12-03-2018 (Important News Clippings)
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Trade war spectre
India should keep a low profile, let economic heavyweights slug it out
TOI Editorials
A series of protectionist economic measures last week signalled the start of a dangerous phase for the global economy. US President Donald Trump raised import tariff on steel and aluminum to 25% and 10% respectively. He also said the US would do a “reciprocal tax programme” at some point naming, specifically, India along with China in this regard. At this juncture, India must play its cards carefully and keep a low profile. Moreover, it must avoid being clubbed with China at all costs.
The US tariff order provides exemptions to its allies. Canada and Mexico got an exemption at the outset and others such as Australia may also benefit. The US tariff for steel does not significantly impact Indian exports. But the threat of a “reciprocal tax programme” is dangerous; among other things, it would tear up WTO rules which have enabled the global economy to prosper.
Next week, following an Indian initiative, ministers of around 40 countries are to meet in New Delhi to find ways to break the trade deadlock at WTO. But it is unlikely to achieve much given protectionist trends today. New Delhi must prepare to engage with this new situation. A smart strategy would be to let economic heavyweights like the US, the European Union (EU) and China slug it out and allow the dust to settle, instead of taking up an activist position. Alongside, New Delhi can revive stalled negotiations for free trade agreements such as the one with EU. India is a trade midget and would be on the losing side of a trade war with, say, the US. But if the US manages to change China’s mercantilist approach that wouldn’t be a bad outcome from India’s point of view; after all, Beijing imposes stiff barriers to Indian imports too.
इतिहास बदलने की बेकली
तवलीन सिंह
इतिहास को विजेता लिखते हैं। अंग्रेजी की यह पुरानी कहावत है। सो, ऐसा भारत में भी हुआ है। अंग्रेजों ने जब भारत में अपने राज की जड़ें मजबूती से गाड़ीं तो उन्होंने यह भी तय किया कि हमारा इतिहास क्या था। तय किया कि जिन लोगों ने दुनिया को संस्कृति दी, आयुर्वेद, गणित और योग का ज्ञान दिया वे भारत आए थे यूरोप से। यानी भारत में सभ्यता थी ही नहीं। अब यह ऐसी बात है जिसको सुन कर कई राष्ट्रवादी भारतीयों का खून खौलने लगता है। खासकर हिंदुओं का, क्योंकि अंग्रेजों की दृष्टि में अगर कोई सभ्यता थी उनके आने से पहले तो वह भी बाहर से मुसलमान लाए थे अपने इस प्राचीन देश में। ऊपर से हमारे लिए अपने इतिहास का सच तय करना वैसे भी मुश्किल था, क्योंकि इतनी बार आक्रमण हुए विदेशियों के कि जिस तरह हमारे मंदिर गायब कर दिए गए थे, उसी तरह हमारे प्राचीन दस्तावेज भी गायब कर दिए गए, ताकि साबित कर सकें हमारे विदेशी हमलावर कि यहां न कभी सभ्यता थी, न संस्कृति। जब संस्कृति ही हमें यूरोप से मिले तो संस्कृति का क्या सवाल?
स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत सरकार का पहला काम होना चाहिए था इतिहास की किताबों में संशोधन लाना, लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं, सो प्राचीन भारतीय संस्कृति अदृश्य ही रही है काफी हद तक आज भी। अजीब बात है कि आधुनिक भारत जिन चीजों के लिए जाना जाता है दुनिया में- योग, आयुर्वेद, ध्यान- सब प्राचीन भारत की देन हैं, लेकिन हम नहीं जानते कि वे लोग कौन थे जिनकी देन हैं ये। अंग्रेजों के इतिहासकारों ने तय कर दिया था कि ये लोग भारत भूमि पर पैदा नहीं हुए थे और उन्हीं की किताबों से सीखे भारतीय वामपंथी इतिहासकार, सो उनकी नजरों में गजनी और गोरी सिर्फ लुटेरे थे। मुसलमान होने के नाते हमारे मंदिर तोड़े उन्होंने, इस मकसद से नहीं कि हम बुतपरस्त काफिर थे और हमारे मंदिर हराम। इन बातों को आज भी सिखाया जाता है हमारे बच्चों को स्कूलों में।
सो, अगर मोदी सरकार ने इतिहास की किताबों में संशोधन लाने के लिए समिति गठित की है, तो अच्छी बात है, लेकिन अच्छी बात मानी नहीं जा रही है। पिछले हफ्ते रायटर समाचार सेवा ने इस समिति के बारे में जब लिखा तो इस नजरिए से कि हिंदुत्ववादी मोदी सरकार ने समिति गठित की है सिर्फ इस बात को तय करने के लिए कि भारत के पहले वासी हिंदू थे। असदुद्दीन ओवैसी का इंटरव्यू किया और उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि समिति का मुख्य लक्ष्य ही है कि मुसलमानों को दूसरे दर्जे के नागरिक होने पर मजबूर किया जाए। ओवैसी साहब, जो खुद कट्टरपंथी मुसलमान हैं, के मुंह से उन्होंने कहलवाया कि ‘आज के दौर में मुसलमान जितने खौफजदा हैं, पहले कभी न थे।’
