04-01-2017 (Important News Clippings)

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04 Jan 2017
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Date: 04-01-17

Judicial overreach

Supreme Court’s ruling against identity politics is at odds with ground realities

The Supreme Court judgment widening the scope of Section 123(3) of the Representation of the People Act which now prohibits the seeking of votes in the name of religion, caste, race, community or language by a candidate, his agent or anyone with his consent is well-intentioned. The order, which was passed by a seven judge Constitution bench through a four to three majority, also ruled that a candidate could be disqualified if an appeal was made by any religious leader to vote for the candidate with the latter’s consent. But the judgment fails to take into consideration the ground realities of identity politics. It will not achieve the intended impact on politics.

Political parties will find creative ways to circumvent the law. To be fair to all concerned, it is really difficult to wipe out identity politics through judicial mandate. No democracy in the world is free from identity politics of one form or another. We saw this recently in the US presidential elections where race was a pivotal electoral issue. We see this again in countries across Europe where the religion and ethnicity of migrants and refugees have been exercising voters. India with its tremendous diversity can’t be immune to this trend.

Besides, identity-based political movements as exemplified by the Dalit-centric BSP or the Tamil-based DMK aren’t negative in themselves. In fact, these political movements have helped sections of society that have felt marginalised highlight their grievances. This in turn has ensured their concerns are taken seriously within the framework of democratic electoral politics. Plus, there’s no denying that the plethora of regional political parties such as Telugu Desam Party, Naga People’s Front or Mizo National Front – all with an identity appeal – has actually broad based democracy in India.

In this context, it’s imperative to note the dissenting judgment delivered by three judges which states that despite the existence of the imperfect Section 123(3) of RPA for more than five decades, elections have been held successfully in India with routine changes of government. And such imperfections can’t be attended to by judicial redrafting of legislative provision. For, judicial overreach as seen in the apex court’s recent national anthem ruling can have the same effect as poorly drafted laws – diminishing the value of rules through frequent breaches.


Date: 04-01-17

Indian male must reboot to 21st century

On New Year’s Eve, an incident that can be only described as mass groping, took place in upmarket areas of Bengaluru. Though there were 1,500 policemen deployed in the vicinity, they apparently did little to dissuade the miscreants. Karnataka’s home minister G Parameshwara, while condemning it, has bizarrely laid some of the onus on “youngsters who are almost like westerners, copying not only western mindsets but also their dress”. This is tantamount to blaming the victim for the crime that was committed on her. The least Parameshwara can do is apologise, profusely, for his comment. Otherwise he should resign.

It is easy to blame the minister and the police, and the likes of Samajwadi Party’s Abu Azmi, but wink at a deep inequality in social mores for men and women. Centuries of social hierarchy to which patriarchy is integral has conditioned male minds to accept only certain conservative patterns of behaviour and dress for women. Anyone who deviates, dresses differently or goes partying, say, is considered fair game. Politics such as that of rightwing outfit Sri Ram Sena that goes around attacking women at pubs and the conservative ideologies, whether of Hindutva or of puritanical Islam that seek to control female sexuality and validate vandalism of the Sena kind, must be recognised as contributing to the nastiness in Bengaluru on New Year’s eve.Bengaluru, home to a large cosmopolitan population, is the heart of India’s IT sector. It also hosts large multinational companies like GE. The state’s administrators cannot afford to risk Bengaluru’s reputation as a city safe for women to work, live and commute in. Policing and administration have to be beefed up, but what is more important is a fundamental change in people’s attitudes, opinion and ideas.


Date: 04-01-17

रोजगार सृजन के मोर्चे पर समान चुनौतियां झेलते ट्रंप और मोदी

अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए निश्चित रूप से यह बिना मांगे दी जाने वाली सलाह है। कारखानों में नौकरियां दिलाना दोनों के आर्थिक एजेंडे के केंद्र में है। अर्थशास्त्र का कोई भी स्नातक छात्र इन महत्त्वाकांक्षाओं की राजनीतिक सीमाओं को समझ सकता है। अगर मजदूरी दरें और उत्पादकता उनकी पहुंच से परे हैं तो श्रीयुत ट्रंप और मोदी को ‘फोब्र्स’ पत्रिका की सूची में दुनिया के सबसे मूल्यवान ब्रांडों की सूची को लेकर अपनी समझ बेहतर करनी होगी।

 इसके लिए शोधकर्ताओं की सेवा की दरकार नहीं है, सिर्फ सरसरी नजर डालने से यह मालूम पड़ जाएगा कि शीर्ष 20 वैश्विक ब्रांडों में से अधिकांश अमेरिकी हैं। गिनती के लिहाज से ये 14 हैं। इसी तरह शीर्ष 100 कंपनियों में भी अमेरिकी मुख्यालय वाली कंपनियों की ही भरमार है। मोदी शायद इस पर गौर करेंगे कि इस विस्तृत सूची में एक भी भारतीय नाम नहीं है। कारखानों वाली नौकरियों का इससे क्या लेना-देना है? जरा इस तथ्य पर गौर कीजिए कि इनमें से अधिकांश मूल्यवान वैश्विक कंपनियां कुछ कारणों से अपनी वस्तुओं और सेवाओं के अधिकांश भाग का उत्पादन अपने मूल देश में नहीं करतीं। एमबीए 101 हमें मूल्यवर्धन के बारे में बताती है कि प्रतिस्पर्धी लाभ विनिर्माण की मूर्त गतिविधियों के बजाय ब्रांड के क्षणिक कारोबार में निहित होता है। एक कारोबार के तौर पर ट्रंप को इसे समझना चाहिए, उन्होंने दुनिया भर में चमकदार रियल एस्टेट का अंबार लगाया है और उन अत्याधुनिक भीमकाय इमारतों को बनाने में किसी अमेरिकी मजदूर की कोई भूमिका नहीं रही।
ब्रांडिंग बनाम विनिर्माण की दुविधा ट्रंप और मोदी की विनिर्माण राष्ट्रवाद की एक और पहेली को जन्म देती है, जिनके देश विकास चक्र के विपरीत धु्रवों पर हैं। हालांकि उनकी कोशिशों के नतीजे एक जैसे ही रहने के अनुमान हैं क्योंकि कारोबारी परिदृश्य के लिए सरकारी विनियमन ने दशकों से विनिर्माण नौकरियों के लिए वैश्विक प्रतिस्पर्धा को दर्शाया है। अगर ट्रंप ने मैक्सिको और अन्य लातिन अमेरिकियों को अपने देश से खदेड़ दिया तो इस बात की संभावनाएं कम हैं कि वैश्विक कंपनियां अमेरिका में जन्मे लोगों को नौकरियों पर रखेंगी। 18वीं और 19वीं शताब्दी में दक्षिणी कपास बागानों में दास उन्हें बता सकते थे कि कामगारों के मेहनताने, अधिकारों और फायदों के लिहाज से विनिर्माण सबसे निचली साझी विभाजक रेखा है।अगर मजदूरी मुद्रास्फीति और विनिमय दर चीन में विनिर्माण की लागत को बढ़ा रही है तो वैश्विक भीमकाय कंपनियां उत्पादन के लिए वियतनाम, बांग्लादेश, लाओस और कंबोडिया, श्रीलंका, होंडुरास और यहां तक कि जॉर्डन और इजरायल का भी रुख कर सकती हैं। भारत को भी इस सूची में होना चाहिए लेकिन वह उसमें शामिल नहीं क्योंकि लोगों की भर्ती और उन्हें निकालने में 100 लोगों के पैमाने से जुड़ा पुराना कानून उसमें बाधा डालकर कंपनियों के लिए लचीलापन कम कर देता है। आखिर दुनिया की कौन सी बड़ी कंपनी इस चुनौती को स्वीकार करेगी कि उसे ऐसे 100 से अधिक लोगों की भर्ती करनी पड़ेगी, जिन्हें कभी नौकरी से नहीं निकाला जा सकता।
इस कानून ने भारतीय श्रम बाजार को एक सिरचढ़े ‘संगठित’ क्षेत्र के रूप में विभक्त कर दिया, जो समूचे श्रम बाजार के 10 फीसदी के बराबर है, जो एक तरह से दायित्वों के बोझ से मुक्त है। दूसरी ओर बड़े पैमाने पर श्रम ‘असंगठित’ क्षेत्र में है, जिसके पास व्यावहारिक रूप से कोई अधिकार, लाभ, रोजगार सुरक्षा तो नहीं है बल्कि मेहनताना भी कम है। हम जानते हैं कि यह पैमाना देश में उस तरह के भीमकाय विनिर्माण ढांचे को असंभव सा बना देता है, जैसा कि वैश्विक कंपनियों ने चीन में स्थापित किया है।लिहाजा बड़े दिलचस्प तरीके से अमेरिकी और भारतीय श्रम बाजार के प्रभाव कंपनियों के विनिर्माण फैसलों को उसी तरह प्रभावित करते हैं। अमेरिका में किसी अमेरिकी कामगार द्वारा अपेक्षाकृत अधिक वेतन और भत्तों की मांग के साथ ही उत्पादकता में कमी अमेरिकी कंपनियों द्वारा उनकी भर्ती को आर्थिक रूप से अनाकर्षक बना देती है। भारत में ठेके पर काम करने वालों का सख्त संरक्षण भी उसी तरह का अवरोध उत्पन्न करता है।
अपने देश की बुढ़ाती आबादी को देखते हुए ट्रंप की समस्या संभवत: अधिक गंभीर है लेकिन समस्या को लेकर उनका रवैया और भी चिंताजनक है, जब उन्होंने करियर कंपनी को करों में राहत देने की यह शर्त रखी कि वह नौकरियां मैक्सिको हस्तांतरित न करे। यह रोजगार सृजन का कोई सतत और सार्थक समाधान नहीं है। दूसरी ओर रोबोट क्रांति भी मोदी की उम्मीदों को पलीता लगाने वाली सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर उभर रही है। हालांकि वह दोहरे श्रम बाजार के लिए आदर्श कानून का प्रारूप तैयार कर इस समस्या से तार्किक तरीके से निपट सकते हैं। फिर भी उन्हें भर्ती और नौकरी से निकालने जैसे नियमों पर सियासी हाराकिरी का सामना करना पड़ेगा। चूंकि श्रम राज्यों का विषय है, लिहाजा यह राज्यों पर निर्भर हो जाता है कि वे किस दिशा में कदम बढ़ाते हैं। (राजस्थान और मध्य प्रदेश ने इस मामले में कुछ कदम बढ़ाए हैं।)दोनों नेताओं के लिए रोजगार सृजन की समस्याओं के समाधान ‘फोब्र्स’ की सूची में मौजूद हैं। शीर्ष 20 बड़ी कंपनियों में 10 सूचना प्रौद्योगिकी जगत से जुड़ी हैं, जिनमें ऐपल, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट शीर्ष तीन पायदान पर हैं। क्या हमें यह बताने की जरूरत है कि इस पैमाने पर अमेरिका और भारत को स्वाभाविक बढ़त हासिल है? इस रुझान को भुनाने के लिए लोगों को शिक्षा की शृंखला से जोडऩा होगा। फिर भी यहां चुनौती आसान नहीं होगी और दोनों नेताओं के लिए दीर्घावधिक नौकरियां कम आकर्षक हैं, जो अपनी छाप छोडऩे की बेकरारी में बहुत ज्यादा जल्दी में हैं।
कनिका दत्ता

