03-02-2020 (Important News Clippings)

Afeias
03 Feb 2020
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Date:03-02-20

Penalising progress on demographics

ET Editorials

The main thing about the interim report of the 15th Finance Commission (FFComm) is not that it has marginally lowered the share of the states in the states’ share of the taxes collected by the Centre from 42% to 41%.

This more or less accommodates the change in Jammu and Kashmir’s status from state to Union territory. FFComm has wisely postponed a controversial decision on pre-devolution sequestration of resources to a defence fund. What makes the submission of the Interim Report significant is that it has realised the anticipated nightmare of the southern states: their share in the devolved kitty has come down sharply.

This is the result of FFComm increasing the weightage given to the latest available population figures, rather than using those of the 1971Census. The southern states have all brought down their total fertility rate, the number of children a woman will have over her lifetime, to well below 2.1, the figure at which population stabilises.

This lowers the rate of growth of their population and will, after a few years, make their populations decline, as Japan’s famously has. The 1971 population had been used all along as the basis for devolving taxes and for allocating the number of representatives a state has in Parliament, so as to not penalise the states that have made progress on stabilising their population while rewarding states, mostly in the north, that lag on this front.

However, if we accept that every citizen of this country should have equal entitlement to its resources and equal say in determining national affairs, perpetual reliance on the 1971 population is not defensible. So, this transition to the latest population data has to be made.

It has the perverse effect of shrinking the share of the pie for states that have made the most progress on achieving national goals on the social indicators that determine fertility rate and population growth. The remedy is twofold. Increase both the weightage given to demographic progress and own tax effort in FFComm devolutions and central spends in those states that have suffered the most.


Date:03-02-20

मंजिल की ओर

संपादकीय

वर्ष 2020-21 के आम बजट के जिन प्रस्तावों ने सबसे अधिक सुर्खियां बटोरीं उनमें से एक 15 लाख रुपये या उससे कम की सालाना व्यक्तिगत आय पर लगने वाले कर में बदलाव भी है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शनिवार के बजट भाषण में इन बदलावों का उल्लेख किया। 5 लाख रुपये और 15 लाख रुपये की आय के बीच कर दरों में अनिवार्य तौर पर कटौती की घोषणा की गई, बशर्ते किसी तरह की रियायत का लाभ न लिया जाए। सीतारमण ने कहा कि व्यक्तिगत आय कर में दी जाने वाली रियायतों और छूट की तादाद बढ़कर 100 से अधिक हो गई थी। उन्होंने कहा कि इनमें से 70 रियायतों को वापस लिया जाएगा लेकिन जो करदाता सहजता चाहते थे उनके लिए बिना रियायत के कम दरों पर कर चुकाने की व्यवस्था होगी।

5 से 7.5 लाख रुपये तक की आय के लिए कर दर 20 प्रतिशत से घटाकर 10 फीसदी की जा रही है, 7.5 से 10 लाख रुपये तक की आय पर 20 प्रतिशत के बजाय 15 फीसदी कर लगेगा। इससे उन लोगों को एक नया विकल्प मिलेगा जो रियायतों का लाभ नहीं लेना चाहते। कर भुगतान को सरल करने की दृष्टि से देखें तो खासतौर पर युवाओं की दृष्टि से तो नई व्यवस्था काफी आकर्षक है। वित्त मंत्री को इस दिशा में आगे बढऩे का श्रेय दिया जाना चाहिए। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस सरकार द्वारा पेश कम कॉर्पोरेट कर दरों के साथ अवधारणात्मक समानता है।

