04-03-2019 (Important News Clippings)
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Date:04-03-19
Shifting Winds
Pakistan’s tantrums over India’s OIC invite reveal a sore loser. India must press forward
TOI Editorials
UAE’s invitation to India to be a “guest of honour” at the Organisation of Islamic Cooperation (OIC) foreign ministers summit has stung Pakistan to the extent of making it boycott the plenary session. External affairs minister Sushma Swaraj used the opportunity to effectively convey India’s stance on state-sponsored terror and its tradition of multiculturalism. Home to the world’s third largest Muslim population of 180 million, India ticks all the right boxes to be a natural OIC partner. But with Pakistan regularly firing on India from OIC forums, this was a non-starter. The adoption of Pakistan’s resolutions with uncharitable references to India’s Kashmir policy is unfortunate but importantly the summit’s key deliverable, the Abu Dhabi Declaration, is silent on Kashmir unlike last year.
It’s best to look at the broader picture. The incongruity of OIC excluding India throughout its 50-year history fearing Pak disapproval was corrected at a critical time. Both countries are de-escalating from a near-war scenario and UAE’s OIC invite a week after the Pulwama attack signalled disapproval of Pakistani sanctuary for proscribed groups like Jaish-e-Muhammed, which owned up to the terror strike. A fundamental shift in domestic policy is also underway in Arab countries.
Conservative monarchies like Saudi Arabia and UAE have been benefactors to Pakistan but are now fighting battles at home against Islamic radicalisation. They cannot afford to be indulgent of or complacent about terrorism any longer. Pakistan is the only holdout in this regard as its religious nationalism, based on burning hatred for India, trumps everything else. India has bonded with many West Asian countries amidst shared concerns of economy and national security. The diplomatic breakthrough was helped along by Prime Minister Narendra Modi’s building a rapport with their leaders, which also required breaking out of the long held and ossified parameters of “non-alignment”.
Thus, OIC used to be Pakistan’s favourite platform for launching diatribes against India, but it’s now on slippery ground even there. The “Muslims vs Hindus” narrative no longer works. Even Pakistan’s alarmist and fraudulent attempts to convince world nations that India was engaged in a war buildup came to naught. Pakistan must take note of the shifting winds and crack down on anti-India terror groups.
Date:04-03-19
Organisation of Islamic Cooperation : Significant Diplomatic Advance
India vital allies in the islamic world
ET Editorials
Foreign minister Sushma Swaraj’s presence at the meeting last week of the Organisation of Islamic Cooperation (OIC) as a guest of honour, overriding founder-member Pakistan’s vehement objections, and the fact that neither Kashmir nor India-Pakistan relations figure in the main, negotiated outcome of the meet represents a significant diplomatic gain for India. Saudi Arabia, the United Arab Emirates and other OIC members value India’s economic potential and find it difficult to continue closing their eyes at Pakistan’s use of terror as state policy.
Supplementary resolutions on Kashmir and India-Pakistan toe the Pakistan line, which has been the conventional OIC stance. These boiler plate resolutions, countryled positions, are not negotiated texts, unlike the Abu Dhabi declaration. Therefore, the importance of the India’s invitation to address the OIC meet must not be underplayed. Pakistan had blocked India’s membership of the forum in 1969. Fifty years later, the OIC invited India overriding Islamabad’s objections. For New Delhi, this opens up another forum where it can seek to build consensus to act against countries that shelter terrorist outfits. As a guest of honour, India does not participate in the negotiation of the communiqué. It is to the credit of India’s allies and partners among the OIC member states that references to Kashmir and India-Pakistan tensions were kept out of the declaration. This is an important diplomatic achievement for India.
Though the declaration is silent on Kashmir and India-Pakistan relations, it recognises the Pakistani prime minister’s release of the Indian Air Force officer as “a positive initiative” and “a gesture of goodwill”. This was expected as the OIC undertook a balancing act, having upset Pakistan by inviting India.
With one of the world’s largest populations of Muslims, India has every right and need to articulate its views at the OIC. Instead of seeing it as a forum merely for containing Pakistan, India should use it constructively to advance its civilisational vision of multiculturalism in which Islam has its place.
