12-02-2024 (Important News Clippings)
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Date:12-02-24
हल्द्वानी हिंसा के सबक
संपादकीय
इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि उत्तराखंड में हल्द्वानी के बनभूलपुरा इलाके में हुई भीषण हिंसा में शामिल कुछ संदिग्ध तत्वों को गिरफ्तार कर लिया गया है, क्योंकि इन गिरफ्तारियों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि दंगाइयों के दुस्साहस का दमन हो सकेगा। सरकारी जमीन पर किए गए अवैध अतिक्रमण को हटाने के लिए गई नगर निगम की टीम और पुलिस पर जैसा भीषण हमला किया गया, वह कानून के शासन को दी जाने वाली खुली चुनौती है। ऐसी चुनौती देने वाले तत्वों का दमन किया जाना आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सरकारी जमीन पर काबिज लोगों ने न केवल पुलिस पर हमला किया, बल्कि थाने को आग भी लगा दी। यह तो गनीमत रही कि पुलिसकर्मी किसी तरह जान बचाकर भागने में सफल रहे, अन्यथा उन्हें थाने के अंदर ही जलाकर मार दिया जाता। यह साधारण बात नहीं कि दंगाइयों के हमले में करीब दो सौ पुलिसकर्मी घायल हुए। इसका सीधा मतलब है कि दंगा करने वालों ने पूरी तैयारी कर रखी थी और उन्हें न तो पुलिस का कोई भय था और न ही अदालती आदेशों का उनके लिए कोई मूल्य-महत्व था। आखिर जब हाई कोर्ट ने नगर निगम की जमीन पर अवैध कब्जा करने वालों को राहत देने से इन्कार कर दिया था तब फिर उन्हें अदालत के आदेश का पालन करना चाहिए था या फिर हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए था। इस तरह से कानून हाथ में लेना खुली अराजकता के अलावा और कुछ नहीं।
भीषण हिंसा का शिकार बना हल्द्वानी का बनभूलपुरा क्षेत्र वही इलाका है जहां रेलवे की जमीन पर भी बड़े पैमाने पर अवैध कब्जा किया गया है। हाई कोर्ट ने रेलवे की जमीन को भी खाली करने के आदेश दिए थे। फिलहाल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए और ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करने वालों को संरक्षण मिले। बनभूलपुरा में हिंसा इस बहाने भड़काई गई कि नगर निगम की जमीन पर तथाकथित मस्जिद भी बनी हुई थी। सरकारी जमीन पर अवैध तरीके से बनाए गए किसी भी धर्मस्थल को हटाने में कोई रियायत नहीं बरती जानी चाहिए-फिर वह चाहे मंदिर हो, मस्जिद, चर्च या फिर अन्य कोई धार्मिक स्थल। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कुछ ही समय पहले हरियाणा के फरीदाबाद जिले में वनभूमि पर बसाए गए खोरी गांव को सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर खाली कराया गया था। इस क्रम में सैकड़ों घरों के साथ ही मंदिर और मस्जिद भी हटाए गए थे। यह ठीक नहीं कि सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करने के लिए धार्मिक स्थलों की आड़ ली जाए। इसी के साथ इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि स्थानीय प्रशासन एवं राज्य सरकारों को तभी सक्रिय हो जाना चाहिए जब सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण अथवा अवैध कब्जे की शुरुआत हो रही होती है।
Date:12-02-24
सत्य और तथ्य सिद्ध है भारतीय संस्कृति
हृदयनारायण दीक्षित, ( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं )
भारत प्राचीन राष्ट्र है। सांस्कृतिक दृष्टि से विश्व का पहला राष्ट्र। ऋग्वेद विश्व मानवता का प्राचीनतम शब्द साक्ष्य है। महाभारत और रामायण दुनिया के प्रतिष्ठित महाकाव्य हैं। दर्शन, विज्ञान और गणित में भी भारत की उल्लेखनीय प्रतिष्ठा है। बावजूद इसके कथित उदारवादी और वामपंथी यहां के प्राचीन ज्ञान-ग्रंथों को भी कल्पना बताते रहे हैं। जबकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआइ के उत्खनन से प्राप्त साक्ष्य सभ्यता और संस्कृति को यथार्थ सिद्ध करते रहे हैं। ताजी सूचना भी उत्साहवर्द्धक है। अदालत ने बागपत के बरनावा में महाभारतकालीन लाक्षागृह की पहचान की है। 1953 में खोदाई के दौरान यहां लगभग 4500 वर्ष पुरानी पुरातात्विक महत्व की सामग्री मिली। 1970 में उत्तर प्रदेश वक्फ बोर्ड ने इसे मजार और कब्रिस्तान बताया। हिंदू पक्ष का दावा था कि यह पांडवों का लाक्षागृह है। यहीं दुर्योधन ने पांडवों को जलाकर मार देने की साजिश की थी। लाक्षागृह से जुड़ी सुरंग भी प्राप्त हुई है। पांडव इसी सुरंग से बच निकले थे। यहां प्राचीन बर्तन और अन्य साक्ष्य भी मिले हैं। अब महाभारतकालीन विशिष्ट स्थान मिला है। वक्फ बोर्ड हिंदू उपासना केंद्रों और संपत्तियों पर निराधार दावों के लिए कुख्यात है। अक्सर उसने उन स्थानों पर भी दावा किया, जिनका इतिहास देश में इस्लाम के आगमन से भी पुराना है। इसीलिए सेना और रेलवे की संपत्ति के बाद देश में सबसे बड़ी भू-संपदा वक्फ के पास है। बोर्ड लगभग 10 लाख एकड़ जमीन का मालिक है।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता विश्वविख्यात है, लेकिन स्वयंभू उदारपंथी ऋग्वेद को चरवाहों का गीत बताते रहे। यूनेस्को ने इसे काफी पहले विश्व विरासत घोषित कर दिया था। विश्व धरोहरों की सूची में अब 42 भारतीय स्थल हैं। मोदी सरकार ने 41 स्थलों को सूची में शामिल कराने का और आग्रह किया। दो स्थल सम्मिलित किए जा चुके हैं। मध्यकाल में विदेशी हमलावरों ने लाखों मंदिर ध्वस्त किए। विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले एएसआइ के उत्खनन में प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिल रहे हैं। 2018 में संस्कृति मंत्रालय से संबंधित सिंधु सभ्यता की अध्ययन समिति ने हरियाणा के भिराना और राखीगढ़ी की खोदाई के अध्ययन को महत्वपूर्ण बताया था। इस पुरातात्विक क्षेत्र में कार्बन डेटिंग के अनुसार ईसा पूर्व 7000-6000 वर्ष की सभ्यता का अनुमान लगाया गया। यह अवधि वैदिक काल की सभ्यता से जुड़ती है। कार्बन डेटिंग विश्लेषण को प्राचीन समय से जोड़कर अध्ययन होना चाहिए।
ऋग्वेद और हड़प्पा की सभ्यता में तमाम समानताएं हैं, लेकिन कुछ लोग हड़प्पा को प्राचीन और वैदिक सभ्यता को परवर्ती बताते हैं। उनके तर्क दयनीय हैं। वे हड़प्पा को नगरीय एवं ऋग्वैदिक सभ्यता को ग्रामीण बताते हैं, लेकिन ऋग्वेद में नगरीय सभ्यता के तमाम उल्लेख हैं। यहां नगर के लिए पुर शब्द आया है और नगर प्रमुख के लिए पौर। कथित उदारपंथी अपनी स्थापनाओं को लेकर लज्जित होंगे। वे सुमेरी सभ्यता को हड़प्पा से भी प्राचीन बताते हैं। हड़प्पा को सुमेरी सभ्यता की छाया मानते हैं। वे सरस्वती नदी का भौगोलिक साक्ष्य नहीं देखते। ऋग्वेद के समय