03-02-2018 (Important News Clippings)

Afeias
03 Feb 2018
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Date:03-02-18

How to minimise cost of healthcare

Align incentives of payer, provider and patient

ET Editorials

The Budget has announced an ambitious, state-funded healthcare scheme that would take care of hospitalisation expenses up to a limit of Rs 5 lakh per family for 10 crore families, covering 50 crore Indians, more than half of them above the poverty line. India does need to step up healthcare, on which state funding is an abysmal 1% of GDP at present. However, the Budget did not offer any clarity on how the scheme would be funded or what shape healthcare provision in hospitals would take. Announcing the Ayushman Bharat scheme, the finance minister did not use the term insurance, opting for health protection, instead. It is to be hoped that the government would depart from traditional health insurance, in which the incentives for care providers and insurance companies are all misaligned.

Aform of health assurance in which healthcare providers undertake to provide competent care to a defined population entrusted to its charge, for a fee per capita, worked out using the actuarial expertise deployed by insurance companies, would be the ideal way to organise healthcare. In such a scheme, the care provider has no incentive to inflate costs via unnecessary investigations or treatment, which is the bane of the traditional model in which hospitals try to maximise their take from insurance. However, in such a scheme, the care provider does have the incentive to scrimp on treatment costs, harming the patient. Good regulation and a competitive market for such healthcare providers would be the way to address this contingency. That assumes the availability of multiple healthcare providers in a restricted geographic area. And the primary care facilities announced by the government, which is conceptually no different from the extant primary health centres, would be the foundation of such a health protection scheme.

It is to be hoped that the government would come out with the outline of a viable health protection scheme sooner rather than later. And, it is to be hoped, it would be more than mere expansion of the RSBY, which has become dysfunctional in many parts of the country.


Date:03-02-18

ग्रामीण भारत से वादा निभाने का वक्त

एनके सिंह , (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

मोदी सरकार ने अपने आखिरी पूर्ण बजट में शहरी मध्यम एवं उच्च वर्ग की अपेक्षाओं को लगभग नजरअंदाज करते हुए ग्रामीण भारत पर अपना दांव लगाया है। शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात चुनाव के बाद यह अहसास हुआ कि किसानों को नाराज कर वह आगामी आम चुनाव की वैतरणी पर नहीं कर पाएंगे। इसकी एक झलक राजस्थान में दो लोकसभा एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजों से भी मिली। भाजपा की ये तीनों सीटें कांग्रेस ने छीन लीं। अगर उपचुनाव परिणाम बजट के दिन नहीं आए होते तो शायद देश उन्हीं पर चर्चा कर रहा होता। जो भी हो, इस वक्त आम बजट पर देशभर में दो तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। शहरी मध्यम एवं उच्च वर्ग जहां बजट को लेकर निराशा जता रहा है, वहीं ग्रामीण भारत को एक आस नजर आ रही है। बजट का गहन विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि उसमें जो घोषणाएं की गई हैं, वे ग्रामीण भारत के लिए पिछले कई दशकों से अपेक्षित थीं। कृषि के लिए यह क्रांतिकारी बजट साबित हो सकता है, लेकिन तभी जब इसमें जो वादे किए गए हैं, उन्हें सही से पूरा किया जाए। किसानों के उत्पाद की उचित मूल्य पर खरीद की सरकारी प्रतिबद्धता और 10 करोड़ गरीब परिवारों यानी करीब 50 करोड लोगों को पांच लाख का स्वास्थ्य बीमा सामाजिक सुरक्षा की दिशा में पहली जरूरत थी। कहना न होगा कि इन 10 करोड़ गरीब परिवारों में किसान, मजदूर और निम्न आय वर्ग का बड़ा तबका शामिल होगा।

