13-11-2024 (Important News Clippings)
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Date: 13-11-24
The Original People
The indigenous, often courted for votes in India, want both inclusion & autonomy
TOI Editorial
Jharkhand, where the first-phase polling happens today, has seen fierce competition for tribal votes. Parties have variously invoked tribal rights to jal, jangal and zameen, a distinct religious and cultural identity under the Sarna code, or their fear of being engulfed by ‘outsiders’. Variations of these issues play out globally, wherever there’s a substantial indigenous population, who are all different. Central Indian adivasis are a world away from isolated Sentinelese in Nicobars, or Native Americans, the Maori or the Inuit. But there are broad themes in their predicament: tensions over land, resources, and identity, clashing visions of the good life and future. They are 6% of the world’s population but account for 19% of extremely poor.
Many indigenous tribes have been uprooted by European colonialism. Their autonomy over their own life choices was denied. Today, while their autonomy is accepted, it is easier said than done. Native Americans are citizens of their own ‘domestic dependent nations’ as well as US, with rights under both systems. In New Zealand, Maori are seen as sovereign people, with guaranteed political voice and representation. In Australia, indigenous Australians were seen as a lesser race, with terrible consequences. In India, indigenous people have endured colonial expropriation, constitutional paternalism and religious interference, they are displaced in the name of conservation as well as industrial and commercial projects, they have suffered the sharpest edge of the security state in central India.
Indigenous people’s rights are individual and collective. Cultural protection cannot be disentangled from land and ecology. Here, we often frame adivasis either as stewards of a pristine wilderness and lost wisdom, or as deprived but aspiring Indians who want a bigger piece of the extraction and consumption economy. Neither is correct. As individuals embedded into this political economy, they, like any of us, seek a dignified life. But as groups, they occupy a different angle to capitalism and the mainstream order. Indigenous groups have led environmental justice movements, from Standing Rock protests over the Dakota oil pipeline, or against mining projects in central India. Their customs often spring from a different relationship with the earth and other living beings, different from calculations of conventional economics. Their store of knowledge enriches human inheritance. Indigenous or otherwise, we should have access to the same range of choices – and the world should be big enough for our differences too.
Date: 13-11-24
सीओपी के एजेंडे में भारत चीन को साथ आना होगा
संपादकीय
