05-04-2021 (Important News Clippings)
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Date:05-04-21
Home And The World
Along with wages for housework, address women’s exclusion in employment
Neetha N, [ Professor at the Centre for Women’s Development Studies, New Delhi ]
At a time when four states and the UT of Puducherry are heading for elections, housework and recognising those who do it have become topics of public discourse. In the poll-bound states in south India, housework has figured in manifestos. In Kerala, the ruling Left government has promised pensions for people who do housework. Shashi Tharoor, Congress MP from Kerala, has supported the idea of paying home workers, an idea which was first floated by the actor-politician Kamal Hassan in December 2020. In Tamil Nadu, apart from Kamal’s Makkal Needhi Maiam (MNM), housework figures in the manifestos of all major political parties, though the amount of payment promised varies from party to party.
The need to recognise the burden of housework on women has been an issue for long, limited to women’s and progressive movements. But how does one read the sudden recognition of housework by political parties? Many may think that it was Hassan’s promise that triggered its inclusion. Political parties do compete in terms of their promises. But wages for housework as an electoral promise needs to be understood in the larger context of its timing.
During the lockdown, when many families were homebound without help or the option of eating out, the burden of housework became striking. Men, who usually do not participate in much housework, were partially forced to share the work. This helped in busting the myth of housework being easy. For many middle-class families, housework is more than basic cooking and cleaning. There is also care work such as educating or overseeing children’s overall development and taking care of the elderly, which has increased with online schooling and reduced options of hospitalisation. For the poor, while these were not the concerns, the struggle to keep everyone fed with little or reduced income and caring for the ill were the challenges.
The acknowledgement of housework by political parties is surely the beginning of a welcome realisation of the need to reorient society to women’s contribution to housework. But how does one explain the apathy of political parties to women’s employment questions — their reluctance to address women’s exclusion in employment?
Workforce participation rates of women have been declining even before the pandemic. The data and field reports during the pandemic indicate a worsening of women’s employment with the participation rates falling to 11 per cent, against 71 per cent for men as per CMIE data. The decline is biased towards urban areas with the rate falling to 6.9 per cent. This fall in female employment is a matter of critical concern but has not received the required attention from political parties. Volunteer workers (ASHAs, Anganwadi volunteers and other scheme workers), though a part of the state machinery, are not even acknowledged as workers and are denied all labour rights. Paid domestic work is another sector which has for long been neglected from the perspective of labour laws and policies. In India as per PLFS 2018-19 data, there are considerable wage differentials between male and female workers, be it casual or regular wage work. It is true that women are never free from housework even when they are engaged as paid workers and primary breadwinners, and unpaid housework impacts women’s participation and nature of paid work. But how paying for housework would help in addressing the larger issues is debatable, especially from the perspective of women’s equality.
Addressing exclusionary and discriminatory tendencies in the labour market is surely a way to redefine the labour of women and this also needs to be given the required attention. The current indifference around women’s employment can only be seen as an acceptance of a larger economic reality, with state after state competing to ensure cheap and flexible labour. In the given economic context, providing wages for housework may prove advantageous to employers, since a part of household expenses of ill-paid workers would be now taken care of by “state-paid” homemakers. This essentially frees the former from the onus of paying a wage that provides for the social reproduction of the next generation of workers.