अब यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि इस अग्रगामी सोच के बाद अगला कदम क्या होगा? स्पष्ट है कि सरकार का इरादा रियायत रहित या कम रियायत वाला प्रत्यक्ष कर माहौल बनाने का है। इससे अनुपालन और कर दायरे का विस्तार करने में मदद मिलेगी। यह सकारात्मक संकेत है। बदलाव की प्रक्रिया पारदर्शी और अनुमान लगाने लायक होनी चाहिए। क्योंकि इसका असर लोगों की बचत और बीमा आदि क्षेत्रों में उनके निवेश आदि पर पड़ेगा। उदाहरण के लिए ऐसी कोई वजह नहीं है कि नीति निर्माता बीमा को इसके मूल उद्देश्य कम लागत में जोखिम से बचाव दिलाने के उपाय के बजाय कर बचत का तरीका मानें। लोगों के पास यह निर्णय लेने का समय होना चाहिए कि वे अपने भविष्य की बचत को लेकर निर्णय कर सकें। इस संदर्भ में भविष्य निधि के माध्यम से कर बचत की सीमा आदि को लेकर समय रहते घोषणा कर दी जानी चाहिए।

व्यक्तिगत आय कर को भी नए कॉर्पोरेट आय कर दायरे के अनुरूप किए जाने की आवश्यकता है। फिलहाल सरकार शायद साझेदारियों के बढ़ते कॉर्पोरेटीकरण से खुश है। इन्हें कर विवाचन (आर्बिट्राज) के रूप में प्रोत्साहन मिल रहा है। परंतु किफायत लाने के लिए इस अंतर को कम किया जाना चाहिए। वहीं यदि व्यक्तिगत कर दाताओं को दो अलग-अलग कराधान योजनाओं में चयन करना पड़ा तो उसके लिए जटिलता कम करने का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। सीतारमण ने अपने बजट भाषण में सही कहा कि करदाताओं के लिए बिना पेशेवरों की मदद लिए कर कानूनों का अनुपालन करना लगभग असंभव है। उन्होंने कहा कि नई व्यवस्था से चीजें आसान होंगी। परंतु सच तो यह है कि करदाताओं को अभी भी पेशेवरों की मदद की जरूरत पड़ सकती है ताकि वे पता लगा सकें कि क्या कम कर दर का चयन उनके लिए लाभदायक होगा? चूंकि प्रत्यक्ष कर को लेकर वित्त मंत्री की दृष्टि एकदम साफ नजर आती है इसलिए अब वक्त आ गया है कि इस दिशा में अपनी मंजिल की ओर तेजी से बढ़ें।


Date:03-02-20

न्यायपालिका को मिला बजट आवंटन जरूरत से है कम

एम जे एंटनी

किसी के लिए भी केंद्रीय बजट में खुशनुमा आश्चर्यों की उत्सुकता से राह देखना स्वाभाविक है। लेकिन यह अचरज की बात नहीं है कि दशकों से नजरअंदाज होती रही न्यायपालिका इस सालाना कवायद से उत्साहित होने वाले तबके में शामिल नहीं थी। देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने इस तिरस्कार पर खेद जताया है, एक तो सार्वजनिक तौर पर अपने आंसू पोंछते हुए नजर आए थे। उनकी शिकायत है कि न्यायिक क्षेत्र को बजट में आम तौर पर जीडीपी का 0.2 फीसदी ही मिलता है। लेकिन मौजूदा मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे और उनके साथी न्यायाधीशों ने पिछले हफ्ते दिल्ली में इस उपेक्षा को लेकर कुछ नहीं बोला। न्यायपालिका के मुखिया की वित्त मंत्री से मुख्य मांग यही थी कि वह ज्यादा कर लगाने से परहेज करें क्योंकि इससे सामाजिक अन्याय पैदा होता है।

जहां अन्य क्षेत्रों की मांगें रखने के लिए लॉबी करने वाले हैं, वहीं न्यायपालिका राज्य की वह शाखा है जिसे खुद ही अपना पेट भरने के लिए छोड़ दिया गया है। यहां तक कि बार एसोसिएशन या बार काउंसिल ने भी अदालतों के ढांचे के लिए अधिक धन जारी करने की जरूरत के बारे में सोचने की भी जहमत नहीं उठाई। शायद इस क्षेत्र की मनहूस हालत कारोबार के लिए अच्छी मानी जाती है। अदालतों को उतनी तवज्जो भी नहीं मिलती है जितनी रेलवे को मिलती रही है। कुछ साल पहले तक रेलवे के लिए अलग बजट हुआ करता था। कानून लगातार बनते जा रहे हैं लेकिन इस पर गौर नहीं किया जाता है कि इनसे अदालतों पर बोझ कितना बढ़ जाता है?

