07-01-2025 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date: 07-01-25
Room With A Bed
When unmarried couples can’t book a hotel room it tells us something ugly about our society
TOI Editorial
Our fundamental rights are individual rights. They do not come down to us via tradition or identity or community. It is the freedom and equality of every single citizen that is affirmed by the Constitution. It is this core constitutionalism that is subverted by a hotel chain’s new check-in policy, shutting out its services to unmarried couples, starting with Meerut. The budget hospitality company has justified this change by saying that it’s listening to “the law enforcement and civil society groups in the micro markets”. Translation: consenting adults have been thrown to the moral policing wolves.
Yes, cops are often seen terrorising couples, be it in parks, or by the beaches, at the movies or in hotels. Also yes, India has no shortage of ‘civil society groups’, be it khap panchayats or anti-Romeo squads or just the neighbourhood Uncleji-Auntyji gangs, that think they have a right to tell everyone else how to live their life. They don’t. Nor do the cops have a right to chase away a peaceably canoodling couple with danda and screams. Their fond phrase ‘indecent behaviour in public’ needs to be retired. It allows for a lot of meddling and abuse – and hypocrisies.
Sex is as basic a part of the human life cycle as breath. Sure, people can choose not to have it. But this is an uncommon choice. Some of those defending the hotel chain’s policy change are saying it’s intended to curb prostitution. But like mob judgments, collective punishments are inherently wrongful, legally and ethically. Where there is crime, curb it. Don’t go othering and scarlet-lettering consenting adults en masse. That’s a terrible infringement of their privacy and rights.
Those ‘civil society groups’ may expect Indian youth to follow celibacy till marriage. Whether or not young persons did so in the past, this is a nonsense expectation when the mean age of marriage is increasing and the mean age of puberty decreasing. When this cohort is expected to compete in a global job market, how can it be insulated from global social trends? Again, the hypocrisy of such expectations is acute. It’s also fighting a doggedly rising tide. No amount of pressuring young people to wear this, eat that, don’t love her, don’t love him, and behave only like that, will get them back into busybodies’ ideas of ‘tradition’. Regressive groups can badger individual businesses to reverse social progress. But free choice must prevail. And, over time, it will.
Date: 07-01-25
AiOYO! Don’t Erode Your Progressive Tag
Be more accommodative, not less
ET Editorial
OYO, the hospitality chain of leased and franchised homestays, hotels and living spaces, has been a boon for customers and a game changer for the industry. Its reputation as a provider of quality and accessible accommodation has made it a standout entrepreneurial venture over the last decade. So, it’s surprising — and disappointing — that OYO seems to have gotten into the morality business. News of its new check-in policy by which unmarried couples will apparently not be allowed to stay in OYO properties is the opposite of what the company sets out to be: progressive, internationalist. The new policy not only smacks of a ‘Lalita Pawar’ era of mai-baap-saas values, but also mirrors what less-reliable hotels and dodgy homestays need to comply with to stay in business.
Residents of, and visitors to, Meerut — which is being used as a beta test site for the new policy — whether married or unmarried, siblings or business partners, should find this first encounter at the reception of having to prove their marital status awkward enough for ‘ease of doing business’ to be affected. ‘OYO is committed to upholding safe and responsible hospitality practices,’ a company representative stated, adding that OYO wishes to project itself ‘as a brand providing safe experience for families, students, business, religious and solo travellers’. With no Indian law prohibiting unmarried couples from staying in a hotel, how barring them from OYO spaces amounts to ‘upholding safe and responsible hospitality practices’ eludes circa 2025 reasoning.
Reportedly, civil society groups in other cities have also petitioned to bar non-shaadi-shudas from OYO properties. What next? Checking the sexuality of prospective customers? The religions of hubby and wife? It’s a slippery slope from here. What OYO should be doing, instead, is to further facilitate their excellent services agnostically to mor epeople, regardless of their status, marital or otherwise. Dharmshalas can cater to those complainants who should be minding their own business, not OYO’s, in the first place.
