03-12-2024 (Important News Clippings)
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Date: 03-12-24
Of birth & death
Falling birthrates are here to stay. Healthier, older people are a solution. But, for earth, a problem
TOI Editorial
Take two wildly different bits of news. RSS boss Mohan Bhagwat, worried about falling fertility rates, asked Indian families to have at least three kids. Bryan Johnson, a guru/entrepreneur in the market for age-reversal, is in India to talk about his take on long life. What connects the two is that both bits of news are, in different ways, part of fundamental shifts – birth rates worldwide are falling and research on healthy longevity (not just longevity) is booming.
Interventions like Bhagwat’s are futile. The more agency women have, the less they will fall for the old trick that tells them being a mom is their highest calling. In part because the burden of childcare falls disproportionately on them, not just in the East but also in the West. Putin, Xi, Macron, Musk, Meloni, JD Vance, South Korean & Japanese govts – all want a jump in birth rate, and none of them will get what they want. Reasonably assuming, even given human (male) proclivities for nastiness, Handmaid’s Tale type of dystopian solutions – enslaved women forced to have babies – won’t happen, the baby-making trendline will flatten out, with a downward bias. Not just politicos, many pundits are in despair, fretting, variously, about shrinking worker base, lower GDPs, higher old-age care burden.
But, if research on healthy longevity actually delivers safe, uncomplicated, affordable solutions – optimists like Johnson say AI revolution will help this happen, but it’s still a big if – some of these ageing society problems can be addressed. Older, physically and mentally healthier people can work longer (65 is already the new 60 for many companies across countries). And if AI delivers the productivity miracle its proselytisers promise, the two together can mitigate the problem of fewer, young workers and higher pension burden. Healthier older people will also not bust healthcare. Sharp 80-somethings don’t require expensive treatment, 80-somethings with brain degeneration do. Culturally, healthy longevity is likely to challenge the post-war consensus on celebrating youth. If fit, productive, older people are the largest cohort, markets will switch their veneration. The world’s ‘sexiest 70-somethings’ is an internet survey waiting to happen. So, ageing societies may not turn out to be a sad story.
Ask this though – how much will people living very long, healthy lives consume? Already, 100bn animals are slaughtered for 8bn humans. There are more animals raised for food than in the wild. Humans are destroying bio systems. Older people now, because they are frailer, eat less. What about older and healthy people? What about their energy consumption implications? Can planet earth afford healthy human longevity? Maybe there’ll be answers. But we need to ask the questions first.