मौजूदा केंद्रीय बजट में न्यायपालिका के लिए आवंटन बढ़ाकर 308.61 करोड़ रुपये कर दिया गया जबकि पिछले साल यह 296.55 करोड़ रुपये और उससे पहले के साल में 258.53 करोड़ रुपये था। यह वृद्धि प्रशासकीय एवं अन्य खर्चों को ध्यान में रखते हुए की जाती है और इस आवंटित राशि का इस्तेमाल न्यायाधीशों एवं स्टाफ के लिए वेतन एवं यात्रा व्यय और सुरक्षा एवं उपकरण मुहैया कराने में भी किया जाता है। हालांकि इस अवधि में कई न्यायाधीशों की नियुक्ति और नई अदालतों का निर्माण होने से अदालतों पर व्यय कई गुना बढ़ गया। लेकिन यह जरूरत से अब भी काफी कम है। मसलन, भारत में अभी प्रति दस लाख आबादी पर छह न्यायाधीश हैं वहीं ऑस्ट्रेलिया में यह 41, कनाडा में 75, ब्रिटेन में 50 और अमेरिका में 107 है।

अदालतों एवं न्यायाधिकरणों को पेश होने वाली बड़ी समस्याओं में ढांचागत आधार की कमी है। पिछले साल से इन सुविधाओं के लिए आवंटन कम हुआ है। वर्ष 2019-20 में यह आवंटन 999 करोड़ रुपये था जबकि नए बजट में यह 762 करोड़ रुपये ही रखा गया है। वर्ष 2018-19 में यह आंकड़ा 656 करोड़ रुपये था। दूरदराज के इलाकों में ग्राम स्तर पर ही लोगों को न्याय प्रदान करने के लिए चिह्नित ग्राम न्यायालयों के साथ भी यही सिंड्रेला ट्रीटमेंट किया गया। इसके लिए अनुदान 2018-19 के आठ करोड़ रुपये के स्तर पर ही रहा। महिलाओं के खिलाफ अपराधों और भ्रष्ट नेताओं की सुनवाई करने वाली फास्ट-ट्रैक विशेष अदालतों का आवंटन भी मामूली बढ़त के साथ 140 करोड़ से 150 करोड़ रुपये ही रहा है।

कानून मंत्रालय के लिए आवंटित राशि का इस्तेमाल चुनाव कराने, मतदाताओं को पहचान-पत्र मुहैया कराने और चुनाव आयोग को ईवीएम मशीनें मुहैया कराने में भी होता है। आयोग के अपने खाते में भी अलग राशि आवंटित की जाती है। कानून मंत्रालय का कुल बजट आवंटन 2,200 करोड़ रुपये है जिसे उन महत्त्वाकांक्षी योजनाओं पर खर्च किया जाना है जिनमें समय के साथ खास प्रगति नहीं हुई है। ई-कोर्ट के लिए महज 250 करोड़ रुपये रखे जाने से इसका वजूद में आ पाना अभी सपना ही है। इसके अलावा राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी (11 करोड़), राष्ट्रीय विधि सेवाएं प्राधिकरण (100 करोड़) और नवगठित नई दिल्ली अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र (तीन करोड़) की भी यही हालत है। समय के साथ विभिन्न क्षेत्रों में गठित न्यायाधिकरणों की संख्या और उनका प्रभाव भी बढ़ा है, जैसे कि एनसीएलटी। लेकिन इनके लिए आनुपातिक आवंटन नहीं किया गया है। मसलन, कर अधिकरणों को आवंटन गत वर्ष के 143.93 करोड़ रुपये से बढ़कर 172.90 करोड़ रुपये हो गया।

कई अदालती प्रतिष्ठान केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच तकरार में उलझे हुए हैं और हर कोई इनके राजकोषीय बोझ को दूसरे पर डालता रहता है। इसके लिए बना 60:40 फॉर्मूला भी असहमति का एक बिंदु है। अदालतों के लिए फंड विभिन्न स्रोतों से आता है और यह मुद्दा भी विवाद बढ़ाता है। यहां तक कि अदालती शुल्क, जुर्माने एवं जमाओं के तौर पर न्यायपालिका को मिलने वाली राशि भी सरकारें बजट में ले लेती हैं। राज्यों के बजट में भी यही प्रवृत्ति दिखाई देती है और इसका नतीजा चारों तरफ नजर आ रहा है।