Date: 07-01-25
नस्लीय तनाव से अमेरिका को दीर्घकालीन नुकसान
संपादकीय
विदेशियों, खासकर भारतीयों के अमेरिका में काम करने के खिलाफ धुर दक्षिणपंथियों का आंदोलन ‘अमेरिका फर्स्ट’ से बढ़ता हुआ ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (मागा) अब नस्लीय तनाव का रूप लेने लगा है। वैश्वीकरण के दौर में समय-चक्र को पीछे करने का यह प्रयास अंततः अमेरिकियों को ही नुकसान पहुंचाएगा। दुनिया की प्रतिभाओं को ससम्मान अपने देश में इस्तेमाल करना पिछली दो सदियों से अमेरिका की खासियत रही है और यही इसे दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाता है। आरोप है कि अमेरिकी उद्यमी अपने लाभ के लिए एच-1बी वीसा के जरिए भारतीय इंजीनियर्स को कम वेतन पर लाकर अमेरिकी युवाओं का रोजगार छीन रहे हैं। एक तो वैश्वीकरण के जमाने में औद्योगिक और वाणिज्यिक हित में राष्ट्रवाद लाना दकियानूसी सोच है। बेहतर तो यह होता कि संपत्र अमेरिकी युवा अपने बेहतर टैलेंट से भारतीयों को पछाड़ते। तब उन्हें रोजी देना उद्योगों की मजबूरी होती | फिर ‘मागा’ आंदोलनकारियों को यह भी सोचना होगा कि ऐसे दबाव में अमेरिकी उद्यमी अपने उद्योग भी अमेरिका से हटाकर भारत ला सकते हैं । बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन से अपने उद्योग हटा रही हैं। भारत उनका नया केंद्र हो सकता है। आंदोलनकारी शायद न तो अमेरिका के हित में सोच रहे हैं ना ही उन्हें वहां के युवाओं के दीर्घकालीन हित की समझ है। इस दौड़ में राष्ट्रवाद जहां भी सिर उठाएगा वह देश की क्षति ही करेगा। अगर ‘मागा’ आंदोलनकारियों को सच्चाई जाननी है तो वे भारत में बढ़ते जीसीसी (ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर्स) की संख्या और उनके द्वारा किए गए व्यापार के आंकड़े देख लें। आज 1800 जीसीसी में 16 से 19 लाख भारतीय इंजीनियर्स और वैज्ञानिक कार्यरत हैं। अगर यह प्रक्रिया जारी रही तो भविष्य में शायद अमेरिकी युवा नौकरी को तरस जाएंगे।
Date: 07-01-25
नक्सलियों की चुनौती
संपादकीय
छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सलियों की ओर से घात लगाकर किए गए हमले में डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड यानी डीआरजी के ड्राइवर समेत नौ जवानों का बलिदान यही बता रहा है कि नक्सली गुटों के दुस्साहस का वैसा दमन नहीं हो सका है, जैसा अपेक्षित है। चूंकि वे एक तरह से शासन व्यवस्था को सीधी चुनौती दे रहे हैं, इसलिए उनके सफाए के अभियान इस तरह चलना चाहिए कि उन्हें कहीं भी छिपने का मौका न मिले।
यह ठीक है कि केंद्र सरकार ने यह संकल्प ले रखा है कि मार्च 2026 तक नक्सलवाद को समाप्त कर दिया जाएगा, लेकिन इस लक्ष्य की प्राप्ति को सुनिश्चित करते हुए यह भी देखा जाना जरूरी है कि आखिर नक्सलियों को आधुनिक हथियार और विस्फोटक कहां से मिल रहे हैं? गत दिवस उन्होंने जिस विस्फोटक का इस्तेमाल कर डीआरजी की गाड़ी को निशाना बनाया, वह इतना शक्तिशाली था कि जवानों के चिथड़े उड़ गए और वाहन के परखच्चे उड़कर पेड़ पर जा टंगे।
यदि यह मान लिया जाए कि नक्सली उगाही और वन संपदा के दोहन के जरिये पैसा जुटा लेते हैं, तो भी प्रश्न यह उठता है कि आखिर वे आधुनिक हथियार कहां से हासिल कर ले रहे हैं? यह तो सामने आता ही नहीं कि उन्हें घातक हथियारों की आपूर्ति कौन करता है? आखिर क्या कारण है कि तमाम नक्सलियों को मार गिराने और उनके गढ़ माने जाने वाले इलाकों में विकास के तमाम कार्यक्रम संचालित किए जाने के बाद भी उनकी ताकत कम होने का नाम नहीं ले रही है?