बाकू ( अजरबैजान में जारी सीओपी – 29 की सार्थकता ट्रम्प के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद स्वयं संकट में है। आर्थिक मदद के पेरिस समझौते को ट्रम्प पहले ही ठेंगा दिखा चुके हैं। कुल लड़ाई इस बात पर है कि तमाम सदियों के विकास के इतिहास में सबसे ज्यादा प्रदूषण विकसित देशों यानी अमेरिका और यूरोप के देशों ने किया। अब जब अस्तित्व का संकट आया तो ये देश विकास के अलग-अलग पायदान पर खड़े देशों पर दबाव डाल रहे हैं कि वे विकास की कीमत पर जीरो कार्बन उत्सर्जन करें, ऊर्जा के अन्य महंगे लेकिन साफ स्रोतों पर शिफ्ट करें। एक आकलन के अनुसार भारत को कोयला संयंत्र बंद कर दूसरे स्वच्छ ऊर्जा स्रोत पर जाने में अगले 30 वर्षों तक हर वर्ष 2.50 लाख करोड़ से ज्यादा रुपए खर्च करने होंगे। चूंकि अमेरिका और यूरोप की कुल जीडीपी विश्व की कुल जीडीपी की करीब आधी है, लिहाजा इस आर्थिक मदद की नैतिक जिम्मेदारी भी उन्हीं की बनती है। लेकिन ट्रम्प के चार साल के कार्यकाल के कारण दुनिया को बचाने का संयुक्त प्रयास बाधित नहीं होना चाहिए। उधर आशंका है। कि ट्रम्प के अलावा यूरोप भी कार्बन फुटप्रिंट वाले उत्पाद जैसे स्टील, सीमेंट, एल्युमीनियम और खाद पर कार्बन टैक्स लगा सकता है। पिछले दिनों में भारत के स्टील को लेकर यह विवाद उठा था। चीन भी इस बैठक में लगातार यह मुद्दा उठा रहा है। दरअसल समाधान निकलना भावी पीढ़ी की सुरक्षा के लिए अपरिहार्य है- फिर चाहे अमेरिका के साथ हो या अमेरिका के बगैर। इसकी चिंता भारत और चीन को साथ मिलकर करनी होगी, क्योंकि यही दोनों देश विकास के उस मुकाम पर हैं, जहां इसे न रोका जा सकता है न गरीबों के कल्याण के प्रयास कम किए जा सकते हैं। समस्या का हल नए नजरिए से निकालेंगे तो अमेरिका साथ आने को मजबूर होगा।
Date: 13-11-24
‘मिडिल इनकम ट्रैप’ में फंसता जा रहा है भारत
रतिन रॉय, ( प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य )
पिछले 15 वर्षों से आम भारतीयों की आय स्थिर है। ये आबादी के शीर्ष 15% से 50% के बीच के लोग हैं। सबसे गरीब 20% लोगों की आय में बढ़ती सब्सिडी और दूसरी सौगातों के कारण वृद्धि देखी जा रही है। लेकिन 8 से 35 वर्ष के बीच के 12 करोड़ से अधिक लोग न तो शिक्षा पा रहे हैं और न ही रोजगार की तलाश कर रहे हैं।
कृषि में ‘रोजगार’ करने वाली आबादी अपने उच्चतम स्तर पर है, जबकि जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 30 वर्षों में सबसे निचले स्तर पर है। उत्पादन का डिफॉल्ट तरीका अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र बना हुआ है। यूपी और बिहार के औसत निवासी किसी औसत बांग्लादेशी या नेपाली से भी कम कमाते हैं।
ये सब एक ऐसी बीमारी के लक्षण हैं, जिसका अगर इलाज नहीं किया गया तो भारत ‘मिडिल इनकम ट्रैप’ में फंस जाएगा, यानी हमारी ग्रोथ मध्य-आय के स्टेटस पर पहुंचकर थम जाएगी। कई देश इसके शिकार बन चुके हैं। भारत संरचनात्मक मांग में एक बाधा का सामना कर रहा है।
इसका समाधान केवल उन चीजों का उत्पादन करके किया जा सकता है, जिनका भारत के शीर्ष आधे लोग (सिर्फ शीर्ष 15% लोग ही नहीं) उपभोग करना चाहते हैं। ऐसा इन चीजों का उत्पादन करते हुए गरीब भौगोलिक क्षेत्रों में रोजगार पैदा करके किया जा सकता है। अगर ऐसा नहीं होता है तो 1991 के बाद से शीर्ष 15 करोड़ भारतीयों की समृद्धि की प्रेरणा अंततः लड़खड़ा जाएगी।
