07-01-2020 (Important News Clippings)
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Unmask this
Students fearing violence have recently fled three universities of national importance. Why?
TOI Editorial
Masked goons wrought violence at Jawaharlal Nehru University on Sunday night. The visuals of terrified students leaving their campus, thugs bearing rods and lathis on the rampage, power lines snapped, with policemen watching as mute spectators seemed surreal. But it was all too real. This is one of India’s best known universities, which has allowed a tense standoff between university administration and a Left-backed students union to linger too long. For a start, the Union HRD ministry needs to put its crown jewels in better hands. The university peremptorily blaming the violence on a select group of students who have been challenging its polices, cannot distract from vice-chancellor M Jagadesh Kumar’s incompetence.
As students from Puducherry to Oxford protest in solidarity with JNU students, the university administration and Delhi police have much to answer. Why did the administrators not push for proper police action the very moment masked intruders with weapons were seen on campus? The office of Delhi’s deputy commissioner of police (south-west district) is right across the JNU campus and yet the sizeable contingent of police personnel or their supervisors didn’t intervene in time. If police waited for further word from the administration to enter, even as masked goons were attacking students, such misplaced sensitivities would be sweet music for vigilantes.
The cruel irony that no ‘permission’ was needed to enter Jamia Millia Islamia or wield disproportionate force on unarmed students there, is too recent to be forgotten. No less grievous was the police failure to maintain law and order outside JNU gates on Sunday night. With medical personnel also attacked while police idled, Indian Medical Association has decried the shocking state of law and order in Delhi. Cabinet ministers and JNU alumni Nirmala Sitharaman and S Jaishankar too have condemned the violence.
Yet the closing of ranks will help only when concrete action materialises and police unmasks the perpetrators. So far the policing failures reflect poorly on Union home ministry, which oversees policing in the capital. The opportunity to stop the mob in their tracks was squandered on Sunday night. Now clues like phone numbers in right-wing WhatsApp groups allegedly created to foment violence and cellphone footage must be probed punctiliously. Meanwhile the masked stormtroopers at JNU have cast further international ignominy on an India reeling from nationwide anti-CAA-NRC protests. Beyond this, fear shouldn’t enter universities as it has in Jamia, AMU, JNU in recent weeks; they are India’s best hope for braving 21st century’s bewildering developmental, technological and environmental challenges.
Violence Such as at JNU Not Acceptable
ET Editorial
We condemn the violent attack by masked goons on students and faculty members at Jawaharlal Nehru University (JNU). It was truly remarkable that Delhi Police personnel, who were present when the rampage was on, did little to stop the attackers or to arrest them.
It is welcome that the Union home ministry, under which Delhi Police works, has called for an inquiry. The government must also make public the findings of the investigation and the action it proposes to take.
It is not just JNU that is agitated. Many campuses around the country are convulsed in protests, several against the Citizenship (Amendment) Act, and several others over their own local problems. Delhi University, for example, is seized up because of a strike by teachers over the completely inexplicable reluctance of the university administration to recruit faculty to fill vacancies or to allow ad-hoc appointments till that happens, so that teaching can go on.
Talented, fully qualified academics have been teaching as ad-hoc lecturers for years on end, without being given tenure or even any assurance that their teaching experience would be counted for regular appointment or determining seniority. We do not hold the view that students should stay away from politics.
University students are eligible to vote in legislative elections. Student politics had been a vital part of the freedom struggle and has contributed to subsequent battles to safeguard and reinforce democracy. But students have to study, first and foremost.
It is the responsibility of university administrations, different parts of the academic governance structure and, ultimately, the government, to ensure that an enabling ecosystem for the pursuit of knowledge prevails in the nation’s campuses. Such an ecosystem is markedly absent in India at present.
There is little point in blaming students. It cannot be that students across the country are misguided. The government must address what troubles students, who constitute the future of our nation, and prevent police highhandedness and vigilante violence against them.