यह सुविदित है कि न्यायिक व्यवस्था अदालतों में तीन करोड़ से अधिक और अकेले उच्चतम न्यायालय में ही 60,000 मामले लंबित होने के बोझ तले कराह रही है। अधीनस्थ न्यायालयों में तो अक्सर पानी एवं पंखे जैसी बुनियादी सुविधाएं भी मौजूद नहीं हैं। मसलन, देश के 665 जिला अदालतों में से केवल 266 में ही शौचालय चालू हालत में हैं और इनमें से 100 अदालतों में तो एक भी महिला शौचालय नहीं है। विभिन्न न्यायिक रिपोर्टों एवं अदालती फैसलों में भी इस बात को रेखांकित किया जाता रहा है। भीड़-भरी जेलों में दोषी ठहराए जा चुके अपराधियों की तुलना में विचाराधीन कैदियों की भरमार है। समस्याएं हैं कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं।


Date:02-02-20

ब्रिटेन की चुनौती, भारत के लिए मौका

उपेन्द्र राय, (सीईओ एवं एडिटर इन चीफ)

शुक्रवार और शनिवार की दरम्यानी रात आखिरकार वह लम्हा आ ही गया जिस पर पिछले चार साल से समूची दुनिया और खासकर यूरोप की नजरें लगी हुई थीं।

आधी रात को आखिरकार ब्रिटेन यूरोपीय यूनियन से अलग हो गया। 28 देशों के इस समूह से ब्रिटेन साल 1973 से जुड़ा हुआ था। भावुक पलों में 47 साल पुराने रिश्तों को बाय-बाय कहने की इस घटना को ब्रेक्जिट का नाम दिया गया है। हालांकि, गुडबाय कहने में अभी भी थोड़ा वक्त है। ब्रिटेन 2020 के आखिर तक यूरोपीय यूनियन की आर्थिक व्यवस्था में बना रहेगा, लेकिन अब न तो वह इसका सदस्य रहेगा, न ही उसका नीतिगत मामलों में कोई दखल होगा।

अलगाव कभी आसान नहीं होता। चाहे वह व्यक्ति का व्यक्ति से हो या किसी संस्था से या फिर किसी देश से। वर्षो तक कदम से कदम मिलाकर चलने के बाद जब जुदाई की घड़ी आती है तो वह एक दर्द दे जाती है। ब्रेक्जिट पर मुहर लगाने के बाद यूरोपीय यूनियन की नामित अध्यक्ष की बातों में भी भावनाओं का सागर उमड़ता दिखा जब उन्होंने कहा कि अलगाव के दर्द में ही प्यार की गहराई का पता चलता है। साथ ही उन्होंने कहा कि ब्रिटेन से हम कभी दूर नहीं होंगे और उससे हमेशा प्यार करते रहेंगे।

जुदाई की यही कशमकश दूसरी तरफ भी देखने को मिली। ब्रिटेन की संसद में गतिरोध के कारण ब्रेक्जिट की समय सीमा को तीन बार बढ़ाना पड़ा। ब्रिटेन में साल 2016 में पहली बार जनमत संग्रह हुआ था, जिसमें ब्रेक्जिट को मंजूरी दी गई। लेकिन जनता की मुहर लग जाने के बाद भी ब्रिटेन को आखिरी फैसला लेने में 43 महीने का वक्त लग गया। ब्रिटेन के दो प्रधानमंत्री भी इसकी भेंट चढ़ गए-पहले डेविड कैमरन गए और फिर पिछले साल कंजरवेटिव नेता टेरीजा मे को इस्तीफा देना पड़ा। आखिरकार टेरीजा की जगह कुर्सी संभालने वाले बोरिस जॉनसन ने इस समझौते को अंजाम दिया। लेकिन इसके लिए जॉनसन को भी कम पापड़ नहीं बेलने पड़े हैं।

