08-08-2024 (Important News Clippings)

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08 Aug 2024
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Date: 08-08-24

Under overlords

Court ruling on aldermen shows Delhi’s vulnerability to Centre’s dominance

Editorial

The Supreme Court of India’s verdict holding that the Lieutenant Governor (L-G) of Delhi exercises independent authority while appointing aldermen to the Delhi Municipal Corporation, underscores the utter vulnerability of the elected Government of the National Capital Territory of Delhi to central overlordship. The judgment by a three-judge Bench rightly relies on the letter of the law governing Centre-Delhi government relations, as well as earlier judgments that sought to strike a balance between the elected regime and the appointed administrator. The final outcome of the latest round of litigation is not surprising, given that Delhi is a Union Territory, but it raises questions about the relevance of having an elected Assembly for Delhi. The Court held that the Lt. Governor’s power to appoint persons with special knowledge in municipal administration is his statutory duty, and is not one that he should exercise on the basis of advice from Delhi’s Council of Ministers. The power is an exception to the constitutional provision that says the L-G is bound by the aid and advice of Delhi’s Council of Ministers on all matters in the State and Concurrent Lists, except for the subjects of public order, police and land. The Court has rejected the Delhi government’s argument that municipal administration, being a State subject, the L-G could not have acted on his own.

Tracing the nature of the appointing power to the Delhi Municipal Corporation Act, 1957, as amended in 1993, a law enacted by Parliament, the Court noted that the Act identifies different authorities, each with distinct roles. While the Administrator was empowered to nominate 10 persons with special knowledge, the Speaker could nominate some legislators to serve on the Corporation by rotation. And that this showed that it was an independent statutory power. A Constitution Bench had sought in 2018 to lay down a framework to avoid escalation of issues arising from differences of opinion between the L-G and the Chief Minister. Such differences, as well as political acrimony between the ruling Bharatiya Janata Party at the Centre and the Aam Aadmi Party in Delhi, have been the principal driving force behind multiple conflicts and legal tussles over governing Delhi. However, in the ultimate analysis, it is the Centre that enjoys the final say. As the latest verdict on aldermen shows, the Constitution allows Parliament power to enact laws in respect of any matter on which the Delhi Assembly has jurisdiction, unlike other States which have an exclusive legislative domain. Parliament can also amend or supersede any law made by the Delhi Assembly. As legislative and executive powers are coextensive, this effectively means that the Delhi government can be undermined in any way the Centre wants.


Date: 08-08-24

विनेश! देश को आप पर फिर भी नाज है

संपादकीय

इतिहास बनाने के मुहाने पर आकर गलतियां कोई नई बात नहीं है। विनेश ने एक ही दिन में तीन अंतरराष्ट्रीय पहलवानों को पटखनी दी। फाइनल में मात्र कुछ ग्राम से वजन सीमा पार करना एक हादसा था। सामान्यतः 53 किलो वजन वर्ग में खेलने वाली विनेश ने वजन कम कर 50 किलो वर्ग में खेलना शुरू किया। शरीर की आदत होती है, असामान्य स्थितियों में अपने मूल स्वरूप को ‘रीगेन’ करना । कितना दबाव होगा… 8-10 घंटे के अंतराल में तीनों बाउट्स और वह भी कुश्ती जैसे श्रम-साध्य खेल में लगातार जीतना और फिर अगले दिन फाइनल! हर्षातिरेक भी कैलोरी इंटेक में उत्प्रेरक का काम करता है। यह भी संभव है कि डायटीशियन का आकलन गलत हो हालांकि विनेश ने रात भर कसरत की। हां, जिन बातों पर इस खेल के नियम बनाने वाली संस्था को ध्यान देना होगा वे हैं- क्या एक दिन में कुश्ती जैसे व्यक्तिगत द्वंद्व में तीन अंतरराष्ट्रीय मैच का नियम सही है; क्या सेमी-फाइनल व फाइनल के बीच कम से कम दो दिन का गैप नहीं होना चाहिए जैसे अन्य खेलों में होता है? ताकि ऐसे छोटे वजन परिवर्तन को खिलाड़ी दुरुस्त कर ले और एक खिलाड़ी अगर बाकी मुकाबलों में वजन वर्ग के पैमाने पर सही है तो उसे उन मैचों में जीत का मैडल नहीं मिलना चाहिए? विनेश, देश को आप पर नाज है।


Date: 08-08-24

आरक्षण में महादलितों को उनका हिस्सा देने की पहल

योगेंद्र यादव, ( संयोजक भारत जोड़ो अभियान )

दृष्टिकोण बहुत गहरा शब्द है। चूंकि यह हमें याद दिलाता है कि हमारी दृष्टि हमेशा किसी कोण में टिकी है। हम दुनिया में जो कुछ देखते हैं, किसी कोने में बैठकर, दुबककर या सिमटकर देखते हैं। अक्सर यह कोना हम चुनते नहीं हैं। अमूमन हमारे जन्म का संयोग हमें किसी कोने में बैठा देता है। बाकी जीवन हम उसी कोण से जो कुछ दिखता है, उसे अपना मत, अपनी विचारधारा या अपने दर्शन की तरह पेश करते रहते हैं।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी के लिए आरक्षण में अंदरूनी विभाजन को वैध करार देने के फैसले से उपजी बहस ने दृष्टिकोण के खेल की याद दिलाई है। मुझे याद है जब मैं कॉलेज-यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, लोहिया के समाजवाद में दीक्षा ले रहा था और दलित-आदिवासी आरक्षण का समर्थक था, तब तक मंडल कमीशन लागू नहीं हुआ था और मेरे स्वजातीय लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता था।

