05-04-2019 (Important News Clippings)

Afeias
05 Apr 2019
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Date:05-04-19

Decentralise Justice

A Court of Appeal will help Supreme Court focus on weightier matters of national importance

TOI Editorials

The Congress manifesto promising a Court of Appeal between the high courts and Supreme Court is a sensible proposal that must be top priority for the next government irrespective of the party that comes to power. Currently, Supreme Court is weighed down hearing sundry appeals, special leave petitions, and other original litigation leaving little time for constitutional matters or select cases of public importance. Constitution was the court’s focus area in the initial decades since Independence. But with India’s economy taking off and litigation also rising proportionately with the stakes, SC has become the final word on even routine cases like business disputes, dishonouring of contracts, and even bail matters.

Beset by these cases, which number nearly 58,000 as on April 1, SC has struggled to dispose of the 560 constitutional bench matters pending before it. By restricting itself to interpretation of the Constitution, Supreme Court can rebut the contention that it has become all too powerful. However, the argument that an activist court is needed to respond to institutional failures is equally persuasive. Some SC judges have complained about their workload but successive governments haven’t paid heed. A 2016 study found that in some high courts, judges could devote just five or six minutes to decide a case.

Consequently, many litigants are left dissatisfied by the quality of justice dispensed and prefer an appeal to SC. Congress’s proposal of a Court of Appeal “to sit in multiple benches of three judges each in six locations” can remedy the situation and also make justice accessible. The resources to travel to Delhi and engage lawyers with so-called “face value” before judges are available only to well-heeled litigants. Ultimately, even this flawed system is susceptible to breakdown if vacancies are not filled as soon as they emerge.

High courts – the feeder pool for the proposed Court of Appeal – have 399 vacancies against 1,079 posts. One solution to retaining judges in the system would be to raise retirement age of HC judges to 65 and SC judges to 70. Another approach would be bottom up, by creating an All India Judicial Service that would infuse talent in the lower judiciary and help dispel Chief Justice Ranjan Gogoi’s grievance that good lawyers to elevate as judges are hard to find. Multiple Law Commission reports have mooted a smaller Supreme Court supported by regional courts of appeal. Politicians and judges must work together to make this a reality.


Date:05-04-19

Tackle Rigidities in Credit Markets

Rate cuts hold less punch than regulatory moves

ET Editorials

The central bank has chosen not to throw any surprise, cutting the repo rate by 25 basis points, and maintaining a neutral policy stance. However, this neutrality already blurs into accommodative, given the vast quantities of liquidity injected into the system in the recent past and the permission granted to banks to count an additional two percentage points of their government bond holding under the statutory liquidity ratio mandate against the high quality liquid assets they are obliged to hold as a prudential measure — to be able to meet a surge in net cash outgo, as could happen in a panic when depositors demand their cash back — called the liquidity coverage ratio mandate. Banks would have additional resources freed up to lend, in consequence.

RBI expects growth to accelerate from last fiscal’s 7% to 7.2% in 2019-20, regardless of global slowdown and its effect on the country’s exports. The strongest predictor of growth has been a steady, seven-quarter rise in gross fixed capital formation, whose ratio to GDP in nominal terms had plunged below 30% and refused to regain lost ground during the last nearly five years. Capacity utilisation still remains well below 80%. The only way for growth to pick up momentum is for banks to start lending again and for the government to revive public-private partnership (PPP) in infrastructure, incorporating the right lessons from the mistakes in PPP contracts of the past.Inflation has been more muted, yet again, than RBI had expected in the past quarter. RBI has marginally lowered its inflation forecast for the coming quarters, making room for expectations of further rate cuts in the future.

A 2014-15 Budget proposals to allow non-residents to buy and sell Indian government bonds via international central securities depositories is being activated. A task force to give life to the secondary market for corporate bonds is most welcome, as also a committee on facilitating greater securitisation of mortgages. These regulatory measures hold greater promise than mere rate cuts, given the rigidities in India’s credit markets.


