06-12-2024 (Important News Clippings)

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06 Dec 2024
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Date: 06-12-24

वैश्विक स्पर्धा में बने रहने की चुनौती स्वीकारें

संपादकीय

नीति आयोग के सीईओ ने कहा है कि ट्रम्प के आने के बाद भारत ग्लोबल व्यापार में ‘फर्स्ट स्लिप’ पर खड़ा है और उसे चुनाव करना है कि कैच ले या छोड़े। उन्होंने कहा कि ‘चाइना प्लस वन’ की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीति का भारत को सीमित लाभ ही मिल सका क्योंकि वियतनाम, थाईलैंड, कम्बोडिया, मलेशिया सस्ते श्रम, सरल कानून, कम टैक्स दरों व सक्रिय प्रणाली के कारण लाभ ले रहे हैं। उधर चिप बनाने वाले यंत्र, सॉफ्टवेयर, ऊंचे बैंडविथ की मेमोरी चिप के निर्यात पर अमेरिका द्वारा प्रतिबंध से नाराज चीन ने अगले ही दिन अपने यहां से गैलियम, जर्मेनियम, एंटीमनी और कई अन्य अति-महत्वपूर्ण मटैरियल भेजना रोक दिया है। वैश्विक व्यापार में अमेरिका का योगदान 70% है और भारत की हिस्सेदारी मात्र एक प्रतिशत है। इसे बढ़ाना देश के विकास के लिए एक मात्र शर्त है। नई परिस्थितियों में भारत के स्टील उत्पादक सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि घरेलू स्टील उद्योग की रक्षा के लिए विदेशी स्टील पर कर लगाकर उसका आयात हतोत्साहित करें, लेकिन स्टील खपत करने वाली आठ लाख एमएसएमई संस्थाओं की नाराजगी यह है कि उन्हें सस्ता विदेशी इस्पात मिलना बंद हो जाने से लाखों उद्योग बंद हो जाएंगे। मतलब वैश्विक स्पर्धा में आने के लिए अपने उत्पाद सस्ते बनाने होंगे।


Date: 06-12-24

क्या बांग्लादेश से हमारे रिश्ते अब टूटने की कगार पर हैं?

पलकी शर्मा, ( मैनेजिंग एडिटर )

जब बांग्लादेश में शेख हसीना का तख्तापलट हुआ तो इसे भारत के लिए झटका बताया गया था। लेकिन अब उसके चार महीने बाद भारत और बांग्लादेश के संबंध टूटने की कगार पर हैं। राजनयिक मिशनों को निशाना बनाया जा रहा है, राजनयिकों को तलब किया जा रहा है, राष्ट्रीय ध्वज का अपमान किया जा रहा है, हिंदू उपासकों पर कार्रवाई की जा रही है और भारत से व्यापार में रोकटोक या उसके बहिष्कार की बात की रही है।

यह सब कैसे हुआ? इसका उत्तर है- मोहम्मद यूनुस और उनकी राजनीति। वे चुने गए नेता नहीं हैं और कार्यवाहक के रूप में कमान संभाले हुए हैं। उनका काम व्यवस्था बहाल करना और चुनाव कराना था। लेकिन वे सुधारों की बात कर रहे हैं, जिसके लिए उनके पास कोई लोकप्रिय जनादेश नहीं है। वे वर्तमान अराजकता को ठीक करने के बजाय अतीत की कथित गलतियों से ग्रस्त हैं।

यूनुस और उनके समर्थक बांग्लादेश के संस्थापकों की विरासत को खत्म करने में व्यस्त हैं और इस प्रक्रिया में वे हिंदू अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहे हैं। हाल ही में एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि उनकी अंतरिम सरकार को चुनाव कराने में चार साल तक का समय लग सकता है।

इस बीच, सड़कों पर इस्लामिक कट्टरपंथियों का बोलबाला है। शेख हसीना की पार्टी अवामी लीग तस्वीर से बाहर है। दो अन्य पार्टियां ढाका की सत्ता पर नजर गड़ाए हैं- खालिदा जिया की बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी। कभी वे सहयोगी हुआ करते थे, लेकिन अब सत्ता के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। चीन जमातियों और बीएनपी की मेजबानी कर रहा है।

