02-12-2017 (Important News Clippings)
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Crying for help
82% rise in child rape cases needs urgent attention
TOI Editorials
In extremely distressful news, NCRB data shows that instances of child rape increased by 82% in 2016 compared to the previous year. Some of this increase would be attributable to greater focus on sexual crimes ensuring improved registration of cases, which is an important step in safeguarding our children. And some of these would actually be cases of consensual sexual activity amongst adolescents, which is injudiciously criminalised in India, so that parents file rape cases just because their child has entered a relationship without their approval. The law needs reforming to secure greater respect for adolescent sexual autonomy.
Even granted these caveats, an 82% spike in cases of rape of children – overall crimes against children have also increased – is a matter of grave concern. It suggests an urgent need to make homes and schools more secure. This requires measures ranging from doing thorough background checks on teachers to teaching children about ‘right touch and wrong touch’.
There has been a lot of emphasis on laws against sexual crimes. But this won’t help if the justice system falls short on proper implementation of these laws. Low conviction rates are a telling sign of this failure. Special courts where child rape cases are fast-tracked and dedicated investigation teams who are more sensitised than general police would ensure that child rapists get swift punishment. This would be potent deterrence. Unlike adults, children cannot speak for themselves. Civilised society must therefore speak all the more louder for them.
सवालों में महिला हितैषी कानून
सुप्रीम कोर्ट ने दहेज प्रताड़ना कानून पर अपने फैसले पर नए सिरे से विचार करने का निर्णय किया।
नाइश हसन, [लेखिका रिसर्च स्कॉलर एवं मुस्लिम वूमेंस लीग की महासचिव हैं]
यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने दहेज प्रताड़ना कानून पर अपने फैसले पर नए सिरे से विचार करने का निर्णय किया। इसी साल जुलाई में उसने कहा था कि इस कानून के तहत दर्ज मामलों में तुरंत गिरफ्तारी आवश्यक नहीं। इस फैसले का आधार इस कानून के कथित दुरुपयोग की शिकायतें थीं। दरअसल जून 2012 में पहली बार यह बात उठाई गई कि महिलाएं भारतीय दंड संहिता की दहेज प्रताड़ना संबंधी धारा 498ए का गलत इस्तेमाल कर रही हैं और उसे बदला लेने का हथियार बना रही हैं। बिना किसी ठोस अध्ययन और सुबूत के कही गई यह बात धीरे-धीरे उसके खिलाफ जनमत तैयार करती रही। विडंबना यह रही कि इस मिथक को मीडिया के एक हिस्से में भी व्यापक स्थान मिला और उन महिलाओं को षड्यंत्रकारी बताया जाने लगा जो अपने ‘बेचारे’ पतियों और परिवार को बर्बाद कर कथित तौर पर उनकी संपत्ति हथिया लेना चाहती हैं। इस मिथक में आगे चल कर यह जुड़ गया कि धारा 498ए को जमानती बना दिया जाए। संप्रग सरकार के समय विधि आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग ने उक्त मुद्दे पर अपने सुझाव में गिरफ्तारी पर चिंता जताई थी।
एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दो जुलाई, 2014 को कहा था कि सात साल तक की सजा के प्रावधान वाले मामले में पुलिस सिर्फ केस दर्ज होने के आधार पर पति और रिश्तेदारों की गिरफ्तारी नहीं कर सकती, बल्कि उसे गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त कारण बताना होगा। इसके बाद 27 जुलाई, 2017 को पुन: सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की पीठ ने राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में दिशानिर्देश जारी किए और दहेज प्रताड़ना के केस में गिरफ्तारी को लेकर राहत देते हुए कहा कि बिना ठोस कारणों के गिरफ्तारी न हो। आदेश में यह भी कहा गया था कि धारा 498ए के तहत की जा रही शिकायतों की जांच के लिए जिला कल्याण समिति को संदर्भित कर दिया जाए और जब तक इस समिति की अनुशंसा न प्राप्त हो जाए तब तक कोई गिरफ्तारी न हो, बशर्ते संदर्भित मामले में कोई स्पष्ट शारीरिक चोट नजर न आए या मृत्यु न हो गई हो। इस फैसले ने दहेज प्रताड़ना की शिकायत करने वाली महिलाओं को एक तरह से कल्याण समिति की दया पर छोड़ दिया। इस मसले पर विधि आयोग ने भी कहा था कि मामले को समझौतावादी बनाया जाए, जबकि 498ए का उद्देश्य घरेलू हिंसा की स्थिति में संभावित पीड़िता की रक्षा करना और हत्याओं को रोकना था। उक्त फैसले से यह जाहिर होता था कि अगर महिला के जिस्म पर चोट के निशान नहीं हैं या वह मरी नहीं है तो उसकी शिकायत गंभीरता के दायरे में नहीं आती, जबकि घर के अंदर औरत पर क्रूरता कई तरह से होती है जिसमें मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक और आर्थिक क्रूरता भी शामिल होती है।
पितृसत्ता के चश्मे से समाज को देख कर यह भ्रांति तो आसानी से फैलाई जा सकती है कि औरतें दहेज कानून का बेजा इस्तेमाल कर रही हैं, परंतु कोई भी सरकार अभी तक यह आंकड़ा नहीं पेश कर पाई है कि कितने प्रतिशत महिलाएं उक्त कानून का गलत इस्तेमाल कर रही हैं? सच तो यह है कि आंकड़े तो यह कहते हैं कि घरेलू हिंसा के मामलों में इजाफा हो रहा है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक 16 प्रतिशत शादीशुदा औरतों ने घर में होने वाली शारीरिक हिंसा की रिपोर्ट दर्ज की। मार्च 2017 में प्रस्तुत किए गए भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अध्ययन के अनुसार सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही 37 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं। 20 प्रतिशत महिलाओं की शादी अभी भी 18 वर्ष से कम उम्र में हो जा रही है। ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं और वे इस बात की तस्दीक करते हैंकि हमारे समाज में घरेलू एवं वैवाहिक जीवन में हिंसा किस कदर बढ़ गई है।