दुस्साहस के साथ भ्रष्टाचार गढ़ रहा है एक नया आयाम
संपादकीय
भ्रष्टाचार और विकासहीनता में चोली-दामन का साथ है। लेकिन, कुछ राज्य ऐसे हैं, जहां विकास में भ्रष्टाचार ही नहीं होता, बल्कि दुस्साहस के साथ होता है। कुछ साल पहले राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना में एक ही गांव के 197 मामलों में गर्भाशय निकालकर निजी अस्पतालों और बीमा कंपनियों की मिलीभगत से सरकार को ठगने का मामला सामने आया। यहां तक तो सामान्य भ्रष्टाचार का मामला था जो पूरे देश में कोढ़ की तरह फैला हुआ है, लेकिन आगे की जांच में पता चला कि लिस्ट में जिनके गर्भाशय निकालने का जिक्र है, वे महिला नहीं पुरुष हैं। ईश्वर ने अभी तक पुरुषों को गर्भाशय नहीं दिया है। यानी भ्रष्ट संस्थाओं ने यह भी परवाह नहीं की कि कम से कम लाभार्थियों का नाम तो सही लिख दें। यह दुस्साहस इसलिए हुआ, क्योंकि सिस्टम प्रतिक्रिया नहीं करता। पहले तो राज खुलेगा नहीं। खुल भी गया तो भ्रष्टाचारी-अपराधी पैसे या पिस्तौल के दम पर रिपोर्ट बदलवा लेंगे, फिर दशकों तक फैसला नहीं आएगा। भ्रष्टाचार के इस नए आयाम में कोई राज्य अकेला नहीं है, बल्कि दशकों से पिछड़ेपन का दंश झेल रहे उत्तर भारत के अधिकांश राज्य इसमें आकंठ डूबने लगे हैं। तीन माह पहले यूपी में जो युवा महिलाएं आयुष्मान भारत योजना के तहत निजी अस्पतालों में मासिक धर्म या ऐसी अन्य दिक्कतें लेकर पहुंची ताे उनका गर्भाशय निकालकर सरकार से पैसा ले लिया गया। सरकार के डॉक्टरों की जांच में पता चला कि गर्भाशय निकालने की जरूरत ही नहीं थी। अब ये महिलाएं कभी मां नहीं बन पाएंगी। वहीं, हार्मोनल परिवर्तन से उनकी हड्डियां कमजोर होने लगी हैं। उधर, राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसी के एक चौंकाने वाले खुलासे के अनुसार यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान व पंजाब सहित अनेक राज्यों में लाखों फर्जी कार्ड बनाकर निजी अस्पताल-दलाल-आरोग्यमित्र के गठजोड़ से केंद्र और राज्य सरकारों से करोड़ों रुपए ठग चुके हैं। गुजरात में एक परिवार के पास 1700 आयुष्मान कार्ड हैं और एक ही परिवार के 57 लोगों ने आंख की सर्जरी करा ली। कभी विकास के गुजरात मॉडल ने देशवासियों को इतना प्रभावित किया था कि मतदातों ने एक नया प्रधानमंत्री दे डाला। उधर, निजी अस्पतालों के संगठन का कहना है कि सरकार का इलाज का रेट कम है, इसलिए यह सब हो रहा है और इस योजना को अमल करने में भी खामियां हैं, जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है।
अमेरिका-ईरान का टकराव
संपादकीय
रल कासिम सुलेमानी को निशाना बनाकर एक बार फिर पश्चिम एशिया को अशांति के मुहाने पर ला खड़ा करने का काम किया है। सुलेमानी की हत्या के बाद ईरान जिस तरह बदले की आग से भरा हुआ है और अमेरिका को सबक सिखाने की धमकी दे रहा है उसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे। इन संभावित नतीजों से केवल पश्चिम एशिया ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया आशंकित है। इसका एक बड़ा कारण यही है कि यह वह क्षेत्र है जो विश्व की तेल जरूरतों को पूरा करता है। साफ है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने पूरी दुनिया के लिए समस्या खड़ी कर दी है। इससे इन्कार नहीं कि सुलेमानी पश्चिम एशिया में अमेरिकी प्रभाव के खिलाफ हर तरह से सक्रिय थे और वह दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैले कई अतिवादी एवं आतंकी गुटों की मदद भी