जमात का इतिहास दागदार है और उसकी राजनीति चरमपंथी है, लेकिन चीन को परवाह नहीं। बीएनपी उसकी पुरानी दोस्त है। जब बीएनपी ने बांग्लादेश पर शासन किया, चीन को फायदा हुआ। उन्हें सैन्य सौदे और निवेश के अवसर मिले, और ढाका ने भारत को दूर रखा। भारत ने भी बीएनपी से संपर्क किया है, लेकिन जमात से बात करना मुश्किल होगा। यह एक कट्टरपंथी और भारत विरोधी संगठन है। नई दिल्ली के पास सीमित विकल्प हैं और वे बहुत आशाजनक नहीं हैं।

दूसरी तरफ, यूनुस का रवैया स्थिति को बद से बदतर कर रहा है। समस्या को स्वीकार करने के बजाय वे भारतीय मीडिया को दोषी ठहरा रहे हैं। बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक याचिका में भारतीय समाचार चैनलों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई है और कहा गया है कि उनका कवरेज भड़काऊ है। बुधवार को यूनुस ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। इसमें शेख हसीना की अवामी लीग को छोड़कर सभी दल थे।

उन्होंने ‘बांग्लादेश पर सांस्कृतिक आधिपत्य स्थापित करने के भारत के प्रयासों और उसके आर्थिक उत्पीड़न की निंदा की।’ साथ ही, ‘बांग्लादेश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के भारत के प्रयासों’ की भी निंदा की। ये बहुत कठोर और बेबुनियाद आरोप हैं। वे किस हस्तक्षेप की बात कर रहे हैं?

भारत ने अंतरिम सरकार के गठन की कभी आलोचना नहीं की, भले ही वह असंवैधानिक था। न ही भारत ने शेख हसीना और उनके सहयोगियों पर कानूनी हमलों पर सवाल उठाया। भारत ने केवल तभी टिप्पणी की, जब हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमला हुआ। समस्या यह है कि अंतरिम सरकार अपनी स्थिति को लेकर असुरक्षित है। इसलिए उसे भारतीय हस्तक्षेप का डर सता रहा है।

यूनुस के मंत्रियों का कहना है कि भारत को अगस्त में हुए बदलाव को स्वीकार करना चाहिए। यह अजीब है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने व्यक्तिगत रूप से यूनुस को बधाई दी थी। भारत बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति का सम्मान करता रहा है।

लेकिन बांग्लादेश की तरफ से ऐसा सम्मान हमारे लिए नहीं दिखा, इसलिए भारतीय जनमत बदल गया। जब हिंदुओं पर भीड़ द्वारा हमला किया गया, मंदिरों में तोड़फोड़ की गई और भारतीय ध्वज का अपमान किया गया, तभी भारत मुखर हुआ। चार महीने चुप रहने के बाद अब हसीना भी बोल रही हैं।

पिछले हफ्ते उन्होंने अपने समर्थकों को वर्चुअली संबोधित किया और कहा कि उनके परिवार को मारने की साजिश की जा रही थी। उन्होंने यूनुस पर नरसंहार का भी आरोप लगाया। भारत सरकार पर दबाव है। हिंदू समूह रैलियां कर रहे हैं। विपक्षी दल सवाल पूछ रहे हैं। व्यापार समूह निर्यात रोक रहे हैं। नई दिल्ली ने अब तक संयम दिखाया है।

भारत परस्पर रिश्तों को बचाने के लिए एक और प्रयास कर रहा है। विदेश सचिव विक्रम मिस्री अगले सप्ताह ढाका जा सकते हैं। लेकिन यह यात्रा तभी कारगर होगी, जब यूनुस अपनी आंखों से पूर्वाग्रहों का चश्मा उतारेंगे।


Date: 06-12-24

साइबर सेंध

संपादकीय

साइबर अपराध की बढ़ती घटनाओं के बीच मोबाइल फोन का उपयोग करने वालों के लिए जोखिम लगातार बढ़ रहा है। एक ओर लोगों के डेटा निरंतर चुराने की खबरें आती हैं, वहीं अब मोबाइल में बेतहाशा सेंधमारी होने लगी है। इसका अर्थ है कि लोगों की निजता खतरे में है। बैंकिंग लेन- देन से लेकर उनकी तमाम गतिविधियों पर नजर है। मोबाइल उपयोगकर्ता की सभी जानकारियां पलक झपकते सेंधमारों तक पहुंच जाती है। इसके बाद क्या होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। फिलहाल तो इस खबर ने चिंता बढ़ा दी है कि हमारे यहां मोबाइल फोन में सर्वाधिक सेंधमारी हो रही है। ‘जेडस्केलर थ्रेटलैब्ज 2024 मोबाइल, आइओटी एंड ओटी थ्रेट रपट’ को गंभीरता से लेने की जरूरत है। इसके मुताबिक, दुनिया भर में हुई सेंधमारी के क्रम में भारत में सबसे अधिक अट्ठाईस फीसद हमले हुए। मोबाइल उपयोग करने वालों के लिए यह खतरे की घंटी है, तो दूरसंचार कंपनियों और मोबाइल निर्माताओं के लिए चेतावनी भी। उन्हें बढ़ते साइबर खतरों के बीच अब सुरक्षा उपाय के लिए नए कदम उठाने होंगे।

