12-12-2018 (Important News Clippings)

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12 Dec 2018
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Date:12-12-18

Hindi Belt Reverse

BJP governments are overthrown, Congress makes big advances

TOI Editorials

The Hindi heartland is BJP’s stronghold, and its assembly election defeats in the heartland states of Madhya Pradesh, Rajasthan and Chhattisgarh should cause Congressmen to rejoice – even as it sends out the message that winds of change are sweeping the country. Yesterday’s reverse, where BJP’s total MLA strength in the three states dropped from 377 to around 200, could well translate into a similar slide in next year’s Lok Sabha tally. In addition BJP has much to lose in Hindi heartland biggie Uttar Pradesh, where it won 71 out of 80 Lok Sabha seats in 2014.

Recent Lok Sabha bypoll defeats as well as chief minister Yogi Adityanath’s misgovernance in the state – BJP lost bypolls even in Adityanath’s home constituency of Gorakhpur – suggest BJP is unlikely to repeat its 2014 performance in the crucial state of UP as well. For BJP, the takeaway from these elections should be that while it may have mastered the art of political communication and its ground game is still the best, these will not suffice to win elections into the foreseeable future. Performance is a critical factor, whose place cannot be taken by hype or eloquent oratory. Anti-incumbency doesn’t arise out of nowhere, it has its origin in declining standards of governance. Once the wind of anti-incumbency had propelled BJP forward, enabling it to win state after state after thrashing Congress at the Lok Sabha hustings in 2014. Four and a half years later, dissing Congress will not get BJP very far; rather BJP has run into headwinds of anti-incumbency itself. It’s the underlying causes of voter disaffection, like shortfall in job growth and farm incomes, that are crying for attention. There has to be greater focus on addressing fundamental issues affecting people,

including underlying economic and livelihood problems as well as the need to preserve social harmony. On Congress’s part, there is no room for complacency either in the run-up to 2019. Its current victories have been achieved in essentially bipolar states where BJP is the main antagonist. Elsewhere it will have to deal with strong regional players as well. Its only hope for taking on BJP nationally is to form a strong mahagathbandhan, for which it will need to demonstrate flexibility, accommodation and sharpness. Neither can it confine itself to attacking Prime Minister Narendra Modi; it will also need to forge a convincing alternative narrative of what it stands for.


Date:12-12-18

चुनाव में जनता ने दिया संदेश, विकल्पहीन नहीं है लोकतंत्र

संपादकीय

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में तीन राज्यों की कमान भारतीय जनता पार्टी के हाथों से छीनकर कांग्रेस को देते हुए जनता ने यह संदेश दे दिया है कि लोकतंत्र विकल्पहीन नहीं होता। इस तरह जनता ने उन लोगों के मनसूबों पर भी पानी फेरने का संकेत दिया है जो कांग्रेस मुक्त भारत बनाने और अगले 30 साल तक शासन करने का दंभ भरा करते थे। लोकतंत्र में लंबे-चौड़े दावे एक सीमा तक चलते हैं, लेकिन वे हमेशा चलते रहेंगे ऐसा नहीं है। यह भी सही है कि भारतीय जनमानस जाति और धर्म के दायरे में सोचता है लेकिन, वह इससे आगे भी बढ़कर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के बारे में भी सोचता है। वह हमेशा धर्म और जाति के वोटबैंक में बंटने में यकीन नहीं करता। पंजाब और कर्नाटक के अलावा हर राज्य में हारती चली आ रही कांग्रेस पार्टी के लिए ये नतीजे संजीवनी की तरह काम करेंगे। कांग्रेस पार्टी के मुख्यालय पर जमा कार्यकर्ताओं के उत्साह और नेता राहुल गांधी के आत्मविश्वास को देखकर ऐसा साफ लग रहा है।