कर रहे थे, लेकिन इस सबके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति की यह दलील बहुत दमदार नहीं लगती कि वह अमेरिका के खिलाफ किसी बड़ी साजिश को अंजाम दे रहे थे। यह मानने के अच्छेभले कारण हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने चुनावी अभियान को धार देने और इस्लामी जगत में ईरान विरोधी ताकतों को बल देने के लिए सुलेमानी को निशाना बनाया। नि:संदेह यह भी लगता है कि उन्होंने इस पर ज्यादा विचार-विमर्श करने की जरूरत नहीं समझी कि उनकी इस कार्रवाई का असर या होगा? यह तय है कि यदि ईरान ने अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाने की कोई कोशिश की तो अमेरिकी राष्ट्रपति भी चुप बैठने वाले नहीं हैं। वह पहले से ही ईरान को चेताने के साथ यह बताने में लगे हुए हैं कि अमेरिकी सेनाओं के संभावित लक्ष्य या होंगे? पश्चिम एशिया में अपना दबदबा बढ़ाने में जुटे ईरान के अनैतिक तौर-तरीकों की तरफदारी नहीं की जा सकती, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति सा में आने के बाद से ही जिस तरह उसको अस्थिर करने में लगे हुए हैं उसे भी सही नहीं कहा जा सकता। गैर जिम्मेदाराना हरकत करने वाले देशों से निपटने की अमेरिका की रीति-नीति जिमेदार राष्ट्र के अनुकूल नहीं। अमेरिकी प्रशासन में जिम्मेदाराना का यह अभाव ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से और अधिक बढ़ा ही है। ट्रंप ने जिस आधार पर कासिम सुलेमानी को निशाना बनाना जरूरी समझा उससे बड़े आधार तो पाकिस्तानी सेना के जनरलों के खिलाफ मौजूद हैं। जब अनगिनत अमेरिकी अधिकारियों के साथ खुद राष्ट्रपति ट्रंप इस सच को स्वीकार कर चुके हैं कि पाकिस्तानी सेना तालिबान एवं हक्कानी नेटवर्क सरीखे आतंकी संगठनों को पाल-पोस रही है तब फिर यह सवाल तो उठेगा ही कि आखिर अमेरिकी ड्रोन पाकिस्तानी जनरलों को यों नहीं देख पा रहे हैं?
विश्वविद्यालय में गुंडागर्दी
संपादकीय
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एक बार फिर चर्चा में है, लेकिन अप्रिय कारणों से ही। विगत दिवस इस विश्वविद्यालय में चेहरा ढके लोगों ने छात्रों एवं शिक्षकों के साथ मारपीट करने के साथ जिस तरह तोड़फोड़ की उसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम है। किसी भी शैक्षिक संस्थान में ऐसी हिंसा होना बेहद शर्मनाक है। इससे खराब बात और कोई नहीं कि देश की राजधानी का एक नामी विश्वविद्यालय खौफनाक गुंडागर्दी का गवाह बने। दिल्ली पुलिस को न केवल नकाबधारी हिंसक तत्वों को बेनकाब करना होगा, बल्कि उन्हें शह देने वालों तक भी पहुंचना होगा। अगर हिंसा के लिए जिम्मेदार तत्वों पर शिकंजा नहीं कसा गया तो यह विश्वविद्यालय खूनी छात्र राजनीति का अखाड़ा ही बनेगा और अपनी रही-सही प्रतिष्ठा से भी हाथ धोएगा। हालांकि जेएनयू प्रारंभ से ही वामपंथी विचारधारा का गढ़ रहा है, लेकिन बीते कुछ समय से वहां वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर अराजक एवं असहिष्णु विचारधारा को भी पोषण मिल रहा है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि जेएनयू में उन्हें विशेष संरक्षण मिलता है जो भारतीयता, राष्ट्रीयता आदि को हेय दृष्टि से देखने को तत्पर रहते हैं।