यहां यह जानना भी जरूरी है कि महिलाओं को सुरक्षा देती जिस धारा पर बार-बार सवाल उठाए जा रहे हैं वह महिला आंदोलन की देन है। किसी सरकार ने अपने आप नहीं सोचा था कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए इस प्रकार का अधिनियम बनाया जाए, बल्कि भारतीय महिलाओं के कडे़ संघर्ष के बाद ही यह अधिनियम बना। धारा 498ए महिलाओं को पति और उसके परिवार द्वारा की गई हर तरह की क्रूरता से बचाता है। यह भी समझने की जरूरत है कि देश के सभी समाजों में दहेज की बीमारी समाई हुई है। मुस्लिम समाज में जहां शादियां बहुत ही आसान थी वहां भी दहेज प्रथा ने अपने पैर फैला लिए हैं। दरअसल अब तो हर समाज की औरत इससे प्रभावित हो रही है। औरतों के अधिकारों को लेकर काम कर रहा कोई भी संगठन कभी यह दावा नहीं करता कि 498ए का दुरुपयोग नहीं हुआ होगा। देश में टैक्स, जमीन-जायदाद, सड़क सुरक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े तमाम कानूनों का भी तो गलत प्रयोग किया जाता है, लेकिन इन कानूनों को बदलने की पहल नहीं की गई। इसके अलावा अंग्रेजों के जमाने के बने तमाम कानून जिनमें वाकई बदलाव आना चाहिए, उन्हें भी बदलने की पहल आज तक नहीं हुई।
उदाहरणस्वरूप 1880 का बना काजी एक्ट और 1937 का बना शरीयत एप्लीकेशन एक्ट नहीं बदला गया है, लेकिन हैरानी की बात यह है कि घर की चहारदीवारी के भीतर औरत को सुरक्षा प्रदान करने वाले इस कानून को मिथक के आधार पर इसके अस्तित्व में आने यानी 1983 के बाद से ही बार-बार सवालों के घेरे में खड़ा किया जाता है। दरअसल इसके खिलाफ जानबूझकर गोलबंदी की गई और इसके चलते इस कानून को कई बार कमजोर भी किया गया। ऐसा किसी अन्य कानून के साथ नहीं हुआ। जब तक दहेज की समस्या है और वह पूरी तौर पर खत्म नहीं होती तब तक महिलाओं को उससे बचाव का कोई प्रभावी उपाय तो चाहिए ही। इसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि भारत सरकार ने महिलाओं की संपूर्ण सुरक्षा से जुड़ी एक अंतरराष्ट्रीय संधि सीडा पर हस्ताक्षर करके अपने देश की सभी महिलाओं को सुरक्षा देने की अंतरराष्ट्रीय मंच पर वचनबद्धता दी है। यह वचनबद्धता तभी पूरी हो सकती है जब महिलाओं को घर-बाहर प्रताड़ना से मुक्ति मिले।
बढ़ती अशांति और भ्रांति से बेचैन
मृणाल पांडे [लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं]
साल 2017 समाप्ति पर है, लेकिन नई सदी के उपजाए सरदर्द घट नहीं रहे। पाकिस्तान में हर दो-तीन महीनों के भीतर कट्टरपंथी गुट उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों को मानव बम से उड़ा रहे हैं। म्यांमार में बौद्ध बहुसंख्य जनता द्वारा रोहिंग्या मुस्लिमों को जबरन भेड़-बकरियों की तरह देश से बाहर हांक दिया गया है और वे हर पड़ोसी देश की सीमा पर बेघर बने डांय-डांय डोल रहे हैं। पहले से ही बड़ी आबादी के तले पिस रहे देशों में से मानवीय आधार पर उनको स्थायी नागरिकता कोई देश नहीं देना चाहता, मुस्लिम देश भी नहीं। म्यांमार से लेकर सीरिया तक एशिया में तनाव है। हर कहीं धार्मिक अल्पसंख्यक गुटों तथा रिफ्यूजियों की आवक को लेकर एक हिंसक गुस्सा फनफना रहा है, जिसके पीछे अपनी पहचान धुंधली होने और सीमित संसाधनों को नई भीड़ के साथ जबरन साझा करने का डर है। लिहाजा कहीं आतंकवाद निरोध के नाम पर नस्ली हिंसा तो कभी बहुसंख्य आबादी की कथित सांस्कृतिक पहचान कायम रखने के नाम पर गुंडागर्दी और दमन के अलोकतांत्रिक शासकीय तरीके खुलकर अपनाने के पैरोकार गुट चुने जा रहे हैं। क्या इसी दिन के लिए सत्रह बरस पहले दुनिया ने 2000 में पटाखे छुड़ाकर नाचते-गाते हुए इस नई सदी का अभिनंदन किया था?
