12-06-2025 (Important News Clippings)

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12 Jun 2025
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Date: 12-06-25

R&D? Rarely

Dependence in critical areas makes the nation vulnerable. Strategic interest must prevail over economic sense

TOI Editorials

Germany’s crude reserves are so small, they won’t last three months in an emergency. So how did Hitler wage war for five years? By turning coal into petrol. Over 92% of the Luftwaffe’s aviation fuel was synthetic. As the world grapples with China’s rare earth curbs, there’s a useful lesson here.

While the rare earths crisis that started with China’s export curbs on April 4 may be blowing over – Trump announced on Truth Social yesterday, “Full magnets, and any necessary rare earths, will be supplied,up front, by China” – it will have a once-bitten-twice-shy effect. Over the past few weeks, Western carmakers have considered producingcars minus some components that use rare earths. At home, Maruti’s had to scale back production plans for its first EV due to a global shortage of rare earth magnets. As our second Op-Ed explains, these magnets contain about 25% of a rare earth element called neodymium. It’s one of the so-called ‘light’ rare earths that are available in India, but we don’t produce enough of it because cheap Chinese supplies made investment in this area unattractive.

While you can make motors without rare earths, other devices like TV screens, computers and MRI machines can’t do without them. That’s why India needs to build a large rare earths industry. And with the world’s fifth largest rare earth reserves, it’s well-placed to do so. Likewise, it needs to end its dependence on China for 70% of active pharmaceutical ingredients or APIs, because while buying from the cheapest supplier makes economic sense, it’s a strategic risk.

The aim must be to reduce dependence because dependence, especially in critical products, is vulnerability. About 90% of our crude is imported. An electric future will take care of that, but not if it means 100% dependence on China for lithium batteries. To find alternatives – like Germany’s WW-II ‘synfuels’ – we need big investments in R&D, which is not our strong suit. As a nation, we invest only 0.6% of our $4tn GDP in research. China invests 2.4% of $18tn, US 3.5% of $29tn. And our private sector is even stingier, accounting for only a third of the national R&D spend, as against 70% in US and S Korea. The rare earth crisis is a brief distraction, the real issue is India’s rare investment problem, and it needs national attention now.


Date: 12-06-25

Baby, Baby

A big part of fertility decline is rising cost of raising a child. Govts’ baby bonuses hardly suffice

TOI Editorials

Yes, Indians are having fewer kids. Yes, this trend has enormous social and economic implications. No, it isn’t women’s fault! So many Unclejis and Auntyjis take all their grump out on today’s women wallowing in more self-indulgence than yesterday’s. If by this they mean that a woman now has more reproductive agency, instead of helplessly bearing as many children as her husband or in-laws tell her to, yeah, that’s welcome progress towards equality and freedom of choice. Further, as UN’s The Real Fertility Crisis report highlights, parenthood aspirations have been changing for both men and women. When asked what factors have led or are likely to lead them to have fewer children than they initially desired, a high 38% Indian respondents named financial limitations.

Govts across the world like to scold their citizens for not having more children. There is a deep irrationality to this. Surely if blame’s to be thrown, it should be at govts themselves, for failing to create the economic security that’s a precondition for citizens realising their family formation goals. In US, the annual cost of raising a child goes from $16K in Mississippi to $36K in Massachusetts. China, crazily, can be even more expensive. In India, a Logic Stick study has ranged the cost of raising a child to 18 years between ₹30L and ₹1.2cr. Some of the cost increases can be put to cultural change, an intensification of parenting. But there are also broader inflationary pressures across education, healthcare and housing. Plus, there is job insecurity or unemployment. As many as 21% Indians said this is a barrier to having children, compared to 5% Swedes.

Apart from chastising citizens, the other thing govts like to do is bribe them, or try to. Financial incentives to boost fertility end up failing everywhere every time. Baby bonuses can’t make up for the deficits in parents’ earning potential, family-friendly work policies, schools & childcare. Choosing to have a child, however, is hardly just a utilitarian, economic decision. It’s also about love, joy, hope of a better tomorrow. Fertility rises when hope does.


Date: 12-06-25

इस अनैतिकता के लिए आखिर किसका दोष है?

