09-03-2018 (Important News Clippings)

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09 Mar 2018
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Date:09-03-18

 A ‘We Too’ movement of positive action

ET Editorials

Yet another International Women’s Day has gone by, with assorted calls to empowerment. It was not reasonable to expect respite just for that one special day from reports of assault, rape and acid attacks, and reason triumphed over fond hope. A disabled woman gang-raped in a small UP town committed suicide after months of futile waiting for justice. A Pune woman was raped on the roadside after her male friend was shot dead. The more the news scanned, the more such reports. All this might lead to despondency on India’s ability to make progress at all on women’s equality. But there are grounds for optimism.

One part of the reason for the fall in women’s work participation is that more young women are staying back in education, a trend that pre-dates the movement to build toilets in large numbers, under the Swachh Bharat Abhiyan, which encourages retention of post-pubescent girls in the school system. Menstrual hygiene is increasingly not a dirty term: movies are getting made on the subject and there is progress, however limited, on releasing this natural aspect of human reproduction from censorship in the public discourse. India’s rise from the 150th nation in mobile data consumption to the first in a span of two years allows women achievers in diverse areas, ranging from sports to entrepreneurship, to become role models for young girls across the country, stirring ambition and aspiration.

The official slogan, Beti Bachao, Beti Padhao (save the girl child, educate her), reflects the social reality of female foeticide, leading to an adverse sex ratio not just in Haryana and Rajasthan but even in progressive Kerala, where the 0-6 sex ratio is unnaturally tilted in favour of boys. Yet, the overall trend is towards closing the gender gap, the struggle for which produced the International Women’s Day.

It might be a good idea to start a convention for all centres of regulation, whether board rooms or government departments, to issue a report card on the progress made in empowering women in the last one year, a We Too movement of positive action.


Date:09-03-18

विशिष्ट योजना जरूरी

संपादकीय

भारतीय मौसम विभाग ने अनुमान जताया है कि इस वर्ष गर्मी जल्दी आएगी और सामान्य की तुलना में इसकी तीव्रता भी अधिक होगी। इन हालात में हमें नकारात्मक असर से बचने के लिए पहले ही बेहतर तैयारी करके रखनी होगी। देश के दक्षिणी हिस्से को छोड़कर अधिकांश इलाकों में तापमान के सामान्य से एक डिग्री सेल्सियस ज्यादा रहने का अनुमान जताया गया है।

इसके अलावा मार्च और मई के बीच लू चलने की घटनाएं भी पहले की तुलना में ज्यादा होने की बात कही गई है। अगर यह अनुमान सही साबित होता है तो यह लगातार तीसरा वर्ष होगा जब हमें भीषण गर्मी का सामना करना पड़ेगा। इससे पहले सन 2014 और 2015 में हमें लगातार सूखे का सामना करना पड़ा था। गर्मी को लेकर मौसम विभाग की सटीक भविष्यवाणी को देखते हुए इसके गलत होने की संभावना भी बहुत कम है। देखा जाए तो तापमान में बढ़ोतरी का सिलसिला शुरू भी हो चुका है। कई क्षेत्रों में तो यह सामान्य से 2.5 डिग्री सेल्सियस तक ज्यादा है। अत्यधिक गर्मी के तमाम असर हो सकते हैं। इसका अर्थव्यवस्था पर बहुत व्यापक असर हो सकता है। इससे फसल के उत्पादन पर बुरा असर हो सकता है, खासतौर पर गेहूं की फसल पर जो कि मार्च में तापमान में समय से पहले हुए इजाफे के चलते काफी संवेदनशील है।गर्मियों का असर पानी के स्रोतों पर भी पड़ेगा क्योंकि कम बारिश के कारण पानी पहले ही काफी कम है। बिजली की मांग बढ़ेगी और जल विद्युत का उत्पादन कम होगा। पशुओं के प्रभावित होने के कारण दूध का उत्पादन कम होगा और मनुष्यों के बीमार पडऩे की आशंका बढ़ेगी। इससे गर्मी के कारण होने वाली बीमारियां बढ़ेंगी और लोगों की मृत्यु भी हो सकती है। अत्यधिक गर्मी पडऩे से श्रम संबंधी उत्पादकता भी प्रभावित होगी।