उन दिनों अपनी रिश्तेदारी व जान-पहचान के लोगों में आरक्षण की आलोचना सुनने को मिलती थी, उनसे बहस हो जाती थी। लेकिन मंडल कमीशन लागू होते ही आरक्षण के बारे में उनकी दृष्टि बदलने लगी। अब वे सामाजिक न्याय की बात करने लगे।

कभी-कभार फुले-आम्बेडकर का जिक्र भी आने लगा। अब शहरी और अपेक्षाकृत सम्पन्न यादव समाज के लोगों में मैं ‘क्रीमी लेयर’ का विरोध सुनता हूं तो सोचता हूं क्या उनकी दृष्टि का उस कोण से संबंध है, जहां जीवन उन्हें ले आया है?

आरक्षण में वर्गीकरण के मामले में दृष्टि के तीन अलग कोण हैं। पहला कोना तमाशबीनों का है। ‘ये उन लोगों का मामला है, मेरा इससे क्या लेना-देना?’ या फिर, ‘अब मजा आएगा, जब इनमें आपस में सर-फुटौव्वल होगी!’ या फिर ‘बहुत बनते थे ना सामाजिक न्याय के झंडाबरदार! अब मजा चखो, जब तुम्हारे ही लोग तुम से न्याय मांगेंगे।

यानी मियां की जूती मियां के सर!’ इस मुद्दे पर मीडिया की दृष्टि में अकसर यही कोण दिखाई देता है। या तो अज्ञान है या उदासीनता या दोनों ही। मानो मैतेई-कुकी विवाद पर चर्चा हो रही हो या यूक्रेन-रूस युद्ध पर। यह एक औपनिवेशिक दृष्टि है, जैसे मलिक अपने गुलामों के झगड़े को देखता है।

दूसरी दृष्टि दलित समाज के उस हिस्से की है, जिसे अब अगड़ा बताया जा रहा है और जिसे इस फैसले का पीड़ित बनाया जा रहा है। जाति-व्यवस्था और छुआछूत के दंश के शिकार इस दलित समाज का एक छोटा-सा तबका किसी तरह आरक्षण के सहारे खड़ा हुआ है।

आरक्षण के उसके अपने हिस्से में बंटवारे की बात सुनकर वह चिंतित है। उसकी चिंता बनी रहे, इसका इंतजाम करने के लिए नेता तैयार खड़े हैं। कोई उन्हें यह नहीं बता रहा कि आप का कोटा छीना नहीं जा रहा है, आपकी आबादी के अनुरूप ही आपका हिस्सा बना रहेगा।

जिन्हें अलग से टुकड़ा दिया जा रहा है, वो भी आपके ही लोग है, जाति-व्यवस्था के शिकार हैं, आपसे भी निचली पायदान पर खड़े हैं। कुछ सच्ची, कुछ झूठी चिंता को उछालकर यह प्रचार हो रहा है कि आरक्षण को खत्म करने की तैयारी है।

तीसरी दृष्टि उनकी है, जिनके लिए यह फैसला सुनाया गया था। दलितों के दलित या ‘महादलित’- यह वो समुदाय हैं, जो जाति-व्यवस्था की सबसे निचली पायदान पर खड़े हैं। इन्हें वाल्मीकि, मजहबी, मांग, मुसहर, भुइयां, डोम, पासी, मादिगा, अरुन्धतियार, चकलियार जैसे नामों से या इनके नामों से जुड़े आक्षेपों से पुकारा जाता है।

अपने मन-मैल को ढंकने के लिए इस स्वच्छकार समाज को बाकी लोग तिरस्कारते रहे हैं। पिछले 75 साल में यह महादलित समाज आरक्षण का फायदा उठाने की स्थिति में ही नहीं रहा है। आरक्षण में वर्गीकरण का फैसला इस महादलित समुदाय को उसका हिस्सा देने की देरी से हुई एक छोटी-सी पहल है। लेकिन इस मुद्दे पर चल रही राष्ट्रीय बहस में उनकी आवाज गुम है। इस समाज के पास ना तो राष्ट्रीय नेता हैं, न अपने बुद्धिजीवी या प्रवक्ता, ना ही बड़े चेहरे। उनका दृष्टिकोण छिप जाता है।

मुझे पिछले 20 सालों से इस उपेक्षित कोने में घुसने और उसके दृष्टिकोण को समझने का अवसर मिला है। आदि धर्म समाज नामक अभियान के मुखिया दर्शन रत्न ‘रावण’ के सत्संग में मैंने उत्तर भारत के वाल्मीकि समाज की व्यथा-कथा सुनी है, इनके संघर्ष का साक्षी रहा हूं, उनकी नई पीढ़ी के सपनों की उड़ान का भागीदार भी।

इसलिए जब अदालत का फैसला आया तो मैंने अपनी दृष्टि को इस कोण से जोड़ दिया। यह जरूरी नहीं कि हमारा दृष्टिकोण हमारे जन्म के संयोग से बंधा हो। इसलिए इस सवाल पर बहस करने वाले सभी लोगों से मेरा सवाल है : आपका दृष्टिकोण क्या है?