इसके बावजूद कांग्रेस अगर यह सोच रही हो कि उसने मिजोरम गंवाकर और तेलंगाना में गठबंधन के बावजूद टीआरएस का रास्ता रोकने में नाकाम रहकर आगे की जीत अकेले ही आसान कर ली है तो यह उसकी गलतफहमी साबित होगी। निश्चित तौर पर कांग्रेस को सबसे ज्यादा डर छत्तीसगढ़ में अजित जोगी और मायावती के गठबंधन से था और वहां उसके पास कोई स्थानीय चेहरा भी नहीं था। इसके बावजूद उसने वहां पर सबसे आसान जीत हासिल की। जिस राज्य में उसके पास दो स्थानीय चेहरे थे वहां उसे थोड़ी चुनौतीपूर्ण जीत मिली जबकि उसे दो-तिहाई बहुमत मिलने की भविष्यवाणी की जा रही थी। उसे सबसे ज्यादा कठिन चुनौती उस राज्य में मिली जहां पर दो से तीन स्थानीय चेहरे उपस्थित थे। इसलिए यह चुनाव राहुल गांधी का वनवास खत्म करने की दिशा में संकेत तो देता ही है उससे ज्यादा यह भाजपा के बड़े नेताओं के बड़बोलेपन के विरुद्ध प्रतिक्रिया भी है। यह परिणाम उस कट्‌टरता के खिलाफ भी प्रतिक्रिया है, जो किसान की खेती और जीवन को तबाह करते हुए राम मंदिर की रट लगाती है। जनता ने कांग्रेस के पक्ष में जनादेश जिताकर यह बता दिया है कि उसे धार्मिकता पसंद है लेकिन सांप्रदायिकता नहीं।


Date:11-12-18

कर्ज माफी और सवाल

संपादकीय

नीति आयोग का यह कहना कि कर्ज माफी से किसानों की समस्याएं दूर नहीं होती हैं और सही मायने में इसका फायदा एक सीमित वर्ग को ही पहुंचता है, कर्ज माफी के औचित्य पर गंभीर सवाल खड़े करता है। इसमें कोई शक नहीं कि कर्ज माफी से किसी समस्या का समाधान नहीं होता, खासतौर से किसानों की मुश्किलें तो कभी दूर नहीं हुईं । अगर कर्ज माफ होने से ही किसानों की समस्याओं का समाधान हो जाता तो किसान समुदाय सड़कों पर उतरने और धरने देने को मजबूर नहीं होता। हाल में राजधानी दिल्ली में देशभर से आए किसानों ने बड़ा मार्च निकाला; इससे पहले दो अक्तूबर को किसान राजघाट पर धरना देने के लिए दिल्ली पहुंचे थे। नीति आयोग के सदस्य और कृषि नीति विशेषज्ञ रमेश चंद का कहना है कि कर्ज माफी समस्या का अंतिम समाधान नहीं होता है और न ही इसका लाभ सारे किसानों को मिल पाता है, इसलिए इसे किसानों की समस्या के हल में रूप में देखना व्यावहारिक नहीं है। खुद नीति आयोग ने इस तथ्य को माना है कि गरीब राज्यों में कर्ज माफी से मात्र दस से पंद्रह फीसद किसानों को फायदा पहुंचता है। ऐसे में कर्ज माफी का लाभ संदेह के घेरे में आना स्वाभाविक है।

किसानों की कर्ज माफी को लेकर सवाल पहले भी उठते रहे हैं। चुनाव का वक्त करीब आते ही सभी दल और सरकारें किसानों को जो सबसे बड़ा झुनझुना पकड़ाते हैं वह कर्ज माफी का ही होता है। उत्तर प्रदेश में मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने के बाद किसानों के एक लाख तक के कर्ज माफ किए थे। हाल में राजस्थान में सरकार ने किसानों के पचास हजार तक के कर्ज माफ कर दिए। पंजाब में भी किसानों को इसी तरह की राहत दी गई। कर्नाटक में भी राज्य सरकार ने किसानों के दो लाख तक के कर्ज माफ करने का एलान किया था। लेकिन हकीकत यह है कि इन सभी राज्यों में कर्ज माफी के बाद भी किसान बदहाल ही हैं। यह एक परंपरा-सी बन गई है कि किसानों के कर्ज माफ किए जाएं और उनका राजनीतिक लाभ हासिल किया जाए। कुल मिला कर किसानों की कर्ज माफी सत्ता में आने के लिए राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ा हथियार बन गया है। इसे एक अच्छी प्रवृत्ति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।