पानी की कमी गर्मियों के कारण होने वाली सबसे बड़ी चिंताओं में शामिल है। इस वर्ष देश के जलाशयों में जल स्तर पहले ही कम रहा है। एक मार्च तक केंद्रीय जल आयोग की निगरानी वाले देश के 91 प्रमुख जलाशयों में पानी का स्टॉक पिछले साल के स्तर से 11 फीसदी और औसत से 9 फीसदी कम रहा है। इतना ही नहीं सर्दी में होने वाली बारिश का स्तर सामान्य से 64 फीसदी कम रहा जबकि उत्तर पश्चिम के खेती वाले इलाके में यह 67 फीसदी कम रहा।

हालांकि ला नीना प्रभाव के संकेत भी मिल रहे हैं जिसे मॉनसून के लिए अच्छा माना जाता है। इसके बावजूद आईएमडी ने अगले मॉनसून पर इसके किसी प्रभाव का आकलन नहीं किया है, न ही कोई निष्कर्ष दिया है। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि इसके मई के अंत से कमजोर पडऩे की आशंका है जबकि मॉनसून उसके बाद ही आता है। भले ही ला नीना की वजह से अच्छी बारिश हो लेकिन इससे राहत केवल बारिश के मौसम में ही मिलेगी न कि मॉनसून से पहले के मौसम में जबकि उसी समय इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है।

ऐसे में गर्मी से होने वाली समस्याओं से बचने के लिए क्षेत्रवार योजना बनाना जरूरी है। अहमदाबाद ने वर्ष 2010 में गर्मी से निपटने की कार्य योजना बनाई थी जब वहां तापमान 47 डिग्री सेल्सियस होने से करीब 700 लोगों की मौत हो गई थी। इस योजना की मदद से 2015 में ऐसे ही हालात में मौत का आंकड़ा सिमटकर 20 हो गया। अन्य राज्यों को इससे सबक लेते हुए जगह-जगह सार्वजनिक पेयजल और दिन के लिए छांव बनानी चाहिए। स्कूलों का समय बदला जाना चाहिए और जलाशयों से पानी जारी करने का समय बदलना चाहिए ताकि उसका उचित इस्तेमाल हो। श्रमिकों के काम का समय भी बदला जा सकता है। खेतों में ऐसी फसल बोनी चाहिए जो गर्मी बरदाश्त कर सके। जीन संवद्र्घन इसमें मददगार हो सकता है।


Date:09-03-18

विज्ञान विरोधी रवैया महाशक्ति नहीं बना सकता

शशि थरूर विदेश मामलों की संसदीय समिति के चेयरमैन और पूर्व केंद्रीय मंत्री

देश के कनिष्ठ शिक्षा मंत्री सत्यपाल सिंह ने हाल ही में कहा कि डार्विन का मानव विकास के प्राकृतिक चयन का सिद्धांत इस आधार पर ‘अवैज्ञानिक’ है कि ‘हमारे पूर्वजों सहित किसी ने भी यह नहीं कहा अथवा लिखा कि उन्होंने कभी किसी वानर को मानव बनते देखा है।’ यह चौंकाने वाला बयान था और विज्ञान पर मौजूदा सरकार की ओर से किया गया ताज़ा हमला है।भारत के संविधान के अनुसार ‘वैज्ञानिक तेवर, मानवतावाद और जिज्ञासा व सुधार की भावना’ का विकास हर नागरिक का कर्तव्य है और निहितार्थ में यह राज्य की भी जिम्मेदारी है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ‘असहिष्णुता, आस्था, अंधविश्वास, भावनात्मकता, अतार्किकता और निर्भर व अस्वतंत्र व्यक्ति के तेवर’ पैदा करने वाले धर्म के विपरीत वैज्ञानिक तेवर ‘एक स्वतंत्र व्यक्ति के तेवर होते हैं।’

