of us are the same underneath.
When a Korean movie wins the Oscar in the US, when people of Asian descent hold powerful political positions in several countries in Europe and North America, when Indian-Americans not only win seats in the US Congress but hope, one day, to send an Indian to the White House, something like the two-nation theory can only be seen as a relic from a retrograde past.
Long ago, people indeed thought that other tribes, races, religious groups or castes were inferior, or superior, or menacing, or an easy target. We know better today.
The two-nation theory has to be rejected not only categorically but also thoroughly. It is not enough to agree that as between Indian citizens no law can discriminate against anyone on religious grounds. Denying a path to citizenship to immigrants of a particular religion is an unconcealed expression of the two-nation theory, apart from being a violation of the constitutional and human principle of equality.
Applied today to immigrants, the theory will be directed tomorrow against fellow-citizens whose ancestors were Indians several hundred years ago. Eventually, it will set neighbour against neighbour. It should be given no sustenance whatsoever, not even in the name of succour for the persecuted.