निजी अंतिम उपभोग-व्यय में वृद्धि महामारी से पहले के स्तरों से नीचे है। शीर्ष 15% आबादी की समृद्धि में वृद्धि के कारण भारतीय विकास को आधार देने वाली चीजें अब नहीं बिक रहीं। वाहनों से लेकर एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) और (गैर-आईफोन) स्मार्टफोन तक- बहुत अमीर लोगों के अलावा हर किसी की खपत स्थिर हो रही है। आयकरदाता (जो भारत की प्रति व्यक्ति आय का कम से कम 350% कमाते हैं) करों के असह्य बोझ की शिकायत करते हैं।
हमारे लड़खड़ाते आर्थिक इंजन के चार मायने हैं। एक, शेयर बाजार की कहानी भारत की समृद्धि की कहानी नहीं है। हाल के दिनों में शेयर बाजार में संरचनात्मक मंदी के बावजूद उछाल आया है, क्योंकि सूचीबद्ध कम्पनियों के कुल राजस्व के अनुपात में उनके मुनाफे का हिस्सा बढ़ा है, जबकि : 1. वास्तविक वेतन स्थिर हैं या घट रहे हैं, 2. आपूर्तिकर्ताओं के मार्जिन कम हो गए हैं 3. कम्पनियों ने कर्ज-मुक्त होने के लिए करों में छूट और प्रोत्साहन का उपयोग किया है।
यही कारण है कि निवेश कम होने के बावजूद मुनाफा ज्यादा है। निकट भविष्य में भी यही हालात रहने की उम्मीद की जा सकती है, उलटे बाहरी झटकों के कारण और अस्थिरता आएगी। अगर सरकार विनिवेश में इतनी अक्षम नहीं होती तो शेयर बाजार और बेहतर प्रदर्शन करता। लेकिन शेयर बाजार की कहानी अब भारत की समृद्धि की कहानी से अलग है।
दो, मांग आपूर्ति से जुड़ी है। भारत अमीर लोगों के लिए कमीजें बना सकता है, लेकिन आम लोगों के लिए वह कमीजों का आयात करता है। वह आलीशान भवन बनाने के लिए जमीन और पूंजी जुटा सकता है, लेकिन आमोदमी के आवास पर सब्सिडी दी जाती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत उत्पादकता के चौंकाने वाले निम्न स्तर से ग्रस्त है।
हमारी इकोनॉमी मुगल-काल के जैसी हो गई है। भारत अमीरों के लिए तो महंगा सामान बना पाता है, लेकिन कम उत्पादकता के कारण आम भारतीयों की मांग को पूरा करने में असमर्थ है। अधिकांश उद्यमियों का लक्ष्य ‘रेंट-सीकिंग’ हो गया है यानी नीतियों-संसाधनों के दोहन से अपनी सम्पत्ति को बढ़ाना।
तीन, अनौपचारिक क्षेत्र अपनी पकड़ बनाए हुए है। एक समृद्ध अर्थव्यवस्था वह होती है, जिसमें लोग अनौपचारिक क्षेत्र में उत्पादित सस्ते, निम्न-गुणवत्ता वाले उत्पादों का उपभोग करने से हटकर औपचारिक अर्थव्यवस्था में उत्पादित बेहतर-गुणवत्ता वाले सामान का उपभोग करते हैं। लेकिन भारत में, सबसे अमीर क्षेत्रों में भी अधिकतर लोगों को तीसरी दुनिया के दामों पर किसी अनौपचारिक रेस्तरां में एक कप चाय और नाश्ता प्रदान किया जाता है, जबकि चुनिंदा लोग औपचारिक ईटरीज़ पर आधिपत्य जमाए हुए होते हैं।
अधिकांश क्षेत्रों में ऐसा ही है। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का इतने व्यापक पैमाने पर बने रहना ब्राजील और थाईलैंड जैसी विफल अर्थव्यवस्थाओं को दक्षिण कोरिया और चीन जैसी सफल अर्थव्यवस्थाओं से अलग करता है।
चार, राज्यसत्ता का हमेशा मुआवजा देने वाले की स्थिति में बने रहना। यहां निराश्रितों को सब्सिडी दी जाती है, लेकिन आम लोग भी भोजन, परिवहन, आवास और जरूरी चीजों के लिए भारी सरकारी सब्सिडी के बिना अपनी कमाई से आवश्यक वस्तुएं खरीदने में सक्षम नहीं हैं। यही कारण है कि सार्वजनिक निवेश और गुणवत्तापूर्ण सामान देने की क्षमता घुट जाती है, क्योंकि राज्यसत्ता व्यापक समृद्धि लाने में अपनी विफलता के ऐवज में सब्सिडी और सौगातों की भरपाई करती रहती है।