Date: 04-01-17

दलहन किसान की समस्या का करें उचित समाधान

दलहन किसान इस समय दोहरी मुश्किलों से जूझ रहे हैं। ऐसे में सरकार की ओर से उनके लिए उचित खरीद ढांचा विकसित करने की सलाह दे रहे हैं  सी एस सी शेखर 

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) के आधार पर दाल की कीमतों में बीते साल नवंबर में महज 0.2 फीसदी की ही बढ़ोतरी दर्ज हुई, जबकि दिसंबर 2015 में वृद्घि का यही स्तर 46 फीसदी तक पहुंच गया था। समग्र खाद्य मुद्रास्फीति भी 6 फीसदी से घटकर 2 फीसदी रह गई है जो दालों की कीमतों में तेज गिरावट को दर्शाती है। पिछले कई वर्षों से दालों के लगातार चढ़ते दाम से महंगाई को लेकर मचा कोहराम हाल-फिलहाल तो शांत नजर आ रहा है। एक तरह से यह अच्छी खबर है।
हालांकि इस क्षेत्र में एक और संकट पनपता नजर आ रहा है। पहले जरा एक नजर हालिया प्रदर्शन पर डाल ली जाए। कीमतों में गिरावट का दौर इस साल जुलाई में शुरू हुआ। न केवल मुद्रास्फीति के आंकड़ों में कमी आई, जो सालाना आधार पर होने वाली गणनाओं पर आधारित होते हैं बल्कि कीमतें वास्तविक पैमाने पर भी कम हुई हैं और देश के बड़े महानगरों में विभिन्न दालों की कीमतें 3 से लेकर 14 फीसदी के दायरे में घट गईं।कीमतों के पैमाने पर हुए इस बड़े कायापलट के लिए खरीफ के दौरान दलहन उत्पादन में जबरदस्त बढ़ोतरी मुख्य रूप से जिम्मेदार है। आंकड़ों से भी इसकी पुष्टिï होती है। वर्ष 2015-16 में 55 लाख टन दालों का उत्पादन हुआ था, जो वर्ष 2016-17 में बढ़कर 87 लाख टन हो गया। इस लिहाज से दलहन उत्पादन में 58 फीसदी का इजाफा हुआ। पिछले कुछ वर्षों को देखा जाए तो इसे जबरदस्त कायाकल्प माना जाएगा, जब उपलब्धता की किल्लत के कारण दालों की कीमतें खाद्य मुद्रास्फीति को ऊंचे आसमान पर चढ़ाने में अहम भूमिका निभा रही थीं।
आखिर इतना शानदार कायाकल्प कैसे संभव हो पाया? पिछले दो वर्षों के दौरान बाजार में दालों की ऊंची कीमतें और सरकार द्वारा की गई कोशिशें फलतार्थ हुई हैं, जिससे दालों की आपूर्ति बढ़ी है। खासतौर से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में 9 फीसदी की उदार बढ़ोतरी और दालों का बफर स्टॉक बढ़ाने के लिए सरकारी खरीद ढांचे के निर्माण ने किसानों को दलहन उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करने में अहम भूमिका निभाई। इसके कारण दालों का रकबा बढ़ा और जाहिर तौर पर उत्पादन में भी बढ़ोतरी दर्ज हुई।मेहरबान मॉनसून पूरी कवायद में सोने पर सुहागा साबित हुआ और इसके कारण भी खरीफ की फसल खुशगवार हुई। सभी दालों को इसका फायदा मिला। वर्ष 2016-17 में 18 लाख टन अरहर का उत्पादन हुआ, जिसमें पिछले वर्ष के मुकाबले 74 फीसदी की उछाल दर्ज की गई। अन्य प्रमुख दालों के उत्पादन में भी अरहर की तर्ज पर ही बढ़ोतरी हुई। मसलन उड़द का उत्पादन इस अवधि में 45 फीसदी बढ़ा तो मंूग की पैदावार में 32 फीसदी का इजाफा हुआ। रबी की फसल के दौरान भी दलहन उत्पादन में तेजी कायम रहने का अनुमान है। एक तो रबी फसल के दौरान बोई जाने वाली दालों का एमएसपी 15 फीसदी बढ़ाया गया, जिसके कारण उनकी बुआई अधिक हुई और बेहतर मॉनसून से अब फसल भी बढिय़ा होने की उम्मीद है।
इसमें विडंबना यही है कि दालों के उत्पादन में बढ़ोतरी के चलते कीमतों में खासी गिरावट आई है। विभिन्न बाजारों में थोक कीमतों में भारी गिरावट देखने को मिली है। बीते दिसंबर महीने के पहले हफ्ते में ही देश भर की विभिन्न मंडियों में अरहर, उड़द और मंूग के दाम कई मौकों पर उनके एमएसपी से भी नीचे चले गए। इस दौरान अरहर के भाव दैनिक स्तर पर 30, उड़द के 28 और मूंग के 112 अवसरों पर एमएसपी से कम रहे। इसके अलावा नोटबंदी के बाद नकदी के मोर्चे पर किल्लत के कारण भी दाल की कीमतें गिरावट की शिकार हुईं। हालांकि सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीद के लिए प्रभावी तंत्र का अभाव कीमतों में इस गिरावट का निश्चित रूप से सबसे बड़ा कारण है। इसके अलावा एमएसपी तो लगभग 25 जिंसों के लिए घोषित किया जाता है लेकिन खरीद मुख्य रूप से गेहूं और चावल की ही होती है। इस लचर नीति का खमियाजा दालों को काफी समय से चुकाना पड़ रहा है। कम सिंचाई और कीटों के हमलों के लिहाज से अधिक संवेदनशील होने के कारण दालों का उत्पादन भी अधिक अस्थिर होता है।
सरकार की ओर से भरोसेमंद खरीद नीति के अभाव में किसान दालों की बुआई को लेकर हिचकते रहे हैं। यही वजह है कि देश में दालों का उत्पादन मुख्य रूप से सीमांत जमीन और शुष्क इलाकों में ही होता आया है। सितंबर, 2016 में अरविंद सुब्रमण्यन समिति ने इन कारणों को चिह्नित करते हुए एमएसपी में बढ़ोतरी करने के साथ ही प्रभावी खरीद ढांचे का सुझाव दिया था। यहां तक कि इस समिति ने खरीद प्रक्रिया की निगरानी के लिए एक उच्चस्तरीय समिति गठिन करने की भी सिफारिश की थी।
इन सिफारिशों और अतीत में गठित की गई तमाम समितियों के बावजूद सरकारी खरीद प्रक्रिया में बमुश्किल ही कोई सुधार हो पाया है और इस मोर्चे पर किसानों की परेशानियां जस की तस बनी हुई हैं। ऐसी भी खबरें आई हैं कि मामूली कारणों के चलते ही किसानों को खरीद केंद्रों से वापस भेजा जा रहा है। (डाउन टू अर्थ, 1 अक्टूबर से 15 अक्टूबर के बीच का अंक) ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि बफर स्टॉक बनाने के लिए बड़े पैमाने पर दालों का आयात भी किया जा रहा है, जबकि घरेलू स्तर पर खरीद नाकाफी बनी हुई है। असंतुलन की इस गुत्थी को भी सुलझाने की दरकार है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि दलहन उत्पादन से किसानों का मोहभंग न हो और वे निरंतर दाल के उत्पादन में सक्रिय रहें। चूंकि आपूर्ति के लिए अंतरराष्ट्रीय विकल्प भी सीमित ही हैं, लिहाजा घरेलू उत्पादन को बढ़ाना ही अपरिहार्य हो गया है। हालांकि इस बात से भी बचने की दरकार है कि गेहूं और चावल की तर्ज पर दालों का भी बेजा भंडार न भरा जाए, जिससे न केवल कीमतें प्रभावित होती हैं बल्कि भंडारण की मुश्किलें भी आती हैं। दलहन किसानों की दुश्वारियों को दूर करने के लिए उचित खरीद ढांचे के गठन की तत्काल जरूरत महसूस हो रही है लेकिन इस दौरान अतिरेक खरीदारी से भी बचा जाए।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ इकनॉमिक ग्रोथ में प्रोफेसर हैं।)

