08-12-2018 (Important News Clippings)

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08 Dec 2018
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Date:08-12-18

नाजुक मसलों पर दिखाएं समझदारी

संवेदनशील मसलों पर जब तक दोनों समुदाय वैमनस्य छोड़ स्वयं आगे नहीं आते, सर्वमान्य समाधान मिल पाना मुश्किल है।

एनके सिंह , ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

गोकशी की अफवाह के चलते हिंदू संगठनों की अराजक भीड़ ने बुलंदशहर में एक पुलिस इंस्पेक्टर की जिस तरह हत्या कर दी, उसने कानून एवं व्यवस्था के समक्ष एक गंभीर सवाल खड़ा करने के साथ ही गाय के नाम पर होने वाली हिंसा को भी नए सिरे से सतह पर ला दिया है। बुलंदशहर की घटना में भीड़ में शामिल एक युवक की भी जान गई और कई पुलिसकर्मी जख्मी हुए। ऐसी ही भीड़ ने कुछ अरसा पहले दिल्ली से सटे गौतमबुद्धनगर के बिसाहड़ा गांव में गोहत्या के शक में अखलाक नामक एक शख्स को मार दिया था। इस तरह की घटनाएं देश के अन्य हिस्सों में भी हुई हैं। आखिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और साथ ही देश के अन्य भागों में ऐसी घटनाएं क्यों हो रही हैं? इस सवाल पर विचार करते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अगर गाय या गोवंश कटेगा, तो एक समुदाय जो उसे पवित्र मानता है और आदर की दृष्टि से देखता है, वह भड़केगा। फिलहाल यह ठीक-ठीक कहना कठिन है कि बुलंदशहर में भयावह हिंसा किन कारणों से भड़की और वह किसी साजिश का हिस्सा थी या नहीं, लेकिन सच्चाई जो भी हो, कानून के शासन का इकबाल बनाए रखने के लिए यह नितांत अनिवार्य है कि इंस्पेक्टर की हत्या के दोषी लोगों को जल्द से कठोर सजा देना सुनिश्चित किया जाए।

गाय को अगर समाज का एक वर्ग माता मानता है तो अन्य वर्गों को उनकी भावनाओं का सम्मान करना होगा। ऐसा नहीं होगा तो देश में शांति-सद्भाव का माहौल बनना मुश्किल होगा। इसकी विवेचना की जरूरत है कि आखिर गोवध निषेध होने पर भी गोवंश कटने के मामले सामने क्यों आते रहते हैं? ध्यान रहे कि गोरक्षक इसलिए भी उभर आए हैं, क्योंकि गोवध निषेध होते हुए भी गोवंश काटे जाते हैं और गायों की तस्करी होती है। कायदे से तो गोरक्षकों की जरूरत ही नहीं है, लेकिन अगर वे हैं तो इसीलिए कि गोवंश वहां भी काटे जा रहे हैं, जहां गोवध निषेध है। गौरतलब है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गोवंश काटे जाने के मामले लगातार सामने आ रहे हैं। बुलंदशहर की दिल दहलाने वाली घटना के बाद भी ऐसा ही एक मामला सामने आया है।

हालांकि यह कुतर्क ही लगेगा कि अगर गोकशी रोकने में पुलिस नाकाम है तो यह काम गोरक्षक करना शुरू करें और त्वरित न्याय करते हुए गोहत्या से जुड़े लोगों को जान से मार भी दें। अगर मुद्दे गहरी भावना से जुड़े हैं और दशकों तक सत्ता में बैठे लोग और सरकारी एजेंसियां वोट बैंक के लालच में इस पर उदासीनता दिखाएं तो इससे आहत वर्ग की प्रतिक्रिया बहुत तीखी होती है। इसका पूर्ण निदान तो तब होगा, जब दूध न देने वाली गायों और बूढ़े हो गए उनके वंशजों को चारा-पानी देने की व्यवस्था राजकोष से हो अथवा समाजसेवी संस्थाओं द्वारा और खासकर उन संस्थाओं द्वारा, जिनके लोग भीड़-न्याय में लगे हैं।

