09-10-2017 (Important News Clippings)

Afeias
09 Oct 2017
A+ A-

To Download Click Here.


Date:09-10-17

Yes Your Honour

Supreme Court initiates self-reform and opens collegium decisions to public gaze

TOI Editorials 

The Supreme Court collegium has met the clamour for transparency in judicial appointments, by electing to make public its decisions and rationale behind the elevation of judges to SC and high courts. It is a proud moment in India’s democratic evolution. The collegium’s recommendations to elevate six candidates to Madras high court and three to Kerala high court, while finding four candidates unsuitable for Madras high court, are now open for perusal on the SC website. It is a landmark “resolution” because even those among the legal fraternity and general public who were uncomfortable with the (failed) executive attempt to seize primacy in judicial appointments through the National Judicial Appointments Commission Act, were equally unhappy about a number of questionable collegium decisions.

The collegium has now answered its supporters and critics in equal measure by demonstrating the capacity for self-reform. The uploaded matter reveals sitting SC judges who earlier served in Madras and Kerala high courts evaluating candidates, a Judgment Committee appraisal of the quality of their judgments, and Intelligence Bureau reports on their integrity. In making the recommendations public, great care has also been taken to strike a balance between transparency and privacy.

Those aspiring for public office cannot be immune to scrutiny and dissemination of their official record. In the long run such transparency without breaching privacy norms will ensure that only the best candidates apply for judicial positions. Of course the pivotal moment that precipitated this reform was Justice Jayant Patel’s resignation from Karnataka high court, when he found he was to be transferred to Allahabad high court. Patel was at the cusp of being named Acting Chief Justice of Karnataka high court and just months away from retirement when he was unceremoniously transferred. Lawyers in Karnataka, Gujarat and Delhi protested the transfer.

Chief Justice of India Dipak Misra deserves unstinting praise for responding constructively to the protests. No less significant is the riveting irony that the collegium’s biggest critic was an insider and member: Justice J Chelameswar. Many judges before Patel had found their paths blocked by inscrutable collegium decisions. More transparency will now beget more merit. Forging ahead with the overhaul the Centre must finalise the long-delayed Memorandum of Procedure and help fill the 387 vacancies in 24 high courts expeditiously.


Date:09-10-17

प्रोत्साहन पैकेज से परे सोचने की जरूरत

राहुल खुल्लर  (लेखक ट्राई के पूर्व चेयरमैन हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं।)

भले ही त्योहारी माहौल बन गया हो लेकिन इससे खपत में इजाफा होने की संभावना नजर नहीं आती। इस बारे में विस्तार से बता रहे हैं राहुल खुल्लर बीते वर्ष से ही आर्थिक मोर्चे पर बुरी खबरों का सिलसिला चल रहा है। वित्त मंत्री पूरी बहादुरी से कहते रहे हैं कि ऐसी खबरों को तवज्जो न दी जाए। परंतु यह तरीका कारगर नहीं रहा है। अचानक सरकार ने रुख उलट दिया है और उसने प्रोत्साहन पैकेज की बात शुरू कर दी है। जाहिर है कि सब कुछ ठीक नहीं है। आखिर हालात यहां तक कैसे पहुंचे? पहली बात, नोटबंदी का फैसला एक त्रासदी की तरह सामने आया। प्रधानमंत्री ने नोटबंदी से जिन लक्ष्यों को हासिल करने की बात कही थी, वैसा तो कुछ हुआ नहीं, उलटे अर्थव्यवस्था की हालत जरूर पतली हो गई। उस वक्त ही यह बात साफ हो गई थी कि नोटबंदी निकट भविष्य में आर्थिक गतिविधियों को ठप कर देगी। सबसे बुरी मार विनिर्माण क्षेत्र पर पड़ी है। समूचा अनौपचारिक क्षेत्र ठप हो गया है। कृषि क्षेत्र भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ। इसके बाद भी लंबे समय तक बुरी खबरों का सिलसिला चलता रहा।

इसके बाद बारी थी वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की। असली समस्या थी इसे लागू करने के लिए चुने गए समय की। मैंने इस संबंध में दलील दी थी कि क्रियान्वयन को एक अक्टूबर तक टाला जा सकता है। मेरा मानना था कि ऐसा करने से कारोबारियों को खाता-बही की अपनी व्यवस्था में सुधार करने का वक्त मिल जाता और हम जीएसटी नेटवर्क (जीएसटीएन) को भी भलीभांति परख लेते। वृहद आर्थिक मुद्दों की बात करें तो कुछ सवाल इस प्रकार हैं: आर्थिक उथल-पुथल का आकार क्या होगा, यह स्थिति कब तक बनी रहेगी और राजस्व संग्रह पर इसका क्या असर होगा? इस मोर्चे पर खबर अच्छी नहीं है। पहली बात, जीएसटीएन दबाव में है। कुछ कारोबारियों का कहना है कि वे सरकार से बेहतर तैयारी कर चुके थे। दूसरी बात, असंगठित क्षेत्र को दूसरी बार झटका लगा है। तीसरा, छोटे कारोबार परेशानी में हैं। चौथा, राजस्व लक्ष्य शायद पूरे न हो सकें। राज्य सरकारें पहले ही राजस्व के मोर्चे पर संघर्षरत हैं।वर्ष 2014 के बाद से अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से गिरावट की ओर है। सरकार में बैठे लोगों के अलावा सबको मालूम था कि ऐसा होगा। एक के बाद एक दो झटकों ने जल्द सुधार की उम्मीदों की हवा निकाल दी। आने वाली कई तिमाहियों तक इन झटकों का असर बरकरार रहेगा।समेकित मांग के मुख्य घटकों में खपत, निजी निवेश, सरकारी व्यय और शुद्घ निर्यात आदि शामिल हैं। ये सभी आर्थिक वृद्घि के वाहक हैं। सवाल यह है कि इन वाहकों को कौन गति देगा?खपत व्यय यकीनन समेकित मांग का अहम हिस्सा है। समेकित वृद्घि में इसकी अहम भूमिका है। आय की अनिश्चितता और इसकी वृद्घि का एक नकारात्मक असर भी हुआ है। अब रोजगार जाने का जोखिम काफी बढ़ गया है।