Date:05-04-21
धर्म और संस्कृति की भूमिका
आचार्य अरविंद आलोक, ( लेखक बौद्ध अकादमी के निदेशक हैं )
धर्म एवं संस्कृति पर प्राय: होने वाली बहस में यह भुला दिया जाता है कि भारत की पहचान सदा से धर्म एवं संस्कृति ही रही है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां धर्म संस्कृति का आधार है, वहीं संस्कृति धर्म की संवाहिका है। दोनों ही अपने-अपने परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र के निर्माण एवं राष्ट्रीयता के संरक्षण में सहायक सिद्ध होते हैं। जहां धर्म अपनी स्वाभाविकता के साथ सामाजिक परिवेश का आधार बनता है, वहीं संस्कृति सामाजिक मूल्यों का स्थायी निर्माण करती है। कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि धर्म का सूत्र मानव के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करता है तो वहीं संस्कृति मानवीय संवेदनाओं को सामाजिक सरोकार से जोड़ती है। इस तरह धर्म कालांतर में संस्कृति का रक्षण करता है और संस्कृति धर्म के आधार का उन्नयन करती है।
धीरे-धीरे हमारी धार्मिक मान्यताएं और स्थिर होती गईं और संस्कृति का क्रमिक विकास होता गया। कहना गलत नहीं होगा कि धर्म और संस्कृति ने मिलकर हमारी भारतीयता को विकसित किया। यह भारतीय धर्म की विशेषता रही है कि वह जटिलताओं में जकड़ा न रहा और सतत चिंतन की अवधारणा को विकसित होने में सहायक सिद्ध हुआ, जिसके कारण अनेक भारतीय धर्मों का उदय हुआ। बौद्ध, जैन एवं बाद में सिख धर्म ने अपनी चिंतनशैली को विकसित किया, परंतु मूल में सनातन धर्म ही रहा। सनातन धर्म का आशय हिंदू धर्म मात्र से नहीं, बल्कि बौद्ध, जैन, सिख धर्म से भी है। भगवान बुद्ध एवं महावीर ने सनातन धर्म के संस्कार में ही जन्म लिया और इस तरह उन्होंने अपने चिंतन को स्वतंत्र स्वरूप प्रदान कर नई धार्मिक व्यवस्था का निर्माण किया। भगवान बुद्ध ने सनातन धर्म के अनेक पहलुओं में परिपक्वता प्रदान की और उनमें व्याप्त कुंठित व्यवहारों और विचारों से मुक्त होकर भारतीय धर्म को मजबूत किया। उन्होंने धर्म की स्वतंत्र व्याख्या अवश्य की, पर मूल में उसके सांस्कृतिक चिंतन को सर्वोच्च स्थान दिया। भारतीय मानसिकता को धर्म की वास्तविकता से संयुक्त किया और हर वर्ग को धर्म से होने वाले लाभ को सुनिश्चित किया।
भारतीय मूल दर्शन सनातन धर्म को दर्शाते हैं और इस तरह हिंदू, बौद्ध, जैन एवं सिख धर्म उस व्यवस्था को मजबूत करते हैं। यद्यपि इन धर्मों को अपने-अपने परिवेश में विकसित होने में धार्मिक स्वतंत्रता अवश्य रही, परंतु सांस्कृतिक एकता बनी रही। भारतीय संस्कृति के समग्र विकास में भारत के सभी धर्मों ने अपना-अपना योगदान दिया। इस प्रकार भारत की सामाजिक व्यवस्था धार्मिक एवं सांस्कृतिक होते हुए भी वैज्ञानिक विचारों को हमेशा आत्मसात करती रही। विकास की नई संभावनाओं को संबल प्रदान करती रही। धर्म के मार्गदर्शन में ही भारतीय चिंतन व्यवस्था पनपी और कालांतर में विश्व की चिंतन व्यवस्थाओं और मान्यताओं को प्रभावित करती रही। परिणामस्वरूप भारत धर्म गुरु के रूप में स्थापित हुआ और इस तरह भारत का संबंध विश्व में प्रभावी रूप से कायम हुआ। भारत में धार्मिक दृष्टिकोण तो प्रचलित हुआ ही, साथ ही राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक संबंधों को भी पनपने और विकसित होने में सफलता मिली। विश्व के अनेक देशों के साथ कई एशियाई देशों से विशेष रूप से हमारा संबंध प्रगाढ़ बना और भारतीय धर्म एवं संस्कृति का भी सम्यक विकास हुआ। आज उन देशों में भारतीय धर्म एवं संस्कृति की विरासत पूरी तरह संरक्षित है, जो इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि भारतीय धर्म एवं संस्कृति किसी भी देश अथवा वर्ग की मान्यताओं को समाप्त नहीं करती, बल्कि उनका परिमार्जन करती है।