ये तमाम एक मध्यम आय वाले देश के संकेत हैं। यह विशेष रूप से चिंता का विषय है कि ये प्रति व्यक्ति आय के इतने कम स्तर पर भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषता बन चुके हैं। लेकिन स्थिति चाहे जितनी गम्भीर हो, वह सुधार योग्य है। इसके लिए नीति-निर्माताओं को हकीकत का सामना करना चाहिए, न कि केवल शेखी बघारना चाहिए।
उत्पादकता का निम्न-स्तर हम अमीर लोगों के लिए कमीजें बना सकते हैं, लेकिन आम लोगों के लिए कमीजों का आयात करते हैं। आलीशान भवन बनाने के लिए जमीन और पूंजी जुटा सकते हैं, लेकिन आम आदमी के आवास पर सब्सिडी दी जाती है। हम उत्पादकता के निम्न स्तर से ग्रस्त हैं।
Date: 13-11-24
असहाय नगर निकाय
संपादकीय
इस पर हैरानी नहीं कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग ने यह पाया कि देश के अधिकांश नगर निकाय न तो अपने स्रोतों से धन जुटाने में समर्थ हैं और न ही आवंटन के जरिये मिले पैसे का पूरा उपयोग कर पाने में। स्पष्ट है कि ऐसे में शहरों की स्थिति सुधरने की जो आशा की जा रही है, वह पूरी होने वाली नहीं है। कैग की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि राज्य सरकारें अपने नगर निकायों को वांछित अधिकार देने को तैयार नहीं। वे इस पर भी ध्यान नहीं दे रही हैं कि नगर निकाय कर्मचारियों की कमी का सामना कर रहे हैं। यह विचित्र है कि जो राज्य सरकारें संघीय ढांचे का हवाला देकर केंद्र पर यह आरोप लगाती रहती हैं कि वह उन्हें पूरी स्वतंत्रता से काम नहीं करने देती, वे अपने नगर निकायों को 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत मिलीं आवश्यक शक्तियां देने को तैयार नहीं।
आखिर आवश्यक अधिकारों के अभाव में नगर निकाय अपना काम सही तरह से कैसे कर पाएंगे? ऐसा लगता है कि राज्य सरकारें यह बुनियादी बात समझने को तैयार नहीं कि शहरी निकाय एक तरह से शासन की तीसरी इकाई हैं और उनका समर्थ होना आवश्यक है। निःसंदेह उन्हें समर्थ बनाने के साथ ही इसकी भी आवश्यकता है कि उन्हें उनके कार्यों के लिए जवाबदेह बनाया जाए। यह ठीक नहीं कि राज्य सरकारें इनमें से भी कोई काम नहीं कर रही हैं। उचित यह होगा कि केंद्र सरकार केंद्र शासित प्रदेशों के जरिये राज्यों के समक्ष ऐसा कोई उदाहरण पेश करे कि शहरी निकायों को किन अधिकारों से लैस होना चाहिए, उन्हें अपना काम कैसे करना चाहिए और खुद को आर्थिक रूप से सक्षम कैसे बनाना चाहिए?
यह समझा जाना चाहिए कि शहरों की सूरत तब तक नहीं संवर सकती, जब तक नगर निकाय प्रशासनिक और आर्थिक रूप से सक्षम बनने के साथ ही शहरों के विकास की ऐसी योजनाएं बनाने में समर्थ नहीं होते, जो दीर्घकालिक और भविष्य की जरूरतों को पूरी करने वाली हों। चूंकि आम तौर पर शहरी विकास की ज्यादातर योजनाएं समस्याओं का फौरी समाधान करती दिखती हैं, इसलिए तमाम विकास कार्यों के बाद भी शहरों में विभिन्न समस्याएं सदैव सिर उठाए हुए दिखती हैं। क्या यह किसी से छिपा है कि किस तरह नए बने रास्ते, फ्लाईओवर, बाईपास आदि किस तरह कुछ समय बाद अपर्याप्त सिद्ध होने लगते हैं? पता नहीं क्यों आज भी शहरी योजनाएं यह ध्यान में रखकर नहीं बनाई जातीं कि आज से 50-60 साल बाद आबादी क्या होगी और उसके लिए कैसा आधारभूत ढांचा चाहिए होगा? कभी-कभी तो यह लगता है कि इस पर कोई विचार ही नहीं करता कि आज जो बुनियादी ढांचा बनाया जा रहा है, वह भविष्य की चुनौतियों का सामना कर सकेगा या नहीं? यह स्थिति तब है, जब देश के सभी छोटे-बड़े शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है।