वहीं नए रोजगार मिलने की संभावनाएं बहुत सीमित हैं। आय को लेकर निराशा एक हकीकत है।स्वाभाविक सी बात है कि लोग खपत को लेकर सचेत हैं। मनमाने ढंग से होने वाली खपत बुरी तरह प्रभावित हुई है। आय के क्षेत्र में बढ़ती असमानता को भी शामिल कर लिया जाए तो खपत में धीमेपन की यह भी एक वजह है। विनिर्माण क्षेत्र का धराशायी होना रोजगार पर भारी पड़ा और खपत की मांग पर भी। असंगठित क्षेत्र पर भी यह बात लागू होती है। ग्रामीण क्षेत्र की मांग पर भी इन दोनों का असर हुआ है। एक बार फिर बचत करने वाले सोने का रुख कर रहे हैं। आयात के आंकड़े इसके गवाह हैं। सकल घरेलू अनुपात में खपत व्यय की हिस्सेदारी वर्ष 2016-17 की आखिरी तिमाही में कम हुई है। वर्ष 2017-18 की दो शुरुआती तिमाहियों में भी इसमें गिरावट देखने को मिली है। ऐसे में त्योहारी मौसम में भी खपत में तेजी नहीं दिख रही है। निवेश की मांग भी ठहरी हुई है। अतिरिक्त क्षमता और वाणिज्यिक अनिश्चितता के चलते नई पूंजी नहीं आ रही है।

कम मुद्रास्फीति के चलते समायोजन के बगैर लाभ भी कम रहा और उसका असर निवेश के निर्णयों पर पड़ा है। कारोबारियों में कोई उत्साह नहीं है। ब्याज दरों के चलते पूंजी की लागत बढ़ी हुई है। इससे फंसे हुए कर्ज का आधार तैयार हो रहा है।हाल की अधिकांश तिमाहियों में वृद्घि दर सरकारी व्यय के भरोसे रही है। इसमें स्थायित्व नहीं रहता। पहले पांच महीनों के दौरान अनुमानित राजस्व घाटे में भारी वृद्घि का अनुमान है। भविष्य के कर और गैर कर राजस्व की स्थिति संदेहास्पद है। इससे सालाना राजकोषीय घाटे की स्थिति बिगड़ सकती है। ऐसे में इस मोड़ पर प्रोत्साहन पैकेज एक ऐसी चीज है जिसके बारे में कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकते। अगर ऐसा होता है तो राजकोष पर और दबाव पड़ेगा। यानी साल की आखिरी तिमाही में व्यय में कटौती के लिए तैयार रहिए। लब्बोलुआब यह कि आखिरी दो तिमाहियों की संभावनाएं अच्छी नहीं हैं।शुद्घ निर्यात पर होने वाले खर्च को लेकर भी शुभ संकेत नहीं हैं। निर्यात तो बढ़ रहा है लेकिन आयात कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहा है। वास्तविक विनिमय दर में इजाफा हुआ है। इससे प्रतिस्पर्धा का विनाश हुआ है। जीएसटी ने निर्यातकों की पूंजी रोक दी है। उन्होंने नए ऑर्डर लेने बंद कर दिए हैं। मुनाफे का मार्जिन लगातार कम हो रहा है। आने वाली तिमाहियों में निर्यात वृद्घि में कमी आ सकती है।

उच्च वास्तविक ब्याज दर के चलते कई तरह की समस्याएं पैदा हुई हैं। ब्याज दर के अंतर ने पोर्टफोलियो निवेश की आवक तेज की है। डेट पर प्रतिफल की तलाश में निवेश आ रहा है। दरों में धीमी इजाफे की संभावना देखते हुए कहा जा सकता है कि यह निवेश एकतरफा दांव है। विनिमय दर में आई तेजी ने निर्यात को प्रभावित किया है। इससे मोटे तौर पर यह भी पता चलता है कि शेयर बाजार परिसंपत्तियों में तेजी क्यों आ रही है। विनिर्माण को भी नुकसान हुआ है। एसएमई क्षेत्र पर बहुत बुरा असर हुआ है। ऋण की लागत में इजाफा हुआ है। ब्याज दरें ज्यादा होने के चलते कर्जदारों की लागत बढ़ी है। इसके चलते फंसे हुए कर्ज में इजाफा हो रहा है। आने वाली तिमाहियों में और भी बुरी खबरें सामने आ सकती हैं। खासतौर पर आर्थिक उत्पादन और वृद्घि के क्षेत्र में, राजकोषीय घाटे के मामले में, निर्यात में धीमापन आने और छोटे और सूक्ष्म उद्यमों तथा बैंकों के फंसे हुए कर्ज के मामले में। इस समय हमारी स्थिति ठीक नहीं है। परंतु आगे हालात और बुरे हो सकते हैं।प्रेस से लेकर पेशवर अर्थशास्त्रियों और अब भाजपा के कुछ नेताओं तक ने आर्थिक प्रबंधन के तरीके की आलोचना की है। सरकार को अब चेत जाना चाहिए और प्रोत्साहन पैकेज से आगे सोचना चाहिए।