पिछले हफ्ते सोनिया गांधी विशेष मेहमान थीं इंडिया टुडे के कान्क्लेव में और उन्होंने अपने भाषण में आरोप लगाया मोदी सरकार पर कि वे इतिहास को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। इनके इस इशारे पर जाहिर है कि अन्य ‘सेक्युलर’ राजनीतिक दल भी यही करने लग जाएंगे। कहने का मतलब यह है कि अगर मोदी सरकार की इस समिति ने साबित करने की कोशिश की कि सरस्वती नदी के दायरे में एक प्राचीन भारतीय सभ्यता थी, जिसका नामो-निशान अब मिट गया है तो फौरन मुसलमान उसको झूठ कहने लग जाएंगे। ऐसा अगर होता है ऐसे समय जब राम मंदिर का फैसला भी आने वाला है सर्वोच्च न्यायालय से तो अशांति देश भर में फैल सकती है। सो, क्या इस समिति को अपना काम समाप्त कर देना चाहिए? ऐसा मैं नहीं मानती हूं।
मेरा मानना है कि बहुत जरूरी हो गया है प्राचीन भारत पर रोशनी डालना। बहुत जरूरी हो गया है स्कूल जाने वाले भारतीय बच्चों को इतिहास का सच सिखाना। इन दिनों कई इतिहासकार हैं, जो प्राचीन भारत पर किताबें लिख रहे हैं, लेकिन स्कूलों में कौन-सी इतिहास की किताबें होनी चाहिए, सिर्फ सरकारें तय कर रही हैं। अभी तक इन किताबों को लिखा है वामपंथी इतिहासकारों ने, जिन पर कांग्रेस की सरकारें शुरू से मेहरबान रही हैं। समस्या यह है कि अगर मोदी सरकार की इस नई समिति ने इतिहास को सुधारने के बहाने हिंदुत्ववादी प्रचार और झूठ लिखना शुरू किया तो वह और भी ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है। राजस्थान के स्कूलों में अब अकबर को हारते हुए दिखाया गया है हल्दीघाटी के युद्ध में, ताकि राणा प्रताप को विजेता के रूप में पेश किया जा सके। ऐसे संशोधन किसी को लाभ नहीं पहुंचा सकते।
यहां यह भी कहना जरूरी है कि भारत के बच्चों को उनकी सभ्यता, उनके इतिहास के बारे में तकरीबन कुछ नहीं सिखाया जाता है। पहले ऐसा होता था सिर्फ उन इंग्लिश मीडियम स्कूलों में, जहां अमीर मां-बाप अपने बच्चों को भेजा करते थे तगड़ी फीस देकर। अब हाल यह है कि देहातों में रहने वाले गरीब मां-बाप भी अपने बच्चों को गांव के इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजना पसंद करते हैं, इस उम्मीद से कि अंग्रेजी सीखने से नौकरी मिलना आसान हो जाएगा। मैं जब इन देहाती स्कूलों के बच्चों से मिलती हूं तो रोना आता है, क्योंकि वे न तो अंग्रेजी बोल या पढ़ पाते हैं और न ही अपनी मातृभाषा अच्छी तरह सीख रहे हैं। सो, इस इतिहास में संशोधन लाने वाली समिति के साथ एक और समिति भी होनी चाहिए, जो हमारे शिक्षा के पूरे ढांचे में संशोधन लाने के लिए बिठाई जाए। वर्तमान स्थिति यह है कि भारत के देहातों में प्राइवेट स्कूलों में भी जो बच्चे पढ़ कर निकल रहे हैं वे न सिर्फ अशिक्षित, बल्कि बेजुबान भी हैं। सो, प्रधानमंत्री जी, एक नजर इधर भी।
Date:11-03-18
झूठ का बोलबाला
अश्विनी भटनागर
झूठ का बोलबला, सच्चे का मुंह काला वाली पुरानी कहावत अंतत: साबित हो गई है। साइंस मैगजीन के ताजा अंक में छपा आज तक का सबसे व्यापक अध्ययन, जिसको मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट |ऑफ टेक्नोलॉजी के सोरौश वोसौघी के नेतृत्व में संचालित किया गया था, इस नतीजे पर पंहुचा है कि झूठी खबर या सूचना सच्ची खबर से कई गुना ज्यादा तेज प्रसारित होती है और उसकी समाज में पैठ भी सच से ज्यादा होती है।
इस नए महाकाय अध्ययन ने अंग्रेजी ट्विटर पर प्रसारित एक लाख छब्बीस हजार ‘स्टोरीज’ का विश्लेषण किया, जिनको तीस लाख लोगों ने ट्वीट किया था और पाया कि हर तरह से और हर समय झूठी खबरों के सामने सच्ची और तथ्यपरक खबरें बुरी तरह से पिटी हैं। उसके अनुसार अफवाह और प्रवाद सिर चढ़ कर बोले हैं और वे ज्यादा लोगों तक सिर्फ पहुंचे ही नहीं हैं, बल्कि उन्होंने जनमानस को व्यापक रूप से प्रभावित भी किया है। दूसरे शब्दों में, ट्विटर और उस जैसे सोशल नेटवर्क झूठ और फरेब का मकड़जाल इसीलिए बन गए हैं, क्योंकि मानव प्रकृति सच से ज्यादा झूठ के प्रति आकर्षित होती है और उसको पकड़ कर बड़े हिसाब से अपनी जिंदगी के ‘सच’ में फिट कर लेती है। अध्ययन ने ट्वीट को फैलाने में ‘वोटों’ की भूमिका को भी जांचा है, पर उसने पाया कि मशीनी रिट्वीट वास्तव में झूठी खबरों को उस तरह प्रसारित नहीं करते हैं, जिस तरह वास्तविक उपभोक्ता करते हैं।
अध्ययन के अनुसार एक झूठी खबर सच्ची खबर की तुलना में डेढ़ हजार लोगों तक छह गुना ज्यादा तेज गति से पहुंचती है। प्रसार की यह तीव्रता हर विषय में एक समान है- चाहे वह उद्योग-व्यापार से संबंधित हो, मनोरंजन से हो, विज्ञान प्रौद्योगिकी या फिर युद्ध-आतंकवाद से। बस एक अपवाद है- राजनीति। इस क्षेत्र में फेक न्यूज की गति बाकी क्षेत्रों से काफी आगे है। साफ है कि राजनीति से संबंधित झूठ को लोग और विषयों की अपेक्षा जल्दी स्वीकार कर लेते हैं। ट्विटर उपभोक्ता झूठ को ज्यादा अधिमान भी देते हैं। अध्ययन ने पाया कि झूठी ट्वीट की रिट्वीट होने की संभावना सच्ची खबर से सत्तर प्रतिशत ज्यादा है। यहां भी वोटों की भूमिका बहुत कम पाई गई है। वे सच्ची और झूठी खबर में फर्क नहीं करते हैं, जबकि वास्तविक उपभोक्ता अमूमन झूठी खबर पर रीझते हैं। यह अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह ट्विटर के पूरे जीवन काल को अपने में समेटता है। सितंबर 2006 से दिसंबर 2016 तक उस पर जन्मी हर विवादित खबर का उसने विश्लेषण किया है। पर ऐसा करने से पहले उसने दो सवालों का जवाब भी ढूंढ़ने की कोशिश की है- सच क्या है और उसको सच क्यों कहा जाए?