वर्ष 1950 में भारत में संविधान को अंगीकार किया गया। इसमें राज्य की भूमिका हर धर्म के प्रति समभाव की है, लेकिन वैमनस्य के जो प्राचीन प्रतीक हैं, उन्हें हटाने में संविधान प्रदत्त ‘प्रत्येक नागरिक को धर्म पालन की स्वतंत्रता आड़े आती है। मान लीजिए कि कोई धर्म पालन उन्हीं प्रतीकों को लेकर है, जो किसी बाबर या किसी औरंगजेब ने पैदा किए, तो क्या उनसे दूरी बनाने की जिम्मेदारी उस धर्म के अनुयायी समूह की नहीं है, जो एक तरफ तो संवैधानिक अधिकारों की दुहाई देता है, लेकिन दूसरी ओर उन प्रतीकों से जुड़ा भी रहना चाहता है, जो संविधान पूर्व सैकड़ों साल पहले के किसी शासक द्वारा किए गए अत्याचार की उत्पत्ति रहे? लिहाजा अगर किसी बाबर ने तलवार के बल पर किसी संप्रदाय के सबसे मकबूल आराध्य देव की जन्मस्थली पर कब्जा किया तो प्रत्येक नागरिक को स्वत: उनके समर्थन में आगे आना चाहिए, जिनके साथ गलत हुआ। अगर यह दलील दी जाए कि सब कुछ संविधान के अनुसार हो, तो फिर उसे उन प्रतीकों को भी नहीं अपनाना चाहिए, जो संविधान पूर्व किसी क्रूर बादशाह की मानसिकता की उपज हैं।

बाबरनामा में बाबर ने खुद को मिली ‘गाजी की पदवी पर खुशी व्यक्त करते हुए लिखा, ‘इस्लाम की खातिर मैं जंगलों में गया, जिहाद के लिए तैयारी की ताकि मूर्तिपूजकों से लड़ा जा सके। अल्लाह का शुक्र है कि मैं गाजी बन गया। जाहिर है कि आज हिंदुस्तान का मुसलमान खुद को इससे नहीं जोड़ना चाहेगा। बाबर के समय संविधान नहीं था। उस वक्त विजयी राजा की मर्जी ही संविधान होती थी। तब शासन तर्क से नहीं, बल्कि तलवार के जोर से चलता था। पूरे बाबरनामा में भारत में किए गए हर युद्ध को वह जिहाद के नाम पर सैनिकों को लामबंद करता था और यहां तक कि लूट में भी उन्हें इसी नाम पर हिस्सा देता था। लेकिन आज के दौर में यह सब स्वीकार्य नहीं हो सकता।

इतिहास गवाह है कि हिंदू गाय के प्रति सदियों से आदर रखते चले आ रहे हैं। कुछ तो उसे माता समान मानते हैं। चूंकि देश में गोरक्षा की परंपरा हजारों साल से चली आ रही है, इसलिए जब भारत का संविधान और उसमें राज्य के नीति निर्देशक तत्व जुड़े तो उनमें कहा गया कि सरकार को गोरक्षा हेतु और गोहत्या रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि वर्ष 1857 में जब बहादुर शाह जफर को दिल्ली के तख्त पर बिठाया गया तो उनका एक अहम फैसला गोहत्या पर प्रतिबंध का था। उस वक्त उसका पालन हुआ, लेकिन अफसोस है कि आज नहीं हो पा रहा है। क्या यह उचित नहीं होगा कि मुस्लिम समुदाय गाय के प्रति हिंदुओं की भावना की वही इज्जत करे, जैसी वह अपने धर्म के प्रतीकों के लिए अपेक्षा रखता है?