संसद में विपक्षियों का गतिरोध दूर करने के लिए उन्हें 12 दिसम्बर को मध्यावधि चुनाव तक कराना पड़ा। चुनाव में उनकी कंजरवेटिव पार्टी को भारी बहुमत मिला जिससे न केवल जॉनसन की कुर्सी बची बल्कि ब्रेक्जिट पर आगे बढ़ने का जनादेश भी मिल गया। जॉनसन ने इसके बाद यूरोपियन यूनियन के सदस्य देशों के शीर्ष नेताओं से बातचीत कर इसे आखिरी खाका पहनाया। चार साल की खींचतान के बाद ईयू की संसद ने 49 के मुकाबले 621 मतों के बहुमत से ब्रेक्जिट समझौते पर मुहर लगा दी। जॉनसन अब इसे नए युग की शुरुआत बता रहे हैं।

नए युग की शुरुआत का जॉनसन का सपना सच होगा या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा, लेकिन फिलहाल दुनिया उनकी इसी सोच पर बंटी दिख रही है। इसकी वजह भी है। अभी तक के अनुमान बता रहे हैं कि जनमत संग्रह की शुरुआत से अब तक पिछले चार साल में ब्रिटेन की जीडीपी एक फीसद तक कम हो गई है। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट में 2016 से 2020 तक 18.9 लाख करोड़ के नुकसान का अनुमान है, जो फिलहाल 12 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है। अंदेशा है कि ब्रिटेन की इकोनॉमी को हर साल 53 हजार करोड़ रु पये तक का नुकसान हो सकता है, जिसका देश के हर नागरिक पर करीब 70 हजार रुपये का बोझ पड़ेगा। मौटे तौर पर ब्रिटेन में बड़े पैमाने पर महंगाई से लेकर रोजगार तक का संकट दिखाई पड़ सकता है।

तो सवाल ये उठता है कि इतना बड़ा नुकसान उठा कर कहीं ब्रिटेन ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मारी है? दुनिया का बड़ा हिस्सा भले ही ऐसा सोच रहा हो, लेकिन ब्रिटेन की अपनी दलीलें हैं-1.इंग्लैंड अब स्वतंत्र होकर अपने फैसले ले सकेगा। ईयू की दखलअंदाजी से उसकी स्वायत्तता प्रभावित हो रही थी और वह कानून बनाने के अधिकार का खुलकर इस्तेमाल नहीं कर पा रहा था। 2. इंग्लैंड को अब अपनी इमीग्रेशन नीति बनाने का हक मिलेगा। पिछले कुछ वर्षो में ईयू की इमीग्रेशन नीति के कारण ब्रिटेन में सीरिया, मध्य-पूर्वी यूरोप और यूरोपीय संघ के देशों से बड़ी तादाद में अप्रवासी अलग-अलग वजहों से ब्रिटेन में घुस आए थे। 3. यूरोपियन यूनियन को 13 बिलियन पाउंड का भारी-भरकम सदस्यता शुल्क देने के बावजूद ब्रिटेन को व्यापार और दूसरे मद से बेहद कम राशि मिल रही थी। 4. ईयू की दखलअंदाजी से ब्रिटेन में लालफीताशाही बढ़ रही थी और प्रशासनिक काम अटक रहे थे। 5. लंदन को दुनिया की वित्तीय राजधानी का दर्जा हासिल है और ब्रिटेन को लगता है कि वह खुद के दम पर फाइनेंशियल सुपर पॉवर बन सकता है।

ब्रेक्जिट से ईयू की अर्थव्यवस्था को 1.50 लाख करोड़ का नुकसान होगा और उसकी इकोनॉमी चार फीसद तक सिकुड़ जाएगी। अलगाव की इस घटना में बेशक ब्रिटेन और यूरोपीय संघ ही मुख्य किरदार हों, लेकिन कम-ज्यादा मात्रा में इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ने वाला है। भारत के लिहाज से देखें तो इसके नतीजे फिलहाल तो मिले-जुले दिख रहे हैं। भारत और ब्रिटेन का द्विपक्षीय व्यापार 25 अरब डॉलर का है। भारत ब्रिटेन को 12 अरब डॉलर का निर्यात करता है और वहां से 13 अरब डॉलर का आयात करता है। दोनों देशों के बीच सालाना 17 फीसद की दर से आपसी व्यापार बढ़ रहा है।