Date: 13-11-24
परमाणु ऊर्जा के लिए अनुकूल हालात की जरूरत
अजय शाह और अक्षय जेटली, ( शाह एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता और जेटली स्ट्रैटजी एवं पॉलिसी एडवाइजर हैं )
हम भारतीय यह मानते आए हैं कि अंतरिक्ष में कोई भी गतिविधि केवल सरकार करती है। परंतु अंतरिक्ष यात्रा को लेकर बेहतरीन वैश्विक ज्ञान में स्पेसएक्स जैसी निजी कंपनियों की जबरदस्त हिस्सेदारी है।
एक बार जब निजी क्षेत्र गति पकड़ लेता है तो वह गुणवत्तापूर्ण ऊर्जा और नवाचार लाता है जो सरकारी संस्थानों में नहीं पाया जाता है। परमाणु ऊर्जा पर भी यही बात लागू होती है। अब निजी कंपनियां दुनिया का सबसे सुरक्षित, किफायती और नवोन्मेषी परमाणु रिएक्टर बना रही हैं।
भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के समय यह स्पष्ट था कि बड़े उत्पादन संयंत्र फ्रांस, जापान और अमेरिका से आयात किए जाएंगे और यह बड़ा आरक्षण होगा। हाल के दिनों में गूगल और मेटा ने निजी कंपनियों से ‘स्मॉल मॉड्युलर रिएक्टर्स’ (एसएमआर) के लिए ऑर्डर दिया है जो 50 मेगावॉट क्षमता वाले संयंत्र होंगे। हम केंद्रीय नियोजक नहीं होना चाहते और न ही हम वे महान नेता बनना चाहते हैं जो भारत के लिए चयन करेंगे।
भारत की ऊर्जा नीति को ऐसे हालात बनाने चाहिए जहां निजी कंपनियां इस बात पर विचार करें कि क्या उनके लिए ऐसे उपकरण खरीदना उचित होगा? यह कैसे हासिल किया जा सकता है? नीतिगत माहौल के कौन से तत्त्व जरूरी हैं ताकि यह क्षेत्र विवेकपूर्ण तरीके से विकसित हो सके? यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसने बाजार की विफलता देखी है।
सार्वजनिक अर्थशास्त्र के उपायों को अपनाया जाना चाहिए। यानी बाजार की नाकामी को समझना और भारतीय हालात तथा राज्य क्षमता के अधीन उपयुक्त नीतिगत राह तैयार करना। इसके अलावा उन प्रतिबंधों को हटाने की जरूरत है जिनका बाजार की विफलता से कोई संबंध नहीं। नीति निर्माताओं की कार्य योजना पांच तत्वों में निहित है।
1. अगर देश में कोई व्यक्ति किसी विदेशी विक्रेता से परमाणु रिएक्टर खरीदना चाहता है तो उस पर कोई आयात प्रतिबंध या ऐसा सीमा शुल्क नहीं लगेगा जो लेनदेन में हस्तक्षेप करता हो। बशर्ते कि ऑपरेटर पर सुरक्षा प्रतिबंध लागू हों।
2. वितरण कंपनियां आमतौर पर उच्च लागत वाले स्रोत मसलन तटीय पवन या परमाणु ऊर्जा में रुचि नहीं लेतीं। ऐसे में परमाणु ऊर्जा के लिए भी नीति ऐसी होनी चाहिए जैसी पवन ऊर्जा आदि के लिए है। इसमें उत्पादकों के लिए स्पष्ट व्यवस्था होनी चाहिए कि वे अपने लिए वाणिज्यिक और औद्योगिक उपभोक्ता खोजें।
3. परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में इस्तेमाल किया जाने वाला ईंधन बम बनाने में भी इस्तेमाल हो सकता है। इससे सुरक्षा के लिए चुनौतियां उत्पन्न होती हैं। ये चुनौतियां अन्य क्षेत्रों में भी नजर आती हैं। उदाहरण के लिए हवाई यात्रा की सुरक्षा में राज्य की भूमिका नेतृत्वकारी होती है। इससे निजी हवाई अड्डों, कंपनियों और विमान निर्माताओं वाले इस क्षेत्र में उसका विशिष्ट योगदान सुनिश्चित होता है। निजी परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा के लिए घरेलू नियमन, अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा उपायों और प्रवर्तन प्रोटोकॉल की जरूरत है। देश में परमाणु सुरक्षा के नियामकीय ढांचे में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है।