आज हम पाते हैं कि भारतीय चिंतन पर आधारिक अनेक शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएं दुनिया के विभिन्न हिस्सों में स्थापित होकर काम कर रही हैं। वे हमारी विरासत का संरक्षण ही कर रही हैं। भाषा के मामले में भी देखें तो भारतीय भाषाओं ने विश्व की भाषाओं को प्रभावित किया और कई विदेशी भाषाओं के निर्माण में भारतीय भाषाओं ने योगदान दिया। एशियाई देशों की अधिकतर भाषाएं संस्कृत, पालि एवं प्राकृत पर आधारित हैं। इस तरह इन भाषाओं से विकसित विदेशी भाषाओं से भारतीय दर्शन एवं संस्कृति का सहज ही ज्ञान परिलक्षित होता है।
भारतीय भाषाविदों, धार्मिक गुरुओं एवं संस्कृति को पोषित करने वाले व्यक्तियों ने विश्व में अपनी पहचान बनाकर भारत की गरिमा को हमेशा गौरव प्रदान किया। अनेक लोग भारतीय धर्म एवं संस्कृति के माध्यम से आज भी निरंतर सक्रिय हैं। आवश्यकता इसकी है कि भारतीय धर्म एवं संस्कृति के विभिन्न आयामों को आधुनिक परिवेश में परिभाषित किया जाए और इन क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे न केवल भारत का सांस्कृतिक संबंध दुनिया से मजबूत होगा, बल्कि आर्थिक एवं राजनयिक संबंध भी प्रगाढ़ होंगे।
Date:05-04-21
नक्सलियों का कहर
संपादकीय
छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के जंगलों में शनिवार को नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर एक बार फिर बड़ा हमला कर अपनी ताकत का संदेश देने की कोशिश की है। यह हमला बता रहा है कि नक्सलियों के हौसले कहीं से कमजोर नहीं पड़े हैं, बल्कि सुरक्षा बलों के अभियानों के बाद उनकी ताकत और उग्रता बढ़ी है। साथ ही, छापामार युद्ध के लिए जरूरी संसाधन उनके पास हैं और अत्याधुनिक हथियारों व गोलाबारूद आदि की निर्बाध आपूर्ति भी उन्हें मजबूत बना रही है। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि नक्सलियों का खुफिया सूचना तंत्र इतना चाकचौबंद है कि उसके आगे सरकारी तंत्र बौना साबित हो रहा है। वरना क्या कारण है कि नक्सलियों के खिलाफ जब भी किसी बड़े हमले के लिए सुरक्षा बल मोर्चे पर जाते हैं तो नक्सली उन्हें घेर लेते हैं और भारी नुकसान पहुंचा देते हैं!
इस तरह का हमला कोई पहली बार नहीं हुआ। ठीक ग्यारह साल पहले (छह अप्रैल 2010) दंतेवाड़ा जिले में हुए उस हमले को भुलाया नहीं जा सकता जब नक्सलियों ने सुरक्षा बलों के छिहत्तर जवानों को घेर कर मार डाला था। साल 2013 में जीरम घाटी में नक्सली हमले में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के कई नेताओं सहित तीस लोग मारे गए थे। साल में एक दो ऐसे बड़े हमले करने के पीछे नक्सलियों की मंशा अपनी मौजूदगी और शक्ति का एहसास कराने की रहती है। पिछले साल इक्कीस मार्च को सुकमा जिले में एक बड़े हमले में सत्रह जवान शहीद हो गए थे। दरअसल ऐसे बड़े हमलों को अंजाम देने वाला शीर्ष नक्सली नेता मादवी हिडमा सुरक्षा बलों के लिए बड़ा सरदर्द बना हुआ है। एक खुफिया सूचना पर ही अलग-अलग बलों के दो हजार से ज्यादा जवानों का दल हिडमा को पकड़ने के लिए शुक्रवार को बीजापुर और सुकमा के जंगलों में गया था। शनिवार को जंगलों में तलाशी के दौरान नक्सलियों ने इन जवानों के घेर लिया और कई घंटे मुठभेड़ चली। नक्सल प्रभावित जिले घने जंगलों वाले हैं और इन जंगलों में ही नक्लसियों के ठिकाने हैं जहां पहुंच पाना किसी के लिए आसान नहीं होता। न ही किसी के बारे में कोई सटीक सूचना होती है। ऐसे में सुरक्षा बलों के लिए जोखिम और बढ़ जाता है और अक्सर वे हमलों का शिकार हो जाते हैं।