सरस्वती जल भरी हैं। यह तथ्य हड़प्पा से पुराना है। सुमेरी, मिनोवन, मितन्नी और हित्ती सभ्यताएं वैदिक सभ्यता के बाद की हैं। दुनिया की किसी भी सभ्यता एवं संस्कृति का अध्ययन ऋग्वेद को अलग हटाकर नहीं किया जा सकता। ऋग्वेद में वरुण के घर को सौ खंभों वाला बताया गया है। ऋग्वेद, महाभारत एवं रामायण में सभागारों के भी उल्लेख हैं। सभागारों में बैठकें होती थीं। अयोध्या, मथुरा, काशी, पाटलिपुत्र और उज्जैन विश्व चर्चित प्राचीन नगर थे।
साम्राज्यवादी शक्तियां भारत को सदा पराजित सिद्ध करने के लिए मूल निवासी आर्यों को विदेशी हमलावर बताती रही हैं। उनका तर्क था कि हम विदेशी तो नया क्या है? इससे पहले यहां इस्लाम का शासन था। इस्लाम से पहले यहां विदेशी आर्य हमलावर थे। इस धारणा का प्रतिकार हुआ। अब वे लज्जित हैं। वे आर्यों को विदेशी हमलावर नहीं बताते, लेकिन विदेशी बताते हैं। राखीगढ़ी और सिनौली में एएसआइ ने ईसापूर्व 2000-1800 के समय का ताम्र और मूर्तियों से सज्जित रथ पाया था। हथियार और आभूषण भी मिले थे। रथ वैदिक काल से लेकर रामायण-महाभारत तक प्रतिष्ठापूर्ण वाहन रहा है। पीवी काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में वैदिक संहिताओं का काल 4000-1000 ईसा पूर्व तक बताया है। ऋग्वेद का कुछ हिस्सा 5000 साल से भी पुराना है। ऋग्वेद के रचनाकाल से पहले ही भारतीय रथारूढ़ रहे। रथों में घोड़े जोते जाते थे। घोड़े भारतीय थे। मैकडनल और कीथ ने ‘वैदिक इंडेक्स’ में बताया है, ‘सिंधु और सरस्वती तट के घोड़े मूल्यवान थे।’ ऋग्वेद के इंद्र अश्वपति कहे गए हैं। घोड़ा और रथ समृद्धि के प्रतीक थे। उपनिषदों में इंद्रियों को घोड़ा बताया गया है। सूर्यदेव को भी रथारूढ़ बताया गया है। काल देवता भी रथ पर चलते हैं। अथर्ववेद के कालसूक्त में ज्ञानी ही कालरथ पर बैठ सकते हैं। रथ सुमेरी सभ्यता में भी थे, पर उनके पहियों में आरे नहीं थे। बागपत में उत्खनन से प्राप्त 2000 साल पुराना रथ प्राचीन वैदिक सभ्यता का साक्ष्य है।
साक्ष्य और भी हैं। राखीगढ़ी के 5000 वर्ष पुराने नरकंकाल के कुछ वर्ष पूर्व हुए डीएनए परीक्षण ने आश्चर्यचकित किया था। डेक्कन कालेज पुणे के कुलपति वसंत शिंदे एवं बीरबल साहनी प्रयोगशाला के प्रमुख नीरज के नेतृत्व में हुए डीएनए परीक्षण के अनुसार शव संस्कार की शैली ऋग्वैदिक समाज से मिलती है। कंकाल परीक्षण में उच्चतर स्वास्थ्य और वैदिक कालीन ज्ञान तंत्र पाया गया है। ऐसे अध्ययन आर्यों को भारत का मूल निवासी सिद्ध करते हैं। डा. भगवान सिंह, डा. आंबेडकर और डा. रामविलास शर्मा जैसे विद्वानों ने तमाम तर्क देकर आर्यों को भारत का मूल निवासी बताया है, लेकिन भारतीय संस्कृति को हेय सिद्ध करने वाले तत्व अपने पूर्वज आर्यों को भी विदेशी बताते आए हैं। आर्यों के हमले और कहीं बाहर से यहां आने का कोई साक्ष्य नहीं। भारत के समस्त प्राचीन आख्यानों में आर्यों के विदेशी होने का कोई उल्लेख नहीं। इसी प्रकार, श्रीराम और श्रीकृष्ण भी कोरी कल्पना नहीं हैं। यथार्थ हैं। अयोध्या, मथुरा एवं काशी भी सत्य तथ्य हैं। भारतीय अपनी सांस्कृतिक मान्यता और आस्था-आस्तिकता को लेकर सजग हैं। वैज्ञानिक विवेचन ने हमारी सभ्यता और संस्कृति को सही सिद्ध किया है। राष्ट्रजीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से आने वाली सूचनाएं राष्ट्रीय पौरुष और स्वाभिमान को बढ़ा रही हैं। वास्तविक इतिहास बोध पर गर्व समय का आह्वान है।