फिर भी भारत के सत्तारूढ़ दल भाजपा के लिए ऐसे विचार अब चलन में नहीं हैं। इसके नेता व समर्थक स्कूली बच्चों को यह पढ़ाना चाहते हैं कि विकासवाद का सिद्धांत जीवन की उत्पत्ति की परिकल्पना भर है, जो धार्मिक कथनों के समतुल्य है। उनका लक्ष्य तो इसे पूरी तरह स्कूल के पाठ्यक्रम से बाहर रखना है। डार्विन ही निशाने पर नहीं हैं। इसके पहले राजस्थान के शिक्षा मंत्री व भाजपा के एक और दिग्गज नेता वासुदेव देवनानी ने दावा किया था कि गाय ही एकमात्र ऐसी प्राणी है, जो ऑक्सीजन लेती है और ऑक्सीजन ही छोड़ती है। गाय की वंदना का भाजपा और इसके समर्थकों को जुनून-सा है, जिन्होंने इसके संरक्षण के नाम पर मानवों पर हमले किए हैं। लेकिन यह तो भाजपा से सहानुभूति रखने वाले कई लोगों के लिए भी दूर की कौड़ी थी। दोनों, सिंह और देवनानी शिक्षित व्यक्ति हैं : सिंह के पास केमिस्ट्री में डिग्री है और देवनानी तो प्रशिक्षित इंजीनियर हैं। फिर भी न तो ज्ञान और न नेतृत्व अज्ञान को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने के लिए पर्याप्त साबित हुआ। राजस्थान हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस महेश चंद्र शर्मा के बारे में भी यही सच है। बताया जाता है कि वे भी साइंस ग्रेजुएट हैं। पिछले साल उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा कि भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर ‘आजीवन ब्रह्मचारी’ रहता है और अपने आंसू से मोरनी को गर्भवती बनाता है। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा मोर पंख के इस्तेमाल को इसके ब्रह्मचर्य का सबूत बताया।

यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी विज्ञान पर हमलों में शामिल हो गए। मोदी को खुद को टेक्नोलॉजी सेवी 21वीं सदी के नेता के रूप में वर्णित किया जाना पसंद है। लेकिन, अक्टूबर 2014 में मुंबई के एक अस्पताल के उद्‌घाटन समारोह में उन्होंने दावा किया कि हाथी के सिर वाले देवता गणेश इस बात का सबूत है कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी का ज्ञान था। फिर उन्होंने प्राचीन महाकाव्य महाभारत के हवाले से कहा कि तब के लोगों को जेनेटिक्स का पता था। जाहिर है मोदी ने यह नहीं सोचा कि छोटे से छोटे हाथी का सिर भी बड़े से बड़े मानव की गर्दन पर नहीं लगाया जा सकता।

विडंबना यह है कि भारत वाकई प्लास्टिक सर्जन का प्रवर्तक था। प्लास्टिक सर्जरी को व्यवहार में लाने वाले पहले ज्ञात व्यक्ति सुश्रुत थे और पुरातत्वविदों को दुनिया के सबसे पुराने सर्जिकल उपकरण (पहली सदी) मिले हैं। प्राचीन अभिलेखों में राइनोप्लास्टी ऑपरेशन के सबूत भी है। इन ऐतिहासिक तथ्यों को हाथी के सिर के प्रत्यारोपण की पौराणिक कथा में आरोपित करना विज्ञान और सम्मान के हकदार उन लोगों के प्रति कृतध्नता है। इसी तरह मोदी ने 2014 में स्कूली बच्चों को बताया कि जलवायु परिवर्तन पर्यावरण की समस्या नहीं है बल्कि समय के साथ बदलने वाले गरमी और ठंड से निपटने की मानव की क्षमता का मामला है। उन्होंने राष्ट्रीय टीवी पर कहा कि ग्लोबल वॉर्मिंग ‘सिर्फ मानसिक अवस्था’ है। सिर्फ भाजपा के हिंदुत्व से प्रोत्साहित राजनेता ही नहीं योग शिक्षक और समलैंगिकता का ‘इलाज’ करने का नुस्खा बेचने वाले आंत्रप्रेन्योर बाबा रामदेव जैसे लोग भी भारत में छद्‌म विज्ञान का प्रचार कर रहे हैं।