Date:04-03-19
हमारे वक्त के दो गड़बड़ मुल्क पाकिस्तान और उत्तर कोरिया
टीसीए श्रीनिवास-राघवन
मेरे मन में एक सवाल है जिसका उत्तर कतई आसान नहीं है। उत्तर कोरिया जो समूचे दक्षिण कोरिया पर दावा करता है, उसने पाकिस्तान की तरह व्यवहार क्यों नहीं किया? पाकिस्तान भारत के एक अत्यंत छोटे से भूभाग पर लगातार अपना दावा करता आ रहा है। क्योंकि तमाम अन्य क्षेत्रों में उत्तर कोरिया और पाकिस्तान के बीच अलग करने जैसी कोई बात ही नहीं है। दोनों एक ही थैली के चट्टेबट्टे नजर आते हैं। दोनों देश लगभग एक ही समय अपने औपनिवेशिक शासकों से आजाद हुए। कोरिया को 1945 में आजादी मिली और पाकिस्तान का निर्माण सन 1947 में हुआ। दोनों का जन्म बंटवारे की वजह से हुआ। एक विभाजन साझा लेकिन अनिच्छा भरी सहमति से हुआ। दूसरे के लिए अमेरिका और रूस ने मजबूर किया।
ब्रिटिश शासकों को लगा कि भारत और पाकिस्तान दोनों अपना-अपना शासन संभाल सकते हैं जबकि रूस और अमेरिका को लगा कि कोरिया स्वशासन के लिए उपयुक्त नहीं है। ऐसे में ब्रिटिश शासक भारत और पाकिस्तान को तो उनके भरोसे छोड़ गए लेकिन रूस और अमेरिका ने उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया को अपने-अपने संरक्षण में ले लिया। बाद के दिनों में जहां भारत और दक्षिण कोरिया में स्वशासन की काबिलियत नजर आई, वहीं पाकिस्तान और उत्तर कोरिया में यह क्षमता उस कदर नहीं नजर आई। पाकिस्तान ने भारत से विभाजन के दो महीने के भीतर ही युद्घ का आगाज कर दिया। उत्तर कोरिया ने 1950 में दक्षिण कोरिया के साथ युद्घ शुरू कर दिया। सन 1953 में उसकी सेना को हार का सामना करना पड़ा और सन 1953 में ही कोरिया का औपचारिक विभाजन पूरा हुआ। ठीक यही बात पाकिस्तान के साथ घटित हुई और वह 1971 में दो टुकड़ों में बंट गया।
दोनों कोरिया के बीच अब असैन्य क्षेत्र (डीएमजेड) है। भारत और पाकिस्तान के बीच नियंत्रण रेखा या एलओसी है। रूस ने उत्तर कोरियाई सेना को प्रशिक्षित किया और उसे हथियार दिए। उसने उन्हें परमाणु तकनीक भी उपलब्ध कराई। अमेरिका उस हद तक तो नहीं गया लेकिन उसने भी पाकिस्तान को हथियार मुहैया कराए। सन 1980 के दशक में जब पाकिस्तान परमाणु हथियार बनाने की दिशा में बढ़ रहा था तब भी अमेरिका ने अपनी आंखें मूंदे रखीं। सन 1990 के दशक में रूस ने उत्तर कोरिया का साथ छोड़ दिया और सन 1990 के दशक में अमेरिका ने भी पाकिस्तान को त्याग दिया। दोनों की वजह एक ही थी। उन्हें ये देश मुसीबत नजर आने लगे थे।
अमेरिकी दबाव से मुक्त होने के बाद पाकिस्तान ने सन 1998 में परमाणु परीक्षण किया। उत्तर कोरिया ने 2006 में यह परीक्षण पूरा किया। आज दोनों चीन के संरक्षण में हैं। इन दोनों देशों के खिलाफ किसी भी तरह के अंतरराष्ट्रीय सहयोग की स्थिति में चीन अपने वीटो अधिकार का प्रयोग करता है। उत्तर कोरिया की आर्थिक स्थिति बुरी तरह बिगड़ी हुई है। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की हालत भी कोई अच्छी नहीं है।
परंतु दोनों के बीच समानताओं का सिलसिला वहीं समाप्त हो जाता है। उत्तर कोरिया ने शुरुआत में कुछ आतंकी गतिविधियों को अंजाम दिया लेकिन 1983 में उसने इनसे निजात पा ली। पाकिस्तान ने उसी साल अक्टूबर महीने में उसने इसका आगाज किया। उत्तर कोरिया के सैनिकों ने कुछ अवसरों पर असैन्यीकृत सीमा का उल्लंघन करने का प्रयास किया। उसने पश्चिमी सागर में उत्तरी सीमा का भी उल्लंघन किया। परंतु पाकिस्तान ने ऐसी हरकत कई बार की। उसने एक बार नहीं बल्कि चार अवसरों पर नियंत्रण रेखा पर लड़ाई तक छेड़ दी। इस मानक पर तो पाकिस्तान उत्तर कोरिया से मीलों आगे नजर आता है। उत्तर कोरिया की सेना को यह पता है कि उसकी सीमा क्या है और वही उसी अनुरूप व्यवहार करता है। पाकिस्तानी सेना किसी सीमा को नहीं मानती है और वह जहां अवसर मिलता है वहां खुराफात कर बैठती है।