Date:12-02-24
फौजी दखलंदाज़ी के खिलाफ जनादेश
टीसीए रंगाचारी, ( पूर्व राजनयिक )
पाकिस्तान के आम चुनावों के नतीजे बता रहे हैं कि कौमी असेंबली (संसद) में पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी जरूर है, लेकिन उससे भी अधिक संख्या उनकी होगी, जो निर्दलीय यानी तकनीकी तौर पर बिना किसी दलीय चुनाव-चिह्न के मैदान में उतरे। इनमें से ज्यादातर नेताओं को इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) का समर्थन प्राप्त है। हां, उनकी असल संख्या कितनी है, यह अभी साफ नहीं है। आधुनिक लोकतंत्र में दलीय प्रणाली अहम मानी जाती है और इसमें उन प्रतिनिधियों का प्रभाव कम समझा जाता है, जो किसी पार्टी से जुडे़ हुए नहीं हैं। मगर पाकिस्तान इस मामले में अलहदा साबित हुआ है।
फिलहाल, यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान में गठबंधन की सरकार बनने जा रही है। इसके प्रयास शुक्रवार देर रात से ही शुरू हो गए थे, जब यह साफ हो चला था कि किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं आने वाला है, तब अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा था कि पीएमएल-एन चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बन गई है और गठबंधन सरकार के लिए हम पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की तरफ हाथ बढ़ाना चाहते हैं। उन्होंने अपनी तकरीर में शहबाज शरीफ को पीपीपी के साथ बातचीत के लिए अधिकृत भी कर दिया था।
मगर जनादेश के कुछ अन्य संकेत भी स्पष्ट हैं। मसलन, पाकिस्तानी फौज ने उस तरह से नवाज शरीफ का साथ नहीं दिया, जिसके कयास चुनाव-पूर्व लगाए जा रहे थे। आरोप था कि फौज उन सबका दमन कर रही है, जो नवाज शरीफ की राह में चुनौती पेश कर रहे हैं। इमरान खान का उदाहरण सबके सामने था। फौज से सीधी जंग मोल लेने के कारण वह चुनाव से बाहर कर दिए गए थे। यहां तक कि उनकी पार्टी पीटीआई को भी खत्म कर दिया गया था और उसके तमाम बडे़ नेता फौज के निशाने पर थे। यही वजह है कि जो थोड़े-बहुत पीटीआई नेता बचे रहे गए, उनको निर्दलीय चुनाव लड़ना पड़ा। चूंकि चुनाव में पीटीआई समर्थकों को बड़ी जीत मिली है, इसलिए इमरान खान के लिए यह आरोप लगाना काफी मुश्किल होगा कि फौज ने नवाज शरीफ के पक्ष में बल्लेबाजी की है। अब आरोप यह है कि अगर फौज ने हस्तक्षेप नहीं किया होता, तो उनकी पार्टी पीटीआई को पूरा बहुमत मिल जाता। हालांकि, साल 2018 में, जब फौज ने इमरान खान को प्रधानमंत्री बनाने की मशक्कत की थी, तब भी पीटीआई को बहुमत हासिल नहीं हुआ था।
इसका मतलब यह नहीं माना जाना चाहिए कि फौज ने चुनाव को बिल्कुल प्रभावित नहीं किया। अलग-अलग स्रोतों से जो वीडियो फुटेज आए हैं, उनमें यह तो दिखता ही है कि चुनाव में धांधली करने की कोशिशें की गईं। हां, वे पिछले आम चुनाव जैसी नहीं थीं, क्योंकि तब के फुटेज से फौज की चौतरफा फजीहत हुई थी। मुमकिन है, उसने पिछली घटना से सबक लिया हो।