Date:08-10-17

आजादी की मांग का

डॉ. दिलीप चौबे 

पिछले दिनों स्पेन से कैटालोनिया की आजादी की आवाज विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं में क्षेत्रीय स्तर पर असमान विकास के विरुद्ध उठी आवाज है। स्पेन का यह उत्तर-पूर्वी इलाका सामाजिक-आर्थिक विकास की दृष्टि से देशके दूसरे क्षेत्रों की तुलना में काफी समृद्ध है। इस इलाके की अपनी भाषा-संस्कृति है, जो देश के अन्य इलाके से उसकी अलग पहचान कायम करती है। आजादी के समर्थक कैटालोनिया इलाके के निवासियों का तर्क है कि उनके विकास के अर्जित लाभ में वे लोग हिस्सा मांग रहे हैं, जिनका इस विकास में कोई योगदान नहीं है। इसका मतलब है कि एक देश के भीतर ही एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्रों के साथ अपनी समृद्धि का बंटवारा करना नहीं चाह रहा है। पिछले रविवार को पृथक कैटालोनिया राष्ट्र के मुद्दे पर हुई रायशुमारी और उसके बाद की घटनाओं ने स्पेन में एक संवैधानिक संकट पैदा कर दिया है। लिहाजा, सरकार को इस रायशुमारी को गैर-कानूनी घोषित करना पड़ा है। इन दिनों यूरोप और अमेरिका में एक नये तरह का क्षेत्रवाद उभर रहा है। यह विचार एकता से बिखराव की ओर ले जाने का समर्थन करता है। यूरोपीय संघ से इंग्लैंड का बाहर आना इसका बेहतर उदाहरण है। इंग्लैंड को भी यह महसूस हुआ कि हमारे विकास का लाभ दूसरे देश उठा रहे हैं, जिसके कारण हमारी अर्थव्यवस्था पिछड़ती जा रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ‘‘अमेरिका फस्र्ट’ की नीति को भी इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता। यह नई सोच व नया विचार है, जो अमेरिका की उदारता को खारिज करता है। वह अपनी समृद्धि में किसी गरीब और पिछड़े देशको हिस्सेदार बनाना नहीं चाहता। आने वाले दिनों में यह विचार जोर पकड़ सकता है और भूमंडलीकरण में ठहराव ला सकता है। इसमें दो राय नहीं कि सभी अर्थव्यवस्थाओं में आय के वितरण में असमानताएं पाई जाती हैं। चाहे अल्पविकसित देशों की अर्थव्यवस्था हो या पूंजीवादी देशों की; आय के समान वितरण में भेदभाव दिखाई पड़ता है। इसलिए स्पेन की कैटालोनिया की घटना, इंग्लैंड का यूरोपीय संघ से बाहर निकलना और अमेरिका की संरक्षणवादी नीति भारत के लिए सबक है। हमारे देशमें क्षेत्रीय असमानता की शुरुआत तो ब्रिटिश शासन के समय ही हो गई थी।

अंग्रेजों ने औद्योगिकीकरण की शुरुआत उन क्षेत्रों से की, जहां से उनका व्यापारिक हित ज्यादा सध रहा था। इसलिए उसने प.बंगाल और महाराष्ट्र को अपनी व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र बनाया। कोलकाता, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों को समृद्ध बनाया जबकि देश के शेष इलाके को पिछड़ा रहने दिया। कमोबेश यह स्थिति आज भी बनी हुई है। असमान विकास और क्षेत्रीय असंतुलन के चलते असम और पूर्वोत्तर के लोगों की घोर उपेक्षा हुई है। इसलिए वहां जब-तब अलगाववादी हिंसक आंदोलन जोर पकड़ता रहता है। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम की मजबूत विरासत के चलते समृद्ध राज्यों में अलगाववाद कभी जोर नहीं पकड़ सका। फिर भी नई विश्व व्यवस्था नये विचारों को जन्म दे सकती है, जिनसे भारत भी अछूता नहीं रह सकता। अत: असमान क्षेत्रीय विकास दूर करने के लिए अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में उच्चतर विकास दर की व्यवस्था करनी चाहिए।


Date:08-10-17

 डॉ. लोहिया में खास क्या है

राजकिशोर

डॉ. राममनोहर लोहिया के प्रेमियों और प्रशंसकों को सवाल बुरा लग सकता है कि डॉ. लोहिया में खास क्या है। वे कहेंगे, उनकी हर चीज खास है, उनका चिंतन, उनकी राजनीति, उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे और सबसे बढ़ कर उनका व्यक्तित्व, जो प्रत्येक व्यक्ति को सदा के लिए उनके निकट ला देता था। सच तो यह है कि उनकी हर चीज खास थी, अनोखी थी, दूसरों से हट कर थी, इसीलिए भारत का परंपरागत समाज उन्हें पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पाया। हताशा में आ कर उन्होंने कहा था : लोग मेरी बात सुनेंगे, पर मेरी मृत्यु के बाद। डॉ. लोहिया की मृत्यु 12 अक्टूबर, 1967 को दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में हुई थी। तब से पचास वर्ष बीत चुके हैं। क्या आज कोई लोहिया की बात को सुनता नजर आ रहा है? कह सकते हैं, स्थिति ठीक उलटी है।

1967 में भारत एक नये उभार में था। कांग्रेस की संभावनाएं खत्म हो चुकी थीं, गैर-कांग्रेसवाद के नतीजे सामने आने वाले थे। ठीक ऐन मौके पर जब देश के अनेक राज्यों में साझा गैर-कांग्रेसी सरकारें बन चुकी थीं, और भारतीय राजनीति का यह अभिनव प्रयोग कसौटी पर था, उसके प्रणोता नहीं रहे। मेरा अनुमान है कि वह और दस साल भी जिंदा रहते तो आज भारतीय राजनीति की दिशा और होती।लेकिन भारत की किस्मत ही कुछ ऐसी है कि जब किसी नेता की जरूरत सबसे ज्यादा रहती है, वह अनंत की यात्रा पर निकल चुका होता है। आजाद भारत को महात्मा गांधी की सबसे ज्यादा जरूरत थी। गांधी जी रहते, तो विकास की उस धारा पर राष्ट्रीय बहस हो सकती थी, जिसकी भयावह परिणतियों का सामना हम आज कर रहे हैं। जेपी तब चल बसे, जब जनता पार्टी की सरकार को अपनी भावी दिशा तय करनी थी। पिछले दो सौ साल के सभी भारतीय नेताओं को याद कीजिए और सोचिए कि गांधी और लोहिया को छोड़ कर कौन नेता ऐसा था, जिसने जीवन और समाज के लगभग सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया है? गांधी को ‘‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना भाल’ या ‘‘शांति का दूत’ तक सीमित रखना उनसे ज्यादा अपने साथ अन्याय है, क्योंकि इस स्थिति में हम गांधी से आज जो कुछ ले सकते हैं, नहीं ले सकते।