लेकिन यहां एक पेंच है। सरकार ने किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने का जो वादा इस बजट में किया है, वह खरीफ की फसल से लागू होगा और इस साल खरीफ की उपज की खरीददारी लगभग खत्म हो चुकी है। लिहाजा यह योजना अगली खरीफ से ही लागू हो सकेगी यानी आगामी नवंबर के आसपास। अगर मोदी सरकार समय से पहले चुनाव कराती है तो फिर वह अपना वादा आखिर कब पूरा करेगी? जो सरकार की मंशा में विश्वास रखते हैं, उनके अनुसार कोई भी सरकार जो चुनाव जीतना चाहती है, वह किसानों को नाराज करने का जोखिम मोल नहीं ले सकती। अगर सरकार आगामी रबी की फसल के दौरान भी अपने वादे को पूरा करती है, तो एक अनुमान के तहत इस पर कुल खर्च लगभग 60 हजार करोड़ रुपए आएगा। चुनाव पूर्व ऐसा खर्च किसी सरकार के लिए कोई बहुत मुश्किल काम नहीं होना चाहिए। रबी की फसल की खरीददारी आगामी अप्रैल माह से शुरू होनी है और कोई भी वादाखिलाफी सरकार को बेहद महंगी पड़ सकती है। हालात ऐसे हैं कि मोदी सरकार किसानों की अनदेखी शायद ही कर पाए।

यह उल्लेखनीय है कि बजट से पहले सामने आए आर्थिक सर्वेक्षण में साफ तौर पर कहा गया है कि बीते चार सालों से किसानों की वास्तविक आय नहीं बढ़ी है। अच्छा होता कि सरकार को इसका भान पहले ही हो गया होता। पहली बार किसानों के उत्पाद के लिए लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने का संकल्प कृषि और किसानों की बेहतरी की दिशा में एक बड़ा कदम है। ध्यान रहे कि ऐसा वादा 2014 के चुनाव के घोषणापत्र में भी किया गया था, लेकिन अगले ही वर्ष सरकार इससे मुकर गई और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में अपने हलफनामे में सरकारी पक्ष ने अपनी असमर्थता जता दी। जाहिर है कि विपक्षी दलों ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया और किसान भी सशंकित हुए। अगर मोदी सरकार 2014 में ही किसानों को लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने को तैयार हो गई होती तो शायद उसे किसानों की नाराजगी का सामना नहीं करना पड़ता।यही नहीं, तब किसानों की बेचैनी इतनी अधिक नहीं बढ़ी होती और शायद उद्योग जगत को मंदी जैसी हालत से भी दो-चार नहीं होना पड़ता। चूंकि सरकार एक बार वादाखिलाफी कर चुकी है, इसलिए उसे इस बार बहुत सतर्कता बरतनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य वास्तव में मिले।

चूंकि अगले वर्ष आम चुनाव प्रस्तावित हैं, इसलिए सरकार को कुछ ऐसे जतन करने ही होंगे जिससे इसी अप्रैल से शुरू होने वाले रबी की फसल की खरीददारी के दौरान लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने की योजना लागू हो सके। अगर ऐसा हुआ तो किसानों को पहली बार खेती मुनाफे का सौैदा महसूस होगी। किसानों की फसल का लागत मूल्य तय करने का काम कृषि मूल्य एवं लागत आयोग करता है और वह इसे दो पैमाने के तहत करती है। इन्हें ए-2 और सी-2 नाम से जाना जाता है। स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट के अनुसार सी-2 पैमाने पर लागत में किसान और उसके परिवार का श्रम और जमीन की कीमत भी शामिल होती है। अगर यह मान लिया जाए कि सरकार दूसरे प्रावधान यानी ए-2, जिसमें किसान का श्रम और जमीन की कीमत शामिल नहीं होती, के तहत करती है तो भी यह किसानों के लिए एक बड़ी राहत होगी। उदाहरण के तौर पर धान की कीमत सी-2 आधारित फॉर्मूले के अनुसार 1426 रुपए प्रति कुंतल है और अगर इस पर 50 प्रतिशत बढ़ाकर समर्थन मूल्य तय किया जाए तो धान का समर्थन मूल्य लगभग 2139 रुपए प्रति कुतल होगा। इतना ज्यादा मूल्य किसानों को आज तक नहीं मिला। इस गणना को अगर आगामी रबी और खासकर गेहूं की फसल पर लागू किया गया तो गेहंू का समर्थन मूल्य भी करीब 1900 रुपए प्रति कुंतल हो जाएगा। उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर गेहूं की खेती करने वाले किसानों के लिए यह मूल्य एक तरह से वरदान साबित होगा। देखना है कि ऐसा होता है या नहीं?