इन दोनों प्रश्नों के लिए अध्ययन के संचार विशेषज्ञों ने एक खास अलोग्रिथम बनाया, जो ट्वीट की तीन तरह से जांच करता था- ट्वीट किसने की (वेरीफाइड अकाउंट था कि नहीं), ट्वीट की भाषा कैसी थी और किस तरह से ट्वीट का नेटवर्क पर प्रसार हुआ। इन तीन मापदंडों के तहत बने अलोग्रिथम ने बड़े प्रभावी ढंग से फेक और रियल न्यूज के बीच फर्क जाहिर कर दिया था। उससे यह भी पता चला कि झूठी खबर सच्ची खबर से कम से कम छह गुना और अधिक से अधिक दस गुना ज्यादा तेजी से प्रसारित होती है और वह लोगों को ज्यादा याद भी रहती है। पर झूठ के प्रति लगाव क्यों है, जबकि ट्विटर जैसे माध्यम का इस्तेमाल अपेक्षाकृत ज्यादा पढ़े-लिखे और संपन्न लोग ही करते हैं? अमेरिका की मात्र बारह प्रतिशत जनसंख्या ट्विटर पर है और उसका प्रोफाइल जाहिल और गंवार वाला नहीं है। अध्ययन ने इसके दो कारण बताए हैं। पहला कारण यह है कि झूठी खबरों में अनूठापन होता है, एक नवीनता होती है, जिससे उपभोक्ता आकर्षित होता है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए अध्ययन कर्ताओं ने उपभोक्ता की पिछले साठ दिन की टाइम लाइन को देखा और पाया कि जो खबर उसने रिट्वीट की थी, वह पिछली खबरों से अलग थी।
झूठ को आगे बढ़ाने में दूसरा कारक मनोभाव था। उन्होंने पाया कि वही ट्वीट तीव्र गति से प्राप्त होती थी, जिनमें ऐसे शब्द थे जो आश्चर्य या घृणा का भाव उत्पन्न करते थे। दूसरी तरफ, सच्ची जानकारी वाले ट्वीट में उन शब्दों का अमूमन इस्तेमाल हुआ था, जिनमें अफसोस और रंज के साथ भरोसा दिलाने वाली बात थी। अध्ययन से साफ जाहिर है कि भावनात्मक स्तर पर भड़काने वाली खबरें फैलती हैं। ऐसी खबरें आमतौर पर नकारात्मक, मगर अनूठी होती हैं, जो हमें उस पल के लिए इस तरह चकित कर देती हैं कि हम उसको रिट्वीट कर देते हैं। एक तरीके से ट्विटर पर फेक न्यूज का चलन और स्वरूप वास्तव में मानव स्वभाव को दर्शाता है, जिसमें आशंका हमेशा उपस्थित रहती है और जो हर वक्त नई या अनूठी आशंका के प्रति सजग रहता है। वह आशंका की वजह से झूठ को सच तुरंत मान लेता है।
एक और तथ्य, जो सामने आया है वह राजनीति में सोशल नेटवर्क के इस्तेमाल को लेकर है। अध्ययन ने पाया कि राजनीति में इसका व्यापक तौर पर नकारात्मक तरीके से उपयोग हो रहा है। अन्य क्षेत्रों में भी झूठी खबरें चलती हैं, पर राजनीति में इनका प्रयोग बढ़ता जा रहा है। यह समुदायों के बीच डर और द्वेष फैलाने के लिए जानबूझ कर और नियोजित तरीके से इस्तेमाल की गई है, जिस पर अंकुश लगाना जरूरी हो गया है। साइंस मैगजीन के इसी अंक में सोलह प्रमुख विचारकों ने अध्ययन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि झूठ के व्यापक प्रसार की वजह से स्थिति भयावह हो गई है। उनके अनुसार इसे रोकने के लिए हमें इक्कीसवीं शताब्दी के सूचना तंत्र और उससे जुड़े पारिस्थितिकी तंत्र में बड़े परिवर्तन फौरन लाने होंगे, वरना परिणाम भयानक होंगे। ‘हम कैसे ऐसा प्रसारतंत्र और सामाजिक माहौल बनाएं, जो सत्य के मूल्य और महत्ता को प्रोत्साहित करे और झूठ को जड़-मूल से उखाड़ दे? ऐसा सोचना और करना अब अनिवार्य हो गया है, क्योंकि झूठ की सत्ता बहुत तेजी से फैल रही है।’
इन विचारकों का यह भी मानना है कि ट्विटर और उस जैसे नेटवर्क पर झूठ का चलन लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा बन गया है। ऐसे प्लेटफॉर्म पर हर उपभोक्ता लेखक तो है ही, साथ में पाठक और प्रकाशक भी है, जिसके लिए झूठ से दूर रहना नामुमकिन होता जा रहा है। कहीं न कहीं वह गुदगुदी पैदा करने वाली खबरों, अनूठी पर मनगढ़ंत घटनाओं और व्याख्याओं के जाल में फंस ही जाता है। यहां तक कि बेहद धीर-गंभीर व्यक्ति भी अनायास अफवाह से जुड़ सकता है, खासकर गरम चुनावी माहौल के दौरान वह विवाद का हिस्सा बने बगैर नहीं रह पाएगा।
उस वक्त वह सच कहने या सुनने में कंजूसी बरतेगा। वैसे भी देखा गया है कि सच जानने के बाद भी ट्विटर उपयोगकर्ता अपना मत नहीं बदलते हैं। विचारकों ने अगाह किया है कि झूठ में लिप्त नागरिक अपने लोकतांत्रिक और संवैधानिक कर्तव्यों के प्रति शिथिल होते जा रहे हैं और उन्होंने सार्वजनिक वास्तविकता को कठघरे में खड़ा कर दिया है। उनका ऐसा व्यवहार लोकतंत्र के लिए प्राणघाती साबित हो सकता है।
Date:10-03-18
दुरुस्त आयद
संपादकीय
इच्छामृत्यु या दयामृत्यु के पक्ष में शुक्रवार को आया सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक भी है और दूरगामी महत्त्व का भी। इस फैसले नेएक प्रकार से गरिमापूर्ण ढंग से जीने के अधिकार पर मुहर लगाई है। हमारे संविधान के अनुच्छेद इक्कीस ने जीने के अधिकार की गारंटी दे रखी है। लेकिन जीने का अर्थ गरिमापूर्ण ढंग से जीना होता है। और, जब यह संभव न रह जाए, तो मृत्य के वरण की अनुमति दी जा सकती है।
गौरतलब है कि ताजा फैसला सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया है, जिसके मुताबिक दयामृत्यु की इजाजत कुछ विशेष परिस्थितियों में दी जा सकती है। इजाजत के लिए अदालत ने उचित ही कई कठोर शर्तें लगाई हैं और कहा है कि जब तक इस संबंध में संसद से पारित होकर कानून लागू नहीं हो जाता, तब तक ये दिशा-निर्देश लागू रहेंगे। यह मुद््दा तब देश भर में बहस का विषय बना था जब मुंबई की नर्स अरुणा शानबाग की दयामृत्यु के लिए याचिका दायर की गई थी। बलात्कार और हत्या के प्रयास की शिकार अरुणा चालीस साल तक एक अस्पताल में बेहोशी की हालत में रहीं। उन्हें सामान्य अवस्था में ला सकने की सारी कोशिशें निष्फल हो चुकी थीं।
एक शख्स जो न अपने परिजनों को पहचान सकता है, न चल-फिर, न खा-पी सकता है, न सुन-बोल सकता है, जिसे अपने अस्तित्व का भी बोध नहीं है, और जिसे तमाम चिकित्सीय उपायों से स्वस्थ करना तो दूर, होश में भी नहीं ला सकते, उसका जीना एक जिंदा लाश की तरह ही होता है। ऐसी स्थिति में उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम यानी जीवनरक्षक प्रणाली के सहारे केवल टिकाए रखना मरीज के लिए भी यातनादायी होता है और उसके परिजनों के लिए भी। यह तर्क सर्वोच्च न्यायालय को तब भी जंचा था, पर तब उसने याचिका खारिज कर दी थी।