अंतरजाल की दुनिया में आंख मूंद कर किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जरा सी लापरवाही मुसीबत में डाल देती है। इसे गंभीरता से लेने की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि आज के दौर में सभी गतिविधियां मोबाइल, लैपटाप अथवा कंप्यूटर में केंद्रित हो गई है। लोग अपने से संबंधित कई संवेदनशील जानकारियां मोबाइल में रखते हैं। एक रपट के अनुसार, वास्तविक बैंकिंग वेबसाइट की हूबहू नकल वाली वेबसाइट तैयार कर ग्राहकों को भ्रमित किया जाता है। किसी अनजान लिंक पर पहुंचते ही साजिशों की घेराबंदी शुरू हो जाती है। मोबाइल ‘स्पाइवेयर’ से भी सतर्क रहने की जरूरत है, क्योंकि यह उपभोक्ताओं की निजी जानकारियां गुप्त तरीके से चुरा लेता है । सबसे बड़ा खतरा वित्तीय धोखाधड़ी का है। आज जब पूरी बैंकिंग मोबाइल में सिमट गई है, तो ऐसे में यह सेंधमारी किसी को कभी भी संकट में डाल सकती है। कई बार लोग कुछ ऐप डाउनलोड कर लेते हैं। ताजा रपट में आगाह किया गया है कि कोई दो सौ से अधिक ऐप सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक हैं। ऐसे में लोगों की सजगता ही ‘सुरक्षा ‘की दीवार साबित हो सकती है, मगर सरकार को भी एक ठोस तंत्र बनाने की जरूरत है।


Date: 06-12-24

वैश्विक ऊर्जा में भारत के लक्ष्य

कुमार सिद्धार्थ

हाल ही में जारी विश्व ऊर्जा दृष्टिकोण 2024 रपट वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों, ऊर्जा सुरक्षा की चुनौतियों और स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में किए गए प्रयासों पर केंद्रित है। यह रपट ऊर्जा क्षेत्र में आने वाली अनिश्चितताओं और उनके समाधान के लिए नीतिगत सुझाव प्रस्तुत करती है। इसमें भारत की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों और नवीकरणीय ऊर्जा के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है।

ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे के मद्देनजर इस रपट में यह चेतावनी दी गई है कि यदि वर्तमान नीतियों को मजबूत नहीं किया गया, तो वैश्विक तापमान इस सदी के अंत तक 2.4 सेल्सियस तक बढ़ सकता है। यह वृद्धि न केवल पर्यावरण के लिए हानिकारक होगी, बल्कि मानव समाज और आर्थिक गतिविधियों पर भी गंभीर प्रभाव डालेगी। भारत ने 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है और इस दिशा में सौर और पवन ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना तथा ऊर्जा दक्षता बढ़ाने के लिए स्मार्ट ग्रिड और स्मार्ट मीटर जैसी प्रौद्योगिकियों का उपयोग किया जा रहा है। जाहिर है, ये भारत का बड़े लक्ष्य हैं।

रपट में यह रेखांकित किया गया है कि रूस-यूक्रेन युद्ध और मध्य पूर्व में बढ़ते तनाव ने ऊर्जा आपूर्ति की सुरक्षा को लेकर गंभीर चुनौतियां खड़ी की हैं। इसके परिणामस्वरूप तेल और गैस की आपूर्ति शृंखलाओं में बाधाएं उत्पन्न हुई हैं। इससे दुनिया भर में ऊर्जा सुरक्षा के प्रति चिंता बढ़ी है। भारत (जो अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए बड़े पैमाने पर आयात पर निर्भर है) ने स्वदेशी संसाधनों को बढ़ावा देने और ऊर्जा स्रोतों में विविधता लाने की दिशा में कदम उठाए हैं। इसके तहत स्वदेशी ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि, सौर और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय स्रोतों का उपयोग और आपातकालीन तेल भंडार का निर्माण जैसी पहल पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।

