09-11-2024 (Important News Clippings)

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09 Nov 2024
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Date: 09-11-24

पर्यावरण मामलों में अमीर देशों का रवैया बदलेगा?

संपादकीय

विश्व पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन (सीओपी – 29 ) अजरबैजान में 11 से 22 नवंबर के बीच होगा। थीम है, फाइनेंस सीओपी। यह संकल्प पेरिस कांफ्रेंस में लिया गया था, लेकिन अमीर देश इस मदद के लिए आगे आना तो दूर, प्रारूप भी नहीं बना पाए हैं। इस बीच इस पर काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन ‘आई- फॉरेस्ट’ ने एक रिपोर्ट में भारत का हवाला देते हुए बताया कि इस देश को अगले 30 वर्षों में कोयला-ऊर्जा से पूर्ण मुक्ति पाने में करीब 84 लाख करोड़ रु. का खर्च आएगा। कोयला आधारित ऊर्जा ग्रीनहाउस उत्सर्जन के अनेक बड़े कारकों में प्रमुख मानी जाती है और भारत कोयला-आधारित ऊर्जा उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार को हर साल कम से कम सवा दो लाख करोड़ रुपए इस मद में खर्च करने होंगे। यह राशि भारत में विगत वर्ष दी गई कुल प्रमुख सब्सिडीज का 60% है। क्या एक विकासशील देश के लिए ऊर्जा को पूर्णरूपेण हरित बनाने में इतनी बड़ी राशि अलग से खर्च करना संभव होगा? समस्या सिर्फ कोयला खदान या कोयला-आधारित बिजली संयंत्र बंद करने की नहीं है। केवल सरकारी कोयला उत्पादन इकाइयों में 3.70 लाख लोग काम करते हैं। इसके अलावा निजी क्षेत्रों की इकाइयां भी हैं। इनकी पुनर्स्थापना में भारी खर्च आएगा। क्या अमीर दुनिया रवैया बदलेगी ?


Date: 09-11-24

विशेष दर्जे की मांग

संपादकीय

जम्मू-कश्मीर विधानसभा में विशेष दर्जे के प्रस्ताव पर तीसरे दिन भी हंगामा होना यही बताता है कि एक ऐसे मसले को तूल दिया जा रहा है, जिससे राज्य की जनता को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। नेशनल कांफ्रेंस सरकार ने विशेष राज्य के दर्जे की मांग वाला प्रस्ताव पारित कराते समय यह स्पष्ट नहीं किया कि इसका आशय क्या है। ऐसा शायद जानबूझकर किया गया, ताकि इस आरोप से बचा जा सके कि उनकी सरकार अनुच्छेद 370 और 35 ए की वापसी चाहती है, लेकिन इसके चलते उसे भाजपा विधायकों की आपत्ति का सामना करना पड़ा और पीडीपी एवं निर्दलीय विधायकों की नाराजगी भी झेलनी पड़ी। इसी के चलते विधानसभा में लगातार हंगामा हुआ। अच्छा होता कि प्रस्ताव में यह स्पष्ट किया जाता कि विशेष राज्य के दर्जे का मतलब क्या है? यदि सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस और उसे समर्थन दे रही कांग्रेस यह चाह रही हैं कि जम्मू-कश्मीर को फिर से कुछ वैसे ही अधिकार मिल जाएं, जैसे अनुच्छेद 370 और 35 ए के तहत मिले हुए थे तो ऐसा कभी नहीं होने वाला। एक तो सुप्रीम कोर्ट इन दोनों विभाजनकारी अनुच्छेदों को निष्प्रभावी करने के मोदी सरकार के फैसले पर मुहर लगा चुका है और दूसरे, पहले वाली स्थिति बहाल होने का अर्थ होगा अलगाव को नए सिरे से खाद-पानी मिलना और साथ ही अनुसूचित जातियों-जनजातियों को उनके अधिकारों से वंचित करना ।