अब उसने दयामृत्यु की इजाजत दे दी है, पर सख्त दिशा-निर्देश के साथ। निर्देशों के मुताबिक, ऐसा मरीज जिसकी हालत बुरी तरह लगातार बिगड़ती जा रही हो या जो अंतिम रूप से लाइलाज हो चुका हो, दयामृत्यु को चुन सकता है। इस संबंध में उसे एक लिखित इच्छापत्र या वसीयत देनी होगी। पर इसे काफी नहीं माना जाएगा। इसे लेकर मरीज के परिजनों या मित्रों को उच्च न्यायालय की शरण में जाना होगा। न्यायालय के निर्देश पर एक मेडिकल बोर्ड गठित किया जाएगा, और वह बोर्ड ही तय करेगा कि मरीज चिकित्सीय रूप से दयामृत्यु का हकदार है या नहीं।
अगर मरीज पहले से निरंतर बेहोशी की हालत में हो, तब भी परिजनों को उच्च न्यायालय की अनुमति से बाकी प्रक्रियाएं पूरी करनी होंगी। अस्पताल को भी, जीवनरक्षक प्रणाली हटाने से पहले यह देखना होगा कि सारी शर्तें पूरी कर ली गई हैं या नहीं। इस तरह अदालत ने किसी भी मरीज को यह अधिकार दिया है कि वह चाहे तो, लगातार बेहोशी की हालत में रखे जाने या लगातार कृत्रिम उपायों के सहारे अपना वजूद बनाए रखने से इनकार कर सकता है। दयामृत्यु का अधिकार कई देशों में है और इसे मानव सभ्यता की प्रगति की एक निशानी के तौर पर ही देखा जाता रहा है। भारत में विभिन्न मानव अंगों के दान से संबंधित कानून हैं, और ये कानून यही जताते हैं कि हर व्यक्ति का अपने शरीर पर अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले ने भी इसी की पुष्टि की है। अब इस संबंध में कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है, और केंद्र सरकार को इस बारे में पहल करनी चाहिए।
Life and death
The living will guarantee freedom and dignity, but it faces complex issues, which must be ironed out in use.
Editorial
If we enjoy the right to live on our terms, the right to die on our terms must necessarily follow. It has taken years for that necessity to be recognised, but with the Supreme Court accepting the validity of the “living will”, the long trail blazed by the Aruna Shanbaug case has finally reached its destination.
It will now be possible for citizens to forestall the possibility of a meaningless existence on life support in an unforeseeable future, in the event that they contract a terminal illness. In its 2011 ruling, the Supreme Court had recognised passive euthanasia — hastening the death of the terminally ill by ceasing the prolongation of life. The idea of a living will did not pass muster at the time, but now, anyone with foresight can take control of the question of life and death.
Last October, the Centre vetted the draft Medical Treatment of Terminally Ill Patients (Protection of Patients and Medical Practitioners) Bill, but was not in favour of the living will. There are real grounds for caution. In a culture where elders are venerated in public but often neglected or abused in private, and with a healthcare system which does not always inspire confidence, imperfect information and misguided choices may face the person making the will.
The court, however, chose to re-examine the question, because human dignity was at stake. What had changed in the six years that intervened? Perhaps it was the concern for sovereignty and ownership over the self, which was thrown up by the debate on data privacy and unique identity. Sovereignty and freedom are the foundations of human dignity, and it would be absurd to argue that while we are sovereign owners of our data, we have no control over the very life which generates that data.
However, this is not the end of the road. The court’s ruling stands until the government enacts suitable legislation, and the law will be further shaped in use. Wills, as the name suggests, are presumed to be perfect acts of the individual will. But in reality, information asymmetries, poor reasoning and even coercion cannot be ruled out. This is not a serious deficit in a will for the transmission of property since it can be contested. But a will determining the natural span of life is irrevocable once the author is incapable of making choices.
Besides, the state of the art in medicine when a living will is executed may have advanced since it was written, and fresh options may be available. Since the patient would be incompetent at the time, who would have agency to alter the will? It must be assumed that the law of the happy death will reach its final form in use.
नफरत के नए दौर में श्रीलंका
पुष्परंजन संपादक ईयू-एशिया न्यूज (ये लेखक के अपने विचार हैं)
श्रीलंका में इमरजेंसी लगी है। देश में कानून तो है, मगर व्यवस्था चरमरा गई। इसे ठीक करने के वास्ते रणजीत मदुम्मा बंडारा नए ‘लॉ ऐंड ऑर्डर मिनिस्टर’ बनाए गए हैं। जब से इस मंत्रालय का गठन हुआ, देश में कानून-व्यवस्था पर सवाल उठते रहे हैं। 26 अगस्त, 2018 को इस मंत्रालय के पांच साल पूरे हो जाएंगे। श्रीलंका इस समय जिम्मेदारी के द्वंद्व से गुजर रहा है। जो दंगे केंडी के वेलेकडा में हुए, उसकी राख ठंडी होती नजर नहीं आ रही। केंडी श्रीलंका का हिल रिसॉर्ट है। इस मौसम में पर्यटकों से गुलजार रहने वाले केंडी में फौज और पुलिस वालों की परेड हो रही है। वहां पर दंगा गुरुवार को दोबारा से भड़क गया। सवाल यह है कि क्या इस दंगे को एक लंबे समय तक पकाया गया? गुरुवार को फेसबुक को तो ब्लॉक कर दिया गया, मगर वाट्सएप के जरिए जहर उगलने का काम जारी था।