सवाल है कि नक्सलियों से निपटने की रणनीति आखिर कारगर साबित क्यों नहीं हो रही? दशकों बाद भी क्यों नहीं केंद्रऔर राज्य सरकारें नक्सलियों की कमर तोड़ पाने में कामयाब हो पाईं? हमलों में जिस तरह से जवानों की जान चली जाती है, उससे तो लगता है कि नक्सलियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियानों में कहीं न कहीं गंभीर खामियां रह जाती हैं। खुफिया सूचनाओं और सही फैसलों के तालमेल के अभाव में ठोस रणनीति नहीं बन पाती और जवान मारे जाते हैं। दुख और हैरानी की बात यह भी है कि सरकारों के स्तर पर नक्सलियों से किसी भी तरह के संवाद का रास्ता नहीं बन पाया है। हर बड़े हमले के बाद सिर्फ नक्सलियों के सफाए अभियान पर ही जोर रहता है। नक्सली समस्या का समाधान बहुआयामी प्रयास मांगता है, जिसमें सबसे संवाद भी उतना ही जरूरी है, जितनी कि कार्रवाई और साथ ही सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक प्रयास। पूरी तरह से नक्सलियों का सफाया आसान नहीं है, यह सरकार भी जानती है। इसलिए इस समस्या से निपटने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों को नए सिरे से रणनीति बनाने की जरूरत है।
Date:05-04-21
फंस गए जाल में
संपादकीय
नक्सलियों ने एक बार फिर छत्तीसगढ़ में खून की होली खेली। अभी तक जो खबर आई है, उसके मुताबिक नक्सलियों ने घात लगाकर जवानों पर हमला किया जिसमें 24 जवान शहीद हुए हैं। अभी भी कई जवान लापता बताए जाते हैं। पिछले साल छत्तीसगढ़ के सुकमा में मुठभेड़ में 17 जवान शहीद हुए थे। शहीद होने वाले जवानों में एसटीएफ और डि़्ट्रिरक्ट रिजर्व गार्ड़ (ड़ीआरजी) के जवान शामिल थे। दुखद तथ्य यह है कि कुछ दिनों के अंतराल पर नक्सली गुट इस तरह के हमले करते रहते हैं। खास तौर पर छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का आतंक ज्यादा है। खुफिया विभाग की तमाम चेतावनियों और सूचनाओं के बावजूद ऐसे हमले रुक नहीं पा रहे हैं। गौरतलब है कि देश के 9 से ज्यादा राज्य नक्सलवाद से प्रभावित हैं। नक्सली बड़े पैमाने पर वसूली करते हैं। आतंकवाद‚ वामपंथी उग्रवाद‚ धार्मिक कट्टरता और जातीय हिंसा देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती हैं‚ और इन चुनौतियों से कड़ाई किन्तु संवेदनशीलता निपटना होगा और लगातार सतर्क भी रहना होगा। नक्सलवाद देश की सुरक्षा के लिए किस कदर खतरनाक है‚ यह पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान से समझा जा सकता है। उन्होंने नक्सलियों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। नक्सली समस्या के बारे में पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा था कि नक्सलवादी जनजातियों के एक गुट और कुछ इलाकों में अत्याधिक निर्धनों का समर्थन हासिल करने में कामयाब रहे हैं। स्वाभाविक तौर पर सरकारों को आदिवासियों‚ गरीबों और हाशिये पर रह रहे लोगों का जीवन स्तर उठाना होगा। इसके लिए विशेष प्रयास की जरूरत है। हालांकि पूर्व में कई सारी योजनाएं