जिस पश्चिमी उत्तर प्रदेश या ऐसी अन्य जगहों पर जहां दोनों समुदायों की आबादी लगभग बराबर है, वहां गोहत्या और उससे उपजने वाली तनाव की समस्या ज्यादा उभर रही है। मेरठ, मुजफ्फरनगर, अलीगढ़, बदायूं, बुलंदशहर और मुरादाबाद सरीखे तमाम जिलों समेत देश में तमाम इलाके एक तरह से बारूद के ढेर पर बैठे हैं। संविधान पूर्व की भावना और प्रतीकों से जुड़े मसलों पर जब तक दोनों समुदाय वैमनस्य छोड़कर स्वयं आगे नहीं आते, संविधान या सुप्रीम कोर्ट इन समस्याओं का सर्वमान्य समाधान नहीं ढूंढ पाएगा। अगर मुद्दा एक वर्ग के आराध्य देव बनाम एक पुरानी मस्जिद का है या अगर एक जीव हजार साल से एक वर्ग का पूज्य है, तो दूसरे वर्ग को उसे अहमियत देनी होगी, वरना ऐसी घटनाएं आने वाले दिनों में भी होती रह सकती हैं।

अगर गोवंश चोरी छिपे काटे न जाएं और उनकी तस्करी न हो तो फिर किसी गोरक्षक की जरूरत क्यों पड़े? इस प्रश्न पर विचार करने के साथ ही बुलंदशहर की घटना के संदर्भ में एक अन्य पक्ष पर भी गौर करने की जरूरत है। राज्य और उसकी एजेंसियों की संवैधानिक व्यवस्था में एक निश्चित भूमिका होती है। इसका पालन न होने से अराजकता का उत्पन्न् होना स्वाभाविक है। अगर राज्य की पुलिस धार्मिक आयोजनों में किसी धर्म विशेष के लोगों पर पुष्पवर्षा करेगी, तो जाहिर है ऐसे में उन लोगों का हौसला बढ़ेगा ही और वे अपनी सहूलियत के हिसाब से पुलिस को ही निशाना बना सकते हैं। ऐसे में अगर हिंदू श्रद्धालुओं पर कहीं पुष्प वर्षा हो सकती है तो देश के कोने-कोने से आए लाखों मुसलमान जायरीनों के प्रति भी यही भाव रखना होगा।


Date:07-12-18

गवाह की सुरक्षा

संपादकीय

अदालतों में सुनवाई के बाद बहुत सारे मुकदमों का फैसला इसलिए पलट जाता या फिर उचित निर्णय तक पहुंचना मुश्किल होता है कि उसमें गवाही देने वाले किन्हीं कारणों से अपने पहले के बयानों से मुकर जाते हैं। ऐसे मामलों में एक संवेदशील पक्ष यह होना चाहिए कि इसे केवल गवाहों के झूठ बोलने के आरोप से इतर गवाही देने वाले व्यक्ति के सामने पैदा हालात के मद्देनजर भी देखा जाए। ऐसे तमाम मामले सामने आते रहते हैं, जिनमें किसी अपराधी के खिलाफ गवाही देने के बाद संबंधित व्यक्ति पर जानलेवा हमला किया गया या उसकी हत्या कर दी गई या उसके परिवार को धमकी दी गई। जाहिर है, अगर किसी मुकदमे में गवाह अपने बयान से पीछे हट जाता है तो उसका कारण झूठ बोलने के उलट कुछ कड़वी जमीनी हकीकत भी हो सकती है। किसी भी मुकदमे के फैसले में गवाही की सबसे अहम भूमिका होती है और जब गवाहों का ही जीवन खतरे में हो तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि न्याय प्रक्रिया में किस स्तर की बाधा खड़ी हो सकती है। यही वजह है कि गवाहों की सुरक्षा या उनके संरक्षण के लिए एक ठोस पहलकदमी या कानून बनाने की मांग लंबे समय से होती रही है।

अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की ओर से तैयार गवाह सुरक्षा योजना-2018 के एक मसौदे को मंजूरी दे दी है और संसद द्वारा इस संबंध में कानून बनाए जाने तक सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इसका पालन करने का निर्देश दिया है। इसमें गवाहों और उनके परिजनों को सुरक्षा प्रदान करने का प्रावधान है। अगर इस पर अमल सुनिश्चित होता है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले वक्त में अदालतों में गवाही देने वाले लोग रसूखदार या खतरनाक आरोपियों के खिलाफ बयान देने से भयभीत नहीं होंगे। अदालत का यह निर्देश आसाराम बापू से जुड़े बलात्कार मामले में गवाहों के संरक्षण के लिए जनहित याचिका की सुनवाई के बाद सामने आया है। गौरतलब है कि आसाराम के खिलाफ गवाही देने वाले कई लोगों की हत्या कर दी गई और कई पर जानलेवा हमला किया गया था। इसलिए इस मामले के साथ-साथ समूची न्याय-प्रक्रिया में इंसाफ सुनिश्चित करने के लिहाज से गवाहों की सुरक्षा की दिशा में सरकार की ओर तैयार मसौदे और उसे सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी एक महत्त्वपूर्ण पहल है।

अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, इटली, कनाडा और हांगकांग जैसे कई देशों में गवाहों की सुरक्षा के लिए योजनाएं लागू हैं। हमारे देश में भी गवाहों की सुरक्षा की यह पहलकदमी बहुत पहले होनी चाहिए थी, क्योंकि संरक्षण की व्यवस्था न होने की वजह से न जाने कितने ऐसे मामलों में गवाहों को मार डाला गया, उन्हें या उनके परिजनों को डरा-धमका कर अदालत में दिया गया बयान वापस लेने पर मजबूर किया गया, जिनमें गवाहों के सच पर टिके रहने पर आरोपियों को सख्त सजा हो सकती थी। इसी के मद्देनजर करीब डेढ़ दशक पहले आपराधिक न्याय प्रणाली पर गठित वी. मलिमथ समिति ने अलग से गवाह सुरक्षा कानून बनाने की सिफारिश की थी। इसके अलावा, 2006 में विधि आयोग ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इस मसले पर एक कानून का मसौदा तैयार किया था। फिलहाल भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों में गवाहों की सुरक्षा मुहैया कराने का प्रावधान है। इसके बावजूद हमारे देश में बहुत सारे मामलों में गवाहों की जिंदगी किस कदर जोखिम में होती है, यह किसी से छिपा नहीं है।


Date:07-12-18

Take A Stand

India seems to be shifting its position at WTO, aligning with multinationals

Yoginder K. Alagh [ He is chancellor, Central University of Gujarat.]

On November 21, the price of crude crashed. It recovered slightly, but there was considerable ferment in markets. Energy and finance experts don’t like to be told that energy price rises give a pass for most corporates, but a number of studies have shown that a fall in crude prices is generally not passed on to the consumer. Economists call this the ratchet effect in the sense that there is asymmetry in the impact of falling, as compared to rising prices of something as important as fuel. But while prices may be sticky on this count, India is a crude short economy and these events do reflect on the bottom line.

Two days before the crude price fell, Commerce Minister Suresh Prabhu declared that “Old issues at the WTO cannot be forgotten; new ones to be addressed too” (emphasis added). The honourable minister, with this single declaration at the conference on “Strategic Alliance for WTO and Trade Remedies Law and Practice”, organised by FICCI and Lakshmikumaran & Sridharan, give up on behalf of the Government of India a position that India has fought for decades for its farmers and for food subsidies to its poor. Interestingly, the minister aligned himself and our country with the interest of the corporate sector and its substantial links with multinationals and global financing agencies. He also hit a blow on India’s leadership of the developing countries on this issue. I am not generally prone to strong language, but the occasion demands a stand.