स्वच्छकार समाज को बाकी लोग तिरस्कारते रहे हैं। पिछले 75 साल में यह महादलित समाज आरक्षण का फायदा उठाने की स्थिति में ही नहीं रहा। इसके पास ना तो राष्ट्रीय नेता हैं, न अपने बुद्धिजीवी या प्रवक्ता, ना ही बड़े चेहरे।


Date: 08-08-24

अस्थिर पड़ोसियों से घिरता भारत

ऋषि गुप्ता, ( लेखक एशिया सोसायटी पालिसी इंस्टीट्यूट, दिल्ली में सहायक निदेशक हैं )

बांग्लादेश में हुए तख्तापलट के मुद्दे पर भारतीय संसद के दोनों सदनों में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अपने वक्तव्य में कहा कि पांच अगस्त को प्रधानमंत्री शेख हसीना ने सुरक्षा प्रतिष्ठानों के साथ बैठक के बाद स्पष्ट रूप से इस्तीफा देने का फैसला किया और ‘कुछ समय के लिए’ उन्होंने भारत आने के लिए मंजूरी मांगी। पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना अब भारत में हैं और माना जा रहा है कि वह किसी तीसरे देश में शरण मिलने तक यहीं रहेंगी। यदि इस हालात को भारतीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह एक असाधारण स्थिति है, जहां भारत को कुछ कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे, जिसमें पड़ोसी प्रथम नीति के तहत मदद भी करनी है।

बांग्लादेश में फंसे हजारों भारतीयों की सुरक्षा के साथ इस बात को भी सुनिश्चित करना है कि कोई अनधिकृत रूप से सीमा पार कर भारत में प्रवेश न कर सके। इस पूरे घटनाक्रम से देश के लिए एक अभूतपूर्व सुरक्षा स्थिति पैदा हो गई है। भारत के समक्ष 1971 वाली स्थिति फिर एक बार बन पड़ी है। बांग्लादेश में रह रहे तमाम अल्पसंख्यक समूह खासकर बड़ी संख्या में हिंदू भारत में शरणार्थी के तौर पर आने की गुहार लगा सकते हैं। इससे बांग्लादेश की सीमा से सटे बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में चिंताजनक हालात पैदा हो सकते हैं।

अगर बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में कट्टरपंथियों का दबदबा बढ़ता है, जिसकी भरी-पूरी आशंका है तो भारत की चुनौतियां और अधिक बढ़ जाएंगी, क्योंकि इनमें से कुछ गुटों को पाकिस्तान का समर्थन मिलता रहा है। इसके चलते ये लगातार भारत विरोधी गतिविधियां चलाते रहे हैं। पाकिस्तान आज तक भारत को अपने विभाजन यानी बांग्लादेश के निर्माण का कारण मानता रहा है और वह कोशिश करेगा कि बांग्लादेश के इस्लामिक कट्टरपंथी गुटों के साथ मिलकर भारत के खिलाफ आतंकी और असामाजिक तत्वों को सक्रिय किया जाए। बांग्लादेश में अराजकता के बीच दक्षिण एशिया में अस्थिरता और बढ़ गई है, जो भारत के हित में बिल्कुल नहीं है।

भारत की सुरक्षा के लिए चौतरफा चुनौतियां बढ़ रही हैं। बीते दिनों ही नेपाल में चीन समर्थक सरकार बनी है, जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली कर रहे हैं। ओली को ‘इंडिया आउट’ अभियान का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है और हाल के वर्षों में उन्होंने अपनी राजनीतिक साख मजबूत करने के लिए भारत के साथ सीमा विवाद का मुद्दा शांत नहीं होने दिया है। चूंकि ओली की ‘राष्ट्रवादी छवि’ भारत विरोध से बनी है, लिहाजा भारत के लिए जरूरी है कि वह स्थिति पर नजर रखे। यदि नेपाली जनता पुरानी पार्टियों और पुराने नेताओं की कार्यशैली से ऊबती है तो 2006 जैसा जन आंदोलन छिड़ना कोई बड़ी बात नहीं होगी। इसका सीधा असर खुली सीमा के चलते भारत पर होगा। नेपाल के बगल में ही भूटान है, जो पूरी तरह से भारत की सुरक्षा चिंताओं को लेकर फिक्रमंद है और एक मित्रतापूर्ण सहयोगी रहा है। हालांकि हाल के वर्षों में चीन ने वहां भी अपनी पैठ बनाने में कसर नहीं छोड़ी है। इसके बावजूद भारत के लिहाज से भूटान में स्थिति नियंत्रण में है।