अक्सर देखने में आया है कि संपन्न किसान या कर्ज चुका सकने की हैसियत रखने वाले किसान कर्ज तो ले लेते हैं, लेकिन उसे लौटाते नहीं हैं। वे कर्ज माफी की घोषणा के इंतजार में रहते हैं। तब इसका नुकसान कर्ज देने वाली संस्थाओं और सरकारी खजाने को उठाना पड़ता है। देश में गरीब किसानों का एक ऐसा बड़ा वर्ग भी है जो बैंकों से कर्ज नहीं लेता, बल्कि उसके मददगार आज भी सूदखोर ही होते हैं। ऐसे में कर्ज माफी की योजना का उसके लिए कोई मतलब नहीं रह जाता। रिजर्व बैंक भी किसानों के कर्ज माफ करने के पक्ष में नहीं रहा है, क्योंकि बड़े पैमाने पर कृषि कर्ज माफी से सरकारी खजाने पर बोझ तो पड़ता ही है, महंगाई भी बढ़ती है। किसानों की मदद के लिए बेहतर रास्ता यह हो सकता है कि उन्हें कर्ज माफी जैसी सुविधा के बजाय खेती की जरूरत का सामान मुहैया कराया जाए। सरकारों को इस दिशा में पहल करने की जरूरत है कि किसानों के लिए वे ऐसी योजनाएं तैयार करें कि गरीब से लेकर संपन्न किसान को कर्ज की जरूरत ही नहीं पड़े और वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी बन सकें।


Date:11-12-18

फ्रांस में अशांति

संपादकीय

अभी तक फ्रांस को लेकर दुनिया में यह छवि बनी हुई है कि वह यूरोप का सर्वाधिक विकसित और ताकतवर देश है। लेकिन पिछले कुछ समय से फ्रांस में जो कुछ चल रहा है, उससे अलग ही तस्वीर सामने आ रही है। कहने को फ्रांस दुनिया का परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है, सुरक्षा परिषद का सदस्य है, लेकिन उसके अंदरूनी हालात बता रहे हैं कि घरेलू मोर्चे पर उसके हाथ-पैर फूले पड़े हैं। इन दिनों फ्रांस के कई शहर हिंसा की आग में झुलस रहे हैं। हालांकि इन दंगों के पीछे कुछ और भी कारण बताए जा रहे हैं, लेकिन इनके मूल में सरकार की आर्थिक नीतियां और उनकी वजह से बिगड़ती माली हालत बड़े कारण बन गए हैं। इसकी वजह से आम जनता को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। फ्रांस की सड़कों पर इस वक्त जो धरने-प्रदर्शन, हिंसा और आगजनी हो रही है, वे देश में महंगे होते र्इंधन को लेकर हैं। फ्रांस में पेट्रोल और डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं। ऐसे में वहां मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के लोगों को सबसे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर देश में इतना उबाल आ सकता है, इसका अंदाजा शायद फ्रांस की सरकार को नहीं रहा होगा। हालांकि पिछले साल राष्ट्रपति मैक्रों के सत्ता में आने के बाद से ही उनकी आर्थिक नीतियों को लेकर देश में विरोध के स्वर उठ रहे हैं। इस साल मई में जब फ्रांस की सरकार ने एक लाख से ज्यादा सरकारी नौकरियां खत्म कर दी थीं, तब भी फ्रांस में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए थे। महंगे होते पेट्रोल के खिलाफ पीली जैकेट पहने हुए सड़कों पर उतरे लोगों के इस आंदोलन की कमान ‘येलो वेस्ट’ संगठन ने संभाल रखी है। देशभर में आंदोलन चला रहा यह संगठन राष्ट्रपति के इस्तीफे की मांग पर अड़ गया है। पहले कुछ दिनों तक तो राष्ट्रपति ने हालात को नजरदांज किया, लेकिन अब जब स्थिति बेकाबू हो गई है तो राष्ट्रपति ने कुछ झुकने के संकेत दिए हैं। फौरी तौर पर फ्रांस की सरकार ने र्इंधन पर और कर लगाने का फैसला टाल दिया है। लेकिन आंदोलन जिस व्यापक पैमाने पर चल रहा है उससे लगता नहीं है कि येलो वेस्ट इतने भर से संतुष्ट हो जाएगा। करों की दरें कम करने, न्यूनतम मजदूरी और पेंशन बढ़ाने जैसी मांगें जब तक नहीं मान ली जातीं तब तक आंदोलनकारी झुकने वाले नहीं।