नक्सली अपने खिलाफ जारी अभियान के बीच जिस तरह रह-रहकर सुरक्षा बलों को निशाना बनाने और उन्हें क्षति पहुंचाने में समर्थ हो जाते हैं, वह चिंता का कारण है। नक्सली गुटों में भर्ती होने वालों की उल्लेखनीय कमी न आने से यह भी लगता है कि आदिवासियों और अन्य ग्रामीणों के बीच उनकी पकड़ अभी इतनी ढीली नहीं पड़ी है कि उनकी जड़ें उखड़ती दिखें।
ऐसे में उनके खिलाफ सुरक्षा बलों के अभियान को और धार देने के साथ ही उन कारणों का पता लगाकर उनका निवारण करना भी जरूरी है, जिनके चलते वे लोगों का समर्थन हासिल करने में समर्थ हैं। निःसंदेह नक्सलवाद एक विषैली-विजातीय विचारधारा है, लेकिन नक्सलियों को जड़-मूल से समाप्त करने के लिए उनसे विचारधारा के स्तर पर भी लड़ा जाना आवश्यक है।
इससे ही नक्सलियों और उन्हें वैचारिक खुराक देने वालों के इस झूठ का पर्दाफाश किया जा सकता है कि वे वंचितों के उन अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो उनसे छीने जा रहे हैं। इस झूठ को बेनकाब करने के लिए यह भी जरूरी है कि आदिवासियों के नैसर्गिक अधिकार बाधित न होने पाएं। इससे ही उनका भरोसा हासिल किया जा सकता है और उन्हें नक्सलियों से दूर किया जा सकता है।
Date: 07-01-25
बढ़ाएं प्रतिस्पर्धा
संपादकीय
क्विक कॉमर्स कंपनियों का कारोबार तेजी से बढ़ा है और इसके साथ ही वे सरकार की निगरानी में आ गई हैं। क्विक कॉमर्स एक विशिष्ट कारोबारी मॉडल है जिसमें बहुत अधिक संभावनाएं हैं। यह न केवल मूल्यांकन की दृष्टि से बेहतर है बल्कि यह वैश्विक स्टार्टअप जगत में भी अपने लिए जगह बनाने में सक्षम है जो कंपनियाँ किराने से लेकर पका पकाया भोजन और निजी इस्तेमाल की सामग्री तक उपभोक्ताओं को 10 मिनट के भीतर या इसके आसपास के समय में पहुंचा रही हैं उनसे प्रशासन उनके कारोबारी मॉडल को लेकर सवाल कर रहा है। इसके बाद कारोबारियों की शिकायत का नंबर आता है जिनका प्रतिनिधित्व कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआईटी) कर रहा है। सीएआईटी की दलील है कि क्विक कॉमर्स कंपनियों ने ई-कॉमर्स के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मानकों का उल्लंघन किया है। सीएआईटी ने वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के समक्ष जो शिकायतें की हैं उनमें प्रमुख है ई-कॉमर्स के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नियम पुस्तिका के उल्लंघन में इन्वेंटरी रखने के लिए डार्क स्टोर का इस्तेमाल। इस मुद्दे के मूल में है किराना दुकानों का एक भारी भरकम नेटवर्क और उन पर पड़ने वाला क्विक कॉमर्स का संभावित नकारात्मक असर।