सबसे अधिक अस्थिरता और भगदड़ का मंजर पश्चिम एशिया में है। तानाशाहों के उजाड़े अफ्रीकी देशों और आतंकी दस्तों तथा अमेरिकी सेना के बीच गोलाबारी से तबाह हो गए देशों से रबर की डगमग नावों पर भेड़-बकरियों की तरह ठुंसकर लाखों बेघर शरणार्थी किसी तरह सर छुपाने को यूरोप का रुख कर रहे हैं। कई तो बीच समंदर में ही डूबकर मर जाते हैं। जो किसी तरह बचकर यूरोप तट तक जा पहुंचे, वे वापस भेजने के लिए तटवर्ती सैन्य कैंपों में बंद कर दिए जाते हैं। समृद्ध और अपेक्षया टिकाऊ विशाल खनिज तेल के मालिक सऊदी अरब में भी बूढ़े शाह ने अपने कथित तौर से सुधारवादी युवा छोटे पुत्र को उत्तराधिकारी बना दिया है, जिसने मध्य एशिया के कई दूसरे तानाशाहों की तरह गद्दीनशीन होते ही लगभग सारे शाही प्रतिस्पद्र्धियों को जेल भेज दिया है। अफसोस यह कि इस घड़ी में वहां कमाल अतातुर्क या नासिर सरीखा कोई सर्वस्वीकार्य अनुभवी नेता क्षितिज पर नहीं है। और पैसे से महरूम किए जा चुके तालिबान अथवा अलकायदा जैसे गुट अब आत्मघाती बमों के गुच्छों में दुनियाभर में ऐसे छितरा गए हैं कि उनका पूरी तरह सफाया करना नामुमकिन लगता है।
उधर सूचना संप्रेषण की दुनिया, जो लोकतंत्र का चौथा पाया है, दरक रही है। पश्चिम में तो खबरों का सारा कारोबार नेट से ही हो रहा है। हमारे यहां भी स्मार्टफोन तथा लैपटॉप की बढ़ती आवक से सूचना देने, पाने के तरीकों में भी बुनियादी बदलाव आया है। यह गौरतलब है कि विश्वव्यापी नेट को चला रही अभियांत्रिकी की दुनिया में कृत्रिम बुद्धि और रोबोटिक्स की आमद बहुत तेजी से बढ़ रही है। साथ ही दुनिया के हर देश में आर्थिक असमता और मानवीय बेरोजगारी भी। विशेषज्ञों का ताजा आकलन है कि दुनिया की सारी दौलत आज एक फीसदी से कम तादाद के धनकुबेरों के पास सिमट गई है। लिहाजा अमीर, गरीब, विकसित, अविकसित हर देश जनाक्रोश की गिरफ्त में है।
उधर शेष दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों की किसी हद तक ढाल बना रहा अमेरिका भी आज चीन की सुरसाकार अर्थव्यवस्था से आतंकित होकर एशिया, यूरोप की सुरक्षा पर सनकी और बदमिजाज तेवर दिखाने लगा है। इसी के साथ वो और चीन अपने-अपने हित स्वार्थों के तहत हमारे महाद्वीप में कुछ नई आक्रामक गुटबंदियां बनवा रहे हैं, जो टकराव होने पर महाशक्तियों से कहीं अधिक छोटे देशों को भारी पड़ेंगी। हाथियों की लड़ाई में नीचे घास ही तो नाहक पिसती है। अगर चुनावी मैदान के बजाय राजनीति कुछेक धार्मिक जनूनी गुटों या फौजी छावनियों में ही आकार पाने लगे, मुख्यधारा का आजाद मीडिया बार-बार कुचला जाए और आजादख्याल बुद्धिजीवियों को जेल भेज दिया जाए, तब कई खतरनाक नई वैचारिक गुटबंदियां और क्रांतियां पनपती हैं, जिसमें सूचना तकनीकी भारी कारक बनती है। पर 2017 में इन सभी देशों में विश्वव्यापी नेट तथा टि्वटर और फेसबुक सरीखे माध्यमों के फेक न्यूज तथा सायास ट्रोलिंग से हो रहे प्रदूषण को लेकर इसीलिए कई शंकाएं पनप रही हैं। नेट की तकनीकी के जानकारों को भय है कि उसकी सर्वसुलभता और स्पीड उसे काली माफिया के हाथों का खिलौना बनाती जा रही है।