परमाणु ऊर्जा अधिनियम में बदलाव की जरूरत है ताकि देश में परमाणु सामग्री के की साज-संभाल, भंडारण और परिवहन को निजी लोगों द्वारा संभाला जा सके जो अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की जरूरतों के मुताबिक हो। केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के विशेष कैडर की जरूरत होगी ताकि निजी परमाणु संयंत्रों की देखभाल की जा सके।
गृह मंत्रालय और परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड को निजी परिचालकों और नियामकीय निगरानी की सुरक्षा मंजूरी देनी होगी ताकि निजी परमाणु संयंत्रों की रखरखाव हो सके।
4. असैन्य परमाणु जवाबदेही की वैश्विक व्यवस्था के अनुसार पूरी जवाबदेही परिचालक की होती है और इसके मुताबिक आपूर्तिकर्ता के खिलाफ मुकदमा केवल परिचालक ही कर सकता है। इस डिजाइन में पूरा ध्यान परिचालक पर केंद्रित है कि वह अच्छे से संयंत्र चलाए। इसमें वे परिस्थितियां भी परिभाषित हैं जिनके तहत बेहतरीन वैश्विक कंपनियां भारत में बिक्री का चयन करेंगी। भारत में सिविल लाइबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज ऐक्ट, 2010 बना हुआ है जो रिएक्टर के विदेशी आपूर्तिकर्ताओं पर जवाबदेही डालकर उन्हें रोकता है। इससे बीमा खरीदने की संभावनाएं भी जटिल हुईं क्योंकि बीमाकर्ता आपूर्तिकर्ता जवाबदेही की निजी कवरेज को लेकर हिचक होती है। इन चिंताओं को दूर करने के लिए सरकार ने 2015 में एफएक्यू यानी अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों की सूची जारी की थी जो इस अधिनियम के विभिन्न पहलुओं को सामने लाता है।
बहरहाल इन एफएक्यू को अधिनियम के अधीन विधान नहीं माना जाता और इसलिए ये राज्य पर बाध्यकारी नहीं हैं। भारतीय विधिक व्यवस्था में जब एफएक्यू विधान के साथ विरोधाभासी रहे हैं तो अदालतों ने उनकी अनदेखी कर दी है। विदेशी आपूर्तिकर्ता इनसे आश्वस्त नहीं होते और उन्होंने भारत में बिक्री से परहेज किया। विधायी संशोधन ही इकलौती व्यवहार्य विकल्प है।
5. भारतीय ऊर्जा उद्योग का आधार मूल्य व्यवस्था में बदलाव में निहित है जहां निजी लोग आपूर्ति और मांग को लेकर विकेंद्रीकृत निर्णय लेते हैं और सरकारी अधिकारियों या कंपनियों का इन पर कोई नियंत्रण नहीं होता। यह ऐसा आधार है जिसके तहत आपूर्ति और मांग को लेकर विविध ऊर्जा तकनीक (परमाणु ऊर्जा सहित) ऊर्जा व्यवस्था में सटीक बैठेंगे। निजी व्यक्ति भविष्य की कीमतों में उतार-चढ़ाव को लेकर अटकलबाजी का नजरिया रखते हैं। इसमें शाम के पीक समय को लेकर उच्च कीमतों का अनुमान शामिल होता है। ऐसा इसलिए कि परमाणु रिएक्टर खरीदने की बात को उचित ठहराया जा सके।
परमाणु बिजली के क्षेत्र में दुनिया भर में लागत और सुरक्षा के मोर्चे पर सुधार हो रहे हैं। भारत में परमाणु ऊर्जा बेस लोड और ग्रिड स्थिरता की दिक्कतों को समाप्त करने में अहम योगदान कर सकती है। इन संयंत्रों को खरीदने का जोखिमभरा निवेश निजी व्यक्ति ही कर सकते हैं। हम एक ऐसी दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं जहां नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और तमाम भंडारण तकनीक हैं जो शाम को कीमतों में इजाफे को नियंत्रित रख सकें।
ऐसे में भंडारण पर सटोरिया नजरिया रखने वाले लोगों को मुश्किल होगी और वे परमाणु रिएक्टर खरीदने पर विचारक र सकते हैं। विजेताओं का चयन और प्रौद्योगिकी का चयन ऐसे ही लोगों का काम है न कि सरकार का।