यह विचित्र भी है और चिंताजनक भी कि पीडीपी और निर्दलीय विधायक विशेष राज्य के दर्जे की मांग के बहाने न केवल अनुच्छेद 370 और 35 ए की बहाली चाह रहे हैं, बल्कि उस व्यवस्था को फिर से लागू करने पर भी जोर दे रहे हैं, जिसके तहत जम्मू- कश्मीर के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था । अच्छा होगा कि उमर अब्दुल्ला सरकार इस सच को स्वीकार करे कि अनुच्छेद 370 और 35 ए की बहाली कभी नहीं हो सकती। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और उनके सहयोगियों को इन अनुच्छेदों की वापसी की मांग करने से ही नहीं बचना चाहिए, बल्कि जो भी नेता इस मांग पर जोर देकर कश्मीर की जनता को बरगला रहे हैं और उसे दिवास्वप्न दिखा रहे हैं, उन्हें आगाह भी करना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि इससे अलगाववादियों और पाकिस्तानपरस्त तत्वों कोही सक्रिय होने का अवसर मिलेगा। इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नई सरकार के गठन के बाद से राज्य में आतंकियों की गतिविधियां बढ़ती दिख रही हैं। जम्मू-कश्मीर सरकार इसके पहले राज्य के दर्जे की बहाली की मांग वाला प्रस्ताव भी पारित कर चुकी है। इस प्रस्ताव को उपराज्यपाल ने केंद्र सरकार को प्रेषित कर एक सकारात्मक संदेश देने के साथ यह भी रेखांकित किया है कि हालात अनुकूल होने पर इस मांग को पूरा किया जाएगा। ऐसे में उमर अब्दुल्ला सरकार के लिए बेहतर यही है कि वह हालात अनुकूल बनाने पर ध्यान दे।


Date: 09-11-24

रिक्तियों पर मनमानी

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा है कि सरकारी नौकरी की प्रक्रिया चालू होने के बाद नियमों में बदलाव नहीं किया जा सकता। मामले में नौकरी से जुड़ी लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के उपरांत 75% नंबर पर नियुक्ति का नियम बना दिया गया था। मामला राजस्थान हाई कोर्ट में अनुवादकों की भर्ती प्रक्रिया से संबंधित है। अदालत ने इस पर कहा कि नियमों में पहले से इसकी व्यवस्था हो कि पात्रता में बदलाव हो सकता है तो ही ऐसा किया जा सकता है। लेकिन समानता के अधिकार का उल्लंघन करते हुए मनमाने तरीके से ऐसा नहीं हो सकता। पीठ ने कहा कि मौजूदा नियमों या विज्ञापन के तहत मानदंडों में बदलाव की अनुमति है तो इन्हें संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुरूप होना चाहिए। चयन सूची में स्थान मिलने से नियुक्ति का कोई अपरिहार्य अधिकार नहीं मिल जाता। राज्य या उसकी संस्थाएं वास्तविक कारणों से रिक्त पद न भरने का विकल्प चुन सकती हैं। पीठ ने 1965 के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि यह अच्छा सिद्धांत है। राज्य या उसके तंत्रों को नियमों से छेड़छाड़ की अनुमति नहीं देनी चाहिए। मामले में तीन असफल उम्मीदवारों ने हाई कोर्ट में रिट याचिका दायर कर इस परिणाम को चुनौती दी थी जिसे मार्च, 2010 में खारिज कर दिया गया। बाद में वे शीर्ष अदालत पहुंच गए। सरकारी नौकरियों में होने वाली धांधली कोई नई बात नहीं है पर कम ही मामलों में हताश अभ्यर्थी अदालत की शरण लेते हैं क्योंकि न्याय प्रक्रिया में जाते ही समय और धन का अतिरिक्त खर्च कांधों पर आ जाता है। जैसा कि इस मामले में चौदह सालों के इंतजार के बाद अन्ततः उनके पक्ष में फैसला आया। देश में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। युवाओं की सारी जवानी रिक्तियों की आपूर्ति के इंतजार में निकल जाती है। कई दफा परिणाम देरी से आते हैं या रद्द तक हो जाते हैं। जो परीक्षाएं और साक्षात्कार होते हैं, उनमें होने वाली धांधली को लेकर परीक्षार्थी सशंकित रहते हैं। मगर राज्य सरकारों की कोताही को लेकर सब मौन हैं। नौजवानों के भविष्य से खिलवाड़ का खमियाजा तो इन्हें भुगतना ही चाहिए।