गांधी के लिए स्वतंत्रता संघर्ष गौण चीज थी, जो उन्होंने बार-बार दुहराया भी। उनकी बुनियादी रु चि इसमें थी कि हम क्या खाएं, क्या पहनें, कैसे शौच करें, रोजगार कैसे हों, खेती कैसी हो, पशु पालन के लक्ष्य क्या हों, हमारे बच्चे कैसे पढ़ें, स्त्री-पुरु ष संबंध कैसे हों, सरकार का ढांचा क्या हो, हमें शहर चाहिए या गांव, राज्य और नागरिक का रिश्ता क्या हो, विभिन्न समुदाय एक दूसरे के साथ कैसे रहें, युद्ध के सम्मुख हम क्या करें, वगैरह-वगैरह। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि गांधी जी को भारत से और भारत की जनता से बहुत लगाव था। इसी कारण ही वे देश की मिट्टी से ले कर आसमान तक, प्रसव से ले कर मृत्यु तक, सोच सके और जो उन्हें ठीक लगा, वह हमारे सामने रख सके। मेरा निवेदन है कि गांधी के बाद लोहिया के ही मन में भारत के लोगों, यहां के भूगोल, इतिहास और भविष्य से इतना लगाव था। इसीलिए लोहिया की राजनीति को किसी एक या दो-चार बिंदुओं तक सीमित नहीं किया जा सकता। लोहिया समाजवादी थे और वह समाजवाद ही क्या जो जीवन के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे पहलू पर विचार न करे। भारतीय समाज की बनावट, उसके अंतर्सघर्ष, संस्कृति, इतिहास, साहित्य, जीवन पद्धति, जाति, रंग, भाषा, नर-नारी संबंध, इतिहास के पेच, सीमाओं की संवेदना, शिक्षा, विविद्यालय, पुरातत्व, नदियां, पेड़-पौधे, हिमालय, कृषि और उद्योग, कीमतों की लूट, हिंसा और अहिंसा का प्रश्न, अन्याय का सामना कैसे करें, उत्पादन कैसे बढ़े, विषमता कैसे कम हो, मानव अधिकारों को जीवन में कैसे प्रतिष्ठित किया जाए, शिष्टाचार, पोशाक, राजनैतिक दलों का संगठन, अनुशासन और स्वतंत्रता, क्रांति, विदेश नीति, पंचायत, जिला, सरकार, राष्ट्रवाद, विश्व सरकार यानी कोई ऐसा पहलू नहीं है, जिस पर लोहिया ने गहराई और सुसंगति के साथ विचार न किया हो।

आखिर क्या बात है कि लोहिया के अलावा उनके समकालीन किसी भी नेता का ध्यान इस ओर नहीं गया कि अंग्रेजी ने अधिकांश भारतीयों की अभिव्यक्ति छीन ली है, जाति भारतीय मनुष्य को किस-किस तरह से पतित कर रही है, फैंसी स्कूल शिक्षा व्यवस्था को नष्ट कर रहे हैं, सीमाओं की सुरक्षा कैसे की जाए, नदियों को कैसे साफ रखा जाए, कीमतों में स्थिरता कैसे लाई जाए और अधिकतम और न्यूनतम आमदनी के बीच रिश्ता क्या हो; ये चीजें किसी अंधे को भी दिख सकती थीं। स्पष्ट है कि स्वतंत्र भारत का जो ढांचा बना, उसकी बुनियाद में संवेदना नहीं थी। देश-दुनिया से प्रेम नहीं था। जब प्रेम होता है, तब एक-एक जर्रे की हरकतें हमें स्पर्श करती हैं। डॉ. लोहिया में यही खास था। वे देश और धरती से प्रेम करते थे, इसलिए उनका सरोकार हर चीज से था। भविष्य में जब कोई अच्छी राजनीति बनेगी, तब वह भी सभी चीजों पर पुनर्विचार करेगी और साहसिक निर्णय लेगी। 


Date:08-10-17

अस्थिर होते कामकाज की चुनौती

गिरीश्वर मिश्र

जीवन चलने-चलाने के लिए आर्थिक संसाधन जरूरी होते हैं, और श्रम के सहारे इन संसाधनों को अर्जित करना सभ्य समाज की स्वीकृत परिपाटी बन चुकी है। अत: जीवन के विकास की गति और दिशा आम तौर पर व्यक्ति के व्यवसाय पर निर्भर करती है। कभी यह सब जातिगत और वंशानुगत हुआ करता था, पर आज ‘‘स्टार्टअप’ के दौर में व्यक्ति का व्यावसायिक विकास ज्ञान, कौशल और उद्यमिता के मेल पर टिका हुआ है। वैश्वीकरण और निजीकरण के इस दौर में कार्य की प्रकृति और उसके कायदे-कानून बदल रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अस्तित्व में आने के साथ व्यापार का आकार-प्रकार भी बदल रहा है। सूचना और संचार के बलबूते टिके आधुनिक आफिस का ताम-झाम और कर्मिंयों का सारा काम निजी कंप्यूटर या लैपटॉप में सिमटता जा रहा है। कई कार्यालयों तो ऐसे देखने को मिल जाते हैं, जहांअब भौतिक/शारीरिक उपस्थिति अनिवार्य नहीं रही। लोग अब घर से काम कर सकते हैं।