संपादकीय

धीमन चकमा, 2011 बैच, ओडिशा कैडर के आईएएस। वे 10 लाख रुपए घूस लेते गिरफ्तार हुए और सस्पेंड कर दिए गए। उनके सरकारी घर से भी 47 लाख रुपए कैश मिले। चार साल पहले दो बार यूपीएससी क्रैक करने पर धीमन को उनके राज्य त्रिपुरा का आइकॉन माना गया था। वहां के एक दुर्गम गांव से यह मकाम पाने वाले वे क्षेत्र के पहले युवा थे। पहले उन्हें फॉरेस्ट सर्विस मिली और दो साल बाद देश का सबसे प्रतिष्ठित आईएएस कैडर | सोशल मीडिया और अखबारों में उन्होंने कहा कि वे क्षेत्र के लोगों के कल्याण के लिए युवाओं को आईएएस का प्रशिक्षण देंगे। वर्ष 2013 में यूपीएससी मेंस में जीएस-4 (एथिक्स) की परीक्षा शुरू की गई, ताकि उम्मीदवार के एथिकल कोशेंट (नैतिक मानक) को जांचा जा सके। फिर चार साल में ही वे भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति कैसे बन गए? द्विस्तरीय लिखित परीक्षा होती है और एक पर्सनैलिटी टेस्ट (इंटरव्यू) भी होता है – जिसमें उम्मीदवार के व्यक्तित्व की गहराइयों तक जाकर उसकी नैतिकता को जांचा जाता है। फिर कहां चूक हुई कि सेवा के मात्र चार साल में एक युवा समाज प्रवर्तक का चोला उतारकर भ्रष्टाचार की अथाह गर्त में समा गया ? इस युवा को तो संविधान, समाज और सिस्टम ने सब कुछ दिया था। वह सब जो वंचित तबके के लिए वांछित था। तो क्या गलती उस मूलतः मेमोरी टेस्ट वाली लिखित परीक्षा और अवैज्ञानिक इंटरव्यू की है, जो एक योग्य उम्मीदवार का चयन करने में नाकाम रही ?


Date: 12-06-25

न्यायिक सक्रियता की अति

संपादकीय

यह अच्छा है कि बीआर गवई जबसे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने हैं, तबसे वह लगातार ऐसे बयान दे रहे हैं, जो संविधान की महत्ता के साथ सरकारी तंत्र और न्यायिक तंत्र में सुधार की आवश्यकता रेखांकित करते हैं। आवश्यक केवल यह नहीं है कि विधायिका और कार्यपालिका अपने दायित्वों को निर्वहन सही ढंग से करें और जनाकांक्षाओं को समझें।

आवश्यक यह भी है कि न्यायपालिका भी देश के लोगों की अपेक्षाओं पर खरी उतरे। इसकी आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि न्यायिक सक्रियता कई बार न्यायिक अति में बदलती दिखती है। कुछ वर्ष पहले खेती और किसानों की भलाई के लिए लाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दायर याचिकाओं की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इन कानूनों की समीक्षा किए बिना उनके अमल पर रोक लगा दी थी।

संसद से बने किसी कानून पर रोक तो उसकी संवैधानिकता की परख करने के बाद ही लगनी चाहिए। इस मामले में ऐसा नहीं हुआ। इससे कृषि कानून विरोधियों के बीच यह संदेश गया कि इन कानूनों में कोई खोट है और वे सड़कों पर धरना-प्रदर्शन करते रहे। इसके चलते मोदी सरकार न चाहते हुए भी इन कानूनों को वापस लेने को बाध्य हुई।

इससे किसानों और विशेष रूप से छोटे किसानों का अहित ही हुआ। इस मामले में एक खराब बात यह भी हुई कि सुप्रीम कोर्ट ने इन कानूनों के अध्ययन के लिए अपनी ओर से किसान नेताओं एवं कृषि विशेषज्ञों की जो समिति गठित की, उसकी रपट का संज्ञान ही नहीं लिया। वास्तव में ऐसे कई मामले हैं, जब यह प्रतीत हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं की सुनवाई करते हुए न्यायिक सक्रियता के नाम पर अपनी सीमा लांघी।

पिछले कुछ समय से तो संसद से किसी विधेयक के पारित होते और उसके कानून का रूप लेते ही उसके खिलाफ याचिकाएं दायर हो जाती हैं और उन पर तुरंत सुनवाई भी शुरू हो जाती है। वक्फ संशोधन कानून के साथ ऐसा ही हुआ। निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट को संसद की ओर से बनाए गए किसी भी कानून की संवैधानिकता जांचने का अधिकार है, लेकिन यह आदर्श स्थिति नहीं कि प्रत्येक कानून लागू होने के पहले ही सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंच जाए और उसकी तत्काल सुनवाई भी होने लगे।