प्रधानमंत्री ने जिस तरह बजट के बाद यह स्पष्ट किया लगभग 14.5 लाख करोड़ रुपए ग्रामीण भारत के कल्याण पर खर्च किए जाएंगे, उससे साफ है कि वह ग्रामीण इलाके के लोगों की बेचैनी को भांप चुके हैं। दरअसल सरकार के सामने आगे कुआं-पीछे खाई वाली स्थिति थी। अगर वह मध्यम और उच्च वर्ग को खुश करने के लिए आयकर और कारपोरेट कर में अपेक्षित छूट देती तो राजस्व कम आता। कल्याणकारी योजनाओं के लिए खर्च करने का मतलब होता राजस्व घाटे में भारी बढ़ोतरी, जो किसी भी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं माना जाता। दूसरी ओर अगर सरकार किसानों और गरीबों के लिए अपना पिटारा न खोलती तो वे निराश-हताश तो होते ही, नाराज भी होते। कहना होगा कि मोदी सरकार ने दूसरा विकल्प चुना। इसी के तहत उसने स्वास्थ्य बीमा योजना का प्रावधान रखा। अगर किसी गरीब का पांच लाख रुपए तक का इलाज सरकार की किसी योजना से मुफ्त होने लगे तो यह भारत में सामाजिक सुरक्षा का सबसे बड़ा कदम कहा जाएगा। जिस तरह सरकार किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना दाम देने के मामले में हीलाहवाली नहीं कर सकती, उसी तरह स्वास्थ्य बीमा योजना के मामले में भी कोई कोताही नहीं बरत सकती। इन दोनों वादों को पूरा करना किसी चुनौती से कम नहीं, क्योंकि इसके लिए पूरा तंत्र बनाने और उसके काम की गहन निगरानी करने की भी जरूरत पड़ेगी। सरकार के सामने इस जरूरत को पूरा करने के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं।


Date:03-02-18

बड़ी चुनौती, भारत में समाज की अवधारणा नहीं बल्कि जातियों का जमावड़ा है

जेपी चौधरी , (लेखक यूनियन बैंक ऑफ इंडिया में मुख्य प्रबंधक हैं)

डॉ. भीमराव अंबेडकर के जाति उन्मूलन सपने को पूरा कर पाने में स्वयंभू अंबेडकरवादी न सिर्फ नाकाम रहे हैं, बल्कि अपनी-अपनी जातियों के पक्ष में मजबूती से खड़े भी दिखाई देते हैं। ये जातिवाद को कोसते जरूर हैं, पर अपनी जाति को छोड़ने से परहेज भी रखते हैं। दलितों ने डॉ. अंबेडकर के राष्ट्र निर्माण और मानवतावादी विचार को भुला कर उन्हें आरक्षण का पर्याय बनाकर उनकी छवि को भारी नुकसान पहुंचाने का काम किया है।

जाति का प्रादुर्भाव कब, कहां और कैसे हुआ इसकी कोई सर्वमान्य वैधता नहीं है। दुनिया में अमीरी और गरीबी के आधार पर वर्ग सदा से थे और इसमें बदलाव संभव था। वर्ण और जाति भारत की अपनी इजाद है, इसे दैवीय मानकर परिवर्तनशीलता से इन्कार भी किया जाता है। दुनिया के रंग और नस्ल भेद भी अपनी मौत मर गए मगर भारत में जाति जिंदा है और जल्द मरने के कोई आसार दिखाई नहीं देते। भारत में समाज नाम की कोई चीज नहीं बल्कि जातियों का जमावड़ा है। इसकी वजह से यहां समाज जैसी किसी संकल्पना का उदय नहीं हो सका और जाति को ही समाज मान लिया गया। जाति व्यवस्था में ‘भारतीय समाज’ की संकल्पना बेमानी ही होगी। जाति से खंडित राष्ट्र में राष्ट्रवाद की संकल्पना भी परवान नहीं चढ़ सकेगी। जाति नागरिकता पर हावी होते हुए अव्वल और दोयम दर्जे की नागरिकता को भी परिभाषित करती है।