तनाव पैदा करने वाले मुद्दों पर फैसले जल्द हों
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट में पिछले दो साल से कई याचिकाएं लंबित हैं, जिसमें धार्मिक स्थल कानून 1991 की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी। इसी कोर्ट के एक आदेश में कहा गया था कि किसी धर्मस्थल का धार्मिक स्वरूप वैज्ञानिक सर्वे के आधार पर सुनिश्चित करना, इसके स्वरूप को बदलना नहीं होगा। इसके बाद निचली अदालतों में लगातार अनेक मस्जिदों को हिन्दू मंदिरों के भग्नावशेष पर खड़ा होने के दावे आने लगे। सांप्रदायिक तनाव बढ़ने लगा। संभल (उत्तर प्रदेश) में प्रशासन और मुस्लिम समुदाय के बीच झड़प के बाद अब अजमेर शरीफ को शिव मंदिर के मलबे से बनाए जाने के दावे वाली याचिका पर कोर्ट ने एएसआई, अल्पसंख्यक मंत्रालय और दरगाह के इंतेजामिया को नोटिस भेजा है। विश्व हिन्दू परिषद मानता है कि 40 हजार मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाई गई हैं। यानी यह सिलसिला लगातार चलता रहेगा। यह समय है कि सुप्रीम कोर्ट धार्मिक स्थल कानून – 1991 की वैधानिकता और उसके प्रावधान 3 और 4 की स्पष्ट व्याख्या करे। कोर्ट को यह भी देखना होगा कि क्या सामाजिक-धार्मिक आयाम पर की गई ऐतिहासिक गलतियों को वर्तमान में दुरुस्त किया जा सकता है? संसद ने इस कानून के जरिए अन्य धार्मिक स्थलों में संभावित विवाद पर हमेशा के लिए एक रोक लगाई। प्रावधान कहता है कि 15 अगस्त, 1947 के दिन तक जिस धार्मिक स्थल का जो स्वरूप था, वह न तो बदला जाएगा ना ही कोई कोर्ट इससे संबंधित कोई वाद सुनेगी। अब सुप्रीम कोर्ट को तय करना है कि यह कानून जो भारतीय समाज में स्थाई शांति ला सकता है, संविधान सम्मत है या नहीं। जाहिर है अगर कानून को सही ठहराया गया तो देश भर में सर्वे पर भी लगाम लगेगी, क्योंकि उसके परिणाम तनाव पैदा करेंगे। अगर कानून गलत माना गया तो सांप्रदायिक तनाव का यह नासूर कैंसर बन जाएगा।
Date: 03-12-24
चीन-नेपाल की नजदीकी का क्या है मतलब
ऋषि गुप्ता, ( लेखक एशिया सोसायटी पालिसी इंस्टीट्यूट, दिल्ली के सहायक निदेशक हैं )
नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली अपनी पहली विदेश यात्रा पर चीन पहुंच गए हैं। इस यात्रा को नेपाल को चीन के और नजदीक ले जाने का सूचक माना जा रहा है, क्योंकि परंपरागत तौर पर नेपाल के नए प्रधानमंत्री पहली विदेश यात्रा पर भारत आते रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत विरोध और चीन से मित्रता ओली की व्यक्तिगत रुचि रही है।ओली हमेशा चीन के साथ संबंधों को प्रगाढ़ करने की वकालत करते रहे हैं। उन्होंने भारत विरोध का सहारा लेकर ही अपनी राजनीति मजबूत की है, फिर चाहे वह 2015 में की गई सीमा की नाकाबंदी हो, 2019 में सीमा-विवाद का राजनीतीकरण करना हो या फिर नेपाल का एक विवादित नक्शा लाना हो, जिसमें नेपाल ने भारत के कुछ संप्रभु क्षेत्रों को अपना दिखाया।ओली का राजनीतिक झुकाव चीन की ओर होना भारत के लिए चिंता का विषय बना हुआ है, लेकिन उनकी इस यात्रा को नेपाल का भारत से दूर जाना मान लेना भारत की ‘पड़ोसी प्रथम’ नीति को कमजोर करार देने के बराबर है। तथ्य बताते हैं कि जितनी भी बार ओली और उनकी कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल (एमाले) ने चीन के साथ समझौते या राजनीतिक संबंधों की वकालत की है, वह मुख्यत: प्रतीकात्मक ही रही है और परिणामों पर कम खरी उतरी है।