इससे धर्म और छद्‌म आध्यात्मिकता को भारत में फायदेमंद बिज़नेस बनाने वाले गुरुओं को और पोषण मिलता है। मसलन, नए युग के ‘सद्‌गुरु’ जग्गी वासुदेव ने 2015 में चंद्रग्रहण के दौरान खाने के खिलाफ चेतावनी दी थी, क्योंकि , ‘पकाए भोजन में चंद्रग्रहण के पहले व बाद में विशेष परिवर्तन होता है और पोषक भोजन विष में बदल जाता है। यदि शरीर में उस समय भोजन होगा तो दो घंटे में आपकी 28 दिनों के बराबर ऊर्जा घट जाएगी।’ कुछ स्तर के आधिकारिक प्रोत्साहन से कई लोग कहते हैं कि जेट हवाई जहाज से लेकर परमाणु हथियारों तक सबकुछ वैदिक काल के दौरान भारत में बनाया जाता था।

अंतर्निहित संदेश यह है कि प्राचीन भारत में सारे जवाब मौजूद थे अौर इस तरह आयातीत आधुनिक विचारों व जीवनशैली की तुलना में परम्परागत और स्वदेशी मान्यता व पद्धतियां बुनियादी रूप से श्रेष्ठ हैं। भाजपा व इससे जुड़े लोग भूतकाल की बुद्धिमत्ता की इसलिए प्रशंसा करते हैं, क्योंकि वे इसे उस आस्था आधारित सांप्रदायिक पहचान को बढ़ावा देने के लिए जरूरी मानते हैं, जो हिंदुत्व प्रोजेक्ट के केंद्र में है। उनके लिए धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय नहीं है बल्कि परम्परागत पहचान की राजनीति का प्रमुख तत्व है। यह सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने, अनुशासन व एकरूपता सुनिश्चित करने और आमूल बदलाव को रोकने का साधन है।इस तरह की प्रवृत्ति के लिए विज्ञान व तार्किकता खतरा है, क्योंकि वे प्रश्न पूछने को बढ़ावा देते हैं और उन परम्परागत दृष्टिकोण के परीक्षण को प्रोत्साहित करते हैं, जिन्हें बढ़ावा देने के प्रति भाजपा इतनी उत्सुक है। यही वजह है कि जब वह धर्मनिरपेक्ष भारत को हिंदू राज्य बनाना चाहती है तो उसे विज्ञान की भूमिका कमजोर करनी ही होगी। भाजपा जिस तरह का प्रतिगामी राज्य बनाना चाहती है वह वैसा बिल्कुल नहीं होगा, जिसने भारत को प्राचीन युग की वैज्ञानिक महाशक्ति बनाया था। इस पर आंसू ही बहाए जा सकते हैं, उम्मीद है कि आस-पास कोई मोरनी न हो।