Date:05-04-19

वृद्धि के लिए कटौती

संपादकीय

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने लगातार दूसरी बार 25 आधार अंकों की कटौती की है। हालिया नीति में व्यापक संदेश यही है कि अगस्त 2017 के बाद गत फरवरी में मानक दर में जो पिछली कटौती की गई थी वह सिलसिला अब भी जारी है। इसके साथ ही मौद्रिक नीति का रुख भी समाकलित सख्ती से बदलकर निरपेक्ष कर दिया गया था। वह सिलसिला भी जारी है क्योंकि एमपीसी शायद मॉनसून की स्थिति, ईंधन कीमतों और अगले बजट जैसे अनिश्चित कारकों पर और अधिक स्पष्टता चाहती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एमपीसी ने वर्ष 2019-20 में देश के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्घि को लेकर अपना अनुमान 7.4 फीसदी से कम करके 7.2 फीसदी कर दिया है। व्यापक संदेश यह है कि ऐसे वक्त में जबकि मुद्रास्फीति सीमित है और वृद्घि संघर्ष कर रही है, तब आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। आरबीआई ने यह कहकर अपनी प्राथमिकताएं स्पष्टï कर दी हैं कि घरेलू वृद्घि की मजबूत करने की जरूरत है और इस क्रम में निजी निवेश को बढ़ावा देना होगा जो काफी हद तक धीमा है।

रीपो दर में जो ताजा कटौती की गई है वह अनुमान के अनुरूप ही है। यह सच है कि मुख्य खुदरा महंगाई, जिसका आकलन उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में सालाना आधार पर आए बदलाव के अनुरूप किया जाता है, उसमें फरवरी में 2.6 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इससे पहले इसमें लगातार चार महीने तक गिरावट दर्ज की गई थी। आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने जोर देकर कहा कि यह बढ़ोतरी अनुमानित से कम है। हाल के दिनों में असली चिंता यह है कि मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी मुख्यतौर पर गैर खाद्य और गैर ईंधन क्षेत्र की वस्तुओं की मूल्य वृद्घि के कारण हो रही है। परंतु आरबीआई के नीतिगत वक्तव्य में यह भी उल्लेख किया गया कि आरबीआई के घरेलू सर्वेक्षण के आधार पर आकलित मुद्रास्फीति संबंधी अनुमान फरवरी में पहले की तुलना में 40 आधार अंक घटा है।

ऐसे में मुख्य चिंता है आर्थिक वृद्घि में आ रहा धीमापन। ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि वृद्घि में चिंतित करने की हद तक धीमापन दर्ज किया गया है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने फरवरी 2019 में 2018-19 का जो दूसरा अग्रिम अनुमान जारी किया उसमें देश के वास्तविक जीडीपी वृद्घि अनुमान को पहले अग्रिम अनुमान के 7.2 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी कर दिया गया। यह घरेलू खपत में निजी और सार्वजनिक दोनों तरह की गिरावट का संकेतक था।

अन्य प्रमुख संकेतक मसलन औद्योगिक उत्पादन सूचकांक और आठ प्रमुख उद्योगों की वृद्घि भी निराशाजनक रही। निवेश गतिविधियों के संकेतक मसलन जनवरी में पूंजीगत वस्तुओं का उत्पादन और फरवरी में इनका आयात, दोनों कम हुए। हालांकि सबकुछ बुरा नहीं रहा। मिसाल के तौर पर विनिर्माण क्रय प्रबंधक सूचकांक (पीएमआई) मार्च में लगातार 20वें महीने विस्तार दर्शाने वाला रहा। इसी तरह विनिर्माण क्षेत्र के संकेतक मसलन इस्पात खपत और सीमेंट उत्पादन के क्षेत्र में अच्छी वृद्घि देखने को मिलती रही।

एकमात्र निराश करने वाली बात यह रही कि नीतिगत क्षेत्र में ब्याज दरों के पारेषण में कमी की समस्या को हल करने के लिए समुचित कदम नहीं उठाए गए। आरबीआई द्वारा फरवरी में 25 आधार अंकों की कटौती के बावजूद बैंकों ने अपनी ऋण दर में केवल 5 से 10 आधार अंक की ही कटौती की। अगर उस लिहाज से देखा जाए तो बाजार जो नकदी की स्थिति में परिवर्तन की राह तक रहा था, वह यह देखकर निराश हुआ होगा कि बैंकिंग क्षेत्र को पर्याप्त नकदी मुहैया कराने के क्षेत्र में केवल आश्वस्ति ही प्रदान की गई है।