पिछले कुछ वर्षों में स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में हुई प्रगति ने ऊर्जा उत्पादन की दिशा में एक नई क्रांति ला दी है। वर्ष 2023 में 560 गीगावाट से अधिक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता जोड़ी गई, जो दर्शाता है कि विश्व स्वच्छ ऊर्जा के प्रति तेजी से अग्रसर हो रहा है। भारत ने भी इस दिशा में कई ठोस कदम उठाए हैं। राष्ट्रीय सौर मिशन के तहत सौर ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाने, हरित हाइड्रोजन मिशन के माध्यम से ऊर्जा क्षेत्र में नवाचार करने और पवन ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएं बनाई गई हैं। उज्ज्वला योजना जैसी नीतियों के माध्यम से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्वच्छ ऊर्जा सुविधाओं का विस्तार हो रहा है।

विश्व ऊर्जा दृष्टिकोण 2024 रपट में यह भी अनुमान लगाया गया है कि अगले दशक में वैश्विक ऊर्जा मांग में वृद्धि होगी, जिसमें भारत, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका जैसे विकासशील देशों की प्रमुख भूमिका होगी। शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की तेज रफ्तार के कारण, भारत का भवन निर्माण क्षेत्र हर साल एक अरब वर्गमीटर से अधिक का क्षेत्र जोड़ने जा रहा है। इसके साथ ही, लोहे और इस्पात उत्पादन में 70 फीसद की वृद्धि और सीमेंट उत्पादन में 55 फीसद की वृद्धि की संभावना है। बढ़ते हुए मध्यम वर्ग और बदलती जलवायु परिस्थितियों के कारण, वातानुकूलन यंत्रों की मांग 4.5 गुना तक बढ़ने की संभावना है। चिंता की बात है कि इससे बिजली की खपत में भारी बढ़ोतरी होगी।

भारत की ऊर्जा नीति का एक अहम पहलू कोयले का उपयोग है, जो अभी भी ऊर्जा उत्पादन में प्रमुख भूमिका निभा रहा है। वर्ष 2030 तक, 60 गीगावाट कोयले की क्षमता जोड़ी जाएगी, जिससे कोयले से बिजली उत्पादन में 15 फीसद की वृद्धि होगी। हालांकि, भारत ने सौर और पवन ऊर्जा जैसे स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को तेजी से बढ़ावा दिया है। वर्ष 2035 तक, देश की बिजली उत्पादन क्षमता तीन गुना हो जाने की संभावना है, जिसमें प्रमुख योगदान नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का होगा।

परिवहन क्षेत्र में, भारत विद्युतीकरण की ओर कदम बढ़ा रहा है। सार्वजनिक परिवहन और दो/तीन पहिया वाहनों को इलेक्ट्रिक बनाने के लिए कई पहल की जा रही है। इस साल लागू की गई प्रधानमंत्री ई-ड्राइव योजना के अंतर्गत बीस लाख अस्सी हजार इलेक्ट्रिक दो/तीन पहिया वाहनों और 14,000 इलेक्ट्रिक बसों के निर्माण को प्रोत्साहित किया जाएगा। इसके साथ ही, फास्ट चार्जिंग स्टेशन की स्थापना के लिए भी व्यापक योजनाएं बनाई जा रही हैं।

विश्व ऊर्जा दृष्टिकोण 2024 रपट में स्वच्छ ऊर्जा तक पहुंच को बढ़ाने के लिए नवाचार और वित्तीय निवेश की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। भारत ने ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों में माइक्रो ग्रिड और ‘सोलर होम सिस्टम’ का विस्तार किया। नवीकरणीय ऊर्जा में निजी और अंतरराष्ट्रीय निवेश को आकर्षित करने के लिए नीतिगत सुधार किए जा रहे हैं। भारत वैश्विक ऊर्जा परिवर्तन के क्षेत्र में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है। वर्ष 2030 तक अपनी कुल ऊर्जा खपत में नवीकरणीय ऊर्जा का हिस्सा 50 फीसद तक बढ़ाने का लक्ष्य इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। ऊर्जा उत्पादन में आत्मनिर्भरता बढ़ाने और हरित प्रौद्योगिकियों के विकास के लिए किए गए प्रयास भारत को एक वैश्विक ऊर्जा नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित करने में सहायक होंगे।