जाति का जनक मनुवाद और ब्राह्मणवाद को माना जाता है। जाति में ऊंच-नीच है। असमानता है। शोषण और अत्याचार है। इसलिए सभी बुद्धिजीवी और जाति व्यवस्था से पीड़ित दलित मनुवाद व ब्राह्मणवाद की कड़ी आलोचना करते हैं, जाति का नाश चाहते हैं। समानता और भाईचारा चाहते हैं। समतामूलक समाज के लिए यह उचित भी है। बावजूद इसके दलित खुद अपनी जातियों से बड़ी शिद्दत से न केवल चिपके हैं बल्कि जाति की विरासत को ढो रहे हैं। कुछ दलित जातियां अपने आपको श्रेष्ठ और महान भी बता रही हैं, अपनी जाति की महानता की सुर-लहरियां मंचों और मीडिया से सुना रही हैं। इसके बावजूद वे अपने आपको अंबेडकरवादी भी मानते हैं। दलितों में भी जाति क्रम, वर्ण व्यवस्था की तर्ज पर मौजूद है। हम दलितों को ‘स्वयं-जाति-उन्मूलन’ की दिशा में उत्प्रेरित कर सकते थे, लेकिन ऐसा हुआ नही। क्योंकि प्रगतिशील, बुद्धिजीवी और अंबेडकरवादी कहलाने वाले लोग खुद तो अपनी जाति में बने रहना चाहते हैं, अगर दलित सच में जाति उन्मूलन चाहते हैं तो पहले अपनी जातियों का उन्मूलन कर उदाहरण प्रस्तुत करें तब दूसरों से ऐसी अपेक्षा करें। और जब तक दलितों में जाति भेद है तब तक दलित एकता पर भी प्रश्न-चिन्ह ही रहेगा।  यह सत्य है कि मनुवाद और ब्राrाणवाद समाज के लिए हानिकारक है। अपने आपको अंबेडकरवादी और फूलेवादी कहने वालों के पास मनुवाद को कोसने के सिवाय विकास या समतामूलक समाज का कोई कार्यक्रम और नीति नहीं है वरना 70 वर्ष की आजादी के बाद भी दलित मैला ढोने के अमानवीय कार्य में संलिप्त न होते। डॉ. अंबेडकर के विचारों की बारीकियों को उनके तथाकथित अनुयायियों ने भुला दिया है। डॉ. अंबेडकर की शिक्षाओं में अन्याय और अत्याचार के खिलाफ प्रतिकार है, लेकिन सामाजिक घृणा और अलगाव नहीं है। राजनैतिक संरक्षण और लंबे समय से आरक्षण के लाभ से संपन्न दलित जातियों ने जाति-उन्मूलन के एजेंडे को हाशिये पर धकेल दिया है। जाति की पहचान का प्रदर्शन करने की कतार में आगे अगे चलने वाले तथाकथित अंबेडकरवादी ही हैं। और यह पहचान दलित या बहुजन के तौर पर नहीं बल्कि जाति के तौर पर है। दलितों में जातिसूचक उपनामों से जातियों का भी एक ‘वाद’ बन गया है।

समता और समानता की जुगाली करने वाले और बात-बात पर संविधान की दुहाई देने वाले दलितों को अपने अंदर झांकना होगा कि क्या दलितों में परस्पर समानता है? और आरक्षण को प्रोत्साहन और प्रतिनिधित्व कहने वालों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह प्रोत्साहन और प्रतिनिधित्व सभी दलित जातियों को समान रूप से मिल रहा है या चंद जातियां ही इसका लाभ ले पा रही हैं। जाति के जूस की टपकती हुई आरक्षण की एक एक बूंद इन्हें हिंदू और जातिवादी बने रहने के लिए विवश करती है। मनुवाद और ब्राह्मणवाद को गालियां देने वालों को अहसास तक नहीं है कि अगड़ी जातियां पिछड़ी जातियों को साथ लेकर गम-खुशी तथा खान-पान में एक साथ होती हैं। पिछड़ी जातियां, जो संख्या बल में सबसे अधिक हैं वे भी गम-खुशी और खान-पान मे एक साथ होती हैं। वहीं दूसरी ओर दलित जातियां, खान-पान तो दूर की बात, गम और खुशी में एक साथ नहीं होती हैं। आरक्षित सीटों से संसद एवं विधान सभाओं में पहुंचने वाले सामाजिक न्याय के कर्णधारों ने कभी भी मैला ढोने जैसे अमानवीय प्रथा के खिलाफ संसद और विधान सभाओं में मुखर होकर आवाज नही उठाई। देश में सफाई पेशा जातियों के हालात बंधुआ मजदूरों जैसे हो गए हैं। इनकी सुध लेना वाला कोई नहीं है।