Date:05-04-19

पहले जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे पर बयानबाजी बंद हो

संपादकीय

जम्मू-कश्मीर हमारे लिए एक राज्य कम समस्या ज्यादा है। एक ऐसी समस्या जो प्याज की मानिंद है, जिसके छिलके कभी खत्म नहीं होते। वैसे तो जम्मू-कश्मीर सालभर आमतौर पर गलत वजहों के कारण सुर्खियों में बना रहता है, लेकिन चुनाव के दौरान ये चर्चाएं चरम पर होती हैं। अब जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की नेता महबूबा मुफ्ती ने यह कहकर सनसनी फैला दी है कि आप हमें संविधान के अनुच्छेद 370 हटाने की तारीख बताइए, हम जम्मू-कश्मीर के भारत से अलग होने की तारीख बता देंगे। गौरतलब है कि अनुच्छेद 370 के कारण जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ है। असल में इस अनुच्छेद की व्याख्या बेहद दुरुह काम हो गया है। हर नेता अपनी पार्टी लाइन के मुताबिक इसकी व्याख्या करता नज़र आता है। इसी वजह से इस मुद्दे पर दो धड़े साफ दिखाई देते हैं।

एक कहता है कि यह अनुच्छेद तात्कालिक हालात (1947-48) में सही था, लेकिन अब इसकी जरूरत नहीं है। लेकिन, दूसरे धड़े का कहना है कि यह एकमात्र संवैधानिक कड़ी है, जिससे भारत और जम्मू-कश्मीर आपस में जुड़े हैं। जिस दिन हम इस अनुच्छेद को अलग कर देंगे, उस दिन यह राज्य भी भारत से अलग हो जाएगा। कहा जाता है कि इसके हटते ही अलगाववादी जनमत संग्रह की मांग उठाएंगे और विवाद का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की कोशिश करेंगे। उधर अनुच्छेद हटाने के पक्षधर कह रहे हैं कि पिछले 70 वर्षों में भारतीय संविधान के अनेक कानून और धाराएं वहां लागू हो चुकी हैं। संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत वहां राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है। तमाम संवैधानिक संस्थाओं जैसे सीएजी या चुनाव आयोग का राज्य में पूरा दखल है। वहां जनमत संग्रह हो ही नहीं सकता, क्योंकि पाकिस्तान ने 13 अगस्त 1948 के संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव की शर्तें मानी ही नहीं हैं। कुल-मिलाकर मामला बेहद उलझा हुआ है। लेकिन, इसे उलझाने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार राजनेता हैं। इन नेताओं ने राजनीतिक सुविधा के मुताबिक इस अनुच्छेद की मनमानी व्याख्या की है। अब वक्त आ गया है कि जब दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय दिया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर सुनवाई के लिए पहले ही तैयार हो गया है। लेकिन, इस सबमें पहले ऐसे तमाम राजनीतिक बयानों पर रोक लगाया जाना नितांत आवश्यक है, जो सिर्फ राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए बेवजह दिए जाते हैं।