इस जनादेश से यह संकेत मिलता है कि पाकिस्तानी नौजवान खास तौर से जम्हूरियत में फौजी दखलंदाजी के खिलाफ हैं। इमरान खान खुलकर फौज की लानत-मलामत कर रहे थे और उन्हें उम्मीद से कहीं अधिक सीटें प्राप्त हुई हैं, जो यह बताता है कि लोगों ने उनको संभवत: इसीलिए पसंद किया, क्योंकि उन्होंने विद्रोही तेवर अपनाया हुआ था। हालांकि, इसकी पुष्टि के लिए हमें मत-प्रतिशत जैसे कुछ अन्य आंकड़ों की भी जरूरत होगी। वैसे, जिस तरह से पीएमएल-एन को सीटें मिली हैं, उससे यह नहीं लगता कि फौज की पसंद होने के कारण लोग उससे नाराज हैं। पंजाब सूबे की असेंबली के नतीजे इसी का संकेत देते हैं।
यहां मैंने पंजाब प्रदेश की इसलिए चर्चा की, क्योंकि पाकिस्तान की राजनीति में इस सूबे का खास महत्व है। माना जाता है कि यदि पंजाब और केंद्र की सत्ता में एक ही पार्टी रहे, तो हुकूमत को चलाने में दिक्कतें पेश नहीं आती हैं। मुझे 1988 का चुनाव याद आ रहा है, जब मैं वहां अपनी सेवाएं दे रहा था। उस चुनाव में भी फौज की पसंद नवाज शरीफ थे, लेकिन खंडित जनादेश पीपीपी नेता बेनजीर भुट्टो के पक्ष में आया। तब केंद्र की सत्ता बेनजीर ने संभाली और पंजाब सूबा नवाज शरीफ के जिम्मे रहा। उस समय विपक्षी दल के नेता बेशक इस्लामाबाद में रहते थे, लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह जिम्मेदारी नवाज शरीफ ही निभाते रहे। बेनजीर के लिए सरकार चलाना काफी कठिन साबित हुआ था।
अभी पीएमएल को पीपीपी की जरूरत है, तो पाकिस्तान को पांच साल तक चल सकने वाली एक स्थायी सरकार की। यहां साल 2008 का दौर याद आता है, जब इन्हीं दोनों पार्टियोंकी मिली-जुली सरकार बनी थी। नवाज शरीफ की इस मामले में जरूर सराहना की जानी चाहिए कि उस वक्त उन्होंने पीपीपी सरकार को अस्थिर करनेका कोई प्रयास नहीं किया। संभवत: दोनों राजनीतिक दल यह समझ रहे थे कि उनकी आपस की लड़ाई में फौज का पलड़ा हमेशा भारी रहता है। क्या इस बार भी एक स्थिर सरकार बनेगी?
सवाल यह भी है कि नई सरकार के साथ भारत के रिश्ते कैसे रहेंगे? फिलहाल इसके बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी, क्योंकि भारत या कश्मीर पाकिस्तान चुनाव के मुद्दे नहीं थे। राजनीतिक दलों के अपने घोषणापत्रों में भले ही भारत का नाम लिया गया, लेकिन यह पाकिस्तान की सियासत का हिस्सा है। फिलहाल नई सरकार का पूरा ध्यान अपनी अर्थव्यवस्था को उबारने, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का कर्ज चुकाने, बेरोजगारी दूर करने या गरीबी उन्मूलन पर ही होगा। हिन्दुस्तान के साथ ताल्लुकात बेहतर बनाने के बारे में सोचने की उसे अभी फुरसत ही कहां? वैसे भी, भारत पर आम चुनाव का खुमार चढ़ने लगा है, और कोई भी सरकार ऐसे मौकों पर इंतजार करना ही पसंद करती है। मसलन, साल 2014 के चुनाव से पहले कमोबेश यह तय था कि पाकिस्तान हमें ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ का दर्जा देने जा रहा है। दस्तावेज पर बस दस्तख्त होने शेष थे। मगर पाकिस्तान ने हिन्दुस्तान में नई हुकूमत आने के बाद इस पर आगे न बढ़ने की सोची, और आज तक यह दर्जा फाइलों में ही बंद है।
बहरहाल, नवाज शरीफ व्यक्तिगत तौर पर भारत-विरोधी नहीं हैं। मगर चूंकि वहां सत्ता की बागडोर फौज के हाथों में है, इसलिए तय उसे ही करना है, इस्लामाबाद नई दिल्ली के कितना करीब आए।