धीरे-धीरे ऊपर से नीचे के क्रम में व्यवस्थित पदानुक्रम या ‘‘हायरारकी’ की जगह बहुलता की ‘‘हेट्रारकी’ वाली संरचना ले रही है। साथ ही, अलग-अलग दूरदराज की जगहों पर रह कर भी लोग सक्रिय रूप से जुड़ कर काम सकते हैं। नये जमाने की ‘‘वर्चुअल टीम’ कुछ इसी तरह से काम करती है। जरूरत पड़ने पर वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए सलाह-मशविरा और बैठक का चलन बढ़ रहा है। काम की निगरानी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से की जा रही है। कुल मिला कर यह कह सकते हैं कि देश और काल की सीमाएं टूट रही हैं, और प्रौद्योगिकी के साये में पनप रही कामकाजी दुनिया एक संजाल (नेटवर्क) में कार्य कर रही है। पहले व्यापार और कार्य की दुनिया प्राय: उत्पादन से जुड़ी होती थी पर अब दृश्य बदल रहा है। अब पांच में से तीन काम या नौकरी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) में आते हैं, न कि उत्पादन के। ज्यादातर कार्य ऐसे होते जा रहे हैं, जिनमें एक व्यक्ति के बदले कई लोगों की टीम की भूमिका केंद्रीय होती जा रही है। सबसे बड़ा बदलाव इस अर्थ में आ रहा है कि अब दीर्घकालिक स्थिरता के सुकून की जगह अस्थिरता और बेचैनी लेती जा रही है ।

बढ़ती मशीनों के चलते संगठनों का आकार छोटा होता जा रहा है, और ‘‘पेपरलेस’ कार्यस्थल में कर्मचारियों की भूमिका बदल रही है। व्यापारिक संस्थानों का विलय (मर्जर) और अवाप्ति (एक्विज़िशन) की बढ़ती घटनाओं ने व्यापार-वाणिज्य के माहौल को बदल डाला है। पूर्णकालिक (स्थायी) कर्मिंयों की जगह अंशकालिक और निविदा पर नियुक्ति बढ़ रही है। किसी भी संगठन के कर्मिंयों के समुदाय को देखें तो उनमें आयु, लिंग, आरक्षण, विकलांगता आदि के आधार पर विविधता बढ़ रही है। विविधता होने का अभिप्राय है कि कार्यस्थल पर भिन्न रु चियों, मनोवृत्तियों और संस्कृतियों को स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर अंगीकार करना। अब कार्य की प्रकृति भी तरल किस्म की हो रही है, जो अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है। साथ ही, कार्य के दायित्व के लिए चुने गए समूह के आकार-प्रकार में बदलाव आ रहा है, जिसमें भिन्न भिन्न देशों के सहकर्मिंयों के साथ कार्य करना आवश्यक होता जा रहा है। विकसित देशों में युवा वर्ग की भागीदारी तेजी से बढ़ रही है। आज ऑस्ट्रिया, डेनमार्क और स्वीडन में पंद्रह से चौबीस वर्ष के बीच की उम्र के सत्तर प्रतिशत किशोर और युवा किसी न किसी रूप में काम कर रहे हैं। वहां बारहवीं तक पढ़ने जाने वाले ज्यादातर बच्चे बीस घंटे प्रति सप्ताह काम करते हैं। ये कर्मी अपने कार्य-स्थल में रमे रहते हैं, इसलिए उससे ज्यादा ही प्रभावित होते हैं। उनके लिए काम वर्तमान में उपलब्ध कौशलों के उपयोग का मौका देता है। कामकाज की दुनिया में प्रवेश ले रहे नए कर्मी अधिक सुपठित और प्रशिक्षित होते हैं क्योंकि उनकी शिक्षा माता-पिता की तुलना में अधिक हुई रहती है। वे तकनीकी दृष्टि से अधिक ज्ञान भी रखते हैं, स्थानीय के बदले उनकी व्यापक दृष्टि होती है, उन्हें चौबीसों घंटे काम से जुड़े रहने में भी कोई मुश्किल नहीं होती है। नये दौर में वे सांस्कृतिक बहुलता के परिवेश में पल-बढ़ रहे हैं, इसलिए वे कुछ मुक्तमना भी होते हैं, और प्रयोगशील भी। घर और कार्य-स्थल की सीमाएं धूमिल हो रही हैं, और अस्थिरता या अस्थायित्व से टकराने की चुनौती बढ़ती जा रही है। यह संक्रमण की वेला उत्साह के साथ तनाव भी दे रही है। परिवार के विचार और रिश्तों को जीने के लिए नये सूत्र और समीकरण की उनकी तलाश इसलिए जारी है।


Date:08-10-17

क्यों नहीं सुधरती पुलिस

विभूति नारायण राय

हमारे यहां 1860 के दशक में बने कानूनों ने एक आधुनिक संस्था के रूप में जिस पुलिस का निर्माण किया था, वह अपनी मूल आत्मा में आज भी कमोबेश वैसी ही है, जैसी अपने जन्म के समय थी। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा हाल में पुलिस सुधारों के लिए 25,000 करोड़ रुपयों की राशि  वर्ष 2017-18 से अगले तीन वर्षों में खर्च करने का संकल्प लिया गया है। पुलिस यद्यपि राज्यों का विषय है, लेकिन इस धनराशि का अधिकतर हिस्सा केंद्र सरकार प्रदान करेगा।

वर्ष 1861 में पुलिस ऐक्ट बनने के बाद पुलिस सुधारों के लिए पहला बड़ा प्रयास वर्ष 1902 के पहले पुलिस कमीशन के रूप मंे सामने आया था। सात सदस्यीय उस कमीशन में दो भारतीय भी थे। उस कमीशन ने पुलिस के ढांचे में सुधार के लिए बड़ी महत्वपूर्ण संस्तुतियां की थीं और उनके आधार पर बुनियादी परिवर्तन किए भी गए। यद्यपि उस कमीशन की ज्यादातर सिफारिशें सर्वसम्मति से की गईं, लेकिन एक मुद्दे पर सदस्य महाराजा दरभंगा ने असहमति का नोट दिया था और कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के पृथक्करण की सिफारिश की थी। उनकी वह बात हालांकि नहीं मानी गई, लेकिन उस कमीशन की ज्यादातर सिफारिशें लागू कर दी गईं। वर्ष 1902 के पुलिस कमीशन की उस रपट को पढ़ना मजेदार होगा। उसमें विस्तार से तत्कालीन पुलिस की भर्ती नीति, उसको मिलने वाला न्यून वेतन, दयनीय  शैक्षणिक स्तर, उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार, पुलिसकर्मियों का गैर पेशेवराना रवैया, जनता के प्रति उसका क्रूर व्यवहार, अपर्याप्त प्रशिक्षण, अस्वास्थ्यकर आवास और जनता के मन मे उसकी बेहद खराब छवि पर कमीशन की टिप्पणियां गौरतलब हैं। मैं इसे दिलचस्प पठन सामग्री इसलिए मानता हूं कि इसे पढ़ते समय ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि आप 19 वीं शताब्दी की किसी संस्था के बारे में पढ़ रहे हैं। इसके बजाय ऐसा लगता है कि आज के ही पुलिस बल का जिक्र किया जा रहा है। मुझे नहीं लगता कि हालात बहुत ज्यादा बदले हैं।