यह किसी से छिपा नहीं कि जेएनयू में कभी नक्सलियों का गुणगान होता है तो कभी आतंकियों का। इस तरह के ओछे आचरण को वैचारिक स्वतंत्रता के आवरण में ढकने की भी कोशिश होती है। इस कोशिश में कई राजनीतिक दल खुशी-खुशी इसलिए शामिल होते हैं, क्योंकि इससे ही उनका हित सधता है। ये वही दल हैं जो जेएनयू में रजिस्ट्रेशन के साथ पठन-पाठन को हिंसा के सहारे बाधित किए जाने पर तो मौन धारण किए रहे, लेकिन जैसे ही विश्वविद्यालय परिसर में नकाबपोशों के उत्पात की खबर मिली वैसे ही इस निष्कर्ष पर पहुंच गए कि यह सब कुछ सरकार के इशारे पर हुआ है। यह आरोप इसलिए गले नहीं उतरता, क्योंकि नागरिकता कानून के हिंसक विरोध से सरकार पहले ही परेशान है।
आखिर कोई सरकार खुद को सवालों से घेरे जाने वाला काम क्यों करेगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार का संकट बढ़ाने पर आमादा ताकतों ने जेएनयू में उत्पात मचाने की साजिश रची हो? इस अंदेशे का एक बड़ा आधार यह है कि दोनों ही पक्ष के छात्र हिंसा का शिकार बने हैैं। बेहतर हो कि सरकार इसके लिए हर संभव कोशिश करे कि जेएनयू में हिंसा फैलाने वालों का सच जल्द सामने आए। आवश्यक यह भी है कि उन कारणों का निवारण किया जाए जिनके चलते जेएनयू अराजक शैक्षिक संस्थान के तौर पर कुख्यात हो रहा है। यह काम इसलिए प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए, क्योंकि इस संस्थान की स्थापना जिन उद्देश्यों के लिए की गई थी उनसे वह दूर जा रहा है।
Date:07-01-20
खाड़ी संकट में तैयारी
संपादकीय
इराक दौरे पर गए ईरान के शीर्ष सैन्य अधिकारी कासिम सुलेमानी की अमेरिकी हमले में हुई हत्या ने पश्चिम एशिया में हालात बिगाड़ दिए हैं। इस इलाके के सशस्त्र संघर्ष के मुहाने पर पहुंच जाने से तेल कीमतों में अचानक उछाल आई है। ईरानी सेना की विशिष्ट इकाई कुद्स फोर्स के मुखिया के रूप में सुलेमानी क्षेत्रीय राजनीति में अहम स्थान रखते थे और खुद ईरान के भीतर वह काफी लोकप्रिय एवं सशक्त थे।
इस हत्या के बाद खाड़ी क्षेत्र में तनाव बढऩे के आसार नजर आ रहे हैं। ऐसा होने पर अल्पावधि से लेकर मध्यम अवधि में तेल कीमतों के रुख को लेकर कोई भी अनुमान लगा पाना आसान नहीं है। एक तरफ तो अमेरिका का शेल तेल उत्पादन तेज है जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में मांग कमजोर है। वैसे बाजार किसी भी तरह जरूरत से ज्यादा आपूर्ति की तरफ बढ़ रहा था। लेकिन समस्या यह है कि सीमित संघर्ष में भी तेल प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया जा सकता है। आपूर्ति शृंखला से हटा देने पर तेल की किल्लत पैदा हो सकती है जिससे अल्पावधि से मध्यावधि के भीतर तेल कीमतें चढ़ सकती हैं।
इस तरह भारत सरकार को तीन पहलुओं पर ध्यान देते हुए अपनी तैयारियां करनी होंगी। ये पहलू कई दशकों से एकसमान रहे हैं और पश्चिम एशिया में स्थिरता पर भारत की निर्भरता का कारण भी हैं। पहला बिंदु तेल की आपूर्ति से जुड़ा है। भारत को अपनी 84 फीसदी तेल जरूरतें आयात से पूरी करनी पड़ती हैं। इस तरह तेल कीमतों में उछाल न केवल घरेलू लागत परिस्थितियों बल्कि भुगतान संतुलन पर भी बड़ा अंतर डालता है। तेल कीमतें बढऩे से पूरी अर्थव्यवस्था में स्वाभाविक तौर पर स्फीतिकारी दबाव पड़ेंगे। लिहाजा भारतीय रिजर्व बैंक को ब्याज दरें तय करते समय कहीं अधिक सजगता दिखाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