पूर्वी पड़ोसी देश म्यांमार में भी दबावपूर्ण और अनिश्चित राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिल रहा है। यहां विभिन्न विद्रोही समूह सैन्य शासन को कमजोर करने में सफल हो गए हैं। यहां अशांति और राजनीतिक अस्थिरता का सिलसिला कायम है, जिसके चलते भारत की सुरक्षा एजेंसिया भारत-म्यांमार सीमा पर नजर बनाए हुए हैं। यदि बांग्लादेश और म्यांमार की तानाशाही ताकतें चीन या पाकिस्तान जैसे देशों के प्रभाव में आकर भारत को हानि पहुंचाने की कोशिश में साथ आती हैं तो भारत के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी। नई दिल्ली के लिए यह जरूरी है कि वह अपनी लुक-ईस्ट और एक्ट-ईस्ट नीति में सुरक्षा पहलुओं को भी शामिल करे।

म्यांमार में आर्थिक एवं राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बनी हुई है। यह सही है कि श्रीलंका धीरे-धीरे भारत और आइएमएफ की मदद से आर्थिक मुसीबतों से बाहर आ रहा है, लेकिन अभी भी वहां भारत विरोधी तत्व सक्रिय हैं। मालदीव भी इस मामले में अलग नहीं, जहां राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू लगातार भारत विरोध में लगे हुए हैं। उन्होंने भी ओली की तरह ‘इंडिया आउट’ अभियान चलाया, फिर वह चाहे भारतीय सैन्य अधिकारियों का मालदीव से भारत वापस भेजने का मुद्दा रहा हो या फिर उनकी सरकार के मंत्रियों का भारत और भारत के प्रतिष्ठित नेताओं के खिलाफ टीका-टिप्पणी का मामला।

पश्चिमी सीमा क्षेत्र में पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सुरक्षा हालात पहले से ही भारत के लिए मुसीबत बने हुए हैं। हाल में जम्मू में हुए आतंकी हमलों ने भारत की चिंता बढ़ाने का काम किया है। यदि पड़ोसी देशों की राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों को देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत इन सभी देशों की सीमाओं के जुड़े होने के कारण एक प्रतिकूल स्थिति का सामना कर रहा है, जो आने वाले दिनों में सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती हैं। दक्षिण एशिया में बड़े लंबे समय से भारत की केंद्रीयता को सभी समस्याओं की जड़ माना जाता रहा है और भारत पर लगभग सभी पड़ोसी देश हस्तक्षेप का आरोप भी लगाते आए हैं, लेकिन क्या अब यही देश अपनी आंतरिक हलचल के चलते भारत के सामने मौजूद सुरक्षा संकट पर नई दिल्ली के साथ खड़े होंगे? इसका जवाब संभवत: नकारात्मक ही मिले। दक्षिण एशिया में जैसी असामान्य परिस्थितियां निर्मित हो रही हैं, उनका सामना करने के लिए भारत को असाधारण प्रयास करने की आवश्यकता है।

भारत को हर कीमत पर अपने सुरक्षा ढांचे को मजबूत करने की आवश्यकता है और पड़ोसी देशों में सिविल सोसायटी समूहों के साथ मिलकर शांति बहाली के प्रयासों पर ध्यान देना होगा। इसके साथ ही दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों और क्षेत्र में मौजूद समान विचारधारा वाली शक्तियों जैसे अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के लिए भी जरूरी है कि वे भारत की चिंताओं को समझें और अपने स्तर पर पाकिस्तान और चीन पर दबाव डालें, ताकि ये दोनों देश दक्षिण एशिया की अस्थिरता का फायदा उठाकर भारत को परेशान करने के लिए नई तिकड़में न कर सकें।


Date: 08-08-24

युवाओं में कौशल विकास की चुनौती

डा. सुरजीत सिंह, ( लेखक अर्थशास्त्री हैं )

बजट पेश होने के बाद उसके प्रस्तावों पर अमल की दिशा में प्रयास भी शुरू हो गए हैं। इस कड़ी में सभी की निगाहें रोजगार सृजन की उन महत्वाकांक्षी योजनाओं पर टिकी हैं, जिन्हें हालिया बजट का सबसे विशिष्ट पहलू माना जा रहा है। कौशल, नवाचार और रोजगार पर विशेष ध्यान देते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में विशेष प्राविधान किए हैं। इसमें इंटर्नशिप योजना को खासी चर्चा भी मिली है। इससे न केवल रोजगार के आकांक्षियों के हितों की पूर्ति होगी, बल्कि उद्योगों को भी अपने अनुकूल कौशल से लैस लोग मिलेंगे। इससे न सिर्फ भारत की वैश्विक आपूर्ति शृंखला मजबूत होगी, बल्कि निवेश संभावनाएं भी बढ़ेंगी।

इससे सरकार की यह मंशा भी प्रकट हुई है कि अगले पांच वर्षों में वह रोजगार, कौशल और एमएसएमई पर अपना ध्यान केंद्रित करेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था की संभावनाओं को भुनाने की राह में कार्यशील आबादी में महिलाओं की अपेक्षित भागीदारी न होने का संज्ञान भी सरकार ने लिया है। इसके लिए कामकाजी आबादी में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए कार्यस्थल के निकट महिला हास्टलों और शिशु देखभाल गृहों की स्थापना की जाएगी। इसके साथ ही महिला श्रमिकों के कौशल को बढ़ाने के लिए विशिष्ट कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर भी फोकस किया जाएगा।