अमेरिका में हालिया शोध ने 2800 ऐसे छायागुटों को चिन्हित किया है जो हैकिंग व नेट की भाषा की जड़, अल्गोरिद्म में महीन तब्दीली लाकर किसी भी ग्राहक को गोपनीयतम सरकारी, कॉर्पोरेट और अमीरों के गुप्त खातों की बाबत खुफिया जानकारियां मोटी फीस के एवज में दे रहे हैं। इसी के साथ वे मुख्यधारा की खबरों में मॉर्फ की गई तस्वीरों, फेक खबरों तथा वीडियो को डलवाकर चुनावी प्रतिस्पद्र्धियों की बाबत जनता में भ्रम फैलाने के लिए भी सुपारी ले रहे हैं। ऐसी सभी संदिग्ध साइटों के ठिकाने मूल देश से दूर किसी छोटे से मुल्क या द्वीप में रखे जाते हैं, जो बड़ी आसानी से बदले जा सकते हैं। अमेरिका के ताजा चुनावों के दौरान और उसके बाद प्रकटे कई गोपनीय प्रकरणों को लेकर कहा जा रहा है कि नेट की इस पाताली सूचनाधारा का फायदा दुनिया का तकरीबन हर चालाक सियासी दल, फौजी नेता या कट्टरपंथी गुट उठा रहा है। ऐसे में इस बात पर सवाल उठना स्वाभाविक है कि भविष्य में आम चुनाव कितने साफ-सुथरेपन और वैधानिक रूप से कराए जा सकेंगे? एक पाठक ने मार्मिक सवाल पूछा है कि इस सर्वव्यापी सूचना प्रदूषण और विश्व्यापी आतंकवाद के दबावों के बीच हमारे सरीखे अर्द्धसाक्षर, पिछड़े देशों में नेतृत्व पर भरोसे का कोई ठोस आधार बचा है, जिसके बूते हम लोकतंत्र की आस का दीया जलाए रख सकें? उनको याद दिलाना होगा कि माओ या लेनिन चीन और रूस में जिस जनता की मदद से सफल क्रांति कर स्थायी बदलाव लाए, वह भी लगभग अपढ़, भाग्यवादी और आज प्रगति मापने के कई पैमानों पर बेहद पिछड़ी थी। 1920 का वह भारत, जिसके आमजन को गांधी ने संगठित कर सदियों से चले आ रहे अंग्रेजी शासन से सफलतापूर्वक लोहा लिया, आज की तुलना में बेहद अजागृत और पिछड़ा ही दिखता है। फिर भी वे क्रांतियां 1857 के गदर , 1967 में फ्रांस के छात्रों की लंबी हड़ताली पहल या थ्येनानमन चौक की क्रांति की तुलना में सफल रहीं। और उसके बाद भी मालवीय, टैगोर, आजाद, होमी भाभा, सीवी रमन और विक्रम साराभाई सरीखे नेताओं ने बेहतरीन उच्चशिक्षा शोध केंद्रों का निर्माण किया।
स्थायित्व के लिए लोकतंत्र में तीन बातें जरूरी हैं : शिक्षित वृहत्तर समाज (सिविल सोसाइटी) , धार्मिक सहिष्णुता और तरक्कीपसंद अंतरराष्ट्रीय मंचों से जुड़ाव। एक उदारवादी वृहत्तर समाज, जिसमें स्त्री-पुरुष, इस्लामी-गैरइस्लामी, अगड़े-पिछड़े-दलित सभी तरह के नागरिकों के बीच आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक समता बने, जो शस्त्र के बजाय तर्क पर आधारित संवाद कर सकें, सिर्फ बड़बोले भाषणों के दम पर बनाना मुश्किल है। एक सार्थक क्रांति के लिए सिर्फ भावनात्मक उफान या बड़ी तादाद में जुनूनी नारेबाज भीड़ से काम नहीं चलता। ठंडे दिमाग और एक साफ दर्शन से प्रेरित, अनुशासित और दीर्घकालिक रणनीति देने वाला नेतृत्व सबसे जरूरी है।
रक्षा समझौत
संपादकीय
