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09-11-2024 (Important News Clippings)
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पर्यावरण मामलों में अमीर देशों का रवैया बदलेगा?
संपादकीय
विशेष दर्जे की मांग
संपादकीय
जम्मू-कश्मीर विधानसभा में विशेष दर्जे के प्रस्ताव पर तीसरे दिन भी हंगामा होना यही बताता है कि एक ऐसे मसले को तूल दिया जा रहा है, जिससे राज्य की जनता को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। नेशनल कांफ्रेंस सरकार ने विशेष राज्य के दर्जे की मांग वाला प्रस्ताव पारित कराते समय यह स्पष्ट नहीं किया कि इसका आशय क्या है। ऐसा शायद जानबूझकर किया गया, ताकि इस आरोप से बचा जा सके कि उनकी सरकार अनुच्छेद 370 और 35 ए की वापसी चाहती है, लेकिन इसके चलते उसे भाजपा विधायकों की आपत्ति का सामना करना पड़ा और पीडीपी एवं निर्दलीय विधायकों की नाराजगी भी झेलनी पड़ी। इसी के चलते विधानसभा में लगातार हंगामा हुआ। अच्छा होता कि प्रस्ताव में यह स्पष्ट किया जाता कि विशेष राज्य के दर्जे का मतलब क्या है? यदि सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस और उसे समर्थन दे रही कांग्रेस यह चाह रही हैं कि जम्मू-कश्मीर को फिर से कुछ वैसे ही अधिकार मिल जाएं, जैसे अनुच्छेद 370 और 35 ए के तहत मिले हुए थे तो ऐसा कभी नहीं होने वाला। एक तो सुप्रीम कोर्ट इन दोनों विभाजनकारी अनुच्छेदों को निष्प्रभावी करने के मोदी सरकार के फैसले पर मुहर लगा चुका है और दूसरे, पहले वाली स्थिति बहाल होने का अर्थ होगा अलगाव को नए सिरे से खाद-पानी मिलना और साथ ही अनुसूचित जातियों-जनजातियों को उनके अधिकारों से वंचित करना ।
यह विचित्र भी है और चिंताजनक भी कि पीडीपी और निर्दलीय विधायक विशेष राज्य के दर्जे की मांग के बहाने न केवल अनुच्छेद 370 और 35 ए की बहाली चाह रहे हैं, बल्कि उस व्यवस्था को फिर से लागू करने पर भी जोर दे रहे हैं, जिसके तहत जम्मू- कश्मीर के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था । अच्छा होगा कि उमर अब्दुल्ला सरकार इस सच को स्वीकार करे कि अनुच्छेद 370 और 35 ए की बहाली कभी नहीं हो सकती। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और उनके सहयोगियों को इन अनुच्छेदों की वापसी की मांग करने से ही नहीं बचना चाहिए, बल्कि जो भी नेता इस मांग पर जोर देकर कश्मीर की जनता को बरगला रहे हैं और उसे दिवास्वप्न दिखा रहे हैं, उन्हें आगाह भी करना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि इससे अलगाववादियों और पाकिस्तानपरस्त तत्वों कोही सक्रिय होने का अवसर मिलेगा। इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नई सरकार के गठन के बाद से राज्य में आतंकियों की गतिविधियां बढ़ती दिख रही हैं। जम्मू-कश्मीर सरकार इसके पहले राज्य के दर्जे की बहाली की मांग वाला प्रस्ताव भी पारित कर चुकी है। इस प्रस्ताव को उपराज्यपाल ने केंद्र सरकार को प्रेषित कर एक सकारात्मक संदेश देने के साथ यह भी रेखांकित किया है कि हालात अनुकूल होने पर इस मांग को पूरा किया जाएगा। ऐसे में उमर अब्दुल्ला सरकार के लिए बेहतर यही है कि वह हालात अनुकूल बनाने पर ध्यान दे।
रिक्तियों पर मनमानी
संपादकीय
अदालती फैसले से आगे
संपादकीय
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, यानी एएमयू को क्या दर्जा दिया जाए, यह बहस पिछले कई दशकों से चल रही है। इसे अल्पसंख्यक संस्थान माना जाए या नहीं, इस पर काफी विवाद हुए हैं। इस मुद्दे पर राजनीति तो खैर होती ही रहती है, अदालतों में भी कानूनविदों ने इस पर काफी सिर खपाया है। अब शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने इस पूरी बहस पर अंतिम मुहर लगाने का रास्ता खोल दिया है। सुप्रीम कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के कार्यकाल का कल अंतिम दिन था और इस दिन उन्होंने सात सदस्यीय पीठ में एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई दे सकती है। इस मामले की सुनवाई इस साल फरवरी में ही पूरी हो गई थी और फैसले को सुरक्षित रख लिया गया था।
शुक्रवार को दिए गए इस फैसले को समझने के लिए हमें 1967 में जाना होगा, जब सुप्रीम कोर्ट की एक पांच सदस्यीय पीठ ने यह फैसला सुनाया था कि एएमयू की स्थापना संसद की वैधानिक कार्यवाही से हुई है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं दिया जा सकता। इसके बाद तुरंत प्रभाव से इस विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान का दर्जा समाप्त हो गया। सन् 1981 में संसद में एएमयू ऐक्ट में संशोधन करके इसे फिर से अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दे दिया गया। बाद में, इस संशोधन को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई, जिसने साल 2006 में कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। जाहिर है, इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिलनी ही थी । पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की तीन सदस्यीय पीठ के पास यह याचिका पहुंची थी। 1967 में चूंकि पांच सदस्यीय पीठ इस पर फैसला दे चुकी थी, इसलिए जरूरी था कि इस पर कोई बड़ी पीठ ही विचार करती । इसलिए न्यायमूर्ति गोगोई ने इसके लिए एक सात सदस्यीय पीठ का गठन किया। इस पीठ ने अब चार- तीन से यह फैसला दिया है कि किसी संस्थान का गठन संसद में पेश विधेयक के जरिये हुआ, सिर्फ इसी तर्क पर उसका अल्पसंख्यक दर्जा खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए उस संस्थान का इतिहास देखना होगा और यह भी देखना होगा कि उसके संस्थापकों की मंशा क्या थी? एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दिया जाना चाहिए या नहीं, अदालत ने यह फैसला तीन सदस्यीय पीठ के हवाले कर दिया है, जिसका गठन होना अभी बाकी है। इस पर पुनर्विचार के लिए 1967 के पांच सदस्यीय पीठ के फैसले से जो बाधा बनी हुई थी, बस उसे इस सात सदस्यीय पीठ ने खत्म कर दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए, अब तीन जजों की पीठ का जो फैसला होगा, वह सभी को स्वीकार होगा।
हालांकि, शुक्रवार के फैसले के बाद जिस तरह के बयान आए हैं, उनसे नहीं लगता कि इस विवाद को इतनी जल्दी खत्म होने दिया जाएगा। एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने एक तरफ तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन किया है, तो दूसरी ओर एएमयू, जामिया मिल्लिया और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की तुलना करते हुए केंद्र सरकार पर यह आरोप लगाया है कि वह अल्पसंख्यक संस्थानों से भेदभाव कर रही है। वैसे, शुक्रवार के फैसले का उस बात से कोई लेना-देना नहीं है, जिसका जिक्र ओवैसी कर रहे हैं। अंतिम फैसला जो भी हो, लेकिन यह उम्मीद नहीं है कि इस तरह की राजनीति रुक जाएगी, जबकि कोशिश यह होनी चाहिए कि संस्थान का दर्जा चाहे जो भी हो, शिक्षा का स्तर सब जगह बेहतर होता रहे।