आर्थिक सर्वेक्षण में भी उल्लेख है कि देश में बढ़ते कार्यबल के समायोजन के लिए गैर-कृषि क्षेत्र में 2030 तक सालाना औसतन 78.5 लाख नौकरियां सृजित करनी होंगी। इसीलिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में युवाओं को सशक्त बनाने के लिए बहुआयामी रणनीति बनाई। बजट में युवाओं और रोजगार पर ध्यान केंद्रित करते हुए शिक्षा, रोजगार और कौशल विकास के लिए 1.48 लाख करोड़ रुपये आवंटित हुए हैं। कुल मिलाकर, पांच साल की अवधि में 2 लाख करोड़ रुपये के केंद्रीय परिव्यय के साथ 4.1 करोड़ युवाओं को शिक्षित, कौशल और रोजगार प्रदान करने के लिए कई योजनाएं बनाई हैं। विनिर्माण क्षेत्र में भी अतिरिक्त रोजगार सृजन के लिए बजट में प्रविधान है कि पहली बार रोजगार पाने वाले युवाओं को शुरुआती चार वर्षो में ईपीएफओ में योगदान के लिए नियोक्ता और कर्मचारी दोनों को प्रोत्साहन दिया जाएगा।

इससे 30 लाख युवाओं को लाभ पहुंचने की संभावना है। नियोक्ताओं को सहायता देते हुए यह उपाय भी किया गया है कि सभी क्षेत्रों में प्रत्येक अतिरिक्त रोजगार के संबंध में नियोक्ता के ईपीएफओ में अंशदान के लिए उन्हें दो वर्षो तक प्रति माह 3,000 रुपये तक की प्रतिपूर्ति की जाएगी। इस योजना का उद्देश्य 50 लाख अतिरिक्त लोगों को रोजगार के लिए प्रोत्साहित करना है। वित्त मंत्री की यह पहल औपचारिक रोजगार सृजन की दिशा में स्वागतयोग्य कदम है, जिससे सैद्धांतिक शिक्षा और व्यावहारिकता के बीच की खाई पाटने में मदद मिलेगी। इससे अधिक स्नातकों को नौकरी के व्यापक अवसर उपलब्ध होगें।

भारत में रोजगार की नहीं, बल्कि कुशल श्रमिकों की कमी है। बढ़ती श्रमशक्ति और कुशल श्रमिकों की मांग एवं आपूर्ति में संतुलन की दृष्टि से पांच वर्षों में देश की 500 दिग्गज कंपनियों द्वारा एक करोड़ युवाओं को इंटर्नशिप प्रदान करना एक बाजी पलटने वाली योजना सिद्ध हो सकती है, लेकिन तभी जब कंपनियां इस योजना में रुचि दिखाएं। इस योजना में 5,000 रुपये के मासिक भत्ते और 6,000 रुपये की एकमुश्त सहायता आकर्षक पहलू हैं। इसके माध्यम से सरकार का उद्देश्य पांच वर्षों में 20 लाख लोगों को कौशल प्रदान करना है। घरेलू संस्थानों में उच्च शिक्षा के लिए 10 लाख रुपये तक के शिक्षा ऋण प्रदान करने के साथ ही हर साल एक लाख छात्रों को सीधे ऋण राशि के तीन प्रतिशत ब्याज में छूट भी मिलेगी। कौशल विकास पर विशेष ध्यान देने के लिए 1000 आइटीआइ को और अधिक सक्षम एवं सशक्त बनाया जाएगा। उद्योगों की कौशल संबंधी आवश्यकताओं के अनुरूप ही विशेष पाठ्यक्रम तैयार किया जाएगा, जिससे नई उभरती हुई जरूरतों के साथ सामंजस्य स्थापित किया जा सके।

रोजगार सृजन के लिहाज से महत्वपूर्ण एमएसएमई और विनिर्माण क्षेत्र में श्रम प्रधान तकनीक भी सरकार की प्राथमिकता सूची में शामिल है। एमएसएमई क्षेत्र को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने एवं उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार के लिए ऋण गारंटी योजना प्रारंभ करने के साथ-साथ इस क्षेत्र के डिजिटलीकरण पर जोर देने से इस क्षेत्र को संजीवनी मिलने के आसार हैं। प्रत्येक वर्ष 25,000 कुशल व्यक्तियों को 7.5 लाख रुपये तक का गारंटीकृत ऋण प्रदान करना निश्चित रूप से ग्रामीण उद्यमिता को बढ़ावा देगा। मुद्रा ऋण सीमा को 10 लाख से बढ़ाकर 20 लाख रुपये किए जाने से इस क्षेत्र की तेजी से वृद्धि होने की संभावना है। एमएसएमई क्षेत्र में 50 मल्टी प्रोडक्ट्स फूड इकाइयां स्थापित करने के लिए वित्तीय सहायता भी सराहनीय है।