सिंगापुर के रक्षा मंत्री नेग एंग हेन की भारत यात्रा के दौरान हुए समझौते कई मायनों में सामरिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हैं। इसलिए नहीं कि इसमें दोनों देशों ने आतंकवाद के साथ कड़ाई से निपटने का संकल्प लिया। इसका भी महत्त्व है, क्योंकि आतंकवाद से आजकल कोई क्षेत्र अछूता नहीं है। लेकिन दोनों देशों ने समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग को प्रगाढ़ बनाने, साझा अभ्यास, एक दूसरे के नौसैन्य प्रतिष्ठानों में अस्थायी तैनाती के लिए जिस समझौते पर हस्ताक्षर किए तथा महत्त्वपूर्ण समुद्री मार्ग में नौवहन की आवाजाही सुनिश्चित करने का आह्वान किया वह कहीं ज्यादा मायने रखता है। इन समझौतों को भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती सैन्य मौजूदगी का जवाब माना जा रहा है और यह सच भी है। ध्यान रखिए, इन समझौतों के तहत सिंगापुर भारतीय नौसेना के युद्धपोतों को अपनी चांगी नौसैनिक अड्डे पर रुकने की अनुमति तो देगा ही युद्धपोतों को आवश्यक रक्षा सामग्री भी प्रदान करेगा। समझौते का यह बिंदु कितना महत्त्वपूर्ण है, यह बताने की आवश्यकता नहीं।
अमेरिका के साथ रक्षा समझौते में लॉजिस्टिक समर्थन की बात है, रक्षा सामग्री प्रदान करने की नहीं। इस तरह, सिंगापुर के साथ रक्षा सहयोग अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग से आगे निकल गया है। सिंगापुर के रक्षा मंत्री ने हिंद महासागर क्षेत्र में भारत की अग्रणी भूमिका की सराहना की और भारत के उस प्रस्ताव पर सहमति जताई कि दोनों देश साझा समुद्री क्षेत्र में सतत एवं संस्थागत नौसैन्य सपंर्क स्थापित करेंगे। इस वक्तव्य का महत्त्व इसलिए है कि हेन ने एक थिंकटैंक के कार्यक्रम में अमेरिका, जापान, भारत और आस्ट्रेलिया के प्रस्तावित गठजोड़ को लेकर सिंगापुर की आपत्ति जताई थी। भारतीय नौसेना के युद्धपोत गत जून से ही मलक्का जलडमरूमध्य में गश्त लगा रहे हैं। भारत का 35 प्रतिशत व्यापार दक्षिणी चीन सागर क्षेत्र के रास्ते ही होता है। नौसेनाओं के बीच हुए समझौते में साफ कहा गया है कि दोनों देश मलक्का जलडमरूमध्य तथा अंडमान सागर में अपनी गतिविधियां बढ़ाएंगे। वास्तव में मलक्का जलडमरूमध्य के पूर्व में स्थित किसी देश के साथ भारत ने पहली बार सैन्य साजो-सामान संबंधी समझौता किया है। भारत और सिंगापुर की वायु सेनाओं और थल सेनाओं के बीच पहले से ही द्विपक्षीय सहयोग समझौते हैं। वायु सेनाओं के बीच समझौते का इस वर्ष जनवरी में नवीकरण किया गया और थल सेना सहयोग समझौते का अगले वर्ष नवीकरण किया जाना है।
समुद्र में बढ़ती भारत की ताकत
सी उदय भास्कर, निदेशक, सोसाइटी ऑफ पॉलिसी स्टडीज