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कई महत्वपूर्ण मामले वर्षों से लंबित हैं। इसी तरह उच्च न्यायालयों में भी लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। निचली अदालतों की स्थिति तो और भी खराब है। एक तथ्य यह भी है कि कोलेजियम सिस्टम में सुधार की कोई पहल नहीं हो रही है। इसके चलते उच्चतर न्यायपालिका के जज ही जजों की नियुक्ति कर रहे हैं। किसी अन्य बड़े लोकतांत्रिक देश में ऐसा नहीं होता। यह व्यवस्था संविधानसम्मत भी नहीं है।


Date: 12-06-25

वैवाहिक संबंधों में विश्वास का खात्मा

क्षमा शर्मा, ( लेखिका साहित्यकार हैं )

पति को मारकर उसके शव को नीले ड्रम में सीमेंट से ढकने वाली मेरठ की मुस्कान का केस ठंडा भी नहीं हुआ था कि इंदौर की सोनम का मामला सामने आ गया। कौन अपराधी है और कौन नहीं, अदालत किसे कितनी सजा देगी, यह वक्त बताएगा, लेकिन यह सोचकर दहशत होती है कि हनीमून के लिए मेघालय गई सोनम ने अपने पति राजा रघुवंशी को मरवा दिया।

ससुराल वालों के साथ खुश रहना, विवाह के समय नाचना-कूदना और मन में किसी और योजना का चलना। क्या सचमुच उसने राज कुशवाहा जैसे फटेहाल प्रेमी के लिए यह सब किया या किसी और के लिए? राजा की हत्या का राज खुलने के बाद कुछ लोग एनसीआरबी रिपोर्ट का हवाला देकर कह रहे हैं कि 90 प्रतिशत से अधिक अपराध पुरुष करते हैं और स्त्रियां तो मात्र छह-आठ प्रतिशत ही ऐसा करती हैं। क्या यह कहा जा रहा है कि जब तक 92-94 प्रतिशत स्त्रियां भी अपराध न करने लगें, तब तक इन घटनाओं की अनदेखी की जाए?

अपराध को अपराध की तरह देखना चाहिए। स्त्री-पुरुष नहीं करना चाहिए। इसीलिए लंबे अर्से से मांग हो रही है कि स्त्रियों संबंधी कानूनों को लैंगिक भेद से मुक्त किया जाए। स्त्री या पुरुष, जो भी अपराधी हो, उसे सजा मिले। कई महिलाएं टीवी डिबेट्स में कह रही हैं कि सोनम का मीडिया ट्रायल किया जा रहा है, जबकि वह राजा के घर वालों से बात कर रहा है तो सोनम और राज कुशवाहा के घर वालों से भी।

जब किसी पुरुष के आरोपित बनते ही उसके परिवार वालों को रात-दिन दिखाया जाता है, तब ऐसे विचार क्यों प्रस्फुटित नहीं होते? दुष्कर्म के मामलों में महिलाओं के तो नाम बताना, चित्र दिखाना अपराध है, लेकिन पुरुषों के चित्र हर वक्त दिखाए जाते हैं। अगर वे निर्दोष साबित हो जाते हैं तो क्या उनकी और उनके परिवार की खोई प्रतिष्ठा वापस मिलती है? अनेक बार तो नौकरी तक चली जाती है।

इस प्रसंग में 1988 का चर्चित इंदु अरोड़ा-अजीत सेठ कांड याद आता है। हरीश से विवाहित इंदु के अजीत से संबंध थे। उन्हें लगता था कि उनके संबंधों में इंदु के दो छोटे बच्चे रोड़ा बन रहे हैं। दोनों ने मिलकर बच्चों पर मिट्टी का तेल छिड़का और आग लगा दी। उस समय इस घटना पर भी लोगों में काफी आक्रोश जागा। जब उन्हें जेल भेजा गया तो वहां कैदियों ने उनकी पिटाई की।

मेघालय की घटना से राजा रघुवंशी और सोनम के साथ उन चार लड़कों के परिवार भी तबाह हुए, जिन्हें हत्या के आरोप में पकड़ा गया है। जो किसी अपराध को अंजाम देते हैं, उन्हें यह क्यों नहीं लगता कि वे पकड़े भी जाएंगे या यह सोचते हैं कि कुछ भी करके बच निकलेंगे? पुरुषों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था एकम न्याय फाउंडेशन की दीपिका भारद्वाज ने दो फिल्में बनाई हैं-मार्टरस आफ मैरिज और इंडियाज संस।