पारंपरिक कारीगरों को अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अपने उत्पादों को बेचने में सक्षम बनाने के लिए निजी क्षेत्र के सहयोग से ई-कामर्स निर्यात केंद्र स्थापित किए जाएंगे। सरकार की गंभीरता इससे भी स्पष्ट होती है कि रोजगार और कौशल विभाग का नाम भी बदलकर कौशल, रोजगार और आजीविका कर दिया है। बजट में एक लाख करोड़ रुपये से अनुसंधान और नवाचार को प्रोत्साहन से आर्थिक विकास के लिए अनुकूल माहौल को बढ़ावा मिलेगा। हालांकि, केंद्र के स्तर पर तमाम पहल तभी सफल हो पाएंगी, जब राज्य सरकारें भी अपने स्तर पर इस दिशा में अपेक्षित प्रयास करेंगी। इन कार्यक्रमों को यदि गंभीरता से लागू किया जाता है तो भारत को एक अग्रणी स्टार्टअप राष्ट्र के रूप में स्थापित किया जा सकता है। ऐसा किया जाना समय की मांग भी है।


Date: 08-08-24

पड़ोसियों के संकट

संपादकीय

बांग्लादेश के राष्ट्रपति मोहम्मद शहाबुद्दीन ने शेख हसीना के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने और देश छोड़ने के बाद संसद भंग कर दी है। सेना प्रमुख जनरल वकार ने कहा कि जल्द ही अंतरिम सरकार का गठन किया जाएगा। हसीना अपनी बहन के साथ अस्थायी शरण के लिए भारत में हैं। परंतु उनकी लंदन जाने की योजना अटक गई प्रतीत हो रही है। ब्रिटेन सरकार ने संकेत दिए हैं कि उनके देश में चल रहे हिंसक प्रदर्शनों के कारण कानूनी सुरक्षा मिलने में अड़चनें आ सकती हैं। दूसरा, अभी यह भी बताया जा रहा है कि शेख हसीना अस्वस्थ हैं, और इस सूरत में यात्रा करने में परेशानी का सामना कर सकती हैं। इसलिए उनका भारत में कुछ रोज और रुकना हो सकता है। हसीना के परिवार के कुछ सदस्य फिनलैंड में भी हैं। उनकी बहन की बेटी ब्रिटिश संसद की सदस्य हैं। भारत सरकार मामले पर पैनी नजर रखे हुए है। वहां मौजूद भारतीयों और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर भी सतर्क है। भारत और बांग्लादेश के दरम्यान त्रेपन सालों से द्विपक्षीय संबंध हैं परंतु हसीना का सत्ता में न रह पाना मुश्किलें पैदा कर सकता है। लंबे समय से जेल में बन्द बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की प्रमुख खालिदा जिया को रिहा कर दिया गया है। खालिदा का झुकाव हमेशा इस्लामिक कट्टरपंथियों की तरफ रहा है जिसका लाभ उठाने में चीन और पाकिस्तान चूकने वाले नहीं। चूंकि भारत-बांग्लादेश के दरम्यान हजारों किलोमीटर की सीमा है। लिहाजा, शांति योजनाओं को झटका लगने का अंदेशा खासा बढ़ गया है। इस सारे संकट में विदेशी सरकारों का हाथ होने से भी इंकार नहीं किया जा रहा है जिसकी बुनियाद को समझना बेहद जरूरी है। वहां नये चुनाव होंगे, शेख हसीना को उसमें शामिल किया जाएगा या सत्ता को सेना अपने हाथ में ही रखेगी, यह कुछ अभी स्पष्ट नहीं है। हालांकि वहां सैन्य शासन नई बात नहीं है। मगर इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को खासी ठेस पहुंचती है। हसीना को भारत सरकार पहले भी राजनीतिक शरण दे चुकी है। इसलिए हम उनकी आंख की किरकिरी बने हुए हैं। इस मुस्लिम देश में यदि अधिक वक्त तक अस्थिरता रहती है तो यह भारत के लिए भी अच्छा नहीं है क्योंकि कट्टरपंथियों, आतंकवादी संगठनों के हौंसले बढ़ेंगे और कानून- व्यवस्था ढुलमुला सकती है जो शेख हसीना के राज में बांग्लादेश की संभली अर्थव्यवस्था के अनुकूल तो कतई नहीं कही जा सकती। पड़ोसी देशों में होने वाली राजनीतिक अस्थिरता हमारे लिए संकट का सबब हो सकती है।


Date: 08-08-24

व्यापार पर असर

संपादकीय

पड़ोसी देश बांग्लादेश में फैली व्यापक अशांति और अस्थिरता की वजह से पश्चिम बंगाल के रास्ते होने वाला सीमापार व्यापार मंगलवार को पूरी तरह ठप हो गया। देश में हालात इस कदर बिगड़ गए हैं कि प्रधानमंत्री शेख हसीना को सोमवार को इस्तीफा देकर देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। कारोबारी स्थितियों की बेहतरी के लिए माना जाता है कि हालात सहज और शांतिपूर्ण होने चाहिए। और बांग्लादेश यह शर्त अब बाकी रह नहीं गई है, इसलिए बांग्लादेश में कारोबार चौपट हुआ जा रहा है। पश्चिम बंगाल निर्यातक समन्वय समिति के सचिव उज्ज्वल साहा के मुताबिक, राज्य में भूमि बंदरगाहों के माध्यम से व्यापार बांग्लादेश के सीमा शुल्क विभाग द्वारा माल की निकासी नहीं होने से रुका हुआ है। इसकी वजह से सैकड़ों ट्रक पार्किंग स्थल पर खड़े हैं। पश्चिम बंगाल में पेट्रापोल, गोजाडांगा, महादीपुर और फुलवारी में स्थित भूमि बंदरगाहों के जरिए होने वाला भारत-बांग्लादेश व्यापार प्रभावित हुआ है।