भारत और सिंगापुर ने बुधवार को नई दिल्ली में दूसरी मंत्री-स्तरीय वार्ता में नौसैन्य सहयोग बढ़ाते हुए एक द्विपक्षीय करार किया है। यह समझौता तब हुआ है, जब सिम्बेक्स (सिंगापुर-भारत समुद्री द्विपक्षीय अभ्यास) 25वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। अगले साल 2018 में 25वें सिम्बेक्स का आयोजन किया जाएगा। यह बताता है कि दोनों देशों के बीच नौसैन्य सहयोग में कितनी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। बुधवार को हुआ समझौता कई मामलों में अलहदा है। इस समझौते से समुद्री सुरक्षा और संयुक्त अभ्यास में द्विपक्षीय सहयोग तो बढे़गा ही, अब दोनों देशों के नौसैनिक एक-दूसरे के यहां अस्थाई रूप से तैनात हो सकेंगे और रक्षा सामान भी साझा कर सकेंगे। जाहिर है, यह अपनी तरह का पहला समझौता है। यह सिंगापुर के नजदीकी समुद्री क्षेत्र में भारतीय नौसेना की और बंगाल की खाड़ी में सिंगापुर की नौसेना की पहुंच को बढ़ाने में मददगार साबित होगा।
किसी भी नौसेना की विशेषता इसी से आंकी जाती है कि महासागर और समुद्र में उसकी ‘मौजूदगी’ किस हद तक है? इससे राष्ट्रीय हित तो सधते ही हैं, क्षेत्रीय या वैश्विक उद्देश्यों की पूर्ति में भी मदद मिलती है। समुद्र के अच्छे प्रबंधन की संकल्पना इसी क्षेत्रीय या वैश्विक उद्देश्यों का एक हिस्सा है। नौसेना की ‘मौजूदगी’ का अर्थ यह भी है कि उस खास जगह तक जहाजों, पनडुब्बियों व विमानों जैसे नौसैनिक साजो-सामान पहुंचाए जा सकते हैं और वहां उन्हें तैनात किया जा सकता है। यानी नौसेना के पास यदि अपने टैंकर व रसद के जहाज हैं, तो वह उन्हें वहां तैनात कर सकती है और किसी कार्रवाई या परिचालन संबंधी जरूरत को देखते हुए तैनाती की उसकी अवधि बढ़ा भी सकती है। और यदि दूसरे देशों में रसद संबंधी मदद मिल जाती है, तो इससे नौसेना को लंबे समय तक समुद्र में अपनी उपस्थिति बनाए रखने में मदद मिलती है। सीमा पार से मिलने वाली रसद संबंधी मदद परिचालन के कामों में कितनी कारगर होती है, इसका ताजा उदाहरण चीन का जिबूती में बनाया गया ‘लॉजिस्टिक हब’ यानी नौसैन्य ठिकाना है। ‘हॉर्न ऑफ अफ्रीका’ के जिबूती में यह ठिकाना बनाकर और फारस की खाड़ी वाले क्षेत्रों में अन्य बुनियादी सुविधाएं बढ़ाकर बीजिंग ने अब हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत कर ली है।
हालांकि इस तरह हुबहू तो नहीं, पर भारत और सिंगापुर में हुआ यह समझौता दोनों मुल्कों को अपने साझा हितों को आगे बढ़ाने के लिए सैन्य व नौसैन्य विकल्पों को मुहैया कराने में मददगार साबित होगा। इसमें क्षेत्रीय सुरक्षा की बात तो है ही, अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक समुद्री स्वतंत्रता बनाए रखते हुए बेरोकटोक आवाजाही और कारोबार को भी महत्व दिया गया है। समुद्र में अनियोजित तरीके से होने वाले टकराव को रोकने के लिए बने कायदे-कानूनों की जद में भी अब सभी आसियान देश आ जाएंगे। इस करार के शब्द समान विचार वाले राष्ट्रों को एक ऐसे समझौते तक पहुंचने पर जोर देते हैं, जिसके तहत वे वैश्विक समुद्री क्षेत्र का प्रबंधन न्यायोचित और आपसी सहमति से करने के लिए आम राय बना सकें।