वर्ष 1902 के बाद कई पुलिस कमीशन नियुक्त हुए और उनकी सिफारिशों के अतिरिक्त प्रशासनिक निर्णयों के तहत भी बहुत सारे प्रयास हुए हैं, लेकिन यह परखना दिलचस्प होगा कि क्या इनमें से कोई भी संस्था के रूप में पुलिस के अंदर किसी तरह का बुनियादी बदलाव ला सका है। आपातकाल खत्म होने के बाद सत्ता मे आई जनता पार्टी की सरकार ने वर्ष 1978 में धर्मवीर आयोग का गठन किया था, जिसने पुलिस तंत्र मंे बुनियादी फर्क लाने मंे सक्षम हो सकने वाले सुझाव दिए थे, लेकिन इसकी रपट आने तक सत्ता परिवर्तन हो गया और पिछले चार दशकों से यह नॉर्थ ब्लॉक के किसी बाबू की आलमारी में धूल फांक रही है। मुझे लगता है कि अगर जनता पार्टी की सरकार रही होती, तब भी इसकी संस्तुतियां लागू नहीं होतीं। जनता पार्टी टूटने के बाद उससे निकले दलों की ही तो सरकार तब से देश के किसी न किसी राज्य मंे रही है, लेकिन किसी ने भी आज तक धर्मवीर आयोग की सिफारिशों की सुध नहीं ली है। इसका कारण बहुत स्पष्ट है कि कोई भी राजनीतिक दल अपनी पकड़ से मुक्त जनता और संविधान के प्रति निष्ठा रखने वाला पुलिस बल नहीं चाहता। हर राजनीतिक दल को ऐसा पुलिस बल सुहाता है, जो भले ही गैर पेशेवर हो, लेकिन जिसकी पूरी निष्ठा उसके प्रति हो। हालांकि पुलिस का गैर पेशेवर रवैया अपने आकाओं की कितनी किरकिरी करा सकता है, यह हमने पिछले दिनों हरियाणा के पंचकूला में  देख ही लिया, जब बाबा राम रहीम के अनुयायियों को पहले तो बड़ी संख्या में सड़कों पर आने दिया गया, उसके बाद घबराहट में जरूरत से कई गुना ज्यादा पुलिस बल का प्रयोग कर तीस से अधिक लोगों को मार दिया गया।

संयुक्त राष्ट्र के मानकों के अनुसार, प्रति एक लाख की आबादी पर पुलिस की संख्या 222 होनी चाहिए, जबकि भारत में एक लाख की आबादी पर पुलिस की स्वीकृत संख्या 181 है, और उसमंे भी उपलब्ध पुलिस बल सिर्फ 131 है। पुलिस बलों का भी 80 प्रतिशत कांस्टेबल हैं, जिनकी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता मैट्रिक है और अपर्याप्त तथा बाबा आदम के जमाने का प्रशिक्षण जिन्हें दक्ष पेशेवर बनने से रोकता है। केंद्र सरकार ने पुलिस सुधार के लिए जिस 25,000 करोड़ रुपये की धनराशि की घोषणा की है, क्या वह राशि पुलिस के सबसे निचले पायदान पर खड़े किंतु सबसे महत्वपूर्ण इस अंग को पेशेवर बना सकेगी? ज्यादा संभावना यही है कि इस बड़ी राशि का अधिकांश हिस्सा हथियारों, वाहनों और संचार उपकरणों पर खर्च होगा। अब तक का हमारा अनुभव यही बताता है कि ऐसा प्रशिक्षण तंत्र विकसित करने में, जो पुलिसकर्मियों को कम से कम बेहतर मनुष्य बना सके, ताकि वे खुद को जनता के मित्र संगठन में तब्दील कर सकें, सबसे कम धन व्यय किया जाएगा।

आवश्यकता दरअसल पूरी मानसिकता को बदलने की है। हम कब तक इस तथ्य को नजरंदाज करते रहेंगे कि स्वतंत्रता के सात दशकों के बाद भी कोई भला मानुष मुसीबत में भी पुलिस के पास नहीं जाना चाहता, आज भी थानों में रपट नहीं लिखी जाती और अब भी एक औसत पुलिसकर्मी थर्ड डिग्री को ही विवेचना का सबसे प्रभावी जरिया समझता है? पुलिस सुधार के लिए जिस भारी-भरकम राशि का प्रावधान किया गया है, उसका कम से कम आधा तो विश्व स्तरीय प्रशिक्षण संस्थान विकसित करने, फोरेंसिक प्रयोगशालाएं बनाने और पुलिसकर्मियों का जनता के साथ व्यवहार सुधारने पर खर्च होना ही चाहिए। अदालतों और जेलों का सुधार भी इस प्रक्रिया का अंग होना चाहिए। जनता के लिए भी यह समझना आवश्यक है कि एक सभ्य और कानून-कायदों की पाबंद पुलिस उसका अधिकार और जरूरत है।