केंडी से अंपारा की दूरी है 194 किलोमीटर। दंगे की पहली पटकथा 26 फरवरी, 2018 को अंपारा में ही लिखी गई थी। पूर्वी श्रीलंका के अंपारा में 26 फरवरी की रात को कासिम होटल में कुछ युवा घुसे और कैशियर को कूटते हुए यह कुबूल कराने लगे कि जो खाना इलाके के एक विशेष समुदाय के लोगों को दिया जाता है, उसमें प्रजनन शक्ति समाप्त करने वाली गोली मिला दी जाती है। होटल द्वारा बांझपन की गोली ग्राहक देखकर मिलाने की अफवाह किसी ने सोशल मीडिया पर फैलाई थी। मारपीट और तोड़फोड़ ने देखते-देखते दंगे का शक्ल ले लिया। दंगाई धर्मस्थलों में घुस गए, आसपास की दुकानों को भी तबाह किया। सेना के आने पर स्थिति काबू हुई। अंपारा के सांसद और लघु उद्योग मंत्री दया गमगे ने बयान दिया कि कुछ लोग देश की छवि बिगाड़ना चाहते हैं, ताकि ये लगे कि श्रीलंका में अल्पसंख्यकों पर बड़ा सितम ढाया जा रहा है। यह दिलचस्प है कि अंपारा की घटना से कुछेक हफ्ते पहले एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट आई थी कि श्रीलंका अल्पसंख्यकों के लिए दुनिया में सबसे असुरक्षित जगहों में से एक है। सरकार के मंत्री दया गमगे के बयान से बलवाइयों को इससे बल मिल रहा था।
इस घटना के हफ्ते भर बाद अंपारा से 194 किलोमीटर दूर केंडी में रविवार 4 मार्च को रोड रेज की घटना हुई, जिसमें कुछ युवकों के हाथों एक ट्रक ड्राइवर मारा गया। उसके दाह संस्कार के बाद सोमवार को केंडी में दंगा भड़का और 30 से अधिक दुकानों में आग लगा दी गई। इलाके में कफ्र्यू लगाना पड़ा। मंगलवार को दंगों में तबाह एक दुकान से किसी युवक का जला हुआ शव बरामद हुआ। सरकार को एहसास हो चुका था कि 9.7 फीसदी अल्पसंख्यक आबादी वाले श्रीलंका में स्थिति काबू से बाहर हो जाएगी। इसे ध्यान में रखकर 10 दिन के वास्ते आपातकाल की घोषणा कर दी गई। पिलिमथलवा केंडी से कोई 20 किलोमीटर की दूरी पर है। वहां गुरुवार, 8 मार्च को कफ्र्यू में ढील के बाद लोग बाहर निकले और दंगा भड़क गया। अगर यही सूरतेहाल रहा, तो आपातकाल की अवधि बढ़ भी सकती है।
श्रीलंका में साल 2011 के बाद इमरजेंसी लगी है। अल्पसंख्यक बहुल दक्षिण-पश्चिम के कलुतरा जिले में 2014 में भी दंगा भड़का था, जिसमें चार लोग मारे गए थे। तब भी श्रीलंका में आपातकाल की घोषणा नहीं हुई थी। इस बार सिर्फ दो लोगों की मौत पर इमरजेंसी आयद करने के सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। क्या सरकार इससे अनभिज्ञ थी कि ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम, वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया पर किस तरह से लोग उकसाए जा रहे थे? इसे आधे-अधूरे बंद करने में पांच दिन क्यों लगे?
श्रीलंका में रोहिंग्या शरणार्थियों को भगाए जाने के सवाल को ‘महासोहोन बालाकिया’ और ‘बोडू बल सेना’ जैसे बौद्ध राष्ट्रवादी संगठनों ने उठाया था, उससे साफ दिख रहा था कि म्यांमार के सांप्रदायिक वायरस का श्रीलंका की आबोहवा में प्रवेश हो चुका है। इससे इनकार नहीं कर सकते कि दक्षिण-पूर्व एशिया में एक नए किस्म के बौद्ध राष्ट्रवाद को खड़ा किया जा रहा है, जिससे दलाई लामा तक कांप उठे हैं। दलाई लामा द्वारा शांति की अपील जब दरकिनार होती है, तो संदेश यही जाता है। नेशनल फ्रंट ऑफ गुड गवर्नेंस पार्टी के नेता नजा मोहम्मद ने सीधा आरोप लगाया है कि सिरीसेना सरकार ने अल्पसंख्यकों पर हमले के वास्ते उपद्रवियों को बेलगाम छोड़ दिया था।
अगस्त 2020 तक के लिए सिरीसेना की सरकार चुनी गई है। कोलंबो स्थित थिंक टैंक ‘सेंटर फॉर पॉलिसी अल्टरनेटिव’ के निदेशक पी सारावानमुत्थु ने आशंका जताई है कि यदि सांप्रदायिक हमले जारी रहे, तो सिरीसेना सरकार संकट में आ सकती है। उन्होंने कहा, सोशल मीडिया को कुछ समय के लिए बंद करना सही है, लेकिन इसे लंबा खींचने का विपरीत असर निवेश और पर्यटन पर भी पड़ सकता है।
इस समय राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना के लिए सबसे बड़ी चुनौती राष्ट्रवादी तत्वों को काबू करना है। ‘बोडू बल सेना’ सिंहला बौद्ध राष्ट्रवाद की ध्वज वाहक है। 2014 के दंगे में इसके लोगों ने मुसलमानों का दमन किया था। उससे पहले ‘बोडू बल सेना’ के निशाने पर ईसाई हुआ करते थे। दिलचस्प है कि ‘बोडू बल सेना’ को नॉर्वे से भी काफी पैसा प्राप्त होता रहा है। 2013 में बुरके पर प्रतिबंध की मांग और हलाल मीट सर्टिफिकेट देने पर आपत्ति के बहाने ‘बोडू बल सेना’ के आक्रमण की दिशा बदल गई। 2015 के आम चुनाव में मैत्रीपाला सिरीसेना को ‘बोडू बल सेना’ के प्रमुख दिलांथे विसांजे का वरदहस्त प्राप्त था। ‘नव समा समाज पार्टी’ के नेता वी करुणारत्ने ‘बोडू बल सेना’ को धार्मिक अतिवादी संगठन मानते हैं। पूर्व विदेश मंत्री मंगलासमर वीरा आरोप लगाते हैं कि तालिबान की तर्ज पर ‘बोडू बल सेना’ को तैयार करने के वास्ते रक्षा मंत्रालय गोपनीय फंड देता है। यदि ये आरोप सही हैं, तो श्रीलंका में घृणा की राजनीति तो रुकने से रही।
Date:10-03-18
इच्छामृत्यु पर मुहर
संपादकीय
इच्छामृत्यु पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उस बहस पर विराम लगा दिया है, जिसकी शुरुआत 1986 में कार दुर्घटना के बाद सिजोफ्रेनिया और मानसिक रोगों का शिकार हुए कांस्टेबल मारुति श्रीपति दुबल की खुद को जलाकर मारने की कोशिश और फिर 2009 में 42 साल से अस्पताल में अचेत पड़ी अरुणा शानबाग के लिए शांतिपूर्ण मृत्यु की विनती वाली याचिका से हुई थी। याचिका के साथ देश में इच्छामृत्यु पर नई बहस तो शुरू हुई ही, जाने-अनजाने अरुणा शानबाग यूथेनेशिया या इच्छामृत्यु को वैधानिक आधार देने की मुहिम और बहस का चेहरा बन गईं।