 


Date: 09-11-24

अदालती फैसले से आगे

संपादकीय

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, यानी एएमयू को क्या दर्जा दिया जाए, यह बहस पिछले कई दशकों से चल रही है। इसे अल्पसंख्यक संस्थान माना जाए या नहीं, इस पर काफी विवाद हुए हैं। इस मुद्दे पर राजनीति तो खैर होती ही रहती है, अदालतों में भी कानूनविदों ने इस पर काफी सिर खपाया है। अब शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने इस पूरी बहस पर अंतिम मुहर लगाने का रास्ता खोल दिया है। सुप्रीम कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के कार्यकाल का कल अंतिम दिन था और इस दिन उन्होंने सात सदस्यीय पीठ में एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई दे सकती है। इस मामले की सुनवाई इस साल फरवरी में ही पूरी हो गई थी और फैसले को सुरक्षित रख लिया गया था।

शुक्रवार को दिए गए इस फैसले को समझने के लिए हमें 1967 में जाना होगा, जब सुप्रीम कोर्ट की एक पांच सदस्यीय पीठ ने यह फैसला सुनाया था कि एएमयू की स्थापना संसद की वैधानिक कार्यवाही से हुई है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं दिया जा सकता। इसके बाद तुरंत प्रभाव से इस विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान का दर्जा समाप्त हो गया। सन् 1981 में संसद में एएमयू ऐक्ट में संशोधन करके इसे फिर से अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दे दिया गया। बाद में, इस संशोधन को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई, जिसने साल 2006 में कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। जाहिर है, इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिलनी ही थी । पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की तीन सदस्यीय पीठ के पास यह याचिका पहुंची थी। 1967 में चूंकि पांच सदस्यीय पीठ इस पर फैसला दे चुकी थी, इसलिए जरूरी था कि इस पर कोई बड़ी पीठ ही विचार करती । इसलिए न्यायमूर्ति गोगोई ने इसके लिए एक सात सदस्यीय पीठ का गठन किया। इस पीठ ने अब चार- तीन से यह फैसला दिया है कि किसी संस्थान का गठन संसद में पेश विधेयक के जरिये हुआ, सिर्फ इसी तर्क पर उसका अल्पसंख्यक दर्जा खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए उस संस्थान का इतिहास देखना होगा और यह भी देखना होगा कि उसके संस्थापकों की मंशा क्या थी? एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दिया जाना चाहिए या नहीं, अदालत ने यह फैसला तीन सदस्यीय पीठ के हवाले कर दिया है, जिसका गठन होना अभी बाकी है। इस पर पुनर्विचार के लिए 1967 के पांच सदस्यीय पीठ के फैसले से जो बाधा बनी हुई थी, बस उसे इस सात सदस्यीय पीठ ने खत्म कर दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए, अब तीन जजों की पीठ का जो फैसला होगा, वह सभी को स्वीकार होगा।

हालांकि, शुक्रवार के फैसले के बाद जिस तरह के बयान आए हैं, उनसे नहीं लगता कि इस विवाद को इतनी जल्दी खत्म होने दिया जाएगा। एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने एक तरफ तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन किया है, तो दूसरी ओर एएमयू, जामिया मिल्लिया और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की तुलना करते हुए केंद्र सरकार पर यह आरोप लगाया है कि वह अल्पसंख्यक संस्थानों से भेदभाव कर रही है। वैसे, शुक्रवार के फैसले का उस बात से कोई लेना-देना नहीं है, जिसका जिक्र ओवैसी कर रहे हैं। अंतिम फैसला जो भी हो, लेकिन यह उम्मीद नहीं है कि इस तरह की राजनीति रुक जाएगी, जबकि कोशिश यह होनी चाहिए कि संस्थान का दर्जा चाहे जो भी हो, शिक्षा का स्तर सब जगह बेहतर होता रहे।