पिछले कुछ साल में ब्रिटेन में निवेश करने वाली भारतीय कंपनियों की संख्या बढ़कर 800 तक पहुंच गई है। 1. ब्रिटेन के रास्ते भारतीय कंपनियों की यूरोप के बाकी 27 देशों के बाजार तक सीधी पहुंच हो जाती थी। 2. ब्रेक्जिट के बाद भारतीय कंपनियों को यूरोपीय बाजार तक पहुँचने के नए रास्ते निकालने होंगे। ब्रिटेन में बने उत्पादों पर भारतीय कंपनियों को यूरोपीय देशों में टैक्स भी देना होगा। इस कारण भी कंपनियों का खर्च बढ़ेगा। 3. दुनिया भर की करंसियों में उतार-चढ़ाव का असर आईटी कंपनियों पर दिखेगा। एचसीएल टेक, टीएसएस, विप्रो, महिंद्रा, इंफोसिस जैसी कंपनियों को नए सिरे से अपनी रणनीति बनानी होगी। 4. सबसे बुरी खबर ऑटो सेक्टर से आ सकती है। मंदी की मार झेल रहा ये सेक्टर ब्रेक्जिट के बाद सबसे ज्यादा दबाव में रहने वाला है। अंदेशा है कि व्यापार की शतरे अब कड़ी होगी जो टाटा की जेएलआर, भारत फोर्ज, मदरसन सुमी जैसी कंपनियों की ग्रोथ स्टोरी को प्रभावित कर सकती है। 5. मॉरीशस और सिंगापुर के बाद ब्रिटेन भारत में तीसरा सबसे बड़ा निवेशक है। अगर ब्रेक्जिट से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था कमजोर हुई तो भारत में उसके निवेश में भी कमी आ सकती है। 6. पाउंड के कमजोर होने से डॉलर मजबूत बनेगा। ऐसी परिस्थिति में रु पया डॉलर के मुकाबले कमजोर हो सकता है। इसका सीधा असर कच्चे तेल और विदेश से खरीदे जानेवाले सोने और इलेक्ट्रॉनिक सामानों पर भी पड़ेगा।

वैसे सब कुछ बुरा ही नहीं होने जा रहा है। ब्रेक्जिट से भारत को फायदे का भी अनुमान है-1 ब्रेक्जिट के कारण ब्रिटेन और ईयू दोनों को एक-दूसरे के विकल्पों की जरूरत होगी और भारत ये जरूरत पूरी कर सकता है। तकनीक, साइबर सुरक्षा, रक्षा और निवेश के क्षेत्र में भारत की भूमिका अहम हो सकती है। 2. भारत सरकार ने पिछले महीने ही ब्रिटेन और यूरोपीय संघ से अलग-अलग मुक्त व्यापार समझौते पर वार्ता करने का संकेत दिया है। 4. ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन ईयू के जटिल नियामक ढांचे से बाहर निकल आएगा। ऐसे में भारतीय कंपनियां ब्रिटेन में एक डिरेगुलेटेड और फ्री मार्केट की उम्मीद कर सकती हैं। 4. ब्रिटेन को व्यापार के लिए बड़ी तादाद में कुशल श्रम की आवश्यकता होगी और अंग्रेजी बोलने वाली जनसंख्या के साथ भारत के लिए यह फायदेमंद होगा।

जाहिर तौर पर ब्रेक्जिट ऐसा कदम है, जिससे ब्रिटेन की ही तरह भारत में भी कहीं खुशी, तो कहीं गम हैं। ब्रिटेन के लिए अनिश्चितताओं की रात भले ही लंबी दिख रही हो, लेकिन भारत के लिए राहत की बात यह है कि आने वाले दिनों में यह चुनौती हमारे लिए नया मौका भी साबित हो सकती है।