यही कारण है कि यह फैसला बार-बार अरुणा शानबाग की याद दिला रहा है। याचिका और फैसले के पीछे भावना यही है कि क्या उस इंसान को, जिसकी जीने की सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी हों, और जो कोमा जैसे हालात में मृत्यु शैया पर हो, उसे इच्छा मृत्यु मिलनी चाहिए या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा के मामले में दायर याचिका को खारिज करते हुए टिप्पणी में ‘पैसिव यूथेनेशिया’ यानी ‘निष्क्रिय इच्छामृत्यु’ जैसे शब्द जोड़कर नई बहस को जमीन दी थी, और माना था कि संभवत: भविष्य में इस पर विचार हो और इच्छामृत्यु चाहने वाले इंसान, उसकी मेडिकल जांच और पारिवारिक सहमति के साथ किसी फैसले की राह बन सके। ताजा फैसला इसी का विस्तार है।
सिरा तो उसी वक्त मिल गया था, जब कोर्ट ने अरुणा शानबाग के मामले में ‘राइट टु क्वालिटी लाइफ’ यानी सम्मानजनक जीवन की तरह की सम्मानजनक मौत की बात मानी थी। हालांकि स्वाभाविक तौर पर इसके साथ तमाम सवाल जुड़े थे, जिन पर आज बस किसी हद तक राह साफ हुई है। कोर्ट ने इच्छामृत्यु पर सहमति देते हुए कुछ शर्तें लगाई हैं। ‘लिविंग विल’ की बात स्वीकार करते हुए उसने व्यवस्था दी है कि ऐसी विल होने के बावजूद ऐसे मामलों में हाईकोर्ट की निगरानी में बने मेडिकल बोर्ड के साथ ही परिवार की मंजूरी जरूरी होगी और यह सब जिला मजिस्ट्रेट की देखरेख में ही होगा। कानून बनने तक कोर्ट की गाइडलाइन ही मान्य रहेंगी।
कुछ और सवाल भी हैं, जिनके जवाब तलाशने होंगे। ‘लिविंग विल’ अपने आप में बड़ा सवाल है कि ऐसी कोई वसीयत, जिसमें अपनी ही मृत्यु की बात हो, कहां और किस तरह रखी जाएगी? अंगदान या देहदान की वसीयत या इच्छा तो लिखकर परिवार को दे दी जाती है या ऐसे दान का फैसला मृत्युपरांत परिवार भी कर सकता है, लेकिन अपनी ही मृत्यु की वसीयत आसान मामला नहीं। क्या यह सामान्य वसीयत जैसा ही कुछ होगा और ऐसी किसी वसीयत की वैधता या प्रामाणिकता पर सवाल नहीं उठेंगे?
ऐसे मामलों में पूरे परिवार की सहमति जरूरी होगी, तो उस परिवार के दायरे में कौन-कौन शामिल होंगे? जरा सा भी विवाद ऐसे हालात उत्पन्न करेगा, जो फैसले की प्रक्रिया को अनिश्चित विस्तार दे सकता है। अगर कोई इंसान किसी भी हाल में उसे इच्छामृत्यु न दिए जाने की वसीयत कर जाए, तो परिवार व मेडिकल बोर्ड की राय अलग रहने के बावजूद क्या होगा? यह सम्मान से जीने के अधिकार की तरह ही सम्मान से मरने के अधिकार यानी अपनी देह पर खुद के हक का मामला भी है, तो फैसले में शायद संबद्ध इंसान की वसीयत ही सबसे अहम मानी जाए। जो भी हो, सर्वोच्च अदालत का यह युगांतरकारी और जरूरी फैसला है। जरूरत बस इसके बेजा इस्तेमाल को रोकने की है।
Date:10-03-18
एक देश एक चुनाव के लिए सबकी सहमति जरूरी
नवीन बी चावला पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त (ये लेखक के अपने विचार हैं)
बीती 28 फरवरी को दिल्ली में 19 राज्यों के अपने मुख्यमंत्रियों और उप-मुख्यमंत्रियों की एक बैठक में भारतीय जनता पार्टी ने पंचायत से लेकर लोकसभा तक के चुनाव साथ-साथ कराने पर चर्चा की। साथ-साथ चुनाव एक व्यावहारिक सुझाव है, मगर ऐसी किसी भी योजना पर आगे बढ़ने से पहले इसकी तमाम अहम शर्तों को पूरा करना जरूरी है। सबसे पहला और महत्वपूर्ण काम है इस बाबत संविधान संशोधन करने से पहले देश में गहन राजनीतिक विचार-विमर्श। सन् 1951-52, 1954, 1962 व 1967 के पहले चार आम चुनाव और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ ही हुए थे। लेकिन इसमें व्यवधान 1968-69 में पैदा हुआ। उसके बाद तो जब-जब सरकारों ने सदन का विश्वास खोया, लोकसभा व विधानसभाओं के मध्यावधि चुनाव कराए जाते रहे। तभी से चुनाव कराना जटिल काम होता गया है। हमारे देश में अब लगभग 90 करोड़ मतदाता हैं। बताने की जरूरत नहीं कि यहां चुनाव कराना दुनिया की सबसे बड़ी प्रबंधकीय कसरत है। हममें से ज्यादातर लोग चुनाव संचालन से जुड़ी छोटी-छोटी जटिलताओं से वाकिफ नहीं हैं: ईवीएम और अब तो वीवीपैट्स से लेकर विशाल संख्या में केंद्रीय बलों की तैनाती तक।
पिछले कुछ वर्षों से चुनावी कार्य में राज्य पुलिस की तैनाती को लेकर राजनीतिक दलों का भरोसा डिगा है। वे उन्हें वहां सत्तारूढ़ दल के सहायक के रूप में देखते हैं। ऐसे में, बड़े पैमाने पर केंद्रीय बलों की जरूरत और फिर उनकी तैनाती एक बड़ा भारी काम है। फिर इसके अलावा, चुनाव आयोग को आम चुनावों के लिए लगभग 2,000 आम निरीक्षकों व खर्च की निगरानी करने वाले ऑब्जर्वरों की जरूरत होती है। ये संयुक्त सचिव व उससे उच्च स्तर के अधिकारी होते हैं, जिनकी तैनाती लगभग एक महीने तक के लिए करनी पड़ती है, ताकि आदर्श चुनाव संहिता लागू करके सभी उम्मीदवारों के लिए समान अवसर सुनिश्चित किया जा सके।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने से न सिर्फ देश का धन बचेगा, बल्कि राजनीतिक पार्टियों और उनके उम्मीदवारों का भी कम खर्च होगा। बार-बार लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता भी पांच वर्षों में एक या दो बार में सिमट आएगी। हालांकि, इसके लिए कई संवेदनशील सांविधानिक प्रावधानों में संशोधन की दरकार होगी।
हमारे संविधान ने लोकसभा व विधानसभाओं का कार्यकाल पांच साल तय कर रखा है। सिर्फ जम्मू-कश्मीर के लिए छह वर्ष का प्रावधान किया गया है। इनमें किसी बदलाव के लिए संविधान के कई अनुच्छेदों में संशोधन करना पड़ेगा। अगर एक साथ चुनाव का नया ढांचा अपनाया जाता है, तो मौजूदा कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल एक बार के लिए बढ़ाना या घटाना पड़ेगा। इसके लिए भी राजनीतिक सम्मति बनानी पड़ेगी कि यदि किसी सदन ने सरकार में अपना विश्वास खो दिया, तब क्या होगा? क्या तब अगले नियत समय तक वहां राष्ट्रपति शासन होगा? इससे भी अहम सवाल यह है कि लोकसभा के असमय भंग होने की स्थिति में केंद्र में शासन कौन करेगा? हमारे संविधान में पांच वर्ष के बीच में लोकसभा के भंग होने की सूरत में किसी अंतरिम उपाय का प्रावधान नहीं है। यदि कोई सरकार अल्प अवधि में गिर जाती है, तो तुरंत दोबारा चुनाव कराना होगा, जब तक कि नई व्यवस्था इस स्थिति के लिए नहीं की जाती।