In 2018, India has rapidly modified a position it had held for decades in the agricultural globalisation debates. The 11th Ministerial Conference of the WTO was held at Buenos Aires in Argentina from December 10-13, 2017. PTI reported that the US administration informed the US Congress that India blocked a Ministerial Declaration at that conference taking a firm stand on special and differential treatment. But in March end 2018, Prabhu did give an indication of what was underway, when he reportedly said: “While some of the new issues being raised by others may also be of relevance to India, existing issues such as agriculture are critical livelihood issues which are extremely important for India.” (emphasis added). But now this is official. With this statement, India changed a policy stand taken for more than two decades. To explain the move, it is necessary to go back in time.

In the field in a literal sense, the food security angle is still compelling. WTO’s proposed restrictions on India’s initiatives on food security are also sourced from our own pundits, working as experts with governments. But at a meeting of a corporate trust on social service on November 19, a field report showed that around two-fifths of the women in a tribal area were malnourished and more than two fifths anaemic. So, this WTO issue is not just an “academic one”.

We must protect both food security and farmer support programmes. This would provide the basis for the “no challenge” clause Prabhu was reportedly working on to defend public stock holding in the green box over the 10 per cent subsidy limits, which he is now willing to give lower priority. This is important if India is to escape the trap of the so-called Peace Clause of either four or eight years, giving up eventual abolition of hunger over temporary relief from global grain cartels.

We need to take a stand. When the WTO was set up, Rajiv Gandhi held out until the end with his Brazilian counterpart and changed the discourse. At Doha, Murasoli Maran fought to the end for the livelihood clause despite his poor health. This is terribly important, for in the context of small holder agriculture and malnourishment, models which support agriculture without nuances of size are like the gifts the Greeks brought in wooden horses. A consistent stand is essential for as the DG of WTO — a friend from another developing country — pointed out, they will press for trade facilitation and our bargaining space will become narrower.


Date:07-12-18

Shielding Witnesses

A robust witness protection scheme will strengthen the criminal justice system

EDITORIAL

The witness protection programme is at last in place. Pending legislation by Parliament, the Supreme Court has asked States to implement a scheme framed by the Centre to protect witnesses in criminal trials from threat, intimidation and undue influence. Given the abysmal rate of convictions in the country, it is inexcusable that it took so long. The need to protect witnesses has been emphasised by Law Commission reports and court judgments for years. Witnesses turning hostile is a major reason for most acquittals. In the current system, there is little incentive for witnesses to turn up in court and testify against criminals. Besides threats to their lives, they experience hostility and harassment while attending courts. The tardy judicial process seldom takes into account the distance they have travelled or the time they have lost in attending court, only to be told they have to return another day. As Justice A.K. Sikri points out, the condition of witnesses in the Indian legal system is “pathetic”, as it takes them for granted. It is gratifying that the court has played a proactive role in getting the Centre and the States to come up with a concrete proposal. The Centre deserves credit for coming forward to suggest that its draft witness protection scheme be introduced by judicial mandate instead of waiting for formal legislation.

In its minutiae the scheme appears workable, but its efficacy will be confirmed only with the passage of time. It broadly classifies witnesses in need of protection into three types based on the threat assessment. A witness protection order will be passed by a competent authority. The scheme is to be funded by budgetary support from State governments and donations. This is at variance with the Law Commission’s recommendation in 2006 that the Centre and the States share the cost equally. Basic features such as in camera trial, proximate physical protection and anonymising of testimony and references to witnesses in the records are not difficult to implement. The real test will be the advanced forms of identity protection: giving witnesses a new identity, address and even ‘parentage’, with matching documents. All this needs to be done without undermining their professional and property rights and educational qualifications. The introduction of the scheme marks a leap forward. Until now, there have been ad hoc steps such as those outlined for concealing the identity of witnesses in anti-terrorism and child-centric laws. A few dedicated courtrooms for vulnerable witnesses, mostly child victims, are also functional. However, expanding such facilities and implementing a comprehensive and credible witness protection programme will pose logistical and financial challenges. It will be well worth the effort, as the scheme could help strengthen India’s tottering criminal justice system.