बनीं‚ मगर कायदे से इन्हें अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। नतीजतन‚ रह–रह कर नक्सली सुरक्षा बलों को निशाना बनाते हैं। कई मामलों में तो देखा गया है कि इन लोगों ने आमजन को भी अपना शिकार बनाया है। ऐसा सिर्फ सरकारी तंत्र की विफलता है। नक्सलियों को जड़़ से समाप्त करना है तो केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल बिठाना होगा। खुफिया तंत्र को भी चौकस रहना होगा। आमजन में सरकारों को भरोसा पैदा करना होगा कि वही उनकी रहनुमा हैं। नक्सलियों के उस जाल को सबसे पहले नेस्तनाबूद करना होगा‚ जिसकी बदौलत वे ग्रामीणों को ड़रा–धमका कर रखते हैं। कहने का आशय यही कि हमें सही और अचूक रणनीति बनानी होगी। इस तरह का नुकसान अक्षम्य है।
Date:05-04-21
छोटी बचतों का साथ न छूटे
आलोक जोशी, ( वरिष्ठ पत्रकार )
वित्त मंत्रालय से आया अप्रैल फूल का झटका तो वापस हो गया, लेकिन यह सवाल हवा में तैर रहा है कि एनएससी, पीपीएफ और अन्य छोटी बचत योजनाओं पर ब्याज दर आगे भी बरकरार रहेगी या मौजूदा विधानसभा चुनावों के खत्म होने के बाद यानी अगली तिमाही में कटौती होगी? कहा गया है कि वित्त मंत्रालय से ब्याज दर कम करने का जो आदेश जारी हुआ, वह भूल से जारी हो गया था। यह बताने के लिए वित्त मंत्री ने अंग्रेजी में एक शब्द इस्तेमाल किया, ‘ओवरसाइट’। शब्दकोश में इसके कई अर्थ हैं। पहला और प्रचलित अर्थ तो है, निगरानी या नजर रखना। पूर्व केंद्रीय सचिव अनिल स्वरूप ने अपने ट्वीट में चुटकी भी ली कि अगर ‘ओवरसाइट’ इस्तेमाल की जा रही होती, तो शायद यह ‘ओवरसाइट’ न होती। मतलब यह है कि अगर कामकाज पर किसी की नजर होती, तो ऐसी चूक नहीं होती। शब्दकोश में ओवरसाइट का दूसरा अर्थ चूक ही है।
जाहिर है, वित्त मंत्री यही कहना चाहती हैं कि ब्याज दरों में कटौती का आदेश गलती से जारी हो गया। लेकिन अर्थव्यवस्था और राजनीति पर बारीक नजर रखने वालों की राय है कि आदेश वापस भले ही हो गया, लेकिन उसका जारी होना कोई चूक नहीं, बल्कि वक्त की जरूरत थी। कुछ आर्थिक विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि दरों में कटौती वापस लेने का फैसला ही सरकार की गलती है।
लेकिन उस किस्से पर चलने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर यह आदेश वापस हुआ क्यों? यहां एक महत्वपूर्ण आंकड़ा देखना पड़ेगा। देश भर में किस-किस राज्य के लोग छोटी बचत योजनाओं में कितना पैसा जमा करते हैं? इसके एकदम ताजा आंकड़े तो अभी सामने नहीं हैं, पर नेशनल सेविंग्स इंस्टीट्यूट ने 2017-18 तक के आंकड़े जारी किए हैं। इनके मुताबिक, इन स्कीमों में सबसे ज्यादा पैसा बंगाल से जमा होता है, पूरे देश के मुकाबले उसकी हिस्सेदारी 15 फीसदी से ऊपर है। और, जिन चार राज्यों व एक केंद्र शासित क्षेत्र में अभी विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वे सब मिलकर इन स्कीमों में करीब एक चौथाई पैसा देते हैं। जाहिर है, पैसा जमा करने वाले ये सारे परिवार ब्याज में कटौती से नाराज हो सकते थे। कोई भी सरकार ऐन चुनाव के दिन अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने वाला ऐसा फैसला जानते-बूझते तो करेगी नहीं।