Date: 04-01-17

चुनाव में धर्म और जाति का इस्तेमाल रोकने की चुनौती

सुप्रीम कोर्ट ने 21 साल बाद एक बार फिर भारतीय राजनीति के चुनावी मुद्‌दों की आचार संहिता तय करते हुए ऐतिहासिक फैसला दिया है लेकिन, सवाल यह है कि क्या यह फैसला दिशा-निर्देश की तरह काम करेगा या फिर व्यवहार में इसे कानूनी तौर पर लागू किया जा सकेगा? अदालत ने कहा है कि चुनाव में कोई भी उम्मीदवार, उसका एजेंट या उम्मीदवार की तरफ से कोई और व्यक्ति मतदाता के धर्म, जाति, नस्ल और भाषा का हवाला देकर न वोट मांग सकता है न किसी को वोट देने से रोका जा सकता है।
यह देश को चुनावी राजनीति की संकीर्ण गलियों से निकालकर एकता और धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक राजमार्ग पर लाने वाला कदम है। यह पिछले 25 वर्षों तक मंडल-मंदिर के विवादों में उलझे देश को यह याद दिलाने का प्रयास है अब फिर उस रास्ते पर मत जाना, क्योंकि वैसा करना उसके हित में नहीं है। माननीय न्यायमूर्तियों ने यह फैसला देते हुए टैगोर के उस राष्ट्रवाद का हवाला दिया है, जो तमाम संकीर्णताओं के पार वैश्विक मानवता के विशाल क्षितिज की ओर ले जाता है। तीन के मुकाबले चार जजों की तरफ से आए इस फैसले के साथ कई सवाल उठते हैं जिन पर विचार किए बिना चुनाव और राजनीतिक माहौल में अपेक्षित सुधार होता नहीं दिखता। पहला सवाल यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया तो उसने 1995 के सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर भी पुनर्विचार क्यों नहीं किया, जिसके तहत हिंदुत्व और हिंदूवाद को एक धर्म की बजाय एक जीवन पद्धति के रूप में स्वीकार किया गया था। वह फैसला उस समय आया जब देश में हिंदुत्व के नाम पर आक्रामक राजनीति पूरे उफान पर थी। यानी जब धर्म और जाति की राजनीति सामाजिक ताने-बाने में खींचतान कर रही थी उस समय अदालत ने या तो तटस्थ रवैया अपनाया या फिर भ्रामक फैसला दिया।
दूसरा सवाल यह है कि क्या धर्म जाति और भाषा जैसे तमाम मुद्‌दों को पूरी तरह से राजनीति से बाहर कर पाना संभव है, जबकि महात्मा गांधी से लेकर भीमराव आंबेडकर व डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे धर्मनिरपेक्ष नेताओं तक ने राजनीति को प्राणवान करने के लिए धर्म के उदात्त मूल्यों का सहारा लिया और जाति को विमर्श का मुद्‌दा बनाया। यह बात इस फैसले से असहमति जताने वाले तीन जजों ने भी उठाई है। निश्चित तौर पर इस फैसले पर गहन राजनीतिक विमर्श होना चाहिए और इससे कुछ सूत्र निकाले जाने चाहिए।

Date: 04-01-17

दलों पर लगाम से थमेगा धर्म का दुरुपयोग

उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने सोमवार को फैसला दिया कि कोई प्रत्याशी यदि धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के नाम पर वोट मांगता है तो उसका निर्वाचन खारिज किया जा सकता है। कहा जा रहा है कि इससे चुनाव में धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के राजनीतिक इस्तेमाल पर रोक लग जाएगी। फैसले को लेकर कानूनी हलकों में कहा जा रहा है कि न्यायालय को 1995 में जस्टिस जेएस वर्मा के फैसले की समीक्षा भी करनी चाहिए थी, जिसमें हिंदुत्व को धर्म नहीं, जीवनशैली माना गया था। यहां सवाल यह पैदा होता है कि यदि न्यायालय का यह फैसला नहीं आता तो इस प्रकार धर्म-जाति आदि के चुनावी दुरुपयोग पर अब तक कोई रोक नहीं थी क्या?
दरअसल, जनप्रतिनिधित्व कानून में पहले से ही धर्म, जाति, समुदाय आदि का हवाला देकर या उनके बीच दुर्भावना पैदा करके चुनावी लाभ उठाने पर रोक लगाई गई है। 1995 के फैसले में भी कुल-मिलाकर इतना ही कहा गया था कि हिंदुत्व शब्द के इस्तेमाल मात्र को जनप्रतिनिधित्व कानून का उल्लंघन नहीं माना जाएगा लेकिन, यदि इसका इस्तेमाल धार्मिक आधार पर फायदा उठाने की नीयत से किया जाए तो ऐसे मामले में देखा जाएगा कि आरोप के मुताबिक क्या ऐसी कोशिश की गई है। यह मामला जस्टिस वर्मा की तीन सदस्यीय पीठ के सामने इसलिए आया था, क्योंकि 1987 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में रमेश यशवंत प्रभु मुंबई के विले पारले से विधानसभा चुनाव जीते थे। उनके समर्थन में शिवसेना के तत्कालीन प्रमुख बाल ठाकरे ने भाषण दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘प्रभु यह चुनाव हिंदुत्व की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं, इसलिए उन्हें मुस्लिमों के वोटों की चिंता नहीं है।’ उन्होंने धर्म को लेकर और भी कई भड़काऊ बातें कहीं थीं। इतना ही नहीं प्रभु ने एक अखबार में प्रकाशित इंटरव्यू में कहा था कि वे यदि हारते हैं तो यह हिंदुत्व की हार होगी। जस्टिस वर्मा की पीठ ने इन सभी बयानों को जनप्रतिनिधित्व कानून का उल्लंघन मानते हुए प्रभु का चुनाव रद्‌द किए जाने को सही ठहराया था।
इस तरह देखें तो जस्टिस वर्मा के हिंदुत्व को जीवनशैली कहने का मतलब यह हरगिज नहीं था कि हिंदुत्व के नाम पर धार्मिक विद्वेष फैलाकर या समुदायों के बीच दुश्मनी फैलाकर चुनावी फायदा उठाने की खुली छूट है। पीठ का इतना ही कहना था कि मात्र हिंदुत्व शब्द के उल्लेख से कानून का उल्लंघन नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले में एक तरह से 1995 के फैसले की पुष्टि ही की गई है। जस्टिस वर्मा ने अपने फैसले में यह भी स्पष्ट किया था कि यदि कोई अल्पसंख्यक समुदाय या धर्म, चुनाव में अपने धर्म या समुदाय के साथ अन्याय आदि का मुद्‌दा उठाता है तो ऐसी मांग दरअसल धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करेगी, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के मुताबिक किसी धर्म या जाति आदि के साथ अन्याय या भेदभाव नहीं होना चाहिए। हालांकि, यह अपने आप में ही स्पष्ट है कि यदि ऐसा करते हुए भी ऐसी बातें कहीं जाती है, जो समुदायों में विद्वेष फैलाए तो फिर वह कानून के अन्य प्रावधानों के तहत कार्रवाई के अधीन होगा। संविधान सभा में भी यह सवाल उठाया गया था कि हम जिसे लोकतंत्र कह रहे हैं वह बहुसंख्यकवाद या भीड़तंत्र से किस तरह से अलग है तो नेहरूजी ने यह मजबूत दलील दी थी कि हमारी व्यवस्था लोकतंत्र इसलिए है, क्योंकि इसमें अल्पसंख्यक समुदायों की चिंताओं को प्राथमिकता दी जाएगी। इससे बहुसंख्यक लोगों के प्रभाव को संतुलित किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि हमारे संवैधानिक तंत्र का सार और मूल चरित्र धर्मनिरपेक्षता है और धर्म तथा राजनीति का मिश्रण नहीं किया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की है कि निर्वाचन प्रक्रिया भी धर्मनिरपेक्ष गतिविधि ही है। कोर्ट ने पूछा है कि क्या धर्मनिरपेक्ष राज्य की किसी धर्मनिरपेक्ष गतिविधि में धर्म को लाया जा सकता है? जनप्रतिनिधित्व कानून के अलावा भारतीय दंड विधान (आईपीसी) की धारा 153 (ए) के तहत भी समुदायों के बीच विद्वेष भड़काने के खिलाफ प्रावधान हैं, जिसके तहत चुनावी मामलों में भी कार्रवाई की जा सकती है।
जस्टिस वर्मा के फैसले में कहा गया था कि प्रत्याशी या उसके एजेंटे द्वारा ‘उसके’ धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय अथवा भाषा का दुरुपयोग करना कानून का उल्लंघन माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के सामने यह मामला ‘उसके’ की व्याख्या स्पष्ट करने के लिए आया था। कोर्ट ने कहा कि फैसले की उद्‌देश्यात्मक व्याख्या की जानी चाहिए।
प्रत्याशी, एजेंट, वोटर यानी किसी के भी धर्म, जाति आदि का उल्लेख चुनावी लाभ लेने के लिए नहीं किया जा सकता।
सवाल उठता है कि जब कानून पहले से है तो धर्म, जाति आदि के आधार पर राजनीति चल कैसे रही है? दरअसल, केवल कानून बनाने से शायद ही किसी समस्या का समाधान हुआ है। इसी तरह जनप्रतिनिधित्व कानून में धर्म, जाति आदि के दुरुपयोग पर रोक लगाने का कानून तो बन सकता है, उच्चतम न्यायालय इसकी व्याख्या भी कर सकता है पर असली रोकथाम तो इन कानूनों के सही और व्यापक इस्तेमाल और ऐसे तत्वों के प्रति व्यापक समाज के प्रतिकूल रवैये से ही हो सकेगी।
इन सभी प्रावधानों में खास बात यह है कि यह पूरी तरह प्रत्याशी पर केंद्रित है। यानी प्रत्याशी यदि अपने चुनावी भाषणोें में धर्म, जाति, नस्ल आदि के नाम पर चुनावी लाभ लेने की कोशिश करता है तो वह इन कानूनों के उल्लंघन का दोषी होगा। चुनाव के समय पार्टी का कोई व्यक्ति प्रत्याशी के पक्ष में धर्म, जाति आदि का दुरुपयोग करता है, तो कानून के उल्लंघन का मामला बनेगा। लेकिन, चुनाव से काफी पहले लगातार वे माहौल बनाते जा रहे हों। सुनियोजित तरीके से लगातार विभाजनकारी एजेंडा चला रहे हों भले उस समय चुनाव हो रहे हों अथवा न हो रहे हों ताकि चुनाव के वक्त इसका लाभ उठाया जा सके तो इसकी रोकथाम कैसे की जाएगी इसकी व्यवस्थाएं बहुत कमजोर हैं।
रवींद्र गरिया,(ये लेखक के अपने विचार हैं।)सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता और कानून मसलों के लेखक