स्वच्छ ऊर्जा का बढ़ता उपयोग न केवल पर्यावरण की सुरक्षा के लिए लाभकारी है, बल्कि इससे देश की अर्थव्यवस्था और समाज पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा हो रहे हैं और ऊर्जा उत्पादन की लागत में कमी आ रही है। इसके अलावा, स्वच्छ ऊर्जा के माध्यम से ग्रामीण इलाकों में ऊर्जा की उपलब्धता सुनिश्चित हो रही है और गरीब वर्ग को आधुनिक ऊर्जा सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं।

भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने और ऊर्जा क्षेत्र को अधिक टिकाऊ बनाने के लिए 2070 तक शुद्ध उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को पाने की दिशा में सरकार की नीतियां और योजनाएं प्रभावी साबित हो रही हैं। वर्ष 2035 तक, भारत की कुल उत्सर्जन 2.5 बिलियन टन तक पहुंचने की संभावना है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में व्यापक निवेश और नीति सुधार आवश्यक होंगे। विश्व ऊर्जा दृष्टिकोण 2024 रपट दरअसल वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र की बदलती आवश्यकताओं और भारत के प्रयासों को स्पष्ट रूप से सामने लाती है। ऊर्जा सुरक्षा और स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में भारत के प्रयास अन्य देशों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। सरकार, उद्योग और नागरिक समाज के समन्वित प्रयासों के माध्यम से भारत न केवल अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में सक्षम होगा, बल्कि वैश्विक ऊर्जा स्थिरता और जलवायु सुरक्षा सुनिश्चित करने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देगा।

यह रपट नीति निर्माताओं, उद्योग जगत और अन्य हितधारकों के लिए एक दिशा प्रदान करती है, ताकि स्वच्छ, सुरक्षित और समृद्ध ऊर्जा भविष्य की ओर तेजी से कदम बढ़ाया जा सके। भारत अपनी मजबूत ऊर्जा नीतियों और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ न केवल एक ऊर्जा महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है, बल्कि वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र में स्थिरता और समृद्धि के लिए एक मिसाल स्थापित कर रहा है। आने वाले दशक में भारत की ऊर्जा नीति और योजनाएं, इस विशाल देश के भविष्य को न केवल उज्ज्वल बनाएंगी, बल्कि दुनिया के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनेंगी।


Date: 06-12-24

क्या वाकई अच्छे हैं तीन बच्चे

प्रो. लल्लन प्रसाद

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघ संचालक डॉ मोहन भागवत का हालिया बयान, जिसमें उन्होंने तीन बच्चे समाज के लिए अच्छे की बात कही है, बहस का भारी मुद्दा बन गया है। इसके पहले आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों ने भी इस तरह का प्रस्ताव किया था। भारत विश्व का सबसे अधिक आबादी वाला देश है, दुनिया की 2.4% भूमि पर 17.5% आबादी रहती है।

देश जब आजाद हुआ था तब कुल आबादी 36 करोड़ थी। अब 144 करोड़ है। इतनी तेजी से आबादी में जो वृद्धि हुई उसने भारत को चीन से भी आगे कर दिया है। प्राकृतिक संसाधन सीमित होते हैं, जो अब 75 वर्षों के बाद पहले से और कम हो चुके हैं। यद्यपि अर्थव्यवस्था का विकास हुआ है, और उद्योगों का उत्पादन बढ़ा है, रोजगार के अक्सर भी पहले से अधिक हैं किंतु आबादी चार गुना हो चुकी है। इसमें बहुसंख्यक हिन्दुओं की आबादी विकास दर 49% कम हुयी है, जबकि अल्पसंख्यक मुस्लिम् आबादी 14% बढ़ी है। कुल आबादी बढ़ी है। किंतु प्रजनन दर में गिरावट आई है जो 2.1% से भी नीचे जा चुकी है, जिसे आबादी की निरंतरता के लिए सुरक्षित सीमा कहा जाता है। भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा मुस्लिम आबादी वाला राष्ट्र भी बन गया है। देश के कई जिले, जो तीन-चार दशकों पहले ही हिन्दू बहुल थे विशेषकर उत्तर पूर्व के, अब मुस्लिम बहुल हो गए हैं।