एक अंतर यह है कि पाकिस्तान अपनी सरकार के प्रमुखों का चुनाव निर्वाचन के माध्यम से करता है जबकि उत्तर कोरिया में यह आनुवांशिक तरीके से होता है। परंतु दोनों देशों की असली ताकत उनकी सेना में निहित है। पाकिस्तान में प्रधानमंत्री सेनाध्यक्ष को नियुक्त करता है लेकिन उस पर नियंत्रण उसी सेनाध्यक्ष का होता है। उत्तर कोरिया में सबकुछ वहां के शासक के हाथ में है लेकिन वहां भी सेना की ताकत ही सर्वोपरि है। अगर सेना चाहे तो उसे एक क्षण में हटा सकती है। पाकिस्तान में सक्रिय राजनीति है, जीवंत नागरिक समाज है, एक हद तक स्वतंत्र मीडिया और अच्छी न्यायपालिका भी है। उत्तर कोरिया में इसका ठीक उलट सच है। पाकिस्तान के लोगों में हास्यबोध है जबकि उत्तर कोरिया में तो किसी के नागरिक के हंसने तक पर उसके नेता का ही अधिकार है।
एक वक्त था जब अमेरिका पाकिस्तान से लाड़ लड़ाता था और उत्तर कोरिया के साथ किसी उपद्रवी की तरह व्यवहार करता था। अब मामला एकदम उलटा हो चुका है। उत्तर कोरिया को अमेरिका समेत सभी देशों द्वारा उसके 65 साल के निर्वासन से उबारा जा रहा है। पाकिस्तान को अमेरिका समेत ये सारे देश पीछे धकेल रहे हैं। रूस अतीत में हमेशा पाकिस्तान की अनदेखी करता आया, अब वह उसे अलग-थलग करने की कोशिश का विरोध कर रहा है। वहीं चीन पुराने रिश्तों में नई जान फूंकने की कोशिश में लगा हुआ है। इन बातों को लेकर हर किसी के मन में बुरी भावना है पाकिस्तान और उत्तर कोरिया पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि अन्य देशों में जहां देश के पास सेना होती है वहीं पाकिस्तान और उत्तर कोरिया में सेना के पास मुल्क है।
Date:03-03-19
जंगल के दावेदारों पर आगा-पीछा
अनिल चमड़िया
सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हा और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने प्राकृतिक दुनिया के दावेदारों को दस लाख की संख्या में अतिक्रमणकारी मान लिया है, और 21 राज्यों को यह आदेश दिया है कि उन्हें जंगलों से बेदखल किया जाए। अगली तारीख 24 जुलाई, 2019 तक सेटेलाइट के जरिए सर्वे करवाने और बेदखली की ताजा स्थिति से अवगत कराने का फरमान सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी हुआ है। हालांकि बीती एक मार्च को न्यायालय ने अपने फैसले के अमल पर रोक लगा दी लेकिन सवाल अभी भी बने हुए हैं। 2005 में संसद ने वन अधिकार कानून बनाया था। यह मानकर कि देश के 8,08 प्रतिशत आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक रूप से नाइंसाफी हुई है। ब्रिटिशकाल में 1793 में स्थायी बंदोबस्ती शुरू होने के बाद से ही उन्हें बेदखली का सामना करना पड़ रहा है जो कि 1846 के वन अधिनियम बनने और 1927 में भारतीय वन अधिनियम के प्रारूप के साथ आदिवासियों के खिलाफ जंगलों के भीतर एक पुख्ता मशीनरी का विस्तार हो गया। 600 के समूहों में आदिवासियों की दुनिया है। देश में कुल वन क्षेत्र 765.21 हजार वर्ग किलोमीटर जिनमें 71 प्रतिशत क्षेत्र आदिवासी इलाका है। इसमें 416.52 और 223.30 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को सुरक्षित और संरक्षित इलाके के रूप में चिह्नित किया गया है। 23 प्रति क्षेत्र वन्य जीवों की सेंचुरी और नेशनल पार्क के लिए निकाला गया है। इसके लिए लगभग पांच लाख आदिवासियों को उनकी जमीन से खदेड़ा गया।