अतीत में ऊंची तेल कीमतों ने बाह्य खाते को खासा कमजोर किया है। पश्चिम एशिया में 1991 में पैदा हुए ऐसे ही संकट के बाद भारत के समक्ष भुगतान संतुलन का संकट पैदा हुआ था जिसके बाद देश में उदारीकरण की शुरुआत हुई थी। आज 450 अरब डॉलर के साथ भारत का विदेशी मुद्रा भंडार काफी सुविधाजनक स्थिति में है और तेल कीमतों के मौजूदा स्तर पर रहने पर इससे अगले नौ-दस महीनों तक तेल आयात का इंतजाम हो सकता है। अगर तेल कीमतों में लगातार एवं तीव्र वृद्धि होती है तो फिर इस बफर में सेंध लग सकती है। हालांकि दो पहलू ऐसे हैं जो सरकार के लिए चिंता का विषय हैं। इन दोनों का ताल्लुक पश्चिम एशिया खासकर फारस की खाड़ी क्षेत्र में बड़ी संख्या में भारतीय समुदाय की मौजूदगी है।
निश्चित रूप से उनकी सुरक्षा को प्राथमिकता देनी होगी। अतीत में भारत ने खाड़ी देशों में रहने वाले अपने नागरिकों की सुरक्षित वापसी के लिए बड़े स्तर पर अभियान चलाया था। पहले खाड़ी युद्ध के समय कुवैत और हाल में लीबिया से अपने नागरिकों को सुरक्षित वापस लाया गया था। खाड़ी देशों से भारतीयों की सुरक्षित निकासी की योजना इस बार कहीं अधिक बड़े पैमाने पर अंजाम देनी होगी, वैसे ऐसी स्थिति आने की संभावना कम ही लग रही है।
हालांकि तनाव गहराने से आने वाली गिरावट के चलते बड़ी संख्या में अस्थायी कामगारों को भारत लौटना पड़ सकता है। ऐसा होने पर भारत को खाड़ी देशों से भेजा जाने वाला पैसा भी कम हो जाएगा। वर्ष 2016-17 में अकेले संयुक्त अरब अमीरात से 27 फीसदी विदेशी धन भारत में आया था और अन्य खाड़ी देशों का भी योगदान 27 फीसदी रहा था। भारत आने वाली आधी से भी अधिक विदेशी मुद्रा केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु एवं कर्नाटक राज्यों में आती है। धन की आवक में बड़ी कमी होने से बाह्य खाते एवं इन राज्यों की अर्थव्यवस्था पर भी दबाव बढ़ेगा। लिहाजा भारत सरकार को खाड़ी के घटनाक्रम पर नजदीकी निगाह रखने के साथ अपनी तैयारियां भी रखनी होंगी।
Date:07-01-20
देश के बुनियादी विकास में तेजी की तैयारी
ए के भट्टाचार्य
बीते वर्ष के अंतिम दिन एक संवाददाता सम्मेलन में टास्क फोर्स ऑन नैशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन फॉर 2019-25 की रिपोर्ट जारी करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दो महत्त्वपूर्ण संदेश दिए। पहला, उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें 2020-21 का आम बजट पेश करने से एक महीना पहले मीडिया से मिलने में कोई परेशानी नहीं है। दूसरा, यह कि उन्हें अर्थव्यवस्था की स्थिति को देखते हुए देश को यह बताने में देरी का कोई कारण नजर नहीं आता कि वरिष्ठ सरकारी अधिकरियों के एक समूह ने बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश को पटरी पर लाने के लिए क्या सिफारिश की है।
अमूमन बजट से पहले वित्त मंत्री और वित्त मंत्रालय मीडिया से दूर ही रहते हैं। ऐसा कम ही होता है कि वित्त मंत्रालय का कोई अधिकारी बजट पेश होने से चार हफ्ते पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस करे, वित्त मंत्री तो दूर की बात है। बजट को लेकर गोपनीयता बरती जाती है और बजट में की जाने वाली घोषणाओं को गोपनीय रखने के लिए सभी जरूरी कदम उठाए जाते हैं। इसलिए, बजट से एक महीना पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस से परहेज किया जाता है। ऐसी स्थिति में बजट से एक महीना पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस करने का मकसद यही रहा होगा कि सभी को यह स्पष्टï संदेश दिया जाए कि सरकार बुनियादी ढांचे में ज्यादा निवेश को लेकर गंभीर है।