आरक्षण-संपन्न दलित जातियों द्वारा सफाई पेशा जातियों के साथ सवर्ण जातियों जैसा ही अपृश्यता का व्यवहार किया जाता है और जाति के नाम पर शोषण भी किया जाता है। आज देश में सफाई पेशा जातियां सवर्णो और अवर्णो सबके लिए अछूत हैं। सवर्णो द्वारा किए जाने वाले शोषण और अत्याचार के विरुद्ध तो अनुसूचित जाति/जन जाति अत्याचार निवारण अधिनियम है, किन्तु इन दलित मनुवादियों के विरुद्ध भी अनुसूचित जाति/जन जाति अत्याचार निवारण अधिनियम प्रभावी बनाया जाए। ताकि इन्हें भी न्याय और सम्मान मिल सके। दलितों में परस्पर समानता के अभाव में बहुजन का नारा निर्थक है।


Date:02-02-18

उम्मीदों के प्रावधान

संपादकीय

कुछ बजट संकट के बजट होते हैं, कुछ बजट उम्मीदों के बजट होते हैं, लेकिन हर चार-पांच साल बाद हमारा सामना एक ऐसे बजट से होता है, जिसे चुनावी बजट कहा जाता है। उम्मीद यही थी कि इस बार जब वित्त मंत्री अरुण जेटली संसद में बजट पेश करने के लिए खड़े होंगे, तो उनके झोले से जो बजट निकलेगा, वह 2019 के आम चुनाव को ध्यान में रखकर ही तैयार हुआ होगा। लेकिन जो बजट सामने आया है, उसमें कई लोक-लुभावन तत्व भले ही हों, लेकिन उसे पूरी तरह चुनावी बजट भी नहीं कहा जा सकता। हालांकि यह सब अक्सर इस पर निर्भर करता है कि आप बजट को किस नजरिये से देखते हैं? मध्यवर्ग के हिसाब से देखें, तो उसके लिए बजट में कुछ खास नहीं है। खासकर नौकरी-पेशा वर्ग के लिए, जो आयकर में राहत की बड़ी-बड़ी उम्मीदें पाले बैठा था।आयकर पर एक फीसदी के अतिरिक्त अधिभार ने उसके मुंह का जायका ही खराब किया है। कई और प्रावधानों को लेकर भी वह उलझन में है। बड़े उद्योग भी इसे अच्छा नहीं कहेंगे, क्योंकि उन्हें कॉरपोरेट टैक्स में जिस राहत की उम्मीद थी, वह नहीं मिली। इसका असर शेयर बाजार की शुरुआती प्रतिक्रिया में भी दिखा।

लेकिन अगर हम इस बजट को किसान और गरीब की नजर से देखें, तो यह बजट काफी उम्मीदें बंधाता है। सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागत का डेढ़ गुना करके किसानों का दिल जीत लेना चाहती है। साथ ही समर्थन मूल्य अब सभी तरह की फसलों पर मिलेगा। सरकार इसकी भी व्यवस्था करना चाहती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों तक पहुंचे। इसके लिए एक तंत्र विकसित करने की भी बात है। अटकल यह है कि शायद इसके लिए मध्य प्रदेश की ‘भावांतर योजना’ जैसी कोई व्यवस्था बने। लेकिन बजट का सबसे बड़ा फैसला 50 करोड़ लोगों तक स्वास्थ्य बीमा योजना को पहुंचाना है। इसके तहत देश के दस करोड़ परिवार जरूरत पड़ने पर सालाना पांच लाख रुपये तक का इलाज करा सकेंगे। देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस योजना में शामिल हो जाएगा। इससे यह उम्मीद भी बंधी है कि अगले कुछ ही साल में हम सबके लिए स्वास्थ्य सुविधा वाली मंजिल की ओर बढ़ सकेंगे। बेशक इस फैसले को लोक-लुभावन कहा जा सकता है। जाहिर है कि सरकार अगले चुनाव में इसे एक बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश करेगी। इससे भी बड़ा सच यह है कि देश को स्वास्थ्य के लिए ऐसे ही बडे़ कदम की जरूरत थी। स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रावधान बढ़ाकर स्वास्थ्य सुविधाएं सब तक पहुंचाने की बात कई बरस से चल रही है, लेकिन यह कोशिश किसी तरफ जाती नहीं दिखी। योजना से स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर पर असर न पडे़, इसके लिए नए मेडिकल कॉलेज खोलने के प्रस्ताव भी काफी महत्वपूर्ण हैं।