Date:09-03-18

राष्ट्रव्यापी हो सकता है चंद्रबाबू का अलगाव

संपादकीय

तेलुगु देशम पार्टी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार छोड़कर देश में एक नई किस्म की राजनीतिक बहस और ध्रुवीकरण की संभावना पैदा की है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू ने इसके पीछे का कारण राज्य को विशेष दर्जा न देना बताया है। उनका यह भी कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी उपेक्षा की है और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बयान से उन्हें आहत किया है। अभी स्पष्ट नहीं है कि वे एनडीए भी छोड़ेंगे और सोनिया गांधी उन्हें अपने गठबंधन के लिए आमंत्रित करेंगी या नहीं। चंद्रबाबू के इस कदम से एक बात तो स्पष्ट है कि एनडीए में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और देश में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के अलावा दूसरे भी मुद्‌दे सुलग रहे हैं, जो 2019 के चुनाव में अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी और उनका गठबंधन जिन क्षेत्रीय दलों को साधकर दिल्ली की सत्ता में आया और जिनके बूते पर हाल में पूर्वोत्तर राज्यों में उसने सत्ता के समीकरण को उलट-पुलट दिया है वे क्षेत्रीय दल उसके लिए अगले चुनाव में परेशानी भी खड़ी कर सकते हैं। क्षेत्रीय दलों से एकता का आह्वान करते हुए चंद्रबाबू नायडू ने कहा भी है कि उनके राज्य का विभाजन होने से जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई करने का वादा मोदी सरकार ने नहीं निभाया। वे जिस विशेष दर्जे की मांग कर रहे हैं उसे देने में सरकार यह कह कर पीछे हट रही है कि वह पूर्वोत्तर और तीन पहाड़ी राज्यों के अलावा अन्य को नहीं दिया जा सकता। हालांकि केंद्र आंध्र प्रदेश को उस स्तर का वित्तीय सहयोग देने को तैयार है। विशेष दर्जा मिलने पर राज्य में केंद्रीय योजनाओं का 90 प्रतिशत धन केंद्र से ही मिलेगा, जबकि अभी सिर्फ 60 प्रतिशत मिलता है।

नायडू के इस पैंतरे में विशेष दर्जे के मसले को राष्ट्रीय स्तर तक उठाने की रणनीति भी दिखती है, क्योंकि इससे पहले उड़ीसा और बिहार यह मांग करते रहे हैं। तेलुगु देशम ने यह मुद्‌दा आगामी चुनाव में राज्य की वाईएसआरसीपी, भाजपा और कांग्रेस से अपनी होड़ को देखते हुए भी उठाया है। वह राज्य के हितों के झंडाबरदार बनकर ताकत बढ़ाना चाहती है। भाजपा इस कदम को चुनौती और अवसर दोनों के रूप में भी देख रही है। जहां वह वाईएसआर से गठबंधन का प्रयास कर रही है वहीं अकेले दम पर चुनाव लड़ने का विकल्प भी खुला रखा है। आंध्र के विशेष दर्जे के बहाने यह 2019 की दिल्ली दौड़ है।


Date:08-03-18

Rooftop energy

on boosting solar power

Surveys to map usable rooftops for solar power must be undertaken nationwide

EDITORIAL

Bengaluru’s aerial mission to produce a three dimensional map of rooftop solar power potential using Light Detection and Ranging (LIDAR) data can give this key source of power a big boost. Similar mapping exercises have been carried out in several countries over the past few years to assess how much of a city’s power needs can be met through rooftop solar installations. A survey helps determine usable rooftops, separating them from green spaces, and analyses the quality of the solar resource. With steady urbanisation, solar maps of this kind will help electricity utilities come up with good business cases and investment vehicles and give residents an opportunity to become partners in the effort.

An initiative to rapidly scale up rooftop solar installations is needed if the target of creating 40 GW of capacity connected to the grid by 2022 is to be realised. Rooftop solar power growth has demonstrated an overall positive trend, including in the fourth quarter of 2017 when tenders for 220 MW represented a doubling of the achievement in the previous quarter. But this will need to be scaled up massively to achieve the national target. Going forward, domestic policy has to evaluate the impact of factors such as imposition of safeguard duty and anti-dumping duty on imports, and levy of the goods and services tax on photovoltaic modules. The industry is apprehensive that the shine could diminish for the sector during the current year, unless policy is attuned to the overall objective of augmenting capacity.

Major solar projects that connect to the grid often face the challenge of land acquisition and transmission connectivity. This has led to a delay in planned capacity coming on stream during 2017: nearly 3,600 MW did not get commissioned during the last quarter, out of a scheduled 5,100 MW. What this underscores is the importance of exploiting rooftop solar, which represents only about 11% of the country’s 19,516 MW total installed capacity at the start of 2018. The Centre should come up with incentives, given the enormous investment potential waiting to be tapped and the real estate that can be rented.