चूंकि नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता एक सामान्य बात है और हर छह-आठ महीनों में एक नई सरकार आती है, ऐसे में हर प्रधानमंत्री का भारत आना नेपाली विदेश नीति के लिए दूसरे पड़ोसी देश की अनदेखा करने का संकेत माना जा सकता है। इससे उसके हित प्रभावित हो सकते हैं। यहां यह भी देखना जरूरी है कि ओली नेपाली कांग्रेस पार्टी के साथ एक गठबंधन वाली सरकार चला रहे हैं और नेपाली कांग्रेस भारत के साथ मजबूत संबंधों की वकालत करती रही है। चूंकि मौजूदा सरकार में विदेश मंत्री नेपाली कांग्रेस से हैं, ऐसे में नेपाली कांग्रेस भारत के साथ इतना बड़ा जोखिम लेने से बचेगी। इसलिए नेपाल दो पड़ोसियों के बीच संतुलित विदेश नीति बनाए रखने का प्रयास कर रहा है, लेकिन सवाल यह है कि क्या ओली का चीन के प्रति झुकाव नेपाल के लिए फायदे का सबब बना है? उत्तर नकारात्मक ही है, क्योंकि नेपाल और चीन के बीच जितने भी बड़े समझौते पिछले दस वर्षों में हुए हैं, उनमें ज्यादातर ठंडे बस्ते में पड़े हैं और यह बात चीन को सताती रही है। मई 2017 में चीन ने नेपाल के साथ बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) पर समझौता किया, जिसे चीन की एक बड़ी कूटनीतिक सफलता के तौर पर देखा गया, क्योंकि भारत लगातार बीआरआई के अंतर्गत बने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की आलोचना करता रहा है। बीआरआई समझौते के तहत चीन को नेपाल में बड़े बुनियादी ढांचे वाली तमाम परियोजनाओं में निवेश करना है, जिनमें ट्रांस-हिमालयन बहुआयामी कनेक्टिविटी नेटवर्क खास है, जो नेपाल को रेल एवं सड़क मार्ग से तिब्बत प्रांत से जोड़ने वाला है। इससे ऐसा लगा कि नेपाल चीन के रास्ते भारत पर अपनी निर्भरता कम करने का मार्ग खोज रहा है, लेकिन करीब सात वर्ष बीत जाने के बाद भी नेपाल में ऐसी एक भी परियोजना लागू नहीं हो सकी है।
इसके दो कारण हैं। पहला, नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता के चलते परियोजनाओं की पहचान नहीं हो पाई है। दूसरा, नेपाल लगातार चीन से बीआरआई के अंतर्गत आने वाली परियोजनाओं के लिए सहयोग वित्तीय सहायता के तौर पर चाहता है। जबकि चीन कर्ज देने में रुचि रखता है। श्रीलंका का उदाहरण देखते हुए नेपाल इससे डर रहा है। बड़े कर्ज के चलते श्रीलंका को अपने हंबनटोटा जैसे बंदरगाह का नियंत्रण चीन के हाथों में देना पड़ा है।
अगर नेपाल चीन से कर्ज लेता है तो भविष्य में उसे नेपाल पर दबाव बनाने का अवसर मिलेगा, जो बीआरआई का मुख्य वैश्विक उद्देश्य रहा है। वर्ष 2016 में ओली ने अपनी चीन यात्रा के दौरान उसके साथ परिवहन एवं परिगमन समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इसके तहत नेपाल चीन के छह बंदरगाहों के रास्ते अन्य देशों से व्यापार कर सकता है। नेपाल पूरब में चीन से और तीन ओर से भारत से घिरा हुआ है। वह भारत के बंदरगाहों का उपयोग कर अन्य देशों से व्यापार करता रहा है। यह उसके लिए हर तरह से फायदेमंद है, लेकिन 2015 में भारत के साथ सीमाबंदी का मुद्दा सामने आने के बाद ओली ने चीन को एक विकल्प के तौर पर दिखाने का प्रयास किया।व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो चीन के बंदरगाह नेपाल से कम से कम 3,000 किलोमीटर दूरी पर हैं। जबकि भारत का कोलकाता बंदरगाह मात्रा 700 किलोमीटर दूर है। समझौते के छह साल बाद भी नेपाल ने चीन के बंदरगाहों के रास्ते केवल एक ही बार व्यापार किया है। इसकी वजह यह है कि नेपाल के लिए भारत के रास्ते व्यापार करना आसान और किफायती है।