फ्रांस में दंगों की एक वजह इस देश में रह रहे अफ्रीकी और अरब मूल के लोगों को भी माना जा रहा है। बाहरी लोगों और पुलिस के बीच टकराव होता रहा है। इस साल अक्तूबर के आखिर में दो किशोर पेरिस के बाहरी इलाके में पुलिस से बचने के लिए भागकर एक बिजलीघर के पास जा छिपे थे और वहां करंट लग जाने से दोनों की मौत हो गई थी। इसके बाद वहां हिंसा भड़क उठी। इस घटना ने तब और तूल पकड़ लिया जब फ्रांस के गृहमंत्री ने यह कह दिया कि ये लोग कचरा हैं और इस कचरे को वैसे ही साफ कर दिया जाएगा जैसे फैक्टरी का कचरा साफ किया जाता है। गृहमंत्री की इस टिप्पणी ने आग में घी का काम किया और कई शहर जल उठे। अब क्रिसमस को कुछ ही दिन रह गए हैं। कारोबार पूरी तरह ठंडा पड़ा है। अर्थव्यवस्था चौपट है। लोग खौफ और गुस्से में हैं। ऐसे में फ्रांस की आग यूरोप के लिए कहीं मुश्किलें न खड़ी कर दे!


Date:11-12-18

Don’t believe the anti-GMO campaign

GM crops have reduced pesticide use, increased yields and profits, and cause no health hazards

G. Padmanaban,(G. Padmanaban is a former director of the Indian Institute of Science, Bangalore, and Chancellor, Central University of Tamil Nadu.)

A review article, “Modern technologies for sustainable food and nutrition security”, which appeared in the November 25 issue of the peer-reviewed journal Current Science, is deeply worrying. The article was authored by geneticist P.C. Kesavan and leading agriculture scientist M.S. Swaminathan and describes Bt cotton as a “failure”. As the Principal Scientific Adviser to the Government of India, K. Vijay Raghavan, rightly said, this paper is “deeply flawed”. It has the potential to mislead the public and the political system.

Rely on scientific evidence

While the general public can be easily swayed by unauthenticated reports, the authors, as scientists, should have relied on hardcore scientific evidence before making such adverse comments. The statement that “only in very rare circumstance (less than 1%) may there arise a need for the use of this technology [GM]” is not in consonance with their other statements such as the one in the concluding paragraph: “Genetic engineering technology has opened up new avenues of molecular breeding. However, their potential undesirable impacts will have to be kept in view. What is important is not to condemn or praise any technology, but choose the one which can take us to the desired goal sustainably, safely and economically.” Professor Swaminathan also said in a response to the criticism of the article: “Genetic modification is the technology of choice for solving abiotic problems like drought flood, salinity, etc. It may not be equally effective in the case of biotic stresses since new strains of pests and diseases arise all the time. This is why MSSRF [M.S. Swaminathan Research Foundation] chose mangrove for providing genes for tolerance to salinity.”