Date: 03-01-17

आखिरी इलाज

शीर्ष अदालत के आदेश पर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्ष पद से अनुराग ठाकुर और सचिव के ओहदे से अजय शिर्के की विदाई की पटकथा दरअसल दीवार पर लिखी वह इबारत थी, जिसे देश के तमाम क्रिकेटप्रेमी और कानून के जानकार तो साफ-साफ पढ़ रहे थे, सिर्फ बीसीसीआई के पदाधिकारियों को उसके हर्फ समझ में नहीं आ रहे थे। या शायद वे जान-बूझकर उसे पढ़ना-समझना नहीं चाहते थे। अदालत को इस सख्त फैसले तक पहुंचने की जरूरत क्यों पड़ी, इसकी तफसील में जाने की जरूरत नहीं है। करोड़ों भारतीयों के आकर्षण का क्रिकेट किस कदर सट्टेबाजी और भ्रष्टाचार के कारण विवादों में घिर गया था, यह देश-दुनिया से छिपा नहीं है। फिर इन सबमें बीसीसीआई के शीर्ष ओहदेदारों व उनके रिश्तेदारों की संलिप्तता, और इसके बावजूद उन्हें बचाने-छिपाने की जो कोशिशें हुईं, उनको देखते हुए अदालत का हस्तक्षेप लाजमी था, स्वागत के योग्य भी। बीसीसीआई के अंदर जो कुछ सड़ रहा था, उसकी शिनाख्त और इलाज के लिए लोढ़ा समिति ने जो सिफारिशें की थीं, बोर्ड उन्हें लागू करने से बचने के चोर दरवाजे तलाशता रहा, जबकि 18 जुलाई, 2016 के अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा था कि लोढ़ा समिति की सिफारिशें पूरी तरह से लागू की जाएं।

दरअसल, बीसीसीआई के इस रवैये के पीछे ‘सब चलता है’ की मानसिकता देखी जा सकती है, वरना यह कैसे हो सकता था कि क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष अदालत में गलत तहरीर पेश करने की हद तक चले जाते? एक समय बीसीसीआई में बेताज बादशाह की हैसियत रखने वाले एन श्रीनिवासन को अदालती आदेश के आगे किस कदर घुटने टेकने पड़े थे, यह सब देखते हुए भी बीसीसीआई के पदाधिकारी अड़ियल रुख अपनाए रहे। अदालत का ताजा फैसला बताता है कि उसने इसे काफी गंभीरता से लिया है। उसने न सिर्फ बोर्ड अध्यक्ष और सचिव को हटा दिया है, बल्कि बीसीसीआई द्वारा लोढ़ा कमेटी की सिफारिशें लागू किए जाने तक राज्य क्रिकेट संघों को कोई राशि जारी करने पर भी रोक लगा दी है।

लोढ़ा कमेटी ने जो सिफारिशें की हैं, उसे देश में एक साफ-सुथरे खेल-माहौल की पृष्ठभूमि के रूप में अपनाने की जरूरत है। क्रिकेट समेत देश के तमाम खेल संघों में चंद राजनेताओं व अधिकारियों का वर्चस्व कायम रहा है, और यह देश में खेल जगत की दुर्गति का एक बड़ा कारण है। आखिर कुछ ही दिन पहले हमने देखा ही कि कैसे भारतीय ओलंपिक संघ ने सुरेश कलमाड़ी को और बॉक्सिंग संघ ने अभय चौटाला को अपना आजीवन अध्यक्ष चुन लिया था?

देश इस समय भ्रष्टाचार के खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई के मूड में है। काले धन के खिलाफ नोटबंदी के सरकारी कदम का जिस बड़े पैमाने पर लोगों ने साथ दिया, वह बताता है कि वे इससे मुक्ति की पीड़ा उठाने को तैयार हैं। लोगों की इस आशा को किन्हीं चोर दरवाजों या कानूनी तिकड़मों की भेंट नहीं चढ़ने दी जा सकती। यह सुखद है कि देश की आला अदालत ने अपने फैसलों से लोगों के भरोसे को लगातार मजबूत किया है। यह एक अच्छा मौका है। सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला एक नजीर है। क्रिकेट की सफाई तो अब हो ही जाएगी। इसके आलोक में देश के तमाम खेल संघों में फौरन सुधार किया जाना चाहिए। उन्हें न सिर्फ वर्षों से काबिज चेहरों से आजादी दिलाने की जरूरत है, बल्कि उनकी संचालन प्रक्रिया को भी पारदर्शी बनाने की दरकार है। मुश्किल यह है कि यह काम उसी बिरादरी को करना है, जिसके बिरादरान उन पर काबिज हैं। लेकिन जिम्मेदारी का तकाजा यही है, और यह काम अब टाला नहीं जा सकता।


Date: 03-01-17

वैज्ञानिक प्रगति की कसौटियां

हर साल जनवरी के पहले हफ्ते में भारतीय विज्ञान कांग्रेस अपना वार्षिकोत्सव मनाती है।

हर साल जनवरी के पहले हफ्ते में भारतीय विज्ञान कांग्रेस अपना वार्षिकोत्सव मनाती है। इस बार इसका आयोजन तिरुपति के श्रीवेंकटेश्वर विश्वविद्यालय में किया गया है। इसमें राष्ट्रीय विकास के लिए विज्ञान और तकनीक के योगदान पर चर्चा होगी। कोई भी सदस्य दस पंक्तियों का सारांश लिख कर इसमें भाग ले सकता है। कुछ विदेशी प्रतिनिधि भी बुला लिए जाते हैं। प्रचार के लिए प्रधानमंत्री से इसका उद््घाटन करा लिया जाता है। वास्तव में इस प्रकार की संस्था से भारतीय विज्ञान को कोई लाभ नहीं हो रहा है। होना तो यह चाहिए था कि इसमें देश भर के वैज्ञानिक संस्थानों और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के वैज्ञानिक मिलते और देश की समस्याओं पर चर्चा करके अपने-अपने क्षेत्र में अनुसंधान और विकास की भावी रूपरेखा प्रस्तुत करते। सरकार भी उन्हें यह बताती कि देश में किन-किन क्षेत्रों में कैसी समस्याएं हैं और उनके समाधान के लिए किस तरह के शोध और विकास की जरूरत है।