Date:08-10-17

सख्त नियमन का समय

सम्पादकीय

भारतीय आकाश में सोशल मीडिया का जितना तेज विस्तार हुआ, इसका दुरुपयोग भी उसी अनुपात में बढ़ा है। इसके अनर्गल इस्तेमाल से सामाजिक ताना-बाना प्रभावित करने से लेकर व्यक्तिगत द्वेष की घटनाएं सामने आती रही हैं। इसे लेकर चिंताएं भी जताई गईं, सतर्क भी किया जाता रहा है। मगर इस खुले सामाजिक माध्यम पर गाली-गलौज, अराजक टिप्पणियों, न्यायिक प्रक्रिया और अदालती फैसलों तक पर मनमानी बयानबाजी के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने जैसी चिंता और सख्ती जाहिर की है, वह इस माध्यम के बढ़ते अतिक्रमण और गलत इस्तेमाल से चिंतित समाज को राहत देने वाला है। यह इस मुद्दे पर नई बहस और इसमें जुटे लोगों को नए तरीके से आत्म-समीक्षा करने का भी अवसर देता है। ट्रोलिंग के इस दौर में यह अदालत के गंभीर रुख का परिचायक है, तो ट्रोलिंग को हथियार बना चुके लोगों को समय रहते सचेत करने वाला भी। संभव है, जल्द ही इस दिशा में कुछ सख्त कदम या कानून सामने आएं, जो निश्चय ही विचारशील दुनिया को राहत देने का काम करेंगे, क्योंकि अदालत ने माना है कि ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने के लिए सख्त कदम उठाने की जरूरत है।

जाहिर है, अदालत की नजर में हाल के दिनों में तेजी से सक्रिय हुआ सोशल मीडिया का परिदृश्य भी रहा ही होगा, जिसने किसी भी मुद्दे पर बिना सोचे-समझे कुछ भी कहने का अधिकार हासिल कर लिया है। अदालत ने एक वरिष्ठ वकील और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष के उस बयान को भी सिरे से खारिज कर अपनी मंशा जता दी है, जिसमें कहा गया था कि ज्यादातर जज सरकार समर्थक होते हैं। पीठ ने तल्ख टिप्पणी में कहा कि ऐसा कहने या मानने वालों को सुप्रीम कोर्ट में बैठकर देखना चाहिए कि नागरिक अधिकारों के मसलों पर सरकार की कब-कब और कैसी-कैसी खिंचाई होती है?सोशल मीडिया पर रेग्यूलेशन की मांग नई नहीं है। जब-जब इसका दुरुपयोग हुआ, यह मांग उठी। साइबर विशेषज्ञ भी आगाह करते रहे हैं कि अपनी पोस्ट या अकाउंट पर आप जो कुछ शेयर करते हैं, उसके लिए आप ही जिम्मेदार हैं। इसलिए कुछ भी साझा करने से पहले ठहरकर सोचना जरूरी है। इसे पूरे विचारशील समाज की चिंता के तौर पर भी देखा जाना चाहिए। अदालत ने माना है कि जजों और जिरह करने वाले वकीलों के बीच विचारों के आदान-प्रदान में बाधक हर विचार, हर व्यवधान को खत्म किए जाने की जरूरत है। पीठ ने कहा कि पहले तो सिर्फ राज्य द्वारा ही निजता के अधिकार का उल्लंघन होता था, लेकिन अब तो यह जैसे हर किसी के अधिकार में शामिल हो चुका है।

पीठ इस विचार से भी सहमत था कि सामाजिक ताना-बना बचाए रखने के लिए इस पर सख्त नियम बनाने की जरूरत है। शीर्ष अदालत ने इन कुछ मुद्दों के साथ वे सवाल भी संविधान पीठ को सौंप दिए हैं कि क्या कोई सार्वजनिक पदाधिकारी या मंत्री जांच के अधीन किसी संवेदनशील मामले पर अपनी राय जाहिर करने के दौरान अभिव्यक्ति की आजादी का दावा कर सकता है? मुद्दा भले ही सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर अपने बयानों के जरिये किसी केस को प्रभावित करने पर रोक लगाने की बहस से उठा हो, पर इसके संदेश और संकेत दूरगामी हैं। जाहिर है, बड़ा तबका अगर इससे राहत महसूस करेगा, तो कोई शक नहीं कि नियम आने के बाद इसकी व्याख्याओं और असर को लेकर नई बहस भी जरूर छिड़ेगी। कुछ भी हो, सोशल मीडिया पर वैचारिक खुलेपन के नाम पर छाई अराजकता को नियंत्रित करने की जरूरत से तो किसी को भी इनकार नहीं होगा।


Date:08-10-17

नकदी के जरिये कुपोषण से लड़ाई

आलोक कुमार, सलाहकार, नीति आयोग

हाल ही में प्रकाशित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकडे़ हमारा उत्साह नहीं बढ़ाते, खासकर तब, जब हम इनको भारत की आर्थिक प्रगति के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। भारत में प्रत्येक तीसरा शिशु कुपोषित है और मातृत्व-काल की हरेक दूसरी महिला अनीमिया से ग्रसित है। और ऐसा तब है, जब हम कुपोषण से सभी मोर्चों पर लड़ रहे हैं- स्वास्थ्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के जरिये, स्वच्छता के मामले में स्वच्छ भारत मिशन के सहारे और पोषण के संदर्भ में समेकित बाल विकास सेवा की मुहिम से। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, एक औसत भारतीय अपनी आय क्षमता से लगभग 10 प्रतिशत कम अर्जित करता है, क्योंकि वह अपने शैशव काल में कुपोषित रह गया था। आधुनिक शोधों ने यह सिद्ध किया है कि जीवन के प्रारंभिक काल का कुपोषण व्यक्ति के मानसिक व शारीरिक विकास को अवरुद्ध करता है, जो जीवन-पर्यंत उसके सीखने की शक्ति, उसकी उत्पादकता और आय क्षमता को विपरीत रूप से प्रभावित करता है। साफ है, एक कमजोर-कुपोषित कार्यबल की नींव पर एक श्रेष्ठ और उन्नत भारत की कल्पना बेमानी है।