The southern States and Rajasthan together host the bulk of national solar infrastructure on a large scale. With some forward-looking policymaking, they can continue to lead by adding rooftop capacity. India, which is a founder-member of the International Solar Alliance launched in Paris during the climate change conference more than two years ago, must strive to be a global leader. Initiatives such as the Bengaluru mapping project can contribute to assessments of both real potential and risk. This is crucial for projects on a large scale involving significant exposure for financial institutions, including banks. With ongoing improvements to solar cell efficiency and battery technology, rooftops will only get more attractive in the future.


Date:08-03-18

तिब्बत की उलझन

भारत और चीन के रिश्तों में तमाम उलझने हैं और कई तरह की परेशानियां भी हैं। इन रिश्तों की सबसे संवेदनशील नस हैं- तिब्बती नेता दलाई लामा। भारत के लिए भी और चीन के लिए भी। यहां तक कि खुद दलाई लामा के लिए भी यह एक बड़ी उलझन का बिंदु है कि जब बात भारत और चीन के रिश्तों की चल रही हो, तो वह अपने आप को कहां और कैसे रखकर देखें? भारत तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है और उसने दलाई लामा व उनके अनुयाइयों को शरणार्थी का दर्जा दे रखा है। ऐसे शरणार्थी, जिन्हें अपने धर्म व संस्कृति के पालन की तो पूरी आजादी है, लेकिन अपनी राजनीति चलाने की नहीं। दूसरी तरफ, दलाई लामा भले ही वक्त जरूरत अपने स्टैंड को बदलते रहे हों, लेकिन वह और उनके अनुयाई इस उम्मीद में ही भारत में अपना वक्त गुजार रहे हैं कि एक दिन तिब्बत चीन के चंगुल से आजाद होगा और वे अपनी आजाद मातृभूमि में लौट सकेंगे। भले ही कुछ लोगों, या शायद पूरी दुनिया को यह सपना भर लगता हो, लेकिन सपने ही कुछ लोगों के जीवन की हकीकत होते हैं। आज हम भले लाख कहें कि चीन ने तिब्बत को हड़प लिया था, पर चीन ने हर तरह से तिब्बत को अपना अभिन्न हिस्सा बना लिया है।

उसकी दिक्कत सिर्फ दलाई लामा और तिब्बत से निर्वासित वे लोग हैं, जो भारत समेत दुनिया भर में सब को उस इतिहास की याद दिलाते रहते हैं। इसलिए चीन दलाई लामा का विरोध जताने का कोई मौका नहीं छोड़ता। जब उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था, तो चीन ने विरोध जताया था, जब वह अरुणाचल प्रदेश जाते हैं, तो चीन विरोध जताता है, जब वह किसी देश में जाकर वहां के नेताओं से मिलते हैं, तो चीन विरोध करना नहीं भूलता। यह बात अलग है कि चीन का यह आरोप किसी को हजम नहीं होता कि दलाई लामा तिब्बत के लोगों को चीन के खिलाफ भड़काते हैं।

दलाई लामा को लेकर चीन की यह संवेदनशीलता भारत और चीन के रिश्तों की सबसे बड़ी बाधा मानी जाती है। इस समय एक संयोग यह बना है कि जब भारत चीन से अपने विवादों को निपटाने की कोशिश कर रहा है, तो उसी समय दलाई लामा और उनके अनुयाइयों के भारत में आगमन के 60 साल पूरे हो रहे हैं। इस मौके पर भारत में रह रहे तिब्बतियों ने कई तरह के आयोजनों की योजना बनाई है। इन्हीं में से एक आयोजन भारत को धन्यवाद देने के लिए इसी महीने होना था। लेकिन भारत सरकार फिलहाल इस मुद्दे से खुद को दूर रखना चाहती है, इसलिए उसकी कुछ कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि अब यह कार्यक्रम दिल्ली की बजाय दलाई लामा के मुख्यालय धर्मशाला में होगा। जाहिर है कि सरकार यह चाहती है कि चीन से रिश्ते सुधारने की कोशिश में उसकी संवेदनशीलता को आहत होने से रोका जाए। ऐसा पहले भी कई बार हुआ है।