सरकार के लिए संतुलन कायम करना जरूरी है लेकिन ऐसा उन कारोबारों की वृद्धि को प्रभावित करते हुए नहीं होना चाहिए जिन्होंने कामयाबी प्रदर्शित की है। उल्लेखनीय है कि यह पहला मौका नहीं है जब किराना दुकानों का एंगल सामने आया और सरकार को ऐसे कदम उठाने पड़े जो वास्तव में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए बहु-ब्रांड खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को वर्षों से इस वजह से हतोत्साहित किया गया क्योंकि इससे किराना दुकानों पर बुरा असर होगा। पारंपरिक ई- कॉमर्स कंपनियों को भी प्रत्यक्ष विदेशी नियमों के उल्लंघन के कारण मची उथलपुथलकासामना करना पड़ा। उनके खिलाफ भी स्थानीय कारोबारियों के विरोध प्रदर्शन के बाद जांच शुरू की गई थी। यह राजनीति में एक अहम मुद्दा है क्योंकि कारोबारियों और खुदरा कारोबारियों को राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है। आंकड़ों की बात करें तो देश में करीब 1.3 करोड़ किराना स्टोर हैं और उनमें से अधिकांश छोटे शहरों में स्थित हैं। अनुमानों के मुताबिक अकेले पिछले एक वर्ष में करीब दो लाख किराना दुकानें बंद हो गईं। इससे यह आशंका उत्पन्न हुई कि शायद यह क्विक कॉमर्स की वजह से हो रहा है। दोनों के बीच रिश्तों की स्थापना का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, खासतौर पर इसलिए कि अधिकांश किराना दुकानें छोटे शहरों में हैं जहां क्विक कॉमर्स अभी तक पकड़ नहीं बना सका है। सरकार किराना दुकानों को तकनीकी रूप से उन्नत करने का प्रयास कर सकती है ताकि वे गतिशील हो सकें। आगे की राह रचनात्मक होनी चाहिए। साझेदारियों और सहयोगों की मदद से इस दिशा में बढ़ा जा सकता है। किराना दुकानों को क्विक कॉमर्स की वजह से मिले अवसर का लाभ उठाते हुए तेज विकास करना चाहिए। क्विक कॉमर्स कंपनियों को भी गुणवत्तापूर्ण रोजगार तैयार करने चाहिए।
व्यापक स्तर पर देखें तो सरकार के लिए समय आ गया है कि वह बहु प्रतीक्षित ई-कॉमर्स नीति को तैयार करे। नई तकनीक और क्विक कॉमर्स जैसे नवाचार के बीच एक स्पष्ट और व्यापक नीति कई छोटी-मोटी दिक्कतों को दूर कर देगी ताकि भविष्य को ध्यान में रखकर कारोबार और मूल्य श्रृंखला तैयार की जा सके। नीति को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नाम पर प्रतिस्पर्धा को रोकना नहीं चाहिए। तकनीक को अपनाना और उपभोक्ताओं का बदलता व्यवहार कई कारोबारी मॉडलों को बदल सकता है। नीति को अग्रगामी सोच वाला होना चाहिए। भारत को टिकाऊ आर्थिक वृद्धि के लिए भारी भरकम निवेश की आवश्यकता है और खुदरा क्षेत्र इसमें मददगार हो सकता है। खुदरा क्षेत्र को औपचारिक बनाने से न केवल रोजगार तैयार होंगे बल्कि किफायत बढ़ने से उपभोक्ताओं को भी कम कीमत चुकानी होगी। विदेशी निवेश वाली कंपनियों के लिए प्रतिबंधात्मक नीतियाँ प्रतिस्पर्धा, नवाचार और उपभोक्ता कल्याण को प्रभावित करेंगी।
Date: 07-01-25
नक्सली चुनौती
संपादकीय