हमारे देश में कुपोषण से मुक्ति पाने के प्रयास विभिन्न योजनाओं के जरिये लक्षित परिवारों को खाद्यान्न या भोजन उपलब्ध कराने तक सीमित रहे हैं, चाहे वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली से उचित मूल्य पर अनाज उपलब्ध कराना हो अथवा विद्यालयों में मिड-डे मील की व्यवस्था हो, या फिर आंगनबाड़ी केंद्रों के जरिये गर्भवती महिलाओं व नवजात शिशुओं को राशन, पंजीरी अथवा पके हुए भोजन मुहैया कराने की व्यवस्था। यद्यपि हमारा खाद्यान्न एवं पोषण कार्यक्रम वैश्विक संदर्भ में सबसे व्यापक कार्यक्रमों में से एक है, मगर इसका परिणाम आशा के अनुरूप नहीं रहा है। चूंकि कुपोषण एक छिपी हुई समस्या हैै, इसलिए इसके प्रति राजनीतिक व्यवस्था प्राय: उदासीन रही है। जागरूकता के अभाव में परिवारों द्वारा शिशुओं के पोषण और स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिए अपनी जीवनशैली व परिवेश में बदलाव लाने में आंशिक सफलता ही मिली है। ऐसे में, कुपोषण से लड़ाई के लिए अब नए प्रयोगों की आवश्यकता है।वैश्विक स्तर पर इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सशर्त नकदी हस्तांतरण (सीसीटी) एक प्रभावी विकल्प के रूप में उभरा है। ब्राजील और मैक्सिको जैसे देशों में इन कार्यक्रमों की सफलता इस बात का प्रमाण है कि ऐसे कार्यक्रम गरीबी उन्मूलन व असमानता दूर करने के सशक्त साधन हैं। इन कार्यक्रमों के सघन मूल्याकंन से यह भी साबित हुआ है कि इससे व्यवहार में अपेक्षित बदलाव आया है, जो कुपोषण जैसी समस्याओं से मुक्ति के लिए अति आवश्यक है। भारतीय परिवेश में भी ओडिशा के ‘ममता’ जैसे मिलते-जुलते कार्यक्रम में आशातीत परिणाम मिले हैं। इन साक्ष्यों के बावजूद वस्तु के रूप में सहायता के प्रति व्यापक समर्थन है। इसके लिए दक्षिणी राज्यों का उदाहरण दिया जाता है, जहां मिड-डे मील कार्यक्रम काफी सफल रहा है। किंतु इन कार्यक्रमों की कामयाबी में राज्यों की सामाजिक पूंजी की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है। इसी पूंजी की असमानता के कारण सभी राज्यों में इसका क्रियान्वयन समान रूप से संभव नहीं हो सका है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में हौसला पोषण योजना के शुरुआती मूल्याकंन से पता चलता है कि इसकी सफलता सीमित रही है, जिसका मुख्य कारण गर्भवती महिलाओं का कार्यक्रम में अपेक्षित संख्या में भागीदारी न करना है, क्योंकि वे आंगनबाड़ी केंद्रों में प्रतिदिन जाकर भोजन करना सही नहीं मानतीं।

हाल ही में बिहार के गया जिले में सर्शत नकदी हस्तांतरण की प्रभावशीलता का अध्ययन किया गया। बिहार बाल सहायता कार्यक्रम के माध्यम से यह काम हुआ। अध्ययन के चार विकास खंडों को चुना गया, जो सामाजिक व आर्थिक संकेतंकों के लिहाज से एक जैसे थे। दो विकास खंडों में अन्य लाभों के अलावा गर्भवती स्त्रियों को अपने पंजीकरण की तिथि से 30 माह तक हरेक महीने 250 रुपये (कुल 7,500 रुपये) कुछ शर्तों के साथ भुगतान किए गए। इसके अतिरिक्त अन्य सभी योजनाएं यथावत रखी गईं। ऐसा इसलिए किया गया, ताकि विकास खंडों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो सके कि कुपोषण सूचकांकों में नकद भुगतान से कितना अंतर पड़ा? हमने नकद भुगतान के परिणामों को चार प्रमुख सवालों की कसौटी पर परखा- एक, क्या ये नकदी हस्तांतरण पोषण पर सकारात्मक असर डाल रहे हैं? दो, क्या नकदी का उपयोग निर्धारित प्रायोजन के लिए हो रहा है? तीन, क्या यह लाभ सही पात्र तक पहुंच रहा है? और चार, सेवाओं की उपलब्धता व लाभों का समग्र रूप से स्थिति बेहतर बनाने में मदद मिल रही है?इस नए प्रयोग के परिणाम आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक दिखे। जिन विकास खंडों में नकद भुगतान किया गया, वहां के शिशुओं के कुपोषण में कमी की दर उन शिशुओं के मुकाबले पांच गुनी अधिक हुई, जहां सशर्त नकद राशि मुहैया नहीं कराई गई थी। इसी प्रकार, नकदी मुहैया कराए गए विकास खंडों में गर्भवती स्त्रियों में अनीमिया की दर में दो वर्षों के भीतर लगभग 14 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई, जो कि राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उपलब्ध राशि का इस्तेमाल गर्भवती स्त्रियों व माताओं ने अपने आहार के विविधीकरण के लिए किया। गर्भवती महिलाओं के आहार में दूध, हरी सब्जी, मांस, अंडे व चीनी की खपत में वृद्धि देखी गई। छह से आठ महीने की आयु के शिशुओं के लिए अपेक्षित आहार की शुरुआत की गई, ताकि उन बच्चों का सही दिमागी विकास हो सके। यह भी देखा गया कि नकद हस्तांतरण के कारण माताओं ने उन सारी शर्तों का पालन किया और उन सभी व्यावहारिक उपायों को अपनाया, जो उनके बच्चे के हित के लिए जरूरी था और उनके नियंत्रण में था।स्पष्ट है, कुपोषण मुक्ति अभियान में सशर्त नकदी हस्तांतरण की अहम भूमिका हो सकती है, और राज्य सरकारों को इस विकल्प पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए, खासकर उन क्षेत्रों में, जहां की सार्वजनिक सेवाओं का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है।