मगर वित्तीय व्यवस्था पर नजर रखने वालों का तर्क है कि पूरी दुनिया में ब्याज दरें घट रही हैं। कर्ज भी सस्ता हो रहा है और बैंकों की जमा-राशि पर भी ब्याज दरें काफी गिर चुकी हैं। अमेरिका में शून्य फीसदी, तो जर्मनी में ब्याज लेने के बजाय उल्टे ब्याज देने की व्यवस्था, यानी ‘निगेटिव इंटरेस्ट रेट’ हो गई है। भारत सरकार भी बॉन्ड जारी करके जो कर्ज ले रही है, उस पर ब्याज दर काफी गिर चुकी है। ऐसे में, छोटी बचत योजनाओं का ब्याज कम नहीं किया गया, तो इसके दो खतरे हैं। एक तो यह कि लोग बैंकों से पैसा निकालकर इस तरफ खिसकाना शुरू कर सकते हैं, जो बैंकों के लिए घातक हो सकता है। अगर उन्हें डिपॉजिट कम मिलेंगे, तो फिर वे लोन कैसे देंगे? चारों ओर गिरती ब्याज दरों के बीच देश की सबसे बड़ी हाउसिंग फाइनेंस कंपनी एचडीएफसी ने अपने फिक्स्ड डिपॉजिट पर ब्याज दर चौथाई फीसदी बढ़ाने का एलान कर दिया। इसका साफ मतलब है कि या तो कंपनी के पास डिपॉजिट कम हो रहे हैं या फिर उसके पास कर्ज की मांग बढ़ने लगी है, जिसे पूरा करने के लिए उसे और रकम चाहिए।
सरकार का खजाना और हिसाब-किताब देखने वाले अधिकारियों की दूसरी बड़ी फिक्र यह है कि अगर छोटी बचत योजनाओं का ब्याज कम नहीं किया गया, तो इससे सरकारी खजाने पर ही बोझ बढ़ेगा, क्योंकि इस ब्याज का भुगतान तो सरकार को ही करना होता है। अभी सरकार के खजाने पर दबाव जारी है और कोरोना के ताजा हमले की वजह से आर्थिक स्थिति में सुधार पर फिर ब्रेक लगने का डर बढ़ रहा है। इस हालत में कहीं से भी खर्च बढ़ाने वाला कोई भी काम करना समझदारी नहीं माना जाएगा। लिहाजा यह मानने का कोई कारण नहीं है कि वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने यह सब सोच-समझकर ही छोटी बचत पर ब्याज घटाने का फैसला किया था, और इसीलिए यह आशंका बनी हुई है कि जैसे ही राजनीति का दबाव घटेगा, आर्थिक तर्कशास्त्र हावी होगा और यह फैसला वापस आ जाएगा।
आर्थिक उदारीकरण और नवीन अर्थशास्त्र के पैरोकार भी कहते रहे हैं कि आम जनता का पैसा सीधे या म्यूचुअल फंड स्कीमों के जरिए शेयर बाजार में जाएगा, तभी अर्थव्यवस्था पूरी रफ्तार पकड़ेगी। मोटे तौर पर ये विशेषज्ञ छोटी बचत योजनाओं में बड़ी रकम जमा होने को अच्छा नहीं मानते। लेकिन सरकार को और इस तर्क के समर्थकों को कुछ सवालों के जवाब भी देने चाहिए। लघु बचत की ज्यादातर योजनाओं में जमा होने वाला पैसा कम से कम एक साल और ज्यादा से ज्यादा 15 साल के लिए लॉक रहता है। यानी, सरकार लंबी जरूरतों के लिए इस पैसे का इस्तेमाल कर सकती है। वह इसे सही जगह लगाकर इस पर बेहतर रिटर्न भी दिला सकती है। आखिर 1986 से 2000 तक पीपीएफ पर 12 फीसदी का सालाना ब्याज मिलता रहा। हालांकि, उसके बाद से ही इसमें गिरावट का सिलसिला चल रहा है। सिर्फ पिछली सरकार के दौरान दो बार इसमें हल्की बढ़त हुई।
बहरहाल, इन योजनाओं की शुरुआत इसलिए की गई थी, ताकि आम जनता में बचत की आदत डाली जा सके, उनका पैसा सुरक्षित हाथों में रहे और सरकार को विकास योजनाओं के लिए पैसे मिल सकें। योजनाओं की सफलता का सुबूत है कि देश भर में घरेलू बचत का 80 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा इन्हीं योजनाओं में जाता है। 2008 के आर्थिक संकट के वक्त भारत दुनिया के सामने मजबूती से खड़ा रहा, उसका बहुत बड़ा श्रेय लघु बचत योजनाओं को जाता है। ब्याज दर घटाने के पीछे तमाम तर्क हो सकते हैं, लेकिन आम आदमी के पैसे की सुरक्षा का क्या इंतजाम हो रहा है, इसका भी जवाब सरकार की तरफ से आना चाहिए। खासकर यह देखते हुए कि आने वाले वक्त में नौकरियों पर खतरे की तलवार लटकी ही रहने वाली है। ऐसे में, लोगों में बचत की आदत को बढ़ावा देना सरकार के लिए भी फायदेमंद होगा।