आबादी में इतनी तेजी से वृद्धि किंतु प्रजनन दर में कमी, और उसके फलस्वरूप जनसांख्यिकी में परिवर्तन और सामाजिक तनाव आबादी पर बहस को हवा दे रहे हैं। भागवत जी का मानना है कि आबादी दर में गिरावट परिवार व्यवस्था के लिए संकट की स्थिति पैदा कर सकती है। नई पीढ़ी में कम से कम बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यहां तक कि कुछ नौजवान, नवयुवतियां एक बच्चा भी नहीं चाहते। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़ों के अनुसार 2021 में एक महिला जीवनकाल में 2.2 बच्चे जनती थी जो 2015-16 में 2 पर आ गई, अब और नीचे जाने की आशंका जताई जा रही है। 1950 मे यह 6.2 थी, 2021 में 2 हो गई और यदि यही क्रम चलता रहा तो 2050 में यह 1.29 और 2100 में 1.04 पर पहुंच जाएगी। हिन्दू आबादी की विकास दर में कमी और मुस्लिम एवं क्रिश्चियन आबादी की विकास दर में वृद्धि हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बना देगी। ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है। संघ ने 2015 में विशद आबादी नीति का प्रस्ताव किया था, 3 वर्षों बाद आबादी के लिए एक समान कानून की मांग सभी धर्मों के लिए की थी। समान आबादी नीति के लिए यदि मुस्लिम और ईसाई धर्मावलंबी भी राजी हो जाएं तो आबादी में असंतुलन और उसके विनाशकारी प्रभाव की स्थिति से बचा जा सकता है। ‘हम दो हमारे दो’ के बाद ‘हमारे तीन’ की बात विरोधाभास की स्थिति बना रही है। अधिकांश देश, जहां आबादी तेजी से बढ़ रही है, गरीबी से जूझ रहे हैं, या विकास के पैमाने पर अभी भी विकसित पश्चिमी देशों से कहीं बहुत पीछे हैं। सबसे तेज आबादी का विकास सब-सहारन अफ्रीकी देशों में है, जहां अधिकांश लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं।

दक्षिण अमेरिका और भारत सहित दक्षिण एशिया के अधिकांश देश विकासशील की श्रेणी में आते हैं, जहां जीवन स्तर विकसित देशों की तुलना में नीचे है। भारत विश्व की चौथी आर्थिक शक्ति बन चुका है, और अगले कुछ वर्षों में तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाने की संभावना है, किंतु प्रति व्यक्ति आमदनी की दृष्टि से विकसित देशों की तुलना में बहुत पीछे है। अमेरिका में प्रति व्यक्ति आय 70000 डॉलर है जबकि भारत में मात्र 2700 डॉलर संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की 2023-24 की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में 193 देशों में 134वें स्थान पर है जो सोचनीय है। स्विट्जरलैंड नंबर वन पर है, चीन 75वें स्थान पर है। यह सूचकांक तीन बातों का संज्ञान लेता हैः लंबा और स्वस्थ जीवन, ज्ञान तक पहुंच और सभ्य जीवन स्तर भारत में जीवन प्रत्याशा विगत कुछ दशकों में तेजी से बढ़ी है, इस समय यह 68 वर्ष है किंतु विकसित देशों में इससे कहीं अधिक है, जापान में 34 वर्ष और अमेरिका में 77 वर्ष।

शिक्षा से अभी भी करोड़ों बच्चे वंचित हैं, बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, बाल मृत्यु दर भी भारत में विकसित देशों की अपेक्षा कहीं अधिक है। खाद्य पदार्थों और उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में लगातार वृद्धि, बच्चों की शिक्षा, मकान किराया, बिजली, पानी, यातायात आदि के बढ़ते खर्चों से आम आदमी स्त है। देश में आर्थिक असमानता भी बढ़ी है, कुछ औद्योगिक घरानों और बड़ी कंपनियों के हाथों में देश की संपत्ति का बड़ा हिस्सा संचित है। आर्थिक विकास के साथ आम आदमी की आमदनी में वृद्धि हुई है किंतु उतनी नहीं जो इतनी बड़ी आबादी को खुशहाली दे सके। ऐसे में आबादी बढ़ाने की बात जब की जाती है, तो सवाल उठना स्वाभाविक है। किंतु आबादी दर में गिरावट चिंता का विषय तो है। सामाजिक असंतुलन और तनाव के अतिरिक्त इसका एक दुष्प्रभाव और भी है-बच्चों और युवकों की आबादी में गिरावट और बूढ़ों की आबादी में वृद्धि जो स्थिति अधिकांश विकसित देशों में देखी जा रही है। यूरोप की आबादी आज लगभग उतनी ही है, जो दूसरे विश्व युद्ध के पहले थी। जन्म दर में भारी गिरावट के कारण आबादी नहीं के बराबर बढ़ी है। यूरोपीय देशों में श्रम की कमी के कारण शरणार्थियों को बसाने की होड़ लगी किंतु उसका घातक परिणाम उन्हें अब भोगना पड़ रहा है । जापान, दक्षिण कोरिया जैसे विकसित देशों में तो यह संकट की स्थिति पैदा कर चुकी है, वहां सरकारें अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहन दे रही हैं, करों में छूट दी जा रही है, मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य और बच्चों के लालन-पालन का खर्च, गर्भवती महिलाओं के लिए सवेतन छुट्टी आदि सुविधा दी जा रही है। मोहन भागवत का बयान पूरे भारतीय समाज के लिए है, सभी संप्रदाय के लोगों को मिल कर और नेताओ को सौहार्दपूर्ण वातावरण में देश हित में समस्या का हल निकालने चाहिए।