इनमें से कुछ सवालों के जवाब ईएम नचियप्पन की सदारत वाली संसद की स्थायी समिति ने 2015 की अपनी रिपोर्ट में दिया है। समिति ने दो चरणों में चुनाव कराने का उपाय सुझाया है। कुछ विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ-साथ कराए जाएं, जबकि शेष के चुनाव ढाई वर्ष बाद कराए जा सकते हैं। इन सभी प्रस्तावों पर पार्टियों में विचार-विमर्श की जरूरत होगी। चुनाव आयोग को इसमें एक निष्पक्ष अंपायर के रूप में देखा जा सकता है। केंद्र व राज्य स्तर की पंजीकृत पार्टियां और सांसद व विधायक इसके मूल खिलाड़ी हैं। सरकार को उनकी राय जरूर लेनी चाहिए और ठीक उसी तरह राजनीतिक सर्वानुमति बनानी चाहिए, जैसे 1960 के दशक में आदर्श आचार संहिता के लिए बनाई गई थी।
मरने का अधिकार
डॉ. अजय तिवारी
सर्वोच्च न्यायालय ने इच्छामृत्यु को आत्महत्या से अलग करके जीने के अधिकार से जोड़ा और कहा कि सम्मान से जीने में गरिमा के साथ मरना भी शामिल है। यह सर्वथा उचित है। कारण यह कि इच्छामृत्यु और आत्महत्या दो अलग चीजें हैं। यदि उसे आत्महत्या के समकक्ष भी मानें तो यह विचार ज़रूरी होगा कि कोई व्यक्ति जीवन के अंत का निर्णय चरम हताशा या निराशा की स्थितियों में लेता है।
इच्छामृत्यु में उस हताशा का स्रेत व्यक्ति के भीतर होता है, जैसे असहनीय पीड़ा जिसका जीते-जी कोई समाधान नहीं है सर्वोच्च न्यायालय ने आज नौ मार्च दो हज़ार अठारह को एक प्रगतिशील ऐतिहासिक निर्णय में असाध्य रोग से ग्रस्त व्यक्ति को इच्छामृत्यु का कानूनी अधिकार प्रदान कर दिया। संविधानपीठ ने स्थापित कर दिया कि सम्मान से जीने के अधिकार के साथ ही गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार भी मानवीय अधिकार है। इसके निहितार्थों पर अभी बहसें होंगी। लेकिन अपनी सीमाओं के बावजूद यह निर्णय का स्वागतयोग्य है। जिन असाध्य बीमारियों में सुधार की कोई संभावना नहीं रहती, मृत्यु निश्चित रहती है लेकिन असह्य कष्ट झेलना पड़ता है, जिनमें लम्बे समय तक केवल जीवन-रक्षक प्राणियों द्वारा सांस चलाये रखी जाती है, उनमें मरीज़ की वसीयत के आधार पर या उसके परिजनों या मित्रों के आवेदन पर हाईकोर्ट चिकित्सकों का एक दल नियुक्त करेगा; वही दल इच्छामृत्यु के आवेदन पर फैसला लेगा और उसी की निगरानी में जीवन-रक्षक पण्राली हटाकर स्वाभाविक मृत्यु को आने दिया जायगा। इच्छामृत्यु दो तरह की है-मृत्युवरण (यूथनेसिया) और दयामरण (मर्सी किलिंग)। यह निर्णय सभी स्थितियों में लागू नहीं होगा। फिर भी यह निर्णय महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अभी इंग्लैण्ड तक में यह अधिकार विवादों के घेरे में है।
नीदरलैंड, बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड, हॉलैंड जैसे कुछ देशों में और अमेरिका के कुछ राज्यों में ही इसे कानूनी दर्जा प्राप्त है। इस दृष्टि से भारत अधिक सभ्य और मानवीय दिशा में अग्रसर हुआ है। यहां यह स्पष्ट कर लेना उपयुक्त है कि मृत्युवरण और दयामरण की तरह सक्रिय इच्छामृत्यु और निष्क्रिय इच्छामृत्यु में भी अंतर है। सर्वोच्च न्यायालय ने केवल निष्क्रिय इच्छामृत्यु को अनुमति दी है। लगभग ढाई दशक पहले जब क्रांतिकारी माकपा नेता बी.टी. रणदिवे रक्त-कैंसर की असहनीय पीड़ा झेलते हुए मुंबई के अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे तब उन्होंने इच्छामृत्यु की मांग की थी। यह अनुमति उन्हें नहीं मिली। यदि उस समय कानून यह अनुमति देता तो यह सक्रिय इच्छामृत्यु होती क्योंकि असाध्य रोग से मुक्ति और असहनीय कष्ट के निवारण के लिए मरीज़ की मांग पर चिकित्सक उन्हें मृत्यु की दवा देते। इसे दयामरण भी कहा जाता है। दूसरी तरफ, लगभग तीस साल पहले बलात्कार की शिकार बनाई गई मुंबई की नर्स अरु णा शौनबाग़्ा की इच्छामृत्यु को 2014 में अदालत से अनुमति तो नहीं मिली, लेकिन उसकी स्थिति रणदिवे से अलग थी। अरुणा सत्ताईस वर्षो से अचेत, जीवन-रक्षक पण्रालियों पर ही थी। उसे नहीं पता था कि वह जीवित है या नहीं, उसे कोई कष्ट है या नहीं। यदि उसे इच्छामृत्यु की अनुमति मिलती तो वह निष्क्रिय इच्छामृत्यु होती क्योंकि उसे किसी दवा की आवश्यकता नहीं थी, केवल जीवन-रक्षक पण्राली हटाने की आवश्यकता थी। तब अदालत ने इसकी भी अनुमति नहीं दी थी।
हालांकि 2015 में उसे यह अधिकार मिल गया और उसे अपने कष्ट से तथा कष्ट देनेवाले संसार से मुक्ति मिल गई।हैदराबाद के एक पूर्व शतरंज खिलाड़ी वेंकटेश ने सन 2004 में अपनी मृत्यु से पहले अपनी मां के माध्यम से आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट में अपील की थी कि उसे स्वेच्छापूर्वक मृत्यु का वरण करने दिया जाय ताकि उसके शरीर के उपयोगी अंग ज़रूरतमंद लोगों के काम आ सकें। उसे मांसपेशियों के क्षरण की बीमारी हो गयी थी (मस्कुलर डायस्ट्रोफी) जिसका इलाज नहीं था और सभी अंगों का तेज़ी से क्षय हो रहा था। उसने और उसकी मां ने साल भर पहले अंग दान किया था। वह चाहता था कि अंग दान की अंतिम इच्छा पूरी कर सके, लेकिन मृत्यु के बाद केवल आंखें दान की जा सकीं। गुर्दा और अन्य अंग व्यर्थ हो गए थे। उसे इच्छामृत्यु की अनुमति नहीं मिली क्योंकि उसे आत्महत्या के सामान माना जाता था और यह कानूनी अपराध था। साथ ही, मानव-अंग प्रत्यारोपण कानून के अनुसार तब तक केवल उसी व्यक्ति के अंग निकले जा सकते थे, जिसका मस्तिष्क किसी करण से मृत हो गया हो। अन्यथा उसे चिकित्साशास्त्रीय दृष्टि से मृत नहीं माना जा सकता और जीवित व्यक्ति के अंगों को निकलना भी अपराध है।