Date:04-04-19

सूचना पर लगाम

संपादकीय

मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के खिलाफ मिलने वाली शिकायतों की जांच, कार्रवाई और निपटान के लिए केंद्र सरकार ने जो रास्ता अख्तियार किया है वह चौंकाने वाला है। हाल में सरकार ने इस दिशा में जो कदम बढ़ाया है वह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि आरटीआइ यानी सूचना के अधिकार के लिए काम करने वालों सहित देश के किसी भी नागरिक को मांगी गई सूचना मुहैया कराने वाली इस संस्था पर सरकार अब लगाम कसना चाहती है। इसलिए अब मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के खिलाफ मिलने वाली शिकायतों की जांच के लिए दो समितियां बनाने का प्रस्ताव केंद्रीय सूचना आयोग को भेजा गया है। इस प्रस्ताव के तहत यह व्यवस्था की गई है कि एक समिति मुख्य सूचना आयुक्त से जुड़ी शिकायतों को देखेगी और दूसरी सूचना आयुक्तों के खिलाफ मिली शिकायतों को। मुख्य सूचना आयुक्त के खिलाफ जांच के लिए जो समिति बनाने की बात है उसमें कैबिनेट सचिव, कार्मिक और प्रशिक्षण मंत्रालय के सचिव, एक पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त शामिल होंगे। इसी तरह की सरकार के शीर्ष नौकरशाहों की दूसरी समिति सूचना आयुक्तों के खिलाफ शिकायतों के बारे में फैसले करेगी।

सरकार के इस कदम से आयोग खफा है। जाहिर है, ऐसा कोई भी कदम आयोग की स्वतंत्रता पर हमला होगा। दोनों ही समितियों का प्रारूप यह बताता है कि इस स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्था पर सरकार हावी होने की तैयारी में है। अभी तक व्यवस्था यह है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के खिलाफ जो शिकायतें आती हैं उनका निपटारा आयोग की बैठक में ही होता है। तब सवाल है कि सरकार को क्या यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं लगती! आखिर क्यों उसे नई व्यवस्था लाने की जरूरत महसूस हो रही है? ऐसा भी नहीं कि सर्वोच्च अदालत से इस बारे में कोई दिशानिर्देश दिया गया हो। सर्वोच्च अदालत ने तो एक बार पूछा भर था कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त से संबंधित शिकायतों को निपटाने की प्रक्रिया क्या है। लेकिन सरकार ने इसकी आड़ में ऐसा कदम उठाया है जो सीधे तौर पर इस संस्था को कमजोर करने के संकेत देता है। पिछले कुछ समय में जिस तरह की जानकारियां और सूचनाएं आयोग से मांगी से गई हैं और आयोग ने इन सूचनाओं को मुहैया कराने के लिए निर्धारित प्रक्रिया के तहत काम किया, उससे लगता है कहीं न कहीं सरकार घबराई हुई है। आइटीआइ के तहत सरकार के मंत्रियों, अफसरों और महत्त्वपूर्ण योजनाओं के बारे में जानकारियां मांगने वाले आरटीआइ कार्यकर्ताओं की सजगता और सक्रियता की वजह से सरकार को कई बार असहज स्थितियों का सामना करना पड़ा है।

दरअसल, पिछले साल केंद्रीय सूचना आयोग ने एक अधिकारी की अपील पर फैसला सुनाते हुए पीएमओ यानी प्रधानमंत्री कार्यालय को निर्देश दिया था कि 2014 से 2017 के बीच केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जो शिकायतें आई हैं उनका खुलासा किया जाए। पीएमओ को कालेधन से संबंधित मांगी गई जानकारी भी देने कहा गया था। लेकिन पीएमओ ने जवाब में यह कह दिया कि जो जानकारियां मांगी गई हैं, वे सूचना की परिभाषा के दायरे में नहीं आती हैं। लेकिन इस जवाब को मुख्य सूचना आयुक्त ने खारिज कर दिया। आरटीआइ ही एक ऐसा हथियार है जो आम लोगों का सशक्तिकरण और सरकार के कामकाज पर निगरानी को सुनिश्चित करता है और सरकार को जवाबदेह बनाता है। पिछले कुछ सालों में सीबीआइ, रिजर्व बैंक जैसी प्रमुख संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र में सरकार के बढ़ते दखल के जैसे मामले सामने आए हैं, उसी की अगली कड़ी सीआइसी के रूप में सामने आ रही है। अगर सीआइसी जैसी संस्था कमजोर हुई तो सरकार की पारदर्शिता और जवाबदेही का क्या होगा !


Date:04-04-19

Turf issues in fighting corruption

How the Lokpal, the CVC and the CBI coordinate will be crucial

R.K. Raghavan is a former CBI Director.