भारत के साथ नेपाल के संबंधों पर प्रकाश डाला जाए तो हाल में नेपाल ने भारत के रास्ते बांग्लादेश को बिजली बेची है, जो क्षेत्रीय सहयोग में एक महत्वपूर्ण पहल है। बांग्लादेश को बिजली बेचने से नेपाल को न केवल आर्थिक फायदा होगा, बल्कि उसके लिए भारत के रास्ते अन्य देशों को भी बिजली बेचने के रास्ते खुलेंगे। भारत और नेपाल पनबिजली क्षेत्र में एक और मजबूत साझेदारी की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इसके अलावा आज भारत नेपाल का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। सीमा विवाद जैसे मुद्दे के बावजूद भारत और नेपाल के द्विपक्षीय संबंधों में मजबूती आई है। दोनों देश विज्ञान और तकनीक जैसे नए क्षेत्रों में भी आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में, इस नतीजे पर पहुंचना सही नहीं होगा कि ओली की चीन यात्रा भारत के लिए बुरी खबर है।
Date: 03-12-24
प्रतिगामी होगा परिवार बढ़ाना
संपादकीय
भारत इस तथ्य से गौरवान्वित हो सकता है कि देश की कुल प्रजनन दर में गिरावट आई है और वह 1965 के प्रति महिला पांच बच्चों से कम होकर 2022 में 2.01 पर आ गई है। आपातकाल के दौर के 18 महीनों को छोड़ दिया जाए तो यह कमी नागरिक अधिकारों का किसी तरह दुरुपयोग किए बिना हासिल की गई है। ध्यान रहे चीन में यह दर कम करने के लिए 36 वर्षों तक एक बच्चा पैदा करने की नीति लागू की गई थी। कुल प्रजनन दर में कमी दुनिया की दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले देश के लिए पूरी तरह अच्छी खबर नहीं है, क्योंकि यह दर 2.1 की प्रतिस्थापन या रीप्लेसमेंट दर से कम हो गई है। रीप्लेसमेंट दर वह होती है जितने बच्चे हर महिला के हों तो देश में बुजुर्गों और युवाओं की संख्या स्थिर बनी रहती है। लैंसेट के एक अध्ययन पर यकीन किया जाए तो 2050 तक देश की कुल प्रजनन दर 1.29 हो जाएगी। यानी भारत अमीर होने के पहले ही उम्रदराज हो सकता है। देश की जनांकिकी के इस भविष्य से निपटने के लिए कई तरीके अपनाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए स्वास्थ्य सेवा आपूर्ति को मजबूत बनाया जा सकता है, श्रम शक्ति को सही ढंग से प्रशिक्षित किया जा सकता है और बीमा योजनाओं में परिवर्तन किया जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में इसका उपाय तीन संतानों के रूप में दिया है। इसे अपनाने के विषय में विचार नहीं किया जाना चाहिए।
भागवत ने नागपुर में एक सभा में इस बात पर जोर दिया जबकि महज दो साल पहले वह जनसंख्या नियंत्रण का आह्वान करते नजर आ रहे थे। तब उनका संकेत हिंदुओं और मुस्लिमों की कुल प्रजनन दर के बीच असमानता की ओर था। अब, जबकि आबादी की वृद्धि दर में कमी आ रही है और भारत में जनांकिकीय ठहराव आने की संभावना बन गई है तब उन्हें देश के समक्ष एक खतरा नजर आ रहा है। जनसंख्या बढ़ाने को प्रोत्साहन देना वृद्धि को गति प्रदान करने की दृष्टि से सरल प्रतीत हो सकता है। कुछ स्कैंडिनेवियन (डेनमार्क, नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड आदि) और यूरोपीय देश दशकों से आबादी में कमी की समस्या से जूझ रहे हैं। वे परिवारों को चाइल्ड केयर प्रोत्साहन भी प्रदान करते हैं। परंतु इन देशों ने सामाजिक-आर्थिक प्रगति का एक स्तर और प्रशासनिक क्षमता हासिल कर ली है और वह भी बिना सामाजिक रूप से प्रतिगामी हुए (उदाहरण के लिए समान पितृत्व अवकाश)। भारत जैसे असमान देश में जहां कल्याणकारी योजनाओं की आपूर्ति असमान और गैर किफायती है, तीन बच्चे पैदा करने का नियम नुकसानदेह हो सकता है। आबादी में बेतहाशा वृद्धि उन सामाजिक लाभों को नुकसान पहुंचाएगी जो देश ने आजादी के बाद हासिल किए हैं। उदाहरण के लिए ऐसी नीति महिला अधिकारों के खिलाफ है क्योंकि बच्चे पैदा करने और उन्हें पालने का पूरा बोझ महिलाओं पर पड़ता है। इससे एक ही झटके में वे सभी लाभ खत्म हो जाएंगे जो महिलाओं ने उच्च शिक्षा, कार्यालयों और दुकानों आदि में जाकर हासिल किए हैं। गरीब और रुढ़िवादी परिवारों से आने वाली महिलाओं को ऐसे मानकों का नुकसान उठाना पड़ेगा।
देश में महिलाओं की श्रम भागीदारी दर 37 फीसदी है और यह लंबे समय से चिंता का विषय रहा है। महिलाओं पर बोझ डालने से हालात में कोई सुधार होने वाला नहीं है। आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने स्थानीय निकाय के चुनाव लड़ने वालों के लिए दो बच्चों की सीमा समाप्त कर दी है और सरकार बड़े परिवारों को प्रोत्साहित करने पर विचार कर रही है। तेलंगाना भी उसका अनुसरण कर सकता है। दक्षिण भारत के राज्यों की चिंता जायज है कि जनसंख्या नियंत्रण के उनके प्रगतिशील कदम वित्त आयोग के आवंटन और संसदीय सीटों के परिसीमन में उनके खिलाफ जाएंगे। ये आशंकाएं पूरी तरह गलत नहीं हैं और इसे नीतिगत स्तर पर हल करने की आवश्यकता है ताकि इन राज्यों का जननांकिकीय लाभ उत्तर भारत के गरीब और अधिक आबादी वाले राज्यों के लिए आदर्श बन सके। बड़े परिवारों को प्रोत्साहन देना प्रतिगामी कदम होगा। इसके बजाय देश भर में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत बनाने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
Date: 03-12-24
धमकी का अर्थ
संपादकीय
किसी भी देश में सत्ता बदलने के साथ उसकी नीतियों में बदलाव आना हैरानी की बात नहीं है, लेकिन इस बार अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद जो संकेत सामने आ रहे हैं, वे चौंकाने वाले हैं। हालांकि ट्रंप आधिकारिक रूप से जनवरी में राष्ट्रपति पद संभालेंगे, मगर पिछले कुछ दिनों से वे जिस तरह के बयान दे रहे और अपनी सरकार गठन को लेकर जो तस्वीरें पेश कर रहे हैं, उससे साफ है कि वे इस बार बहुत कुछ नया करने जा रहे हैं। अपने एक ताजा बयान में उन्होंने कहा कि अगर कोई देश अमेरिकी डालर को कमजोर करने की कोशिश करेगा, तो उसे अमेरिका में कारोबार के लिए सौ फीसद शुल्क की नीति का सामना करना पड़ेगा। ट्रंप के निशाने पर मुख्य रूप से ब्रिक्स समूह के नौ देश हैं। उनके बयान को एक चेतावनी के तौर पर देखा जा रहा है। सवाल है कि औपचारिक रूप से सत्ता संभालने के पहले ही ट्रंप का ऐसा आक्रामक रुख क्यों सामने आने लगा है। आर्थिक मामलों पर उभरे गतिरोध अलग-अलग देशों के साथ सहयोग आधारित नीतियों के जरिए और सहमति के आधार पर दूर किए जाते हैं या आक्रामक नीतियां लागू करने की धमकी से ?