इस मौके पर सिंगापुर के रक्षा मंत्री ऐंग इंग हेन ने हिंद महासागर में भारत की भूमिका की सराहना की और अपने साझा समुद्री क्षेत्र में अनवरत व संस्थागत नौसैन्य सहयोग के दिल्ली के प्रस्ताव का समर्थन दिया, जिसमें समान विचारधारा वाले क्षेत्रीय अथवा आसियान सहयोगी देशों के साथ समुद्री सैन्य अभ्यास करना भी शामिल है। सिंगापुर के साथ हुआ यह समझौता तीन क्षेत्रों में भारत के लिए खासा महत्वपूर्ण है। पहला, यह सिंगापुर के साथ द्विपक्षीय सैन्य रिश्ते को और अधिक मजबूत बनाता है। सिंगापुर की वायु व थल सेना पहले से ही भारतीय सेनाओं के साथ अभ्यास करती रही है और दोनों में करीबी रिश्ता रहा है। मगर नौसैन्य समझौता होने से एक समग्र सैन्य संबंध बनेगा और सिंगापुर के साथ हुए उन द्विपक्षीय समझौतों को मजबूती मिलेगी, जिसमें उसे भारत की ‘एक्ट-ईस्ट’ नीति के तहत विशेष दर्जा दिया गया है। उल्लेखनीय है कि 1990 के दशक की शुरुआत में जब नरसिंह राव की सरकार थी, तो अपेक्षाकृत कमतर होने के बावजूद उसने भारत को आसियान में शामिल कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जाहिर है, अब क्षेत्रीय रक्षा और कूटनीति के मामले में कई परस्पर फायदेमंद क्षमताएं हासिल की जा सकती हैं।
इस समझौते की दूसरी प्रासंगिकता चीन से जुड़ी है। चीन का बढ़ता कद और उसकी मुखरता ने आसियान को बांट दिया है। यह इस उप-महाद्वीप के लिए चिंता की बात है। ऐसे में, भारत को ही वह विकल्प माना जाता है, जो सामरिक संतुलन बना सकता है। नई दिल्ली भी सावधानी से और बिना किसी उत्तेजक बयानबाजी से इस दिशा में आगे बढ़ रही है। वह एक तय तरीके से समुद्री व नौसैन्य द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बना रही है। यह उप-महाद्वीप में मोदी की कूटनीति का एक हिस्सा है और इसके निहितार्थ अब वैश्विक सामरिक स्तर पर भी स्पष्ट तौर पर देखे जा सकेंगे। मेरा मानना है कि यही इस समझौते का तीसरा बड़ा महत्व है। साल 2014 के मध्य में जब नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली थी, उसके तुरंत बाद उन्होंने ‘सागर’ (क्षेत्र में सभी के लिए सुरक्षा व विकास) की संकल्पना पेश की थी और हिंद महासागर पर ध्यान लगाया था, जो प्रेरक था। हालांकि इसे अपने बूते सफल बनाना भारत के लिए संभव नहीं है, मगर बीज तो डाल ही दिए गए हैं। समान सोच वाले राष्ट्रों के साथ साझेदारी करके और पारस्परिक रूप से लाभकारी नीति पर आगे बढ़ने से भारत की विश्वसनीयता एक सुरक्षा साझेदार के रूप में बढ़ेगी, और यह चीन की धारणा के विपरीत होगा।
इससे इनकार नहीं कि भारत और सिंगापुर अब भी चीन को एक मजबूत द्विपक्षीय सहयोगी के रूप में देखते हैं और बीजिंग के साथ स्थाई व गर्मजोशी भरे संबंध के हिमायती हैं। मगर दोनों मुल्क यही चाहेंगे कि चीन के साथ यह रिश्ता संप्रभुता, कूटनीतिक शिष्टता और राजनीतिक-सैन्य संवेदनशीलता की धरातल पर हो। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण को सिंगापुर के साथ ऐसे ही रिश्ते को प्राथमिकता देनी चाहिए और इसे अन्य द्विपक्षीय रिश्ते के आदर्श के रूप में पेश करना चाहिए।