Abiotic stress in crops is a major hazard and does not fall under the less than 1% category mentioned in the review article. Major science academies of the world such as the U.S.’s National Academy of Sciences, the African Academy of Sciences and the Indian National Science Academy have supported GM technology. The U.S. National Academy of Sciences, after a massive consultation process, published a 420-page report in 2016 with the observation that “Bt in maize and cotton from 1996 to 2015 contributed to a reduction in the gap between actual yield and potential yield under circumstances in which targeted pests caused substantial damage to non-GE varieties and synthetic chemicals could not provide practical control”.

In 2016, 107 Nobel laureates signed a letter challenging Greenpeace to drop its anti-genetically modified organism (GMO) technology stance. They stated that the anti-GMO campaign is scientifically baseless and potentially harmful to poor people in the developing world. Data from a large number of peer-reviewed publications have shown that, on average, GM technology adoption has reduced pesticide use by 37%, increased crop yield by 22%, and increased farmer profits by 68% (“A Meta-Analysis of the Impacts of Genetically Modified Crops”, published in PLOS One by Wilhelm Klümper and Matin Qaim in 2014). Yield gains and pesticide reductions are larger for insect-resistant crops than for herbicide-tolerant crops. Yield and profit gains are higher in developing countries than in developed countries. Data from a billion animals fed on GM corn have not indicated any health hazards. Those in the Americas and elsewhere consuming Bt corn or soybean for over 15 years have not reported any health issues. It is preposterous to think that governments would allow their people and animals to be fed “poisonous” food. Even reports based on faulty studies in experimental animals that stated that GMOs cause cancer were withdrawn. Major food safety authorities of the world have rejected these findings.

Not a failure in India

Bt cotton is not a failure in India. The yields hovering around 300 kg/ha at the time of introduction of Bt cotton (2002) have increased to an average of over 500 kg/ha, converting India from a cotton-importing country to the largest exporter of raw cotton. There was a small dip for a couple of years and the yield has now increased to over 550 kg/ha. The question to be asked is, what would have the yield been if Bt cotton had not been introduced in 2002?

It is unfortunate that farmer distress is being wrongly attributed to Bt cotton failure. Farmers continue to grow Bt cotton. The development of resistance can be tackled through practices like Integrated Pest Management and by stacking Bt genes to fight secondary pests. The priority is to accelerate development of Bt cotton varieties that can be packed densely in fields and increase the yields to over 800 kg/ha, as is the case with other countries.

GM mustard (DMH-11) is a technology to create mustard hybrids. Being a self-pollinator, mustard is difficult to hybridise through conventional methods. Genetic modification allows different parents to be combined easily, helping yields go up substantially. The herbicide glyphosate is only used for selection of hybrids and is not meant for farmer fields. In any case, reports on the probable carcinogenic potential of the herbicide have not been accepted by major science academies. Yield data can only be assessed in farmers’ fields. For this, trials are necessary. The question then is: why are the trials being scuttled? The moratorium on Bt brinjal is the most unfortunate step taken by the government in 2010 and has crippled the entire field of research and development with transgenic crops. Bangladesh has used India’s data to successfully cultivate Bt brinjal, despite all the negative propaganda. Reports indicate that as many as 6,000 Bangladeshi farmers cultivated Bt brinjal in 2017. How long will it take for Bt brinjal to enter India from Bangladesh?

India has one of the strongest regulatory protocols for field trials of GM crops. Many scientists have been part of the monitoring processes, and it is an insult to the integrity of our scientists to indict the Review Committee on Genetic Manipulation and the Genetic Engineering Approval Committee as lacking in expertise and having vested interests. The paper by Dr. Kesavan and Dr. Swaminathan seems to have got most things wrong for whatever reason. GM technology is not a magic bullet. It needs to be evaluated on a case-by-case basis. There is definitely scope for improvement in terms of technology and regulatory protocols. But it is time to deregulate the Bt gene and lift the embargo on Bt brinjal. A negative review from opinion-makers can only mislead the country. In the end, it is India that will be the loser.