एक सौ 87 जिले आदिवासी जिलों के रूप में हैं जो कि भारतीय सीमा के भीतर का 33.6 प्रतिशत क्षेत्र होता है। इन जिलों में 37 प्रतिशत क्षेत्र सुरक्षित वन है, और 63 प्रतिशत घने जंगलों के इलाके माने जाते हैं। आर्थिक उदारीकरण शब्द उस दुनिया के लिए हैं, जिन्हें अपने पांव तेजी के साथ फैलाने की इजाजत मिलती है। लेकिन यह शब्द समाज के उन हिस्सों के लिए कहर है, जिनके पास बोने, उगाने और खाने के लिए अपना श्रम और उसका उपयोग करने के लिए जमीन है। आदिवासियों के लिए यह और बड़ा कहर है क्योंकि आदिवासियों की जमीन और उसके नीचे दबी प्राकृतिक संपदा और आसपास का वातावरण जैसी सदियों से पूंजी सुरक्षित और संरक्षित रही है। आर्थिक उदारीकरण के पहले दौर में देखा गया कि समतल इलाकों में जमीन की लूट हुई। ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि कोलंबस के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा जमीन की छीना-झपटी भारत में हुआ है। भूमि अधिग्रहण कानून बनाने के लिए सरकारों को बाध्य किया गया ताकि जमीन के सहारे जिंदगी चलाने वाले लोग सुरक्षित महसूस कर सकें। आदिवासियों के लिए भी लोकतंत्र का यही अर्थ है कि उन्हें सुरक्षित बने रहने की इजाजत दे दी जाए और इस अपेक्षा के साथ ही वन अधिकार कानून बनाने के लिए जोर लगाया गया। इसी को हमने लोकतंत्र की जीत के रूप में दर्ज भी किया। वन अधिकार अधिनियम के तहत 25 अक्टूबर, 1980 से पहले से रह रहे लोगों को वन अधिकार कानून का हकदार मानने का प्रावधान किया गया।
जंगलों के उत्पाद पर भी अधिकार को सुनिश्चित करने की व्यवस्था की गई क्योंकि जंगलों के ठेकेदार और सरकारी नौकरशाही ने कानूनों की आड़ लेकर आदिवासियों के खिलाफ दमन का सिलसिला बनाए रखा और हजारों की संख्या में आदिवासियों को जेलों में डाल दिया गया। वन अधिकार अधिनियम के आलोक में 41 लाख सत्तर हजार दावे पेश किए गए। लेकिन उनमें लगभग 18 लाख दावे ही स्वीकार किए गए और बीस लाख दावे खारिज किए गए। बाकी के दावों का भी क्या होगा, यह पता चलेगा। वन अधिकार कानून प्रत्येक परिवार के लिए पांच एकड़ जमीन का प्रावधान करता है, लेकिन व्यवहार में यह देखा गया है कि स्वीकृत किए गए दावे की स्थिति में भी चालीस डिसमिल या उससे कम जमीन दी गई। महाेता देवी का एक उपन्यास है ‘‘जंगल के दावेदार’। इन्हीं जंगल के दावेदारों का फैसला करने वाले लोग हैं देश में सामाजिक संगठन माने जाने वाले एनजीओ, जंगलों के लिए तैनात के किए गए नौकरशाह, ब्रिटिशकाल के दौरान स्थायी बंदोवस्ती के वक्त मालिकाना हक पाने वाले जमींदार वर्ग और थाना कचहरी जबकि जंगलों के दावेदारों की अपनी ग्राम सभाएं भी हैं। जब पंचायतीराज का एक तरह से विस्तार करके आदिवासी इलाकों के लिए पेसा कानून, 1996 में बनाया गया तो यह व्यवस्था करनी पड़ी कि ग्राम सभाएं अपने लिए फैसले करेंगी। लेकिन लोकतंत्र संसद से बाहर घिर जाता है, और कमजोर माने जाने वाले सामाजिक समूहों के लिए लाचार दिखने लगता है। आदिवासियों के मामले में यही होता रहा है। उनके लिए कोई फर्क नहीं है कि कल किसका राज था, और आज किसका राज है। वे राजाधीन हैं।