यह भी ध्यान रखना होगा कि कुछ न कुछ अच्छी योजनाएं तकरीबन हर बजट में ही होती हैं। जनता पर, या यूं कहें कि मतदाताओं पर अंतिम प्रभाव इस बात का पड़ता है कि वे जमीन पर किस तरह से लागू होती हैं? वे किस तरह से जमीन पर पहुंचती हैं और किस तरह से अंतिम आदमी तक उसका फायदा पहुंचता है? और चुनाव पर ज्यादा असर बजट के प्रावधानों की बजाय योजनाओं के लागू होने का पड़ता है। इसलिए सरकार की असली परीक्षा बजट नहीं है, उसकी असली परीक्षा तो इसके बाद शुरू होगी।


Date:02-02-18

सभी चिंताओं से जूझता बजट

एन के सिंह, चेयरमैन, फाइनेंस कमीशन

लोगों के दिमाग में इस समय जो मुख्य चिंताएं हैं, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उन सबको ध्यान में रखते हुए एक विस्तृत और दूरगामी बजट पेश किया है। पिछले दिनों पेश आर्थिक सर्वे से पांच प्रमुख मुद्दे उभरे थे। ये थे- कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, इन्फ्रास्ट्रक्चर और फिर विकास दर को बरकरार रखना व आगे बढ़ाना। इनके अलावा हम इसमें देश की मैक्रोइकोनॉमिक स्थिरिता का मद्दा भी जोड़ सकते हैं। इन सारे मसलों का बजट ने पूरा ख्याल रखा है।

सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि कृषि क्षेत्र में जो तनाव व्याप्त है, उसे कम कैसे किया जाए? किसानों की जो आत्महत्याएं हो रही हैं, उनको कैसे रोका जाए? इसी के साथ प्रधानमंत्री का यह लक्ष्य है कि 2020 तक किसानों की आमदनी को दोगुना कर दिया जाए, यह चुनौती भी सरकार के सामने है। इसके लिए तीन-चार महत्वपूर्ण कदम इस बार के बजट में दिखाई देते हैं। एक तो न्यूनतम समर्थन मूल्य की पहुंच बढ़ा दी गई है। बहुत सारी फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू नहीं होता था, अब यह उन पर भी लागू होगा। दूसरा बड़ा कदम है कि इसे लागत मूल्य का डेढ़ गुना बढ़ा दिया गया है। तीसरा यह अनुभव कि किसानों तक न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं पहुंचता है, अब इसके लिए एक तंत्र विकसित करने की बात है। इसका जिम्मा नीति आयोग और राज्य सरकारों को दिया गया है। लोग मानते हैं कि किसानों की आमदनी को सिर्फ खेती से दोगुना नहीं किया जा सकता, इसके लिए डाइवर्सीफिकेशन करना होगा। बजट में बागवानी और फूड प्रोसेसिंग पर जो जोर दिया गया है, वह इसी दिशा में जाता है। इन सबको जोड़कर देखें, तो सरकार ने किसानों को तुरंत राहत देने के लिए कर्ज माफी की बजाय दूसरे तरीकों से तत्काल और स्थाई फायदा पहुंचाने के लिए कदम उठाया है।

जिस दूसरी चिंता पर ध्यान दिया गया है, वह है शिक्षा की। शिक्षा के अधिकार के बाद से ‘असर’ की जितनी भी रिपोर्ट आई हैं, वे यह बताती हैं कि बच्चे स्कूल तो जाने लगे हैं, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता घटी है। इसका एक कारण यह है कि सब कुछ बदल गया है, लेकिन शिक्षक वही हैं, उनकी ट्रेनिंग की व्यवस्था नहीं हुई है। अच्छी बात यह है कि सरकार अध्यापकों की ट्रेनिंग और शिक्षण की गुणवत्ता बढ़ाने की जरूरत को स्वीकार कर रही है। इससे भी बड़ी बात यह है कि इसकी पहल बजट में की गई है। इसके साथ ही पहले जो शिक्षा के बारे में कहा जाता था कि पहले प्री-प्राइमरी शिक्षा, फिर प्राइमरी शिक्षा और फिर सेकेंडरी शिक्षा, सरकार अब इस सब को एकीकृत ढंग से देखना चाहती है। यह भी एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