Date: 06-12-24

न्यायिक चुनौतियों का लगता अंबार

हरबंश दीक्षित

अदालतें आम आदमी की अंतिम आस होती हैं और इस आस को कायम रखने की चुनौती भी उतनी ही बड़ी होती है। मौजूदा समय में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन, मथुरा, काशी, संभल, अजमेर तथा इस तरह के तमाम दूसरे भावनात्मक, धार्मिक व राजनीतिक जटिलताओं वाले विवाद हमारी अदालतों की साख के लिए नित- नई चुनौतियां पेश करने लगे हैं।

आजकल अदालतों पर दबाव भी बहुत है और दबाव बनाने वाले सभी समूहों के अपने-अपने तर्क व पूर्वाग्रह हैं। देश में राजनीति का जो मिजाज दिखता है, उसमें संभव है कि आने वाले समय में ऐसे जटिल विवादों की संख्या बढ़ती चली जाए। आर्थिक विकास के साथ-साथ देश के विभिन्न समाज या समुदाय अपनी पहचान के प्रति सजग हुए हैं। ऐसे में, नए-पुराने तमाम तरह के लंबित, विवादित मामले अदालतों के सामने पेश किए जाने लगे हैं। सवाल उठने लगा है कि क्या इससे हमारे सामाजिक ताने-बाने को स्थायी रूप से क्षति पहुंचने लगी है? यह पहलू भी गौरतलब है कि सर्वस्वीकार्य निर्णय देना टेढ़ी खीर होती जा रही है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि अदालतें राजनीतिक या सामाजिक गोलबंदी से अलग और ऊपर होती हैं, इसलिए विवादों पर निर्णय देने का गुरुतर दायित्व उन्हें संभालना पड़ता है, किंतु इसके लिए जरूरी है कि वे अपनी निष्पक्ष छवि को लगातार बरकरार रखें। दुर्भाग्यवश, हमारी अदालतों की ओर से आ रही कुछ गैर-जरूरी और न्यायिकेतर टिप्पणियों से न्याय तंत्र की छवि प्रभावित हो रही है। अभी भी याद किया जाता है कि नूपुर शर्मा के मुकदमे की सुनवाई के समय सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ की ओर से उन्हें एक तरह से पूरे विवाद की जड़ बता दिया गया था। इसका व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। विभिन्न पक्षों ने अपनी जरूरत के मुताबिक उसमें नमक मिर्च लगाकर पेश किया। बेशक, वह गैर-जरूरी टिप्पणी थी, जिससे बचा जा सकता था। उस गैर-जरूरी टिप्पणी पर दोनों तरह की प्रतिक्रिया हुई थी। एक वर्ग इसका प्रशंसक हो गया, तो दूसरा न्याय भावना को संदेह की दृष्टि से देखने लगा। गैर-जरूरी टिप्पणियों की ताजा मिसाल देखिए, ईवीएम के प्रकरण में एक अदालती टिप्पणी प्रचारित हुई, मानो अदालत ने यह कहा हो कि आप जीतते हैं, तो ईवीएम अच्छी है और हारते हैं, तो खराब है। क्या यह कहने से बचा नहीं जा सकता था ?

अदालतों की टिप्पणियों का गहरा अर्थ होना चाहिए, क्योंकि लोग उनकी ओर कान किए रहते हैं । अदालती टिप्पणियों को समाज में नजीर की तरह पेश किया जाता है। गिनाने के लिए बहुत-सी टिप्पणियां हैं, जिनका मुकदमे के गुण-दोष से कोई संबंध नहीं है। जरूर सोचना चाहिए कि क्या इस तरह की टिप्पणियों से साख पर नकारात्मक असर नहीं पड़ता ?