बांग्लादेश की तरफ की सीमा शुल्क चौकी पर काम ठन होने से भारत और बांग्लादेश के बीच भूमि बंदरगाहों पर व्यापार ठप हो गया है। बांग्लादेश भारत का 25वां सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार देश है। दोनों देशों के बीच 12.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापार होता है। इसलिए चिंता इस बात की जताई जा रही है कि दोनों देशों के व्यापार पर बांग्लादेश के हालात का प्रतिकूल असर पड़ सकता है। चिंता इसलिए भी है कि भारत एशिया में बांग्लादेश का सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य देश है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में उसने भारत को 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निर्यात किया था। हालांकि एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स के मुताबिक, बांग्लादेश की उथल-पुथल का दोनों देशों के व्यापार कोई ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। अलबत्ता, उसका यह भी कहना है कि भारतीय निर्यात को बांग्लादेश में घरेलू मांग में कमी का सामना करना पड़ सकता है। बांग्लादेश में अंतरिम सरकार गठित होते ही संभवतः दोनों देशों के बीच व्यापार पटरी पर लौटे। भारत बांग्लादेश से मछली, प्लास्टिक, चर्म उत्पाद, परिधान आदि का आयात करता है, जबकि बांग्लादेश को सब्जियों, काफी, चाय, मसालों, चीनी, कन्फैक्शनरी, परिशोधित पेट्रोलियम उत्पादों, रसायन, कपास, लोहे और स्टील तथा वाहनों आदि का निर्यात करता है। स्थिति दो-एक दिन में साफ हो जाएगी।


Date: 08-08-24

दक्षिण एशिया में भारत अकेली उम्मीद

बद्री नारायण, ( निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान )

बांग्लादेश भयानक उथल-पुथल से गुजर रहा है। वहां जनतंत्र इस्लामिक कट्टरवाद, पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद, सैन्य तानाशाही की आकांक्षा के प्रसार जैसे अनेक संकटों से जूझकर आगे बढ़ रहा था। बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा बंग बंधु शेख मुजिबुर्रहमान की पुत्री शेख हसीना अनेक मोर्चों पर जूझते हुए भी देश को विकास के रास्ते पर ले जाने के प्रयास में लगी थीं। अफसोस, विगत महीनों में यह प्रयास बाधित हो गया और ऐसी आंतरिक उथल-पुथल मची कि शेख हसीना को इस्तीफा देकर देश छोड़ना पड़ा। अब वहां फिर सेना की ताकत बढ़ गई है।

यह कहने में हर्ज नहीं कि बांग्लादेश के राष्ट्र इन द मेकिंग की प्रक्रिया को इससे गहरा धक्का लगा है। वहां मची हिंसा ने सामाजिक, जनतांत्रिक एवं राष्ट्रीय तंतुओं को छिन्न-भिन्न कर दिया है। न केवल बांग्लादेश, वरन आज पूरी दुनिया में अनेक तरह के पूर्वाग्रह, विघटनकारी धार्मिक या नस्लीय भाव एवं सैन्य प्रेरित आतंककवाद सिर उठाने लगे हैं। अनेक मुल्कों में आक्रामक भू-राजनीति, विघटन एवं विभाजन केंद्रित हिंसा को पड़ोसी मुल्कों से भी हवा दी जा रही है। इस नकारात्मक कार्य में अनेक महाशक्तियां और उनसे प्रभावित समर्थक देशों की भी बड़ी भूमिका है। ऐसी ही कुचेष्टाओं ने दक्षिण एशिया के अनेक मुल्कों जैसे – पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार इत्यादि में जनतंत्र को संकटग्रस्त कर दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिकता ने जो सबसे मूल्यवान नीधि दुनिया को सौंपी थी, वह थी जनतांत्रिक व्यवस्था एवं जनतंत्र को पाने की चाह। वही बहुमूल्य नीधि आज के संदर्भ में संकटग्रस्त दिखने लगी है। इसके ज्वलंत उदाहरण हम बांग्लादेश में देख रहे है। यह हमारी सरकारों और समाज के लिए गहरे विचार का विषय होना चाहिए।

यहां प्रश्न यह उठता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे अनेक देशों में जनतंत्र क्यों बार-बार संकटग्रस्त हो जाता है? इसकी सबसे बड़ी वजह वे आधार तत्व हैं, जिन पर इन मुल्कों में समाज और राष्ट्र निर्मित हुआ है। इनमें पहला आधारभूत तत्व इन देशों में हिंसा या टकराव की बुनियाद पर खड़ा समाज है। एक अच्छे समाज को समावेश पर आधारित होना चाहिए, जबकि एक बुरा समाज टकराव पर खड़ा होता है। मोहम्मद अली जिन्ना ने चिड़ियों की दो आंख या द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत के अनुसार ही भारत का विभाजन प्रस्तावित किया था। हम सब यह जानते हैं कि पाकिस्तान का निर्माण भारत विभाजन के लिए हुए भयंकर टकराव या हिंसा की बुनियाद पर हुआ। अफसोस, बाद में बांग्लादेश भी हिंसा की बुनियादी पर ही अलग हुआ या बना।