जंगल पर दावे के फैसले उनके हवाले किए गए जो कि उनके बीच दमनकारी के रूप में जाने जाते हैं। जंगलों में जानवरों के लिए सुरक्षित जगहें बनी हैं। बड़े-बड़े डैम बने हैं। नेशनल पार्क बने हैं यानी जंगलों को उनके लिए बनाने के कार्यक्रम चलते रहे हैं, जिन्हें आबोहवा, दृश्य और जंगलों के संसाधनों से समृद्धि मिलती है। फेफड़े और पेट के अलावा शरीर के हर भाव और हिस्से के लिए जंगल खुराक हैं, जबकि जंगलों के जो दावेदार हैं, उनके पास ज्ञान का भंडार है, और अपने स्कूलों से उन्होंने शिक्षा हासिल कर इन जंगलों को ही नहीं बचाया है, बल्कि दुनिया को जीने लायक बनाकर रखने में अपनी क्षमता दिखाई है।पर्यावरण की राजनीति के दो आयाम हैं। एक, लोगों और सभी जीवों के लिए दुनिया को बनाने की तरफ सोचता है, लेकिन दूसरा आयाम है कि पर्यावरण की चिंता को समाज में वर्चस्व रखने वाले लोगों के हितों के मद्देनजर पेश करता है। 1991 के बाद से अभिजात्य पर्यावरणविद् की चिंताओं की मार समाज के आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर हिस्सों को ही उठानी पड़ रही है।
इसी तरह, न्यायालय के फैसलों का भी अध्ययन करें तो दो तरह की दुनिया के लिए दृष्टिकोण देखने को मिलता है। सुप्रीम कोर्ट के कुछेक पुराने फैसलों और इस नये फैसले में इन दो नजरिये का फर्क दिखता है। फैसले न्यायाधीश कर रहे हैं, या न्यायालय जैसी संस्था के उद्देश्यों के अनुरूप हो रहा है, इस नजरिए का विश्लेषण भी इन फैसलों को रख कर किया जा सकता है। आदिवासियों के इस मामले में तो सरकार के वकील ही नहीं थे। अदालतों में सरकारी वकीलों की सामाजिक वगरे के लिए नकारात्मक भूमिका एससी/एसटी एक्ट के वक्त भी दिखी थी, और 13 प्वाइंट रोस्टर का भी एक नया मामला इससे जुड़ता है। आदिवासी इलाकों के लिए सरकारें माओवाद और अशांति के खतरों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करती है, तो इसके पीछे उसका इरादा यही दिखता है कि वह वहां अपने नियंत्रण के लिए ढांचा तैयार कर सकें। इसके लिए यह देखा जा सकता है कि आदिवासी मंत्रालय का बजट आदिवासी इलाकों में गृह मंत्रालय के आदिवासी इलाकों के लिए बजट से कई गुना कम होता है। इनसे यह समझा जा सकता है कि जंगल के दावेदार जंगल के बाहर से बुरी तरह घिरे हुए हैं।
Date:03-03-19
भारतीय उपलब्धि की सुषमा
डॉ. दिलीप चौबे
धार्मिक आतंकवाद के बढ़ते खतरे के प्रति मुस्लिम देशों की बनती समझ ने भारत और मुस्लिम जगत के साथ रिश्तों को एक नई आधारभूमि दिया है। पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ओआईसी के मंच पर एक बार आकर भारत आतंकवाद और पाकिस्तान के बारे में मुस्लिम देशों का रुख नहीं बदल सकता। लेकिन यह नई शुरुआत है भारत और पाकिस्तान के बीच जारी तनाव के दौरान दुश्मन को सामरिक चोट पहुंचाने की रणनीति और उसके क्रियान्वयन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नजर रखी। वहीं कूटनीतिक मोर्चा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संभाला। भारत के लिए यह सुखद संयोग था कि जिस समय तनाव पराकाष्ठा पर था, उसी समय चीन में रिक (रूस, भारत और चीन) के बीच महत्त्वपूर्ण त्रिपक्षीय बैठक आयोजित थी। इस बैठक में सुषमा स्वराज को रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के समक्ष भारत का पक्ष रखने और उनका समर्थन हासिल करने में सफलता मिली।