इस तरह इच्छामृत्यु के प्रसंग में अनेक विषय उलझे हुए हैं, जिनके दायरे में नैतिक और कानूनी, सामाजिक और चिकित्साशास्त्रीय, जीववैज्ञानिक और मानवाधिकार सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोण आते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इच्छामृत्यु को आत्महत्या से अलग करके जीने के अधिकार से जोड़ा और कहा कि सम्मान से जीने में गरिमा के साथ मरना भी शामिल है। यह सर्वथा उचित है। कारण यह कि इच्छामृत्यु और आत्महत्या दो अलग चीजें हैं। यदि उसे आत्महत्या के समकक्ष भी मानें तो यह विचार करना ज़रूरी होगा कि कोई व्यक्ति जीवन के अंत का निर्णय चरम हताशा या निराशा की स्थितियों में लेता है। इच्छामृत्यु में उस हताशा का स्रेत व्यक्ति के भीतर होता है, जैसे असहनीय पीड़ा जिसका जीते-जी कोई समाधान नहीं है लेकिन अपने निर्णय को लागू करने के लिए उसे दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है; आत्महत्या जीवन की जिस चरम हताशा की अभिव्यक्ति है, उसके स्रेत व्यक्ति के बाहर होते हैं, लेकिन अपने निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए उसे दूसरों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। होने को आत्महत्या और इच्छामृत्यु दोनों ही ‘‘मृत्यु का वरण’ हैं, लेकिन इच्छामृत्यु किसी शारीरिक कष्ट के असह्य हो जाने का परिणाम है जिस कष्ट में उसे जीवित रखना-उसकी सहनशक्ति और इच्छा के विपरीत, बेहोशी की दवाओं के सहारे, केवल सांस चलाते रहना-एक प्रकार की क्रूरता है। अदालत ने कम-से-कम कुछ मामलों में मरीजों के इस मानवीय हक को मान्यता दी।जिस ‘‘लिविंग विल’ को कानूनी मान्यता मिली है, वह मजिस्ट्रेट के सामने लिखी हुई वसीयत है।
यदि मरीज़ ने खुद ऐसी वसीयत नहीं लिखी है तो उसकी असाध्य दशा में उसके निकट सम्बन्धी या मित्र लिखित आवेदन कर सकते हैं, जिसकी जांच करके उच्च न्यायालय एक चिकित्सक दल नियुक्त करेगा, उस दल के सुझाव पर और उसकी देखरेख में कार्रवाई संपन्न होगी। बेशक यह निष्क्रिय इच्छामृत्यु की मान्यता है, क्योंकि ऐसे में खुद मरीज़ अपनी मृत्यु नहीं चुनता बल्कि उसकी जीवन-रक्षक पण्रालियों को हटा दिया जाता है ताकि वह जीवित रहकर जो असहनीय कष्ट पा रहा है, उससे मुक्त हो सके। फिर भी यह एक कदम आगे की स्थिति है।
Death with dignity
on SC’s verdict on euthanasia and living wills
The court has laid down a much-needed legal framework for enforcing living wills
EDITORIAL
he core philosophy underlying the Supreme Court’s verdict allowing passive euthanasia and giving legal status to ‘advance directives’ is that the right to a dignified life extends up to the point of having a dignified death. In four concurring opinions, the five-member Constitution Bench grappled with a question that involved, in the words of Justice D.Y. Chandrachud, “finding substance and balance in the relationship between life, morality and the experience of dying”. The outcome of the exercise is a progressive and humane verdict that lays down a broad legal framework for protecting the dignity of a terminally ill patient or one in a persistent vegetative state (PVS) with no hope of cure or recovery. For, in such circumstances, “accelerating the process of death for reducing the period of suffering constitutes a right to live with dignity”. The core message is that all adults with the capacity to give consent “have the right of self determination and autonomy”, and the right to refuse medical treatment is also encompassed in it. Passive euthanasia was recognised by a two-judge Bench in Aruna Shanbaug in 2011; now the Constitution Bench has expanded the jurisprudence on the subject by adding to it the principle of a ‘living will’, or an advance directive, a practice whereby a person, while in a competent state of mind, leaves written instructions on the sort of medical treatment that may or may not be administered in the event of her reaching a stage of terminal illness.
Passive euthanasia essentially involves withdrawal of life support or discontinuation of life-preserving medical treatment so that a person with a terminal illness is allowed to die in the natural course. The court’s reasoning is unexceptionable when it says burdening a dying patient with life-prolonging treatment and equipment merely because medical technology has advanced would be destructive of her dignity. In such a situation, “individual interest has to be given priority over the state interest”. The court has invoked its inherent power under Article 142 of the Constitution to grant legal status to advance directives, and its directives will hold good until Parliament enacts legislation on the matter. The government submitted that it was in the process of introducing a law to regulate passive euthanasia, but opposed the concept of advance directive on the ground that it was liable to be misused. The stringent conditions imposed by the court regarding advance directives are intended to serve as a set of robust safeguards and allay any apprehensions about misuse. The court is justified in concluding that advance directives will strengthen the will of the treating doctors by assuring them that they are acting lawfully in respecting the patient’s wishes. An advance directive, after all, only reflects the patient’s autonomy and does not amount to a recognition of a wish to die.