विज्ञान और तकनीक मेंयोगदान के मामले में भारत दुनिया में इक्कीसवें नंबर पर है। इस रैंकिंग का आधार यह है कि कौन-सा देश वैज्ञानिक शोध में कितनी हिस्सेदारी कर रहा है। यह हिस्सेदारी अनुसंधान-पत्रों से तय होती है। विज्ञान और तकनीक में किसी देश के योगदान को वैज्ञानिक व तकनीकी विषयों में पीएचडी करने वालों की संख्या से भी नापा जा सकता है। इस मामले में भारत की स्थिति अच्छी नहीं है। हमारे पास सीएसआईआर जैसी संस्थाएं हैं, कई स्तरीय अनुसंधान केंद्र हैं और विश्वविद्यालयों में विज्ञान के विभाग भी हैं। लेकिन सीएसआईआर का एक सर्वे बताता है कि हर साल जो करीब तीन हजार अनुसंधान-पत्र तैयार होते हैं, उनमें कोई नया आइडिया नहीं होता। वैज्ञानिकों तथा वैज्ञानिक संस्थानों की कार्यकुशलता का पैमाना वैज्ञानिक शोधपत्रों का प्रकाशन तथा पेटेंटों की संख्या है, लेकिन इन दोनों ही क्षेत्रों में गिरावट आई है। भारत में सील किए गए पेटेंटों की संख्या 1999-2000 में 1890 से गिर कर 2009-2010 में 1881 रह गई, जबकि अनुसंधान व विकास (रिसर्च एवं डेवलपमेंट- आर ऐंड डी) पर खर्च बढ़ता जा रहा है। पिछले दस वर्षों में यह 232 प्रतिशत बढ़ गया है। आंकड़ों से पता चलता है कि 2010 में भारत में कृषि, जीव विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, रसायन विज्ञान, गणित, भौतिक विज्ञान, इंजीनियरी तथा भू-विज्ञान में शोधपत्रों में भारत का योगदान केवल 2.2 प्रतिशत रहा।

देश के कई वैज्ञानिक संस्थानों और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं पर ऐसे लोगों का कब्जा है जिनका अकादमिक कार्य इस स्तर का नहीं है कि वे किसी संस्थान के निदेशक बनाए जाएं, लेकिन अपनी पहुंच के बल पर वे वैज्ञानिक अनुसंधान के मुखिया बने हुए हैं। विज्ञान की दुनिया में जोड़-घटा कर यों ही कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। विज्ञान में कुछ करने का मतलब है कि कोई नई खोज या नया आविष्कार किया जाए। लेकिन जब चुके हुए लोग राजनीतिक तिकड़म और भाई-भतीजावाद से वैज्ञानिक संस्थानों, प्रयोगशालाओं तथा केंद्रों के मुखिया होंगे तो क्या होगा? शायद इन्हीं सब कारणों से वैज्ञानिक समुदाय में कुंठा बढ़ रही है, जो त्यागपत्रों और आत्महत्या के रूप में भी समय-समय पर सामने आ चुकी है।

यह अकारण नहीं है कि जिन भारतीय वैज्ञानिकों ने नाम कमाया है, वे विदेशों में बस चुके हैं। लगभग दस लाख भारतीय वैज्ञानिक, डॉक्टर और इंजीनियर आज देश से बाहर काम कर रहे हैं। आज भी प्रतिभा पलायन से अरबों डॉलर का नुकसान हो रहा है। चरक और सुश्रुत के बाद चिकित्सा अनुसंधान के क्षेत्र में हमारा योगदान शून्य रहा है। इसी तरह से भास्कराचार्य, आर्यभट््ट के बाद गणित व ज्योतिष में भी भारत ने कोई मौलिक अनुसंधान या खोज नहीं की है।अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में हमारी कुछ उपलब्धियां हैं। लेकिन दुनिया को बताने लायक हमने कोई नई खोज या आविष्कार नहीं किया है। वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की संख्या के हिसाब से भारत का दुनिया में तीसरा स्थान है। लेकिन सारा का सारा वैज्ञानिक साहित्य पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों के कार्यों से भरा पड़ा है। उसमें किसी भारतीय का नाम नहीं मिलता है। अपने देश में आज कोई रामन, खुराना क्यों नहीं है? इतने सारे वैज्ञानिक संस्थानों में लगे हुए ढेरों वैज्ञानिक किस ऊहापोह में हैं। क्या हमारे देश में वैज्ञानिक प्रगति के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं है?

दरअसल, सात-आठ दशक पहले ऐसा नहीं था। ब्रिटिश राज में परिस्थितियां एकदम प्रतिकूल थीं। इसके बावजूद भारत ने बड़े-बड़े वैज्ञानिक पैदा किए- रामानुजम, जगदीश चंद्र बोस, चंद्रशेखर वेंकट रामन, मेघनाद साहा और सत्येंद्रनाथ बोस। इन वैज्ञानिकों ने भारत में ही काम किया था, और दुनिया में भारत का गौरव बढ़ाया था। लेकिन आजादी के बाद हम एक भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का वैज्ञानिक देश में पैदा नहीं कर सके। इस बारे में क्या कभी हमने सोचा है?देश की 1138 औद्योगिक अनुसंधान एवं विकास इकाइयों में लगभग साठ हजार वैज्ञानिक कार्यरत हैं। लेकिन तकनीक के विकास में उनका योगदान कितना है? औद्योगिक जरूरतों और प्रयोगशालाओं के अनुसंधान के बीच कोई तालमेल नहीं है। वास्तव में विज्ञान और तकनीक के विकास के लिए हमारे पास धन और साधनों की उतनी कमी नहीं, जितना कि कहा जाता है। विदेशी सहायता का भी हम समुचित उपयोग नहीं कर पाते हैं। अनुसंधान और तकनीक के विकास के लिए विदेशी सहायता की नमूना-जांच के लिए भारत के नियंत्रक व लेखा परीक्षक ने दस परियोजनाएं चुनी थीं। इनमें से पांच परियोजनाएं पर्यावरण व वन मंत्रालय से और पांच परियोजनाएं गैर-पारंपरिक ऊर्जा-स्रोत मंत्रालय से संबद्ध हैं। इन परियोजनाओं का कुल परिव्यय 824.04 करोड़ रुपए था। इनमें अनुदान का उपयोग 0.81 प्रतिशत से लेकर सौ प्रतिशत के करीब हुआ। दो परियोजनाओं में उपयोग पचास प्रतिशत से भी कम रहा और दो अन्य परियोजनाओं में सहायता राशि के आंकड़े उपलब्ध नहीं थे। इन परियोजनाओं के प्रारंभिक लक्ष्य की पूर्ति की समयावधि के बारे में पांच से साठ माह तक संशोधन किया गया, फिर भी चार मामलों में लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सके।

विश्व बाजार के इस युग में अब उत्पादन के रहस्य अंतरराष्ट्रीय व्यापार की वस्तु बन गए हैं। ज्ञान और तकनीक को अब धन अर्जित करने के स्रोत के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन इस नए विश्व में स्वामित्वपूर्ण ज्ञान से ही संपदा अर्जित की जा सकती है। ज्ञान आधारित प्रतिस्पर्धा के युग में बौद्धिक संपदा अधिकारी नीतिगत उपकरण के रूप में उभरे हैं। किसी भी देश की आत्मनिर्भरता में विज्ञान और तकनीक की शक्ति निर्विवाद रूप में सिद्ध हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि हमारे पास प्रतिभावान और क्षमतावान वैज्ञानिक नहीं हैं। जहां कहीं भी हमें चुनौती मिली है और लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, वहां हमने सफलता भी प्राप्त की है। राकेट, उपग्रह, मिसाइल और परमाणु विस्फोट के क्षेत्र में हमारे वैज्ञानिकों की शानदार सफलताएं इसी बात का प्रमाण हैं।दुनिया के अन्य देशों के आर्थिक विकास का सबसे सशक्त माध्यम तकनीक बन चुकी है। औद्योगिक दृष्टि से अग्रणी देशों ने जो विकास किया है उसमें से लगभग एक तिहाई से आधा हिस्सा टेक्नोलॉजी की प्रक्रिया से आया है। आर्थिक विकास के लिए टेक्नोलॉजी के लगातार सुधार के साथ-साथ नए आविष्कार करना भी बहुत जरूरी है। जब इस तरह के आविष्कार होते हैं तो इनसे पूरी औद्योगिक व्यवस्था बदल जाती है। देश की जरूरतों के हिसाब से विज्ञान और तकनीकी अनुसंधान की प्राथमिकताएं तय की जानी चाहिए। विज्ञान व तकनीकी अनुसंधान को अफसरशाही के शिकंजे से मुक्त करा कर देश के निर्माण के लिए समयबद्ध स्पष्ट कार्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए।


Date: 03-01-17

खेल की खातिर

इसमें सबसे ज्यादा कामयाबी ऊंचे राजनीतिक रसूख वाले लोगों को मिली, जो राज्य खेल संघों से लेकर बीसीसीआई तक के शीर्ष पदों पर कब्जा जमा कर अपने मुताबिक उसे चलाने लगे।

बीसीसीआई यानी भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और उसकी गतिविधियों में सुधार के मसले पर नजर रखे हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक बार यहां तक कहा था कि आप लोग सुधर जाएं, नहीं तो हम अपने आदेश से इसे सुधार देंगे। लेकिन बोर्ड के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर और सचिव अजय शिर्के ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को मानना जरूरी नहीं समझा और एक तरह से अवमानना करने पर उतारू रहे। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने बीसीसीआई के इन दोनों उच्चपदस्थ लोगों को उनके पद से बर्खास्त करने का फैसला सुनाया है तो स्वाभाविक है। भारतीय क्रिकेट को राजनीतिकों की महत्त्वाकांक्षाओं का खेल होने से बचाने के लिहाज से भी यह एक जरूरी फैसला है। गौरतलब है कि अदालत ने पिछले साल अठारह जुलाई को दिए अपने फैसले में क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में मंत्रियों, प्रशासनिक अधिकारियों और सत्तर साल से ज्यादा उम्र वाले लोगों के पदाधिकारी बनने पर रोक लगा दी थी।

जाने क्यों बीसीसीआई के हटाए गए अध्यक्ष और सचिव यह समझ नहीं सके कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमल करना उनकी जिम्मेदारी और बाध्यता, दोनों है। दोनों ने राज्य क्रिकेट संघों का हवाला देकर सुधारों को लागू न करने का बहाना बनाए रखा। यही नहीं, कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने अनुराग ठाकुर को चेतावनी देते हुए कहा था कि झूठा हलफनामा दायर करने के लिए उन्हें सजा क्यों न दी जाए! इसके अलावा, उन पर सुधार प्रक्रिया को बाधित करने का भी आरोप था। सवाल है कि आखिर अनुराग ठाकुर के अपने पद पर बने रहने की जिद और उसके लिए अदालत तक में झूठ बोलने की क्या वजह हो सकती है! दरअसल, जैसे-जैसे क्रिकेट एक लोकप्रिय खेल से अकूत पैसे के तमाशे में तब्दील होता गया है, इसके संचालन के उच्च पदों पर कब्जा जमाने की होड़ बढ़ती गई है। इसमें सबसे ज्यादा कामयाबी ऊंचे राजनीतिक रसूख वाले लोगों को मिली, जो राज्य खेल संघों से लेकर बीसीसीआई तक के शीर्ष पदों पर कब्जा जमा कर अपने मुताबिक उसे चलाने लगे।

इससे सबसे ज्यादा नुकसान क्रिकेट संघों के प्रशासनिक पहलू को हुआ। इनमें वैसे लोगों को जगह नहीं मिल सकी जो पेशेवर खिलाड़ी रहे हैं और क्रिकेट से जुड़े सारे पहलुओं को समझते हैं। इसका स्वाभाविक असर खिलाड़ियों के चयन, उनके प्रशिक्षण, खेलों के आयोजन और उनके प्रसारण के अधिकार आदि देने की स्थितियों पर पड़ा। यह कोई छिपी बात नहीं है कि जब से क्रिकेट में आइपीएल प्रतियोगिताओं की शुरुआत हुई है, उसमें खिलाड़ियों की खुली नीलामी से आगे बढ़ते हुए स्पॉट मैच फिक्सिंग तक के मामले सामने आने लगे। इन सब पर लगाम लगाने के बजाय बीसीसीआई सहित तमाम खेल संघों के पदाधिकारियों की रुचि पद पर कब्जा बनाए रखने में रही। सवाल है कि क्या क्रिकेट में हो रहे पैसे के खेल में परदे के पीछे कुछ और लोगों का हिस्सा भी बन रहा था? अगर नहीं तो आखिर किन वजहों से एक लोकप्रिय खेल को पैसे बनाने के खेल में तब्दील किया जाता रहा? सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले का संदेश साफ है कि खेल संगठनों के समूचे ढांचे में वैसे ही लोग मौजूद हों जो इसे खेल बनाए रखने के प्रति अपनी जिम्मेदारी निबाहें।


Date: 03-01-17

फैसले के मायने

सोमवार को आए सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से हमारे जनतंत्र के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को और बल मिला है

सोमवार को आए सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से हमारे जनतंत्र के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को और बल मिला है। न्यायालय ने कहा है कि कोई भी उम्मीदवार धर्म और जाति के आधार पर वोट नहीं मांग सकता। यह कोई ऐसी बात नहीं है जो अदालत के फैसले से पहली बार सामने आई हो। जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 123 (3) साफ कहती है कि कोई भी उम्मीदवार या उसका एजेंट धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर वोट नहीं मांग सकता। संविधान पीठ ने इस प्रावधान की ही पुष्टि की है। धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान की एक बुनियादी मान्यता है, और दूसरे तमाम कानूनों के साथ-साथ जनप्रतिनिधित्व कानून में भी यह हमेशा प्रतिबिंबित होती रही है। फिर, कोई उम्मीदवार धर्म या जाति के आधार पर वोट नहीं मांग सकता यह दोहराने की जरूरत सर्वोच्च अदालत या संविधान पीठ को क्यों महसूस हुई? दरअसल, इसकी पृष्ठभूमि में सर्वोच्च अदालत का ही एक फैसला है जो हमेशा विवाद का विषय रहा है।

मुंबई उच्च न्यायालय के एक फैसले को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में कहा था कि हिंदुत्व धर्म नहीं, एक जीवन शैली या जीवन जीने का तरीका है। यह उन लोगों को खूब रास आया जो हिंदुत्व का राजनीतिक इस्तेमाल करते आए हैं। सांप्रदायिकता का आरोप लगने पर अपने बचाव में वे जब-तब सुप्रीम कोर्ट के 1995 के फैसले का हवाला भी देते रहे हैं। लेकिन उस फैसले की तर्ज पर तो इस्लाम या ईसाइयत की बाबत भी कहा जा सकता है कि यह जीवन जीने का एक तरीका है। अदालत का काम किसी धर्म को परिभाषित करना नहीं, सिर्फ यह देखना है कि धर्म का गैर-कानूनी इस्तेमाल और धार्मिक आधार पर पक्षपात या भेदभाव न हो। जाने क्यों, संविधान पीठ ने इक्कीस साल पहले के उस विवादास्पद फैसले पर फिर से गौर करने से मना कर दिया। पर उसकी ताजा टिप्पणी से साफ है कि उसकी चिंता किसी धर्म को परिभाषित करने की नहीं, बल्कि चुनाव की मर्यादा की रक्षा को लेकर है। और यह बिल्कुल वाजिब रुख है। अलबत्ता चुनाव में धर्म और जाति के इस्तेमाल को रोकना आसान नहीं हो सकता। दरअसल, यह एक ऐसी चुनौती है जिससे महज कानून के दम पर नहीं, बल्कि अधिकांशत: राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता के बल पर ही पार पाया जा सकता है।

कानून और न्यायालय तभी कार्रवाई कर सकते हैं कि जब उम्मीदवार या उसके एजेंट की तरफ से धर्म या जाति के आधार पर वोट देने की अपील करने के सबूत पाए जाएं। मगर धर्म और जाति के नाम पर होने वाले सियासी खेल बहुत सारे तरीकों से चलते रहते हैं। किसी उम्मीदवार या पार्टी-नेता का मंदिर में जाकर दर्शन-पूजन करना, धार्मिक समारोहों में हिस्सा लेना, इफ्तार की दावत देना आदि ऐसे ढेरों तरीके हैं। इसी तरह सीधे जाति के नाम पर वोट न मांग कर उस जाति के समारोह या सम्मेलन में हिस्सेदारी करके भी नेतागण, उम्मीदवार और उनके समर्थक जो ‘संदेश’ देना चाहते हैं देते रहते हैं। क्या इन सब चीजों से कानून के बल पर निपटा जा सकता है? फिर, कई बार जाति का मसला जातिवाद का नहीं होता, बल्कि कमजोर समुदायों के साथ हुई किसी ज्यादती की मुखालफत या उनकी किसी सामाजिक, शैक्षिक मांग से भी जुड़ा हो सकता है। क्या ऐसे मुद््दों को उठाना गैर-कानूनी होगा? शायद ऐसे ही सवालों की वजह से संविधान पीठ में सर्वसम्मति नहीं बन पाई होगी, और पीठ के सात में से तीन जजों ने फैसले से असहमति जताई है।


Date: 03-01-17

What is special about special courts?

The legislature has introduced special courts on many occasions through various laws, usually with the intention to enable quick and efficient disposal of cases. But an examination of the laws that require setting up of special courts compared to the actual numbers that have been set up reveals the extent to which reality and intent are mismatched.