हमारी समस्या बिजली और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में राज्य की गहन संबद्धता में निहित हैं। ऐसे में इन दोनों क्षेत्रों में सरकार की भूमिका के बारे में एक स्पष्टीकरण आवश्यक है क्योंकि इनमें सरकार का ध्यान बाजार विफलता में उसकी भूमिका और हर लिहाज से आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने पर केंद्रित है।
उपरोक्त पांचों क्षेत्रों में आर्थिक सुधारों को लेकर एक कार्यक्रम की आवश्यकता है। अगर इन क्षेत्रों में अगले कुछ सालों में ठीकठाक प्रगति होती है तो इसका सबसे बड़ा परिणाम यह होगा कि देश में परमाणु रिएक्टर ऐसा विकल्प बन जाएंगे जिनका निजी कंपनियां आकलन कर सकेंगी।
Date: 13-11-24
देशहित में सख्ती
संपादकीय
सरकार ने विदेशी फंडिग लेने वाले गैर-सरकारी संगठनों यानी एनजीओ की कड़ी निगरानी शुरू कर दी है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने घोषणा की है कि ऐसे किसी भी एनजीओ का लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा जिसके विकास विरोधी गतिविधियों, धर्मांतरण, दुर्भावनापूर्ण इरादे से विरोध-प्रदर्शन भड़काने या आतंकवादी या कट्टरपंथी समूहों के साथ संबंध हैं। विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 के तहत उनका पंजीकरण रद्द कर दिया जाएगा। कानूनन विदेशी चंदा हासिल करने के लिए एनजीओ को विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम के तहत पंजीकृत होना अनिवार्य है। दो-तीन साल में किसी गतिविधि में शामिल नहीं रहने, पूर्णतः निष्क्रिय या जांच के दौरान उन गतिविधियों की पुष्टि नहीं की जा सकती, जिनका दावा किया गया था। इस साल की पहली तिमाही में ही सरकार द्वारा कई बड़े एनजीओ के पंजीकरण निरस्त किए थे जिन पर नियमों के विरुद्ध गतिविधियों में शामिल होने व कानूनों का उल्लंघन करने का आरोप था। केंद्रीय सांख्यिकी संस्थान के अनुसार देश में तैंतीस लाख एनजीओ काम कर रहे हैं जो समाज उत्थान व उपेक्षित वर्ग के लिए काम करते हैं। ये गैर-सरकारी व गैर- लाभकारी संगठन देसी-विदेसी संस्थाओं से वित्तीय मदद लेते हैं। इनमें से कई पर वित्तीय धांधली के अलावा देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप सिद्ध होते रहे हैं जिससे निपटने के लिए सरकार ने सख्त रवैया अपनाया। बीते वित्त वर्ष में इन संगठनों ने विदेशी फंडिंग के माध्यम से साढ़े पचपन हजार करोड़ रुपये की मदद प्राप्त की थी। जाहिर है, सरकार के पास इस धन के इस्तेमाल का सटीक ब्योरा होना अनिवार्य हो जाता है। देश विरोधी गतिविधियों, धन शोधन और आतंकवादियों के वित्त पोषण के सबूतों के बाद सरकार का सतर्क होना बनता है। हालांकि इन गैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों का आरोप है कि सरकार की मंशा संग्दिध है। वह जान-बूझकर इनको अपनी गिरफ्त में रखना चाहती है। बेशक, शिक्षा, चिकित्सा व अन्य सार्वजनिक उपयोगिता उद्देश्यों को देश के जरूरतमंदों तक पहुंचाने का काम एनजीओ करते आए हैं मगर इसलिए उन्हें अतिरिक्त छूट नहीं दी सकती। आखिर, एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है। उन्हें सरकारी नियमों और पाबंदियों का ख्याल रखना होगा क्योंकि कोताही होने पर अंततः सरकार और सुरक्षा व्यवस्था जवाबदेह माने जाते हैं।
Date: 13-11-24
नजीर बने निलंबन
संपादकीय