आज के समय में लोग सब कुछ देखते और समझते हैं। न्यायमूर्तियों को निष्पक्ष होने और निष्पक्ष नजर आने के लिए शब्दों के प्रति ही नहीं, बल्कि आचरण के प्रति भी सावधान रहना चाहिए। उनकी समझदारी पूरी न्यायपालिका के सम्मान को नई ऊंचाई परले जाती है। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में जब चार न्यायाधीशों ने सैद्धांतिक दृढ़ता दिखाते हुए त्यागपत्र दिया था, तब न्यायपालिका की छवि को चार चांद लगे थे। एक बार तीन न्यायमूर्तियों ने केवल इसलिए त्यागपत्र दे दिया था, क्योंकि उनकी वरिष्ठता को नजरंदाज करते हुए कनिष्ठ न्यायमूर्ति को सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायाधीश बना दिया गया था | जब न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना की वरिष्ठता की अनदेखी करते हुए कनिष्ठ न्यायाधीश को प्रधान न्यायाधीश बना दिया गया, तब न्यायमूर्ति खन्ना ने त्यागपत्र दे दिया था। इन दोनों प्रकरणों से न्यायालय की प्रतिष्ठा में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। न्यायिक संस्था के प्रति आम लोगों के मन में आदर बढ़ा और वे न्याय व सत्यनिष्ठा के प्रतीक माने जाने लगे, पर जब कुछ न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से अपनी बातें कहीं, तो उसका समाज पर अलग असर पड़ा। उनका नैतिक कद छोटा हुआ। लोगों की निगाह में बे आम मानव जैसे नजर आने लगे। अदालतों को विधिक ताकत भले ही संविधान से मिलती हो, किंतु उनको मूल ताकत तो उनकी अपनी निष्पक्षता और संवेदना से मिलती है। आज के तेज बदलते दौर में यह बहुत जरूरी है कि गरिमामय आचरण और न्यायपूर्ण टिप्पणियों की मिसाल कायम रहे।

जन- विश्वास अदालतों की सबसे बड़ी पूंजी होती है। भरोसा टूटने पर समाज को अपूरणीय क्षति होती है। मिसाल के लिए, अमेरिका इसका भुक्तभोगी रहा है। एक बार अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी टिप्पणी कर दी थी या ऐसा फैसला सुना दिया था कि वहां गृह युद्ध शुरू हो गया था। डेज्ड स्कॉट बनाम सैनफोर्ड (1857) के मुकदमे का संबंध अश्वेत लोगों के अधिकारों से जुड़ा था। अमेरिका के मिशौरी सहित कुछ राज्यों ने कानून बनाकर अश्वेत गुलामों को गुलामी से मुक्त कर दिया था। उन्हें आजाद नागरिक के रूप में रहने का अधिकार दे दिया था। यह अधिकार केवल उन्हीं राज्यों तक सीमित था, जहां इसके लिए कानून था, इसलिए विवाद की स्थिति बनी रहती थी। इससे जुड़ा एक मुकदमा जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तब मुख्य न्यायाधीश रोजर बी नी ने 6 मार्च, 1857 को गुलामों को नागरिकता देने वाले कानूनों की अनदेखी करते हुए अश्वेतों के खिलाफ फैसला सुना दिया था। फैसले में कहा गया था कि गुलाम बनाए गए लोग अमेरिकी नागरिक नहीं माने जा सकते तथा अफ्रीकी लोग कभी भी अमेरिका के नागरिक नहीं हो सकते। इस फैसले की सबसे बड़ी खामी यह थी कि न्यायाधीशों ने कानून और संविधान की जगह अपनी व्यक्तिगत नस्लभेदी मानसिकता को तरजीह दी थी। अदालत के इस फैसले से अफ्रीकी गुलामों की अंतिम आस टूट गई थी और अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ गया था, जिसने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की भी बलि ले ली थी। उस घातक फैसले ने दुनिया की तमाम अदालतों को यह चेतावनी दी थी कि वे कानून और न्याय पर अपने मानवीय स्वार्थं या दुर्बलता को हावी न होने दें।

अब न्यायपालिका के सामने पहले से कहीं अधिक जटिल हालात हैं। हमारी सांप्रदायिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जटिलताओं के चलते हमें दूसरे देशों से ज्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। अतः संविधान व अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के साथ ही, उसे और मजबूत करने के लिए दुनिया के न्यायिक घटनाक्रमों से सबक लेने की जरूरत है।