वह पुरुष आयोग बनाने की मांग करती रही हैं। उन्होंने पत्नियों द्वारा पति की हत्या और पुरुषों की आत्महत्या के मामलों का अध्ययन किया था। इसके अनुसार देश भर में जनवरी 2023 से लेकर दिसंबर तक 306 पतियों और कई मामलों में उनके परिवार वालों की हत्या पत्नियों द्वारा की गई। इनमें से कुछ हत्याओं को आत्महत्या बताने की कोशिश की गई।

एक तरफ महिलाओं के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत सशक्त हो रही हैं, लेकिन दूसरी तरफ जैसे ही कोई स्त्री अपराध करती है, उसके बचाव में कहा जाने लगता है कि वह तो ऐसा कर ही नहीं सकती। क्यों नहीं कर सकती? आखिर वे स्त्रियां कौन हैं, जो जघन्य अपराध कर रही हैं? कई बार सोचती हूं कि किसी अपराध को साबित करने के लिए पुलिस के सामने भी कितनी चुनौतियां होती हैं। राजा की हत्या के मामले में मेघालय पुलिस को आलोचना का सामना करना पड़ा। वह जिस तरह बिना किसी प्रतिक्रिया के मामले की छानबीन करती रही, वह तारीफ के काबिल है।

प्रतिक्रिया न देने पर सोनम और राजा के परिवार वाले उसकी लगातार आलोचना कर रहे थे। मेघालय में ऐसे अपराध न के बराबर होते हैं। वहां भी इस घटना पर लोगों में गुस्सा है। लोग दोनों परिवारों से माफी की मांग कर रहे हैं। कुछ कह रहे हैं कि पूर्वोत्तर को बेवजह बदनाम किया गया। लोग पूछ रहे हैं कि यदि सोनम को राजा पसंद ही नहीं था तो उससे विवाह क्यों किया? यदि उसे इसकी चिंता थी कि मना करेगी तो हृदय रोगी पिता का क्या होगा, तो क्या अब वह बहुत खुश होंगे? वह नाते-रिश्तेदारों, आसपास वालों का सामना कैसे कर रहे होंगे? आखिर हमारे समाज में भरोसे में इतनी कमी (ट्रस्ट डेफिसिट) कैसे हो गई।

इन दिनों आए दिन ऐसी खबरें आती हैं कि पति ने पत्नी को मार दिया। पत्नी ने पति को तरबूज में जहर मिलाकर खिला दिया। बेटी ने प्रेमी के लिए पूरे परिवार को मार डाला। पिता ने दूसरी शादी करने के लिए बच्चों का गला घोंटा। यदि अपनों का ही विश्वास न रहे तो आखिर हम दुनिया में किसका भरोसा कर सकते हैं। क्या यह कहने से समस्या हल हो सकती है कि विवाह संस्था सड़-गल चुकी है और अब इससे निजात पा लेनी चाहिए। पा लीजिए, लेकिन पति को पार्टनर कहने भर से स्थितियां नहीं बदल जातीं। कोई भी संबंध हो, उसमें विश्वास और धैर्य ही काम आते हैं, जिनका लगातार लोप हो रहा है।


Date: 12-06-25

भीड़ प्रबंधन के लिए हमें एक राष्ट्रीय नजरिया चाहिए

ओ पी सिंह, ( पुलिस महानिदेशक, हरियाणा )

भारत अपने जलसों जनसमूहों से फलता-फूलता रहा है। चाहे क्रिकेट की जीत के जश्न हों, राजनीतिक रैलियां हों, धार्मिक उत्सव हों या फिर सेलीब्रिटी के कार्यक्रम, हजारों, बल्कि कई बार तो लाखों का हुजूम सड़कों पर, मैदानों में उमड़ आता है। यह भीड़ हमारे देश की जीवंतता तो प्रदर्शित करती है, मगर वह सुरक्षा और प्रबंधन की चुनौती भी पेश कर देती है।