रणनीतिक दृष्टि से इस महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के साथ ही भारत को एक दिन बाद ही संयुक्त अरब अमीरात में मनोवैज्ञानिक जीत हासिल हुई। आबू धाबी में आयोजित इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) की बैठक में सुषमा स्वराज ने उद्घाटन समारोह में विशेष अतिथि के रूप में भाग लिया। दुनिया में परमाणु शक्ति वाला एक मात्र इस्लामी देशहोने का दावा करने वाले पाकिस्तान के लिए यह बड़ा झटका था। पड़ोसी देश की यह शर्मनाक कूटनीतिक हार उस समय हुई जब इस्लामी देशों ने पाकिस्तान की इस धमकी को नजरअंदाज कर दिया कि भारतीय विदेश मंत्री के भाग लेने की हालत में वह इस बैठक में शिरकत नहीं करेगा। बैठक में सुषमा के भाषण में जहां भारत के बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक स्वरूप को सामने रखा गया, वहीं पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को भी इस्लामी बिरादरी के सामने मजबूती से रखा गया। इस्लामी देशों ने औपचारिकता निभाने के लिए मौजूदा संघर्ष की परिस्थिति में पाकिस्तान के साथ भले ही एकजुटता का वक्तव्य जारी किया, लेकिन असली उपलब्धि तो सुषमा के नाम रही। सुषमा स्वराज ने इस्लाम और आतंकवाद की सांठगांठ को रेखांकित करते हुए कहा कि इस्लाम अमन का पैगाम देता है, जबकि आतंकवाद धर्म की विकृत अभिव्यक्ति है।
उन्होंने सैम्युल हटिंगटन के ‘‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की अवधारणा को खारिज किया और कहा कि इस आतंकवाद का सभ्यता, संस्कृति और धर्म से कोई वास्ता नहीं है। यह वैचारिक विकृति है, जो अपनी अभिव्यक्ति में फिरकापरस्ती का सहारा लेता है।’ सुषमा के कहने का मतलब यह था कि आतंकवाद को राजनयिक या सैन्य स्तर पर खत्म नहीं किया जा सकता। मुस्लिम समुदायों को इस विकृति को पहचाने की जरूरत है और उन्हें इस तत्व पर जोर देकर गौर करना होगा। ऊपरी तौर पर यह प्रतीत हो सकता है कि ओआईसी के मंच से भारतीय विदेश मंत्री सुषमा का सम्बोधन कोई बड़ी राजनीतिक परिघटना नहीं है; क्योंकि मुस्लिम देशों के बाहर इसका कोई असर नहीं है। लेकिन यह भारत के लिए इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि इस एक नियंत्रण से मुस्लिम देशों का भारत के साथ लगभग पांच दशकों की संवादहीनता टूटी है। पिछले कुछ समय से भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर सऊदी और अरब अमीरात व्यावहारिक रुख दिखा रहे हैं। इस्लामी दुनिया भी तेजी से बदल रही है। भू-राजनीतिक स्थितियां तेजी से बदल रही हैं, जिनके कारण मुस्लिम देशों का भारत के करीब आने का दबाव बन रहा था।
सब जानते हैं कि भारत तीसरा सबसे बड़ा मुस्लिम आबादी वाला देश है। एक बड़ी सैन्य ताकत है और विश्व में एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। इसलिए ओआईसी से भारत को आमंतण्रलाजिमी था। हालांकि सऊदी और अमीरात के साथ भारत के पारंपरिक रिश्ते रहे हैं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में एक अध्याय दिया है। मोदी ने बड़ी सहजता के साथ सऊदी अरब और ईरान, मिस और तुर्की, फिलिस्तीन जैसे देशों के साथ भी सहज रिश्ता बनाने में सफल रहे हैं, जिनके बीच शत्रुतापूर्ण संबंध हैं। इसमें खास है कि मोदी सऊदी और अमीरात के साथ बेहतर रिश्ते बनाने में अर्जित सफलता। इन दोनों का पाकिस्तान के साथ बेहतर मजहबी रिश्ता है। परंतु ये मुस्लिम देश भी समझ रहे हैं कि धार्मिक आतंकवाद उनके लिए भी बड़ा खतरा बन गया है। यह भी एक बड़ी वजह है जिसने भारत और मुस्लिम जगत के साथ रिश्तों एक नई आधारभूमि दिया है। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ओआईसी के मंच पर एक बार आकर भारत आतंकवाद और पाकिस्तान के बारे में मुस्लिम देशों का रुख नहीं बदल सकता। लेकिन यह नई शुरुआत है और अरब देशों के साथ भारत के मजबूत रिश्ते बनेंगे।