In a short study by Vidhi Centre for Legal Policy, 764 Central laws enacted and amended between 1950 and 2015, excluding laws that were repealed in this period or that may have been amended after 2015, were examined to determine the frequency of their occurrence. We looked in these statutes for only mentions of ‘special’ or ‘designated’ courts or judges, that is, courts or judges established to ensure effective trial and that have powers of district or sessions courts. Forums like quasi-judicial bodies, tribunals, and commissions were excluded. It was found that only three statutes provided for special courts between 1950 and 1981, whereas between 1982 and 2015, 25 statutes mandated the establishment of such courts.

What are the reasons for this drastic change in legislative policy? The five-year period from 1982 to 1987 witnessed an unexplained spurt in the number of laws creating special courts. A similar increase was seen between 2012 and 2015. Several such courts were created in response to specific incidents. For instance, the 1992 securities scam led to the Special Court (Trial of Offences Relating to Transactions in Securities) Act, 1992. The largest number of special/designated courts were created between 1982 and 1992. However, there is no categorical rationale for these developments.

Setting up and designating special courts

Laws interchangeably use the terms ‘set up’ or ‘designate’ with respect to special courts. Setting up a special court may require new infrastructure and facilities, whereas a designated court merely adds additional responsibilities to an existing court. In our study, of the 28 statutes enacted between 1950 and 2015, three provided for both, 15 ‘set up’ special courts, and 10 empowered the competent authority to designate a court. However, implementation of the law does not necessarily follow this distinction between setting up and designation. Despite providing for ‘setting up’ special courts, State governments have designated courts under most of the legislations. Out of the 15 statutes which specifically provided for ‘setting up’ of special courts, only one has been enabled with them by few States.

Based on the nature of legislation and primary subject matter dealt with, we divided the statutes into five clusters of economic offences, regulatory offences, law and order, social justice, and national security. The objective of special courts has been unclear. It is not very revealing whether specific legislations which provide for special courts necessarily intend quick disposal of cases. The statutes which have been recently enacted, mostly those falling under the cluster of economic offences, have provisions for special courts although older legislation, like the Scheduled Caste and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989, or the Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, 1985, have a huge backlog of cases waiting to be cleared.

We studied three statutes from three clusters, based on the availability of data, to observe the nature and frequency of institution of ‘special courts’: The Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act (POA), 1989; National Investigation Agency Act, 2008 (NIA Act); Prevention of Corruption Act, 1988 (POCA).

The pendency rates in courts for cases filed under POA are huge. While the national average is 84.1 per cent, States like Maharashtra and West Bengal have pegged their respective pendency rates well above the average. The number of cases being registered from these States has also been significant. However, the absence of exclusive courts in these States has been stark. On the contrary, there have been several special courts and fast track courts being set up under POCA although the total number of cases registered is nearly 1/10th of cases under POA. Under the NIA Act, in spite of mandating special courts, all the courts set up have been designated courts.

 No exclusivity

From the available data, it is fairly conclusive that there is no exclusivity in ‘special courts’. Laws enacted in the last three decades have considered special courts as quick remedy for questions of delays in trial. However, a striking absence of number of ‘special courts’ set up provides a glaring contrast to such an objective. Notably, in most instances where existing courts are designated as special courts, the original intent of speedy disposal of cases seems to have been defeated. Questions of pendency have often surfaced, thereby rendering the point of efficiency of the institution moot. Absence of rationale in both selective insertion of provision for special courts and actual setting up of courts appears to have rendered the notion of special court superfluous.

Poor quality or complete absence of data remains a major concern for this study. Official websites (for instance, nodal ministries) did not always have the latest updated versions of statutes. The status of these laws is difficult to assess as information about the number of courts set up or designated under various laws is not always available.

However, this study does reveal much scope to expand the areas of enquiry for research. For instance, what is so special about special courts if they only provide an additional forum to dispose cases? Is this purpose still served if existing courts are merely designated as special courts without any new infrastructure being created? Can inferences be drawn about the state of the judicial system where special courts have been introduced by way of amendments to parent laws? Is the legislature monitoring the health of special courts and examining whether their original stated purpose continues to be served? These are questions which future studies could explore.

Sakshi is a Research Fellow at the Vidhi Centre for Legal Policy, New Delhi. Views are personal.


Date: 03-01-17

नजीरी फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने आखिकरकार भारतीय क्रि केट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर और सचिव अजय शिर्के को पद से हटा दिया। असल में क्रि केट बोर्ड के अड़ियल रुख का यह परिणाम है। अनुराग की मुश्किलें तो यहीं खत्म होती नहीं दिख रही हैं; क्योंकि अदालत ने उन्हें नोटिस देकर पूछा है कि उनके खिलाफ अदालत की अवमानना का मामला क्यों न चलाया जाए? अनुराग को इस मामले में अगली सुनवाई 19 जनवरी को होने के समय तक जवाब दाखिल करना है। वह यदि इस मामले में अदालत से माफी नहीं मांगते हैं तो उन्हें जेल भी जाना पड़ सकता है।

अदालत ने बोर्ड के संचालन के लिए प्रशासकों की नियुक्ति के लिए वरिष्ठ वकील फली एस नरीमन और गोपाल सुब्रमण्यम की दो सदस्यीय समिति बनाई है। प्रशासक की नियुक्ति होने तक वरिष्ठ उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव बोर्ड के कामकाज को देखेंगे। बीसीसीआई लगातार यह कहता रहा है कि कुछ सिफारिशें व्यावहारिक नहीं होने की वजह से लागू नहीं की जा सकती हैं। पर उसने कभी भी सिफारिशें लागू करने के मामले में सहयोगपूर्ण रवैया भी नहीं अपनाया है। अगर बीसीसीआई ने इस मामले में अड़ियल रुख नहीं अपनाया होता तो शायद अदालत से एक राज्य एक मत जैसी कुछ सिफारिशों पर छूट भी मिल सकती थी। अभी बीसीसीआई ही नहीं तमाम क्रि केट एसोसिएशनों में यह सिफारिशें लागू होना बाकी हैं, इसलिए अभी तमाम विकेट गिर सकते हैं।

अदालत ने अपने फैसले में कहा भी है कि इन सिफारिशों को नहीं मानने वालों को जाना ही होगा। बीसीसीआई की तरह ही राज्य एसोसिएशनों में भी प्रशासकों की नियुक्ति की जरूरत पड़ सकती है। बेहतर तो यही होगा कि प्रशासक की नियुक्ति के बाद वह सिफारिशें लागू कराकर जल्द-से-जल्द चुनाव कराकर नए पदाधिकारियों को जिम्मेदारी सौंपें। अब देखने वाली बात यह होगी कि इस मुश्किल दौर में कहीं क्रि केट का नुकसान न हो। वैसे तो अभी भी अदालत ने खेल को किसी तरह से नुकसान नहीं होने दिया है और क्रि केट सीरीज के लिए जरूरी राशि निकालने की वह बीसीसीआई को अनुमति देता रहा है। इस कदम से बीसीसीआई में पारदर्शिता आना लाजिमी है। पर सवाल यह है कि सुधार सिर्फ बीसीसीआई में ही क्यों? इस दायरे में अन्य एसोसिएशनों को भी लाने की जरूरत है। भविष्य में यदि ऐसा हो सका तो भारतीय खेलों की शक्ल बदल सकती है।


Date: 03-01-17

ब्याज दर में कमी

 बैंकों द्वारा कर्ज पर ब्याज दरें घटाने के फैसले को तत्काल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किए गए अपील के असर के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि, जिस ढंग से नोटवापसी के बाद बैंकों से कर्ज लेने में भारी गिरावट आई है, उसे देखते हुए बैंकों के द्वारा ऐसा किया जाना आवश्यक भी था। नोट वापसी के बाद बैंकों के पास नकदी की कोई कमी नहीं है, जिससे उनको समस्या हो। जाहिर है, इसे तत्काल वाहन और घर खरीदने वालों के लिए नए साल का तोहफा माना गया है, लेकिन इसका असर यहीं तक सीमित नहीं होगा। वस्तुत: स्टेट बैंक ने बेंचमार्क लेंडिंग रेट यानी सीमांत कोष लागत आधारित कर्ज दर में 0.90 प्रतिशत की कटौती की घोषणा की। उसके साथ पंजाब नेशनल बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर आदि ने भी अलग-अलग अवधियों और श्रेणियों के कजरे के लिए ब्याज दरों में कटौती कर दी है। ब्याज दर घटाने की एक प्रतिस्पर्धा हो सकती है, जिसमें निजी बैंक भी शामिल होंगे। संभव है मुद्रास्फीति नियंतण्रमें होने के कारण आरबीआई भी अगली त्रैमासिक मौद्रिक समीक्षा में रेपो दर में कमी करे। उसके बाद वैसे भी बैंकों को घटी हुई दर बनाए रखने में कोई समस्या नहीं होगी। वास्तव में सारी परिस्थितियां बता रहीं हैं कि अगले छह महीने तक ब्याज दरों में वृद्धि को लेकर बैंकों पर किसी प्रकार का दबाव होने की कोई संभावना नहीं है। बेशक, इसका सीधा प्रभाव यह होगा कि हमारी मासिक किश्तें घट जाएंगी। साथी ही दूसरों को कर्ज लेने की प्रेरणा मिलेगी। विकास को गति देने के लिए बैंकों से कर्ज का निकलना जरूरी है। बैंक से कर्ज का प्रभाव बहुआयामी होता है। विकास दर को 7.5 प्रतिशत तक बनाए रखने के लिए इस वित्तीय वर्ष के तीन महीने में काफी जोर लगाने की जरूरत है। ब्याज दरों में कटौती उसका एक आधार हो सकता है। लेकिन जैसा प्रधानमंत्री ने बैंकों से आग्रह किया था कि वह गरीबों, किसानों, निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग को कर्ज देना आरंभ करे..वैसा बैंक करते हैं या नहीं देखना होगा। जब तक आम गरीबों और निम्न मध्यम वर्ग, उनको कारोबार के लिए कम ब्याज दर और आसान किश्तों पर सहजता से बैंक कर्ज नहीं देंगे देश का संतुलित विकास नहीं हो सकता है।