हालांकि, इस प्रक्रिया में एनआईपी टास्क फोर्स की रिपोर्ट में 1 फरवरी को पेश किए जाने वाले बजट के बारे में कुछ अहम संकेत दिए होंगे। उदाहरण के लिए टास्क फोर्स के अनुमान के मुताबिक 2019-20 में सकल घरेलू अनुपात (जीडीपी) की नॉमिनल वृद्घि करीब 8 फीसदी रहेगी जबकि पहले इसके 12 फीसदी रहने का अनुमान जताया गया था। नॉमिनल संदर्भ में 2019-20 में जीडीपी के 205.37 लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान है जो 2018-19 में 190 लाख करोड़ रुपये थी। टास्क फोर्स के मुताबिक नॉमिनल जीडीपी के 2020-21 में 10.5 फीसदी और 2021-22 में 12 फीसदी की रफ्तार से बढऩे का अनुमान है।
आर्थिक मामलों के सचिव अतनु चक्रवर्ती टास्क फोर्स के प्रमुख हैं। नीति आयोग के मुख्य कार्याधिकारी और वित्त मंत्रालय तथा दूसरे प्रशासनिक मंत्रालयों के सचिव इसके सदस्य हैं। तो क्या टास्क फोर्स के आंकड़ों से आपको मौजूदा आर्थिक वृद्धि परिदृश्य की थाह नहीं मिलती है जिसमें अगले वर्ष का बजट बनाया जा रहा है? हर कोई जानता है कि आर्थिक वृद्धि की गति धीमी पड़ रही है लेकिन इस रिपोर्ट के जारी होने से पहले सरकार में किसी ने भी नहीं कहा था कि 2019-20 में नॉमिनल वृद्धि केवल 8 फीसदी रहेगी। जाहिर है कि सरकार के कर राजस्व पर इसका प्रतिकूल असर होगा।
एनआईपी टास्क फोर्स की रिपोर्ट से यह पता भी चलता है कि बुनियादी ढांचा क्षेत्र के लिए अगले बजट में क्या हो सकता है। 2018-19 में बुनियादी ढांचा क्षेत्र के लिए केंद्र सरकार की सकल बजट सहायता 1.39 लाख करोड़ रुपये रही थी जो विभिन्न मदों के तहत सभी पूंजीगत व्यय के लिए सरकार की कुल बजट सहायता का 44 फीसदी है। 2019-20 में कुल पूंजीगत खर्च के लिए सकल बजट सहायता में बुनियादी ढांचा क्षेत्र के लिए बजट सहायता का हिस्सा 45 फीसदी यानी 1.53 लाख करोड़ रुपये है। टास्क फोर्स के मुताबिक 2020-21 में बुनियादी ढांचा क्षेत्र के लिए 1.86 लाख करोड़ रुपये के बजट सहायता की जरूरत होगी। अगर अगले वर्ष भी 44-45 फीसदी हिस्सेदारी बरकरार रहती है तो पूंजीगत व्यय के लिए केंद्र सरकार की सकल बजट सहायता 22 फीसदी बढ़कर 4.13 लाख करोड़ रुपये बढऩी चाहिए। 22 फीसदी से कम बढ़ोतरी का मतलब होगा कि वित्त मंत्रालय ने अपनी समिति की रिपोर्ट ही स्वीकार नहीं की है।
एनआईपी टास्क फोर्स का साथ ही कहना है कि बुनियादी क्षेत्र के लिए सरकार का कुल खर्च 2020-21 में 21 फीसदी बढ़कर 4.58 लाख करोड़ रुपये होना चाहिए जो 2019-20 में 3.77 लाख करोड़ रुपये है। यह एक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य है क्योंकि 2019-20 में बुनियादी क्षेत्र के लिए कुल व्यय में केवल 6.5 फीसदी की बढ़ोतरी की गई थी।
सरकार के कुल पूंजीगत खर्च (भारतीय रेल सहित सार्वजनिक इकाइयों की आंतरिक और अतिरिक्त बजट संसाधनों सहित) में बुनियादी क्षेत्र पर कुल सरकारी खर्च का हिस्सा 38 से 43 फीसदी के बीच रहा है। अगर यह हिस्सा 2020-21 में बरकरार रहता है तो अगले साल के बजट में सरकार के कुल पूंजीगत व्यय में 21 फीसदी बढ़ोतरी के साथ 10.65 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान होना चाहिए।
इन आंकड़ों से साफ है कि एनआईपी टास्क फोर्स ने अगले साल बुनियादी क्षेत्र के लिए सरकारी फंड में भारी बढ़ोतरी का सुझाव दिया है। क्या सरकार बुनियादी क्षेत्र के लिए ज्यादा वित्तीय खर्च की मांग को नजरदांज कर सकती है? और क्या बजट से कुछ दिन पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस कर एनआईपी टास्क फोर्स की रिपोर्ट जारी करने के फैसले का मकसद सरकार के भीतर प्रभावशाली वर्गों पर ज्यादा खर्च करने की जरूरत स्वीकार करने और राजकोषीय समेकन लक्ष्यों के लिए ज्यादा दबाव डालना है।