यह सच है कि चीन ने तिब्बत में जो किया या तिब्बतियों के साथ जो हुआ, उस पर आंसू बहाए जा सकते हैं। लेकिन राजनय और कूटनीति सिर्फ भावनाओं से नहीं चलते। इतिहास में जो हुआ, उसे हम नहीं बदल सकते, लेकिन उसकी वजह से हमें जो वर्तमान मिला है, उसी से हमें भविष्य का रास्ता निकालना होता है। भारत, चीन व तिब्बतियों के भविष्य का रास्ता पिछले तनावों व घावों को हवा देकर नहीं निकलेगा। भारत सरकार के कदम को हमें इसी नजरिये से देखना होगा।


Date:08-03-18

Nari Shakti in new India

Women are not just participating in the development story, they are leading it.

Written by Meenakshi Lekhi (The writer is a BJP MP.)

“Our dream of New India is an India where women are empowered, strengthened, where they become equal partners in the all-round development of the country.” Prime Minister Narendra Modi said this recently in his Mann Ki Baat. This was not a mere rhetorical flourish but a representation of the aspirations of millions of women in India; women who are not being restricted to participation in India’s development trajectory but are also leading it.

Socio-economic transformation is possible when a woman is financially independent and is empowered to make free choices.Since the launch of the Pradhan Mantri Mudra Yojana (PMMY) in 2015, loans worth Rs 2.1 lakh crore have been sanctioned to women entrepreneurs. With 76 per cent of the beneficiaries being women, Mudra is an emancipator for women who are breaking shackles, establishing enterprises.

Krishna Devi, who is above 60 years of age, lives in Pathankot. She never wanted to be dependent on her children for money and she has restarted her business of selling bedsheets with the help of a Rs 5 lakh Mudra loan. At the other end of the spectrum is Chanderkanta who is younger and belongs to the same town. She has availed a loan of Rs 3 lakh under the Mudra Yojana to expand her business by maintaining a healthy inventory.

With a focus on the empowerment of women and SC/STs through access to formal capital, the Stand-Up India scheme was launched in April 2016. It provides loans ranging from Rs 10 lakh to Rs 1 crore. Of the 38,477 loans extended under the scheme, 81 per cent are to women. Rashmi took a loan of Rs 10 lakh and started supplying vending machines to big markets, malls and picture halls. Later, she expanded the supply to multiple cities.

These women are not just financially independent, but also job creators who employ more women in their communities. Entrepreneurship and financial independence, therefore, provides multiple windows of opportunity for more women to join the workforce, sometimes without changing their cities or even stepping out of homes.

For poor households, access to gainful self-employment and wage employment is a way out of poverty. Under Ajeevika, loans are given to self help groups to help them avail of livelihood opportunities. Loans to SHGs of women increased to about Rs 42,500 crore in 2016-17, 37 per cent more than the previous year.

Without financial inclusion, financial independence is unachievable. Jan Dhan, with more than 16 crore women beneficiaries, has given an unprecedented boost to financial inclusion. Notably, the percentage of zero balance accounts has fallen to 20 per cent of the total accounts opened. This means more women are making use of their accounts.

Out of 1.04 crore people who benefitted from the Skill India programme within the first year of its launch, 40 per cent were women. For women who have never received vocational training, Skill India has been an entry point into the job market and prosperity.To incentivise employment of women in the formal sector, amendments in the Employees Provident Fund and Miscellaneous Provisions Act, 1952 have been proposed in this year’s budget. Women employees’ contribution has been reduced to 8 per cent for the first three years of employment against the existing rate of 12 per cent or 10 per cent.

From bank accounts to businesses, from financial inclusion to financial independence, the Modi government has worked towards empowerment of women. When aspiration meets empowerment, a New India powered by its Nari Shakti takes shape.The impact of giving wings to the aspirations of women was outlined by PM Modi: “When we empower the women in a family, we empower the entire household. When we help with a woman’s education, we ensure that the entire family is educated… When we secure her future, we secure the future of the entire home.