स्वास्थ्य के बारे में तो हर साल यह कहा जाता था कि इसके लिए जीडीपी के अनुपात में जितना खर्च होना चाहिए, उतना नहीं होता। इस बार सरकार ने इस क्षेत्र पर काफी ध्यान दिया है। एक तरह से देखा जाए, तो उसने सबके लिए स्वास्थ्य सेवा की गारंटी की तरफ बढ़ने का कदम उठाया है। यह पिछले साल बनी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति और आयुष्मान भारत योजना के हिसाब से ही है। सरकार जो स्वास्थ्य बीमा योजना लाई है, वह लगभग आधे देश तक पहुंच सकेगी। यह दुनिया की अभी तक की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना है। इसके अलावा हर तीन संसदीय चुनाव क्षेत्र में औसतन एक मेडिकल कॉलेज का खुलना हमारे स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर को काफी मजबूत बनाएगा। टीबी के रोगियों के लिए भी विशेष प्रावधान किया गया है। पूरे उपचार काल के लिए उन्हें 500 रुपये प्रतिमाह का पोषण भत्ता दिया जाएगा। यहां यह ध्यान रखना होगा कि टीबी देश को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला रोग है।

इन सबके बीच सरकार की यह कोशिश भी पुरजोर है कि विकास दर को आठ फीसदी पर ले जाया जाए। इसके लिए कई तरह के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर जोर दिया गया है। सड़क निर्माण के काम में नितिन गडकरी के नेतृत्व में काफी प्रगति हुई है। इसके लिए प्रावधान को अब काफी बढ़ाया गया है। रेलवे में सबसे ज्यादा जोर रेल सुरक्षा पर दिया गया है। ‘सेफ्टी फस्र्ट’ की नीति को अपनाया जा रहा है। यह भी महत्वपूर्ण है कि 600 नए रेलवे स्टेशन बनाए जाएंगे। रेलवे के ईस्टर्न और वेस्टर्न कॉरिडोर का काम भी काफी तेजी से चल रहा है। इसके अलावा, पांचवीं पीढ़़ी की तकनीकी और खासकर डिजिटल तकनीक का पूरे देश में प्रयोग किया जा रहा है। वित्त मंत्री ने बताया कि देश की सभी ग्राम पंचायतों को ब्रॉडबैंड से जोड़ा जा चुका है। यानी ग्रामीण विकास में अब यह डिजिटल प्लेटफॉर्म भी महत्वूपर्ण भूमिका निभाने जा रहा है। इन सभी चीजों को देखते हुए आठ फीसदी विकास दर का लक्ष्य असंभव भी नहीं लगता।

पिछले बजट में सरकार ने यह वादा किया था कि चालू वित्त वर्ष में वित्तीय घाटा 3.2 फीसदी रहेगा और 2018-19 में लक्ष्य तीन फीसदी का रहेगा। लेकिन इस बार जीएसटी के कारण पूरे 12 महीने की बजाय 11 महीने का राजस्व संग्रह हो पा रहा है। जिसके चलते वित्तीय घाटा 3.5 फीसदी तक पहुंच गया है और अगले साल के लिए 3.2 फीसदी का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि वित्त मंत्री ने वित्तीय जिम्मेदारी और बजट प्रबंधन के लिए मेरी अध्यक्षता में बनी समिति के सभी सुझावों को स्वीकार किया है। उन्होंने कहा है कि कर्ज और जीडीपी का अनुपात 40 फीसदी से ज्यादा नहीं होगा। यानी मैक्रोइकोनॉमिक नजरिये से स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में रहेगी।वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अगले वित्त वर्ष का जो बजट पेश किया है, उसे लोकप्रिय तो कहा जा सकता है, लेकिन वह लोक-लुभावन नहीं है- इट्स पॉपुलर विदाउट बीइंग पॉपुलिस्ट।


Date:02-02-18

उम्मीदें कम, आशंकाएं कहीं ज्यादा हैं किसानों के मन में

देविंदर शर्मा, कृषि विशेषज्ञ

इस बार बजट भाषण में वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार का पूरा ध्यान गांवों पर है, और वह ‘ईज ऑफ लिविंग’ यानी ग्रामीण रहन-सहन को बेहतर बनाने पर खासा जोर दे रही है। किसानों को भरोसा दिया गया है कि साल 2022 तक उनकी आय दोगुनी हो जाएगी। खरीफ फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य डेढ़ गुना करने, आलू-टमाटर-प्याज के लिए ऑपरेशन ग्रीन शुरू करने जैसी घोषणाएं भी की गई हैं। ऊपरी तौर पर ये तमाम वादे भविष्य की सुखद तस्वीर दिखाते हैं और लगता है कि बजट हमारे अन्नदाताओं के हित में है। मगर हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है।