इसमें कोई दोराय नहीं कि अमेरिका का अपनी अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए चिंता करना स्वाभाविक है । मगर क्या इसके लिए टकराव और चेतावनी कोई उपयुक्त रास्ता है? नए वैश्विक परिदृश्य में सभी देश अपनी आर्थिक मजबूती के नए विकल्पों पर विचार कर रहे हैं। इस क्रम में ब्रिक्स देश और खासकर रूस और चीन पिछले कुछ वर्षों से अमेरिकी डालर के विकल्प के रूप में अपनी नई मुद्रा लाने की कोशिश कर रहे हैं । मगर इसे अमेरिका अपने डालर और इस तरह अपनी अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह मान रहा है और इस स्थिति में वह ब्रिक्स देशों को अपने यहां व्यापार बाधित करने की चेतावनी दे रहा है। ट्रंप की चिंता अमेरिका के हित में हो सकती है, लेकिन अगर आर्थिक मसले पर दुनिया बहुध्रुवीय और वैकल्पिक रास्ते तलाशती है, तो अमेरिका को इसके कारणों पर विचार करना चाहिए। नए विश्व में एकाधिकार का रास्ता शायद किसी भी देश के हित में नहीं होगा ।
Date: 03-12-24
इस चिंता के मायने
संपादकीय
देश में जनसंख्या को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने फिर से बड़ा बयान दिया है, जो सोचनीय है। जनसंख्या में आ रही गिरावट को उन्होंने चिंता का विषय बताया। भागवत ने कहा किसी समाज की जनसंख्या वृद्धि दर अगर 2.1 फीसद से नीचे चली जाती है तो वह अपने आप नष्ट हो जाता है। नागपुर के कठाले कुल सम्मेलन में कहा देश की जनसंख्या नीति 1998 या 2002 के आस-पास तय की गई थी, जो कहती है। जनसंख्या वृद्धि दर 2.1 फीसद से नीचे नहीं होनी चाहिए। दो से तीन बच्चे होने चाहिए, क्योंकि समाज को जीवित रहना है। हाल ही में आई रिपोर्ट में दावा किया गया है कि हिंदुओं की जनसंख्या में 7.8 फीसद की कमी आई है। संघ प्रमुख का बयान इससे जोड़ा जा सकता है। वास्तव में देश में प्रजनन दर में लगातार गिरावट आ रही है। 1950 में जनसंख्या वृद्धि दर 6.2 फीसद थी, जो घटते हुए 2.2 फीसद पर जा चुकी है। संयुक्त राष्ट्र का मानना है, सत्तर वर्षों में हमारी आबादी में एक अरब का इजाफा हुआ है। भौगोलिक दृष्टि से दुनिया का सातवां सबसे बड़ा देश भारत वर्तमान में आबादी के अनुसार पहला हो चुका है। बावजूद इसके कि 2011 के बाद से आधिकारिक तौर पर जनगणना नहीं हुई है। लगातार इस तरह की बयानबाजी हो रही है। नेशनल हेल्थ फैमिली सर्वे कहता है, देश के सभी धार्मिक समुदायों में प्रजनन दर कम होती जा रही है। इसका कारण सामाजिक-आर्थिक अधिक है, जिसके चलते दंपति कम बच्चे पैदा करने का निर्णय स्वयं ले रहे हैं। लंबे अरसे से सरकारों ने जनसंख्या नियंत्रण को लेकर व्यापक प्रचार किया है। अब जबकि आम जनता छोटे परिवार के लाभ को जीवन का हिस्सा बना चुकी है। अचानक राजनीतिक व अन्य लाभों के चक्कर में जनसंख्या वृद्धि को लेकर नया भ्रम फैलाया जा रहा है। बेतहाशा बढ़ती मंहगाई और रोजगार की कमी से त्रस्त जनता बड़े परिवार का पालन करने सक्षम नहीं है। उसे तीन बच्चों के पालन के लिए बरगलाया नहीं जा सकता। क्योंकि जनसंख्या दर में गिरावट सिर्फ भारत में ही नहीं आ रही है। दुनिया के तमाम विकसित व विकासशील देशों की यह विकराल समस्या बन गई है। जहां लोग सिर्फ आर्थिक कारणों से ही नहीं बल्कि वैश्विक व पर्यावरणीय बदलावों के चलते भी बच्चे जनने को राजी नहीं हैं। हमारे यहां आम जन इतनी दूरदर्शी या विचारशील भले ही नहीं है, मगर वह किसी की बयानबाजी में आकर जनसंख्या वृद्धि को राजी भी नहीं होने वाली ।