देश के विभिन्न नक्सल प्रभावित इलाकों में धीरे-धीरे शांति देखी जाने लगी है। महाराष्ट्र पश्चिम बंगाल, ओड़ीशा, झारखंड आदि में अब पहले की तरह नक्सली हमलों में कमी दर्ज हुई है। मगर छत्तीसगढ़ अब भी नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है उन पर काबू पाने के लिए राज्य और केंद्र के अभियान लगातार चलाए जाते हैं। इसमें अक्सर नक्सलियों के मारे जाने की खबरें आती रहती हैं मगर इससे नक्सलियों पर पूरी तरह लगाम लगा पाना अब भी चुनौती बना हुआ है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा है कि अगले साल क नक्सलवाद का सपस्या कर दिया जाएगा। इसके मरेनजर छत्तीसगढ़ के सघन वनों में नक्सलियों के खिलाफ अभियान तेज कर लिए गए हैं। मगर सुरक्षाबलों की कार्रवाई के जवाब में नक्सली भी बड़े हमले करने की साजिशें रचने में कामयाब देखे जाते हैं। छतीसगढ़ के बीजापुर में हुआ ताजा नक्सली हमला इसी का एक उदाहरण है। बताया जा रहा है कि कुछ दिनों पहले सुरक्षाबलों के अभियान के जवाब में नक्सलियों ने यह हमला किया। जब वाल, नारायणपुर और बीजापुर का संयुक्त चल तलाशी अभियान से वापस लौट रहा था, तब घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने उनके वाहन पर हमला कर दिया। इसमें आठ सुरक्षाकर्मी और एक वाहन चालक मारे गए।
इस हमले में आईईडी विस्फोटक का इस्तेमाल किया गया। इसकी शक्ति आम विस्फोटकों से कई गुना अधिक होती है। सरकार अक्सर चावा करती है कि नक्सलियों का लगभग सपस्या कर दिया गया है और अब वे कुछ सीमित इलाकों तक सिमट कर रह गए हैं। मगर वह समझना मुश्किल है कि इतनी चौकसी के बावजूद नक्सलियों के पास अत्याधुनिक हथियार और विस्मटोक किस तरह और कहां से पहुंच पा रहे हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि छत्तीसगढ़ के बीजापुर और दंतेवाड़ा क्षेत्र में सघन जंगल होने की वजह से नक्सलियों के खिलाफ अभियान में मुश्किलें आती हैं। उनकी उलाशी और उन पर नजर रखना कठिन है। यही इलाका नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है और सबसे अधिक इसी क्षेत्र में वे सुरक्षाबलों पर हमले करने में कामयाब होते हैं। मगर वह समस्या कोई नई नहीं है। इसके लिए हेलीकाप्टर से टोह लेने की योजना बनी थी। वैसे भी आजकल इतने अत्याधुनिक टोही उपकरण उपलब्ध हैं कि उनसे जंगलों में चल रही गतिविधियों का पता लगाना मुश्किल नहीं माना जा सकता। इसके बावजूद अगर नक्सली सुरक्षाबलों की योजनाओं और गतिविधियों पर लगातार नजर बनाए रख पा रहे हैं, विस्पोटक और हथियार हासिल करने में कामयाब हो जा रहे हैं, तो इससे सुरक्षाबलों को अपनी रणनीति में बदलाव की अपेक्षा की जाती है।
नक्सलवाद का उभार आदिवासी इलाकों में जल, जंगल और जमीन की सुरक्षा के लिए हुआ था, मगर अभी वह जिस रूप में अपनी जड़ें जमा चुका है वह आतंकी गतिविधियों की शक्ल अख्तियार करता गया है। अब तो उनमें सरकार के साथ बातचीत का रुख भी नजर नहीं आता अगर उन तक अत्याधुनिक हथियार और विस्फोटक पहुंच रहे हैं, तो जाहिर है, उनके पास बाहर से वित्तीय मद भी पहुंच रही है। इन सबके रास्ते सुरक्षाबलों और खुफिया तंत्र की नजर से कैसे ओझल बने हुए हैं, समझ से परे है। नक्सलवाद के खात्मे का भरोसा तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि उन तक पहुंचने वाली वित्तीय मन रविवार विस्फोटकों और अत्याधुनिक सूचना तकनीक आदि पर अंकुश न लगा ली जाए।