टकराव के दर्शन पर खड़े समाज अपने अंदर और बाहर हमेशा टकराव की ही दृष्टि पालते देखे जाते हैं। टकराव या अलगाव की इस संस्कृति और विश्व दृष्टि का एक बड़ा पोषक तत्व मजहब आधारित राष्ट्र की कल्पना है। मजहब आधारित राष्ट्रवाद हमेशा अपने भीतर आतंकवाद, कट्टरता को गति देता रहता है। ऐसे में, बाहरी व भीतरी विभाजनकारी तत्व योजनाबद्ध ढंग से काम करते हुए समाज और राष्ट्र के पूरे ढांचे को हिलाते एवं ध्वस्त करते रहते हैं। हम आसानी से देख सकते हैं कि अनेक देशों में इस्लाम अपने आध्यात्मिक एवं धार्मिक समाहार की शक्ति खोते हुए राजनीतिक अस्त्र में बदल गया है, जिसका इस्तेमाल प्राय: सैन्य तानाशाह एवं अन्य किस्म के तानाशाह करते रहे हैं।

इस तरह के समाज एवं राष्ट्रों में जनतंत्र के संकट का दूसरा बड़ा आधारभूत तत्व इन राष्ट्रों में उपजा आर्थिक संकट है। यह संकट इनके गलत एवं असंतुलित आर्थिक नीतियों की वजह से पैदा हुआ है। इसी आर्थिक संकट ने इन देशों में बेरोजगारी, जलालत एवं जहालत का भंवरजाल रचा है, जिसमें जनतंत्र का बार-बार खून होता है। अर्थव्यवस्था से निराश आबादी का इस्तेमाल तानाशाही, कट्टरपंथी एवं गैर-जनतांत्रिक शक्तियां ही करती हैं, जिससे समाज और राष्ट्र अव्यवस्थित हो जाता है। गौर कीजिए, बांग्लादेश में बेरोजगारी की वजह से ही आरक्षण विरोधी आंदोलन को बल मिला, जिसे कट्टरपंथियों ने हवा देकर हिंसक बना दिया। अब सवाल खड़ा हो गया है कि क्या बांग्लादेश की विकास यात्रा को अपूरणीय नुकसान हो चुका है? यह एक सबक है कि जो आरक्षण हाशिये के समूहों के सशक्तीकरण एवं सम्मान के लिए एक जनतांत्रिक प्रक्रिया के रूप में हमें मिला है, वह जब नकारात्मक मोड़ लेता है, तो समाज एवं राष्ट्र को तोड़ने के बड़े हथियार में बदल जाता है।

जिन दक्षिण एशियाई देशों में असंतुलित एवं हिंसक धार्मिक भाव राष्ट्र निर्माण के आधार होते हैं, वहां सैन्य तानाशाह प्राय: इन्हीं भावों का उपयोग करते हुए जनतंत्र को कमजोर कर देते हैं। हालांकि, बांग्लादेश का समाज भाषा, मजहब के साथ-साथ राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के भाव से निर्मित हुआ था, इसलिए इसमें जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता एवं विकास की संभावना पाकिस्तान से कहीं ज्यादा रही है। बांग्लादेश की समकालीन राजनीति पर भारत का प्रभाव तो रहा है, पर इसकी भू राजनीति पर पाकिस्तान का सीधा हस्तक्षेप बना हुआ है।

यहां हमें यह विचार करना ही चाहिए कि भारत का समाज एवं राष्ट्र ऐसी विनाशक संहारक प्रवृत्तियों से क्यों और कैसे बार-बार उबरता रहता है? भारत के समाज में कई बार ऐसे संकट आते हैं, जनतंत्र कमजोर होता दिखता है, पर पुन: उन संकटों से उबरकर यहां जनतंत्र नई जीवन-शक्ति के साथ बहाल हो जाता है। इसका मुख्य कारण है- भारतीय समाज के ऐसे बुनियादी तत्व, जो इसे टकराव या अलगाव से बचाते हैं। अनेक दार्शनिक, ऐतिहासिक कारणों और अनुभवों के चलते आइडिया ऑफ इंडिया का विचार हमें टकराव से बचाकर समाहार की राह पर रखता है।

आजादी के बाद हमारे प्रमुख राष्ट्र निर्माताओं – महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, बाबा साहेब आंबेडकर ने आइडिया ऑफ इंडिया को नव-निर्मित करते हुए एक ऐसे राष्ट्र की नींव रखी, जहां जनतंत्र निरंतर विकसित होता रहे। ऐसा राष्ट्र बने, जिसमें पंक्ति में खड़े अंतिम नागरिक तक देश के संसाधनों को पहुंचाया जा सके, ताकि वह विभाजनकारी ताकतों के हाथ में विघटन का औजार न बने। जिन्ना ने हम साथ नहीं रह सकते के टकराव भाव के साथ पाकिस्तान को बनाया था, जबकि गांधीजी मिलकर रहने या समाहार की बात लगातार करते चले गए। अब भारत को लगातार कोशिश करनी चाहिए कि उसके चरित्र में समाहार और सद्भाव का भाव वैसे ही बना रहे, जैसी उम्मीद संविधान ने की थी, तभी हम हर संकट से बचे रहेंगे।


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