Date: 03-01-17

चुनाव आयोग की भूमिका

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में यकायक घटे घटनाक्रम ने आने वाले दिनों में होने वाले विधान सभा चुनाव को लेकर चुनाव पंडितों द्वारा की गई भविष्यवाणियों या कहें कि आकलनों को पटरी से उतार दिया है। हालिया घटनाक्रम में दो गुटों ने एक दूसरे को पार्टी से निकाल दिया है। मेरे पास तमाम जिज्ञासाएं मीडिया के मित्रों की तरफ से आई हैं। इस बाबत कि इन घटनाक्रमों का आने वाले चुनाव पर किस प्रकार से प्रभाव पड़ेगा। यह भी जिज्ञासा है कि तमाम नाटकीय घटनाक्रमों के बीच निर्वाचन आयोग की क्या भूमिका हो सकती है। निर्वाचन आयोग मीडिया में प्रकाशित या प्रसारित हो रहीं पार्टीगत आरोप-प्रत्यारोपों की खबरों से किसी भी सूरत में बाबस्ता नहीं है। निर्वाचन आयोग ऐसे मामलों में स्वत: संज्ञान नहीं लेता। अपने स्तर से कोईकार्रवाईनहीं करता। उसकी

भूमिका तभी आरंभ होती है, जब कोई एक पक्ष अपने किसी दावे के साथनिर्वाचन आयोग के पास पहुंचता है। किसी पक्ष के पहुंचने पर ही आयोग न्यायिक तकाजों के अनुरूप कार्यवाही आरंभ करता है। इलेक्शन सिम्बल्स (रिजव्रेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर, 1968 की धारा 15 के तहत एक पक्ष के दावे या आपत्ति के मद्देनजर दूसरे पक्ष को नोटिस जारी करता है, ताकि उसका पक्ष भी जाना जा सके। जाहिर है कि दोनों ही पक्ष स्वयं को वास्तविक पक्ष बता रहे होते हैं। दोनों पक्षों द्वारा स्वयं को वास्तविक होने का दावा करने के चलते निर्वाचन आयोग के लिए जरूरी हो जाता है कि दोनों पक्षों के तकरे को जान लिया जाए। इसलिए निर्वाचन आयोग दोनों पक्षों को तलब करता है।

उनसे अपने-अपने दावों के समर्थन में प्रमाण पेश करने को कहता है। इस बाबत दोनों पक्षों को अपने-अपने दावों के समर्थन में शपथपत्र भी पेश करने होते हैं। यहां इलेक्शन सिम्बल्स (रिजव्रेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर, 1968 की धारा 15 पर गौर करना उपयोगी रहेगा। इसके अनुसार : आयोग अपने तई प्राप्त जानकारी से संतुष्ट होने पर कि किसी मान्यताप्राप्त पार्टी में परस्पर विरोधी पक्ष या गुट उस पार्टी का हिस्सा होने का दावा करते हुए परस्पतर विरोधी दावे कर रहे हैं, तो आयोग संबद्धमामले में तमाम परिस्थितियों और उपलब्ध तयों पर गौर करते हुए और इन गुटों या पक्षों के प्रतिनिधियों या किसी भी उस व्यक्ति, जो इस मामले में अपना पक्ष रखना चाहता हो, का तर्क सुनकर फैसला देता है कि उनमें परस्पर विरोधी गुटों या पक्षों में से कौन सा पक्ष या गुट मान्यताप्राप्त पार्टी का हिस्सा है।

निर्वाचन आयोग का फैसला ऐसे सभी परस्पर विरोधी गुटों या पक्षों पर बाध्यकारी होता है। निर्वाचन आयोग दावों और प्रति दावों की जांच-परख करके तय करेगा कि किसी गुट या पक्ष का पार्टी में बहुमत है। इस मामले में पार्टी के विधायकों, विधान पार्षद और पदाधिकारियों के मद्देनजर गौर किया जाता है। हमारा अनुभव रहा है कि दोनों तरफ के गुट या पक्ष प्राय: सवाल उठा देते हैं कि दूसरे पक्ष ने अपने समर्थकों की सूची को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है। समर्थन के लिए जाली हस्ताक्षर करा लिए गए हैं। हस्ताक्षरों की सच्चाई जान लेना निर्वाचन आयोग के लिएबेहद पेचीदा कार्य होता है। दोनों पक्षों की सुननी होती है। इस समूची प्रक्रिया में तीन से पांच महीने लग सकते हैं। तो कहना यह कि आने वाले चुनाव में क्या होना है, उसे मात्र कुछेक दिनों में तय किया जाना है। कोई न कोईअंतरिम व्यवस्था की जानी होगी। चूंकि दोनों पक्ष पार्टी के नाम तथा चुनाव चिह्न पर दावा कर रहे होंगे इसलिए हो सकता है कि आयोग की तरफ से इस बाबत फैसला फ्रीज या लंबित कर लिया जाए। इस बीच, दोनों पक्षों को अस्थायी नाम दिए जा सकते हैं जैसे कि एसपी (अला) तथा एसपी (फ्लां)।

इसके अलावा, दोनों पक्षों को अस्थायी रूप से चुनावी चिह्न भी आवंटित किया जाएगा। यह कोईनईबात नहीं है। पहले भी तमाम ऐसे मामले आए हैं, जब किसी पार्टी में टूट होने पर दो पक्षों ने स्वयं को वास्तविक पार्टी होने संबंधी दावे किए थे। इस मामले में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदाहरण भुलाया नहीं जा सकता। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में 1969 में टूट हुई थी। और यह करके पार्टी के उस विभाजन से दो पार्टियां-कांग्रेस (ओ) तथा कांग्रेस (आई)-उभरीं। तय यह है कि कांग्रेस में 1978 में एक बार फिर से विभाजन हुआ और यह कांग्रेस (इंदिरा) तथा कांग्रेस (तिवारी) में बंट गई। 1980 के दशक में तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक दो हिस्सों में बंटी। एक का नेतृत्व एमजीआर की पत्नी जानकी कर रही थीं, तो दूसरे हिस्से का जे. जयललिता। बात में जनता दल भी इसी तरह से जद(यू) तथा जद (स) में विभाजित हुआ। ज्यादा दिन नहीं हुए जब 2012 के चुनाव से पूर्व हमें उत्तराखंड में भी ऐसी ही स्थिति देखने को मिली। उत्तराखंड क्रांति दल में विभाजन हुआ। और निर्वाचन आयोग ने पूर्व में वर्णित तरीके को अपनाते हुए अपना फैसला दिया था। आयोग दो बातों पर ध्यान देता है। पहली, पार्टी के संविधान तथा दूसरी, पार्टी में बहुमत का दावा करने वाले पक्षों की पार्टीगत ताकत। ऐसे तमाम मामले आखिर में सुप्रीम कोर्ट पहुंचे।

सुप्रीम कोर्ट का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण फैसला भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मामले में आया। शीर्ष अदालत ने बहुमत का परीक्षण करने संबंधी भारत निर्वाचन आयोग के आदेश की ही तस्दीक की थी। जहां तक उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का मामला है, तो पार्टी संविधान और तद्नुरूप कार्रवाई महत्त्वपूर्ण तरीका होगा। बहुमत को परखने, इस तरीके की शीर्ष अदालत तस्दीक कर चुकी है, के तरीके को तो तवज्जो दी ही जानी है। चूंकि इन तमाम तरीकों या प्रक्रिया से न्यायिक तकाजे भी जुड़े हैं, इसलिए यकीनन फैसला होने में चार-पांच महीने लग सकते हैं। तब तक दोनों पक्षों या गुटों को उनकी पहचान के लिए अस्थायी व्यवस्था करते हुए कुछ नाम दिए जा सकते हैं। साथ ही, इन दोनों पक्षों या गुटों को अस्थायी चुनाव चिह्न भी आवंटित किया जाएगा। अभी तो कुछ ऐसा ही परिदृश्य उभर रहा है।

एस.वाई. कुरैशी (लेखक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त हैं)


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