केरल सरकार द्वारा दो वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों के निलंबन की कार्रवाई ने हमारे प्रशासनिक ढांचे में तेजी से बढ़ते गंभीर रोगों की ओर देश का ध्यान आकर्षित किया है। इन दोनों ही मामलों में की गई कार्रवाई न सिर्फ सराहनीय है, बल्कि अन्य राज्यों के लिए अनुकरणीय भी है। राज्य सरकार ने केरल उद्योग एवं वाणिज्य निदेशक के गोपालकृष्णन को सोशल मीडिया मंच वाट्सएप पर सांप्रदायिक समूह बनाने और उनसे भारतीय प्रशासनिक सेवा के सहधर्मी अधिकारियों को जोड़ने के आपत्तिजनक आचरण के लिए निलंबित किया है, तो वहीं कृषि विभाग के विशेष सचिव एन प्रशांत को एक अन्य वरिष्ठ आईएएस अधिकारी के खिलाफ लगातार सोशल मीडिया पर पोस्ट डालने के लिए निलंबित किया गया है। हालांकि, गोपालकृष्णन ने सफाई पेश की थी कि उनका मोबाइल हैक कर लिया गया था। मगर तिरुवनंतपुरम सिटी पुलिस की जांच में यह दावा सही साबित नहीं हुआ। अच्छी बात यह है कि इन वरिष्ठ अधिकारियों के कृत्य को राज्य सरकार ने नजरंदाज नहीं किया और बगैर वक्त गंवाए मुकम्मल तफ्तीश के बाद उनके खिलाफ कार्रवाई भी कर डाली। इससे राज्य के अन्य अधिकारियों को यकीनन पैगाम मिल गया होगा कि अनुशासनहीनता की कीमत चुकानी पडे़गी।निस्संदेह, हमारे प्रशासनिक अधिकारी इसी समाज से आते हैं और सामाजिक विमर्शों का उन पर असर स्वाभाविक है; मगर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के संविधान ने उनको एक विशिष्ट भूमिका सौंपी है, जिसमें उनकी व्यक्तिगत भावनाओं-दुर्भावनाओं के लिए कहीं कोई जगह नहीं है। भारतीय प्रशासनिक सेवा देश की सबसे बड़ी सेवा है। एक कठिन प्रक्रिया के जरिये इसके अधिकारियों का चयन होता है और उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि नागरिकों की सेवा करते हुए वे किसी भी किस्म के पक्षपात के बिना संविधान और कानून की रोशनी में काम करेंगे। वे इस देश की कार्यपालिका की रीढ़ हैं। मगर गोपालकृष्णन का आचरण इसके उलट था और राज्य सरकार ने उचित ही इसे अखिल भारतीय सेवा के काडरों के बीच हिंदू-मुस्लिम आधार पर विभाजन पैदा करने वाला करार दिया। ऐसे विभाजनों से सेवा की मूल अवधारणा खंडित होती है। धर्म के आधार पर अनुराग या वैमनस्य रखने वाला अधिकारी अपने सेवाकाल में जाति, उपजाति के आधार पर भेदभाव को प्रोत्साहित नहीं करेगा, यह कैसे माना जाए? इस तरह तो समूचे सामाजिक ताने-बाने को ही ऐसे अधिकारी संकट में डाल देंगे।इसी तरह, एन प्रशांत ने भी शासकीय मर्यादाओं का उल्लंघन किया। किसी भी महकमे के दो ओहदेदारों का टकराव सामान्य बात है, मगर सोशल मीडिया पर अपने वरिष्ठ सहकर्मी के खिलाफ विषवमन चरम अनुशासनहीनता ही नहीं, एक तरह से आपराधिक कृत्य है। दरअसल, इन दोनों अधिकारियों के कृत्य बताते हैं कि सोशल मीडिया के इस्तेमाल को लेकर किस तरह के प्रशिक्षण व सतर्कता की जरूरत है। पिछले कुछ समय में सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर शासन-प्रशासन से जुडे़ अधिकारियों-कर्मचारियों की उपस्थिति काफी बढ़ी है और कई बार जाने-अनजाने ही वे सेवा-संहिता का उल्लंघन करते देखे गए हैं। देश के संविधान ने अपने सभी नागरिकों को आस्था की आजादी दी है, मगर अपनी आस्था के आधार पर सांविधानिक मूल्यों पर हमले की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती। विडंबना यह है कि कट्टरता के विरोधी भी स्वधर्मी कट्टर को सेनानी मानने लगते हैं। मगर यह खतरनाक प्रवृत्ति है, इस पर हर मुमकिन रोक लगाने की जरूरत है।