हाल के दिनों में हुई त्रासदियों ने भीड़ के कुप्रबंधन को उजागर किया है। इस समस्या का समाधान केवल सख्त पुलिस निगरानी या हादसे के बाद की जांच से नहीं किया जा सकता है। इसका हल व्यवस्थित योजना में है और इस मामले में हमारे देश का प्रशासन अक्सर कमजोर साबित होता है। भारत में भीड़ बढ़ती जा रही है। पहले वार्षिक तीर्थयात्राओं या चुनावी रैलियों की भीड़ का आकलन करना आसान था, मगर अब तो सोशल मीडिया से प्रेरित होकर मिनटों में अचानक भारी भीड़ जमा हो जाती है। अचानक जमा होने वाली यह प्रवृत्ति ज्यादातर कस्बाई इलाकों में देखी जाती है, जहां भीड़ को संभालने की कोई मशीनरी नहीं होती। इनको संभालने के लिए बैरिकेड लगाने, लाठीचार्ज आदि की पारंपरिक व्यवस्थाएं लगातार बेमानी होती जा रही हैं। हमारी पुलिस कुशल और साहसी है, मगर इस तरह की समस्या से निपटने के लिए जरूरी साजो-सामान से लैस नहीं है।

भारत को भीड़ प्रबंधन के लिए एक राष्ट्रीय ढांचे की तत्काल आवश्यकता है, जो भीड़ के आकार, आयोजन के प्रकार और स्थानीय बुनियादी ढांचे के अनुरूप लचीली व बहुस्तरीय प्रणाली हो। भीड़ की सुरक्षा की जिम्मेदारी केवल जिला पुलिस पर छोड़ना उचित नहीं है। इसे शहरी नियोजन और आपदा प्रबंधन की रणनीतियों में शामिल किया जाना चाहिए। स्थानीय स्तर पर संयुक्त संचालन केंद्र (जेओसी) गठित होने से भी समन्वय के तरीके बदल सकते हैं। पुलिस, अग्निशमन सेवाएं, स्वास्थ्य टीमें, परिवहन विभाग और नगर पालिकाएं सामूहिक रूप से एक स्पष्ट कमांड के तहत काम करती हुई दिखें जेओसी फैसलों और संसाधनों को सुव्यवस्थित कर सकते हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर फौरन सक्रियता से कदम उठाए जा सकें।

कई शहरों में पहले से ही सीसीटीवी नेटवर्क और ड्रोन निगरानी प्रणाली मौजूद हैं। इन्हें एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) संचालित भीड़ प्रबंधन व जन सघनता की जांच करने वाले ट्रैकिंग सॉफ्टवेयर से जोड़कर उचित समय पर अलर्ट किया जा सकता है। लेकिन समस्या यह है कि देश की अधिकांश पुलिस इकाइयों के पास ऐसे एकीकृत उपकरण नहीं हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय पुलिस बलों के आधुनिकीकरण योजना के तहत इस समस्या का समाधान कर सकता है। इसके लिए राज्यों को संसाधन मुहैया करा सकता है। इस काम में भारतीय प्रौद्योगिकी कंपनियों और शोध संस्थानों को भी लगाया जा सकता है। हमारे बहुत से शहरों में स्पष्ट चेतावनी संकेतकों, अनेक निकास द्वारों या सुरक्षित आवागमन के लिए आवश्यक दिशा- निर्देश प्रणाली का अभाव है। इसलिए स्मार्ट सिटी जैसे शहरी विकास कार्यक्रमों को अपनी नियमित विकास योजनाओं में भीड़ को ध्यान में रखते हुए डिजाइन को प्राथमिकता देनी चाहिए। कुंभ या स्थानीय मेलों जैसे बार-बार होने वाले आयोजनों के बारे में भी सोचने की जरूरत है। इसे अस्थायी तौर पर बनाए गए ढांचे से प्रबंधित किया जा सकता है। इसके लिए बहुत ज्यादा धन की जरूरत नहीं होगी, बस सटीक योजना बनाने की आवश्यकता है।

भारत जैसे विशाल देश में भीड़ को पूरी तरह नियंत्रित करना एक बड़ी चुनौती है, पर इससे कोई समझौता नहीं किया जा सकता। भारत में इस चुनौती का सामना करने के लिए प्रतिभाओं, उपकरणों और संस्थानों की कमी नहीं है, बस नीति और क्रियान्वयन, केंद्र, राज्य और स्थानीय एजेंसियों में तालमेल की जरूरत है। भारत जैसे देश में, जहां लोग इकट्ठा होते ही रहेंगे, सार्वजनिक सुरक्षा अपनी प्रणालियों को व्यवस्थित करने में निहित है। समय आ गया है कि हम बेहतर योजना बनाएं और यह सुनिश्चित करें कि भारत के ये जीवंत धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक आयोजन जोखिम का नहीं, बल्कि गर्व का स्रोत बनें।