The Lokpal and Lokayuktas Act, 2013 is complicated. This could perhaps not be avoided, given that what was being attempted was a new and bold experiment to pull the anti-corruption campaign out of oblivion. This law was badly needed, if only to lend a modicum of credibility to the process of enhancing the accountability of those in high places, who were cocking a snook at all efforts to demonstrate to the world that India is not second to any other nation in making its public administration clean and fair.

Surprisingly, the appointment of India’s first Lokpal has not been received with great excitement. The preoccupation with the general election of all those likely to be affected by the Act may perhaps explain the apathy. Nevertheless, the working of the Act may be expected to be closely followed in the months to come, both by the polity and the legal fraternity, which is how it ought to be in a vibrant democracy.

The corruption of public servants in India has become such a menace that something drastically new had to be tried, and appointing the Lokpal at least partially meets this crying need. There is guarded optimism in a few quarters, and considerable cynicism in others, over the likely efficacy of the Lokpal. However, any high expectations that the new mechanism against corruption will measurably transform the scene seem misplaced.

Actors against corruption

There are now three principal actors at the national level in the fight against graft: the Lokpal, the Central Vigilance Commission (CVC), and the Central Bureau of Investigation (CBI). Some people have misgivings over the independence of the Lokpal. They wonder how it will work with the other two so that the objective of cleansing public life is achieved with reasonable satisfaction. Some critics allege that the Lokpal’s composition was dictated solely by the establishment led by the Prime Minister. But what about the Chief Justice of India, or his nominee, another important member of the Selection Committee? Casting aspersions on the neutrality of the highest judicial authority in the country is unacceptable unless one can prove with reasonable material that he acted in a biased manner in choosing the first Lokpal.

The decision of the ‘special invitee’ to stay away from the process on the ground that he was a mere invitee and not a full-fledged member of the Selection Committee is regrettable. The accusation that the process of selection of the Lokpal was not transparent falls flat if someone in the Opposition abstains from participating in the Committee’s decision and denies himself and the nation the chance of knowing and evaluating how open-minded or not the other members were in choosing the members and chairperson of the Lokpal.

Jurisdiction issues

To my mind, what is worrying is how well the CVC and CBI are going to play a complementary role in upholding the objective for which the Lokpal has been appointed. The Lokpal has jurisdiction over Group A and B public servants. This does not deprive the CBI of its own jurisdiction over these two groups. The Lokpal Act permits using the CBI (referred to by the Act as the Delhi Special Police Establishment, from which the CBI was born) for examining a complaint against a public servant for misconduct. Although the Lokpal has its own Inquiry Wing, it can nevertheless forward a complaint to the CBI for a preliminary inquiry, and thereafter for registering a regular case under the Prevention of Corruption Act, 1988. It is not clear what happens when such a complaint is already being inquired into by the CBI. Legally speaking, the government, in addition to the Lokpal, is competent to order a preliminary inquiry and permit the CBI to proceed with a regular case. What is also to be remembered is that the CBI can register a case even without the government’s nod in instances in which a public servant is caught red-handed while receiving a bribe. If an individual lodges a complaint with the government and the Lokpal, what should the Lokpal do? Does it have the authority to give direction to the CBI to keep its hands off the matter and wait for the Lokpal’s own Inquiry Wing to handle the matter?

The Act creates a Prosecution Wing exclusively for the Lokpal. How will that body coordinate with the CBI’s Director of Prosecution in respect of a matter handled by both of them? It is a common practice for complainants in India to dash off their complaints to a host of agencies. There is a distinct prospect of a clash between the government (which has greater powers of superintendence over the CBI than the Lokpal) and the Lokpal over a wide spectrum of issues. The Act gives the impression that superintendency over the CBI is shared by the Lokpal and the government, and neither is in exclusive command of the former. Can the Lokpal order the CBI to suspend its inquiry in respect of a complaint and report on it to the exclusion of the government?

The initial days are going to be difficult in terms of coordination. Everything will depend on how well the Lokpal and the government sink their egos and concentrate on the fundamental objective of striking at corruption without getting bogged down by technicalities.

All these imponderables, however, do not reduce the utility of a highly placed ombudsman. It may finally boil down to Justice Ghose’s perception of what his role is. He can certainly shape the future of this experiment.