यह बजट किसानों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता। जो कुछ वे चाहते थे, उन्हें बजट में नहीं मिला। इसलिए किसानों पर राहत की बारिश होने की जो धारणा बनाई जा रही है, वह बेबुनियाद है। बजट कहता है कि सरकार ने रबी फसलों पर 1.5 गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया है। क्या यह आंकड़ा हकीकत से मेल खाता है? नहीं। इसीलिए सरकार का यह वादा गले नहीं उतरता कि वह खरीफ फसलों पर भी इतना ही न्यूनतम समर्थन मूल्य देगी। जब पहला कदम ही गलत की बुनियाद पर हो, तो दूसरे पर भला कैसे भरोसा करें? पिछले दो-तीन दिनों से प्रचार किया जा रहा है कि किसान अब खुशहाल हो गए हैं और उनकी समृद्धि काफी बढ़ी है। यह भी दावा किया जा रहा है कि केंद्र सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के हिसाब से किसानों को लागत में कम से कम 50 फीसदी जोड़कर फसलों के दाम दिए हैं। यह मूलत: सरकारी आंकड़ों से बनाया जा रहा एक इंद्रजाल है। अगर सरकार ने वाकई स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर अमल शुरू कर दिया है, तो उसे सर्वोच्च न्यायालय से अपना हलफनामा वापस ले लेना चाहिए, जिसमें उसने आयोग की सिफारिशें लागू करने पर असमर्थता जताई थी। कुछ ही हफ्ते पहले संसद को बताया गया था कि सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू नहीं कर सकती, क्योंकि इससे बाजार पर नकारात्मक असर पड़ेगा। जाहिर है, अभी जिस डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य का वादा किया जा रहा है, वह सब्जबाग है। यह सब आगामी चुनाव को ध्यान में रखकर किया जा रहा है।

किसान बजट से कर्ज-माफी की उम्मीद भी पाले हुए थे। हाल ही में तेलंगाना की सरकार ने सूबे के हर किसान को 8,000 रुपये सालाना आर्थिक मदद देने का प्रावधान किया है। उम्मीद थी कि यह मॉडल देश भर में लागू किया जाएगा और सभी किसानों के लिए ऐसी ही घोषणा की जाएगी। जब राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और राज्यपाल के वेतन बजट में तय किए जा सकते हैं, तो किसानों के लिए भी ऐसी ही कोई घोषणा क्यों नहीं की जा सकती? सरकार का इसके प्रति उदासीन रहना उसके किसान-हितैषी होने की पोल खोलता है। आज किसान कर्ज के बोझ से कराह रहा है। खुद सरकार ने संसद में माना है कि हमारे अन्नदाताओं पर 14.5 लाख करोड़ रुपये के ऋण हैं। ऐसे में, कर्ज-माफी नहीं, तो कम से कम किसानों के लिए मासिक या सालाना आमदनी की कोई व्यवस्था करनी चाहिए थी। ऐसा करना जरूरी भी है, क्योंकि 2016 का आर्थिक सर्वे बताता है कि देश में आधे किसान परिवारों की औसत आमदनी 20 हजार रुपये सालाना है। जाहिर है, उन्हें आठ हजार रुपये सालाना की अतिरिक्त मदद से काफी राहत मिलती।

बजट में कुछ अच्छी बातें भी हैं, जो कुछ उम्मीद जगाती हैं। वित्त मंत्री ने देश भर में 22 हजार हाट को कृषि बाजार बनाने की बात कही है। किसानों को इसकी काफी जरूरत थी। बाजार बढ़ने का अर्थ है, किसानों के लिए अपने उत्पाद बेचने की नई जगह का होना। इससे ज्यादा खरीदार उन तक पहुंच सकेंगे। अभी देश में सात-साढ़े सात हजार हजार मंडियां हैं, जबकि आवश्यकता 42 हजार मंडियों की है। बेशक 22 हजार बाजार भी जरूरत के हिसाब से कम हैं, पर इसे एक शुरुआत के तौर पर देखा जाना चाहिए। और इसके लिए सरकार का स्वागत किया जा सकता है। हालांकि जब तक ये घोषणाएं जमीन पर नहीं उतरतीं, संदेह के बादल बने रहेंगे।