02-07-2024 (Important News Clippings)

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02 Jul 2024
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Date: 02-07-24

Start Work on Project Optimus Governance

ET Editorials

Bureaucrats have reportedly suggested plans to rationalise and restructure government departments and ministries to the prime minister. This is certainly a need of the hour. Narendra Modi himself has long advocated for ‘maximum governance, minimum government’. Now, his administration needs a plan. This won’t happen merely by downsizing departments or outsourcing critical functions — although fighting flab and creating extra-governmental partnerships have their place in a refabrication — but by creating systems and processes that promote a coordinated whole-of-government approach.

Restructuring is more than an efficiency exercise, it’s an optimisation one. The driving force must be maximising resource (human, financial, material) utilisation by leveraging synergies. The left hand must be aware of what the right hand does. This means moving away from siloed thinking, duplication and working at cross purposes. Rationalisation is also not a euphemism for any drive for outsourcing critical government functions or hollowing out government capacity. Rule-bound bureaucracy, seen in many political quarters as impediments to action, must not be simply swapped for an increased dependence on a parallel network of ‘consultants’. Improving implementation and governance is impossible if the bureaucracy is hollowed out. Rules and regulations must be visible, and developed as instruments to enhance implementation of policy and not as hindrance.

The next five years are critical for putting in place systems and processes — the warp and woof of good governance — that will underpin India’s transformation. This requires improving internal coordination, and collaboration within government for efficient, agile and responsive implementation — in praxis.


Date: 02-07-24

नई न्याय प्रणाली पर भरोसा स्थापित होने में समय लगेगा

संपादकीय

किसी भी देश में संविधान के बाद सबसे अहम दस्तावेज होता है वहां की अपराध-न्याय प्रणाली बताने वाली संहिताएं। भारत में नई प्रणाली लाने के लिए तीन नई संहिताएं- भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम लागू हो चुकी हैं। मैकाले के 160 साल पुराने आईपीसी, सीआरपीसी और साक्ष्य कानून को अलविदा किया जा चुका है। कई राज्यों ने नई संहिताओं को फिलहाल न लागू करने की अपील की है। 100 जाने-माने पूर्व नौकरशाहों ने भी इस संबंध में लिखा है। यह सच है कि जहां तीन साल से ज्यादा समय में देश के तत्कालीन बेहतरीन दिमाग वाले लोगों ने बड़ी मेहनत से संविधान बनाया, वहीं अपराध संहिताओं को बनाने की प्रक्रिया फौरी रही। संसद के दोनों सदनों में विपक्ष निलंबित था। संसदीय उप-समिति को समय बेहद कम मिला। यहां तक कि जब अधिसूचना हुई तब देश में चुनाव की आपाधापी शुरू हो गई। 4 जून के परिणाम आने के बाद पुलिस को फुर्सत मिली तो 160 साल पुराने कानूनों की जगह इन कानूनों की जटिलताओं को समझने के लिए मात्र 26 दिन मिले। पुराने कानून में हत्या की धारा 302 आईपीसी अचानक अब बीएनएस की धारा 103 हो गई। अभियोजन, अनुसंधान और न्याय निस्तारण में इतने बड़े बदलाव को समझने के लिए समय चाहिए था। सामान्य पुलिसकर्मी इस परिवर्तन के लिए कितना सुग्राही बन सका है? फिर आम जनता भी इसे अच्छी तरह से नहीं जान सकी है। आदेश के अनुरूप देश भर के 17,500 थानों में थानेदारों को जनता, वरिष्ठ नागरिक और प्रतिष्ठित लोगों को सोमवार को थाने बुलाकर नई संहिताओं के बारे में अवगत करने का कर्मकांड निभाया गया। नए बीएनएस के अनुसार इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्डिंग, फोटोग्राफी, डीएनए टेस्ट का व्यापक प्रयोग होगा। क्या वाकई जिलों में या थानों के पास इतने संसाधन फिलहाल उपलब्ध हैं? मैकाले से मुक्ति तो अच्छी है लेकिन नई न्याय प्रणाली पर भरोसा भी उतना ही जरूरी है।


Date: 02-07-24

नियमों के तहत सहायता मांगे राज्य

सीबीपी श्रीवास्तव, ( लेखक सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस, दिल्ली के अध्यक्ष हैं )

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनने के साथ ही इसकी संभावना जताई जाने लगी थी कि राजग के प्रमुख घटक दल टीडीपी और जेडीयू आंध्र और बिहार के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग कर सकते हैं। बीते दिनों जेडीयू के नेताओं ने विशेष राज्य के दर्जे की मांग दोहरा दी। भारत के संविधान में राज्यों का गठन स्वायत्त प्रशासनिक इकाइयों के रूप में संघ द्वारा किया जाता है। राज्यों के विकास और उनकी सुरक्षा को देखते हुए संसद को कानून बनाने का अधिकार है और कोई भी राज्य अन्य राज्यों के समान अधिकार प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकता। भारत में संसद को यह शक्ति है कि वह कानून के तहत किसी राज्य के लिए विशिष्ट नियमों और शर्तों का निर्धारण कर सकती है। चूंकि राज्य प्रशासनिक इकाइयां हैं और संघ सरकार द्वारा आवंटित संसाधनों के वितरण के लिए उत्तरदायी हैं, अतः उनकी भौगोलिक, सामरिक तथा सामाजिक-आर्थिक दशाओं को देखते हुए उन्हें विशेष सहायता दी जा सकती है। यहां यह भी उल्लेख करना समीचीन होगा कि प्रशासन से संबद्ध होने के कारण ऐसा कोई उल्लेख संविधान में नहीं है, क्योंकि संविधान शासन व्यवस्था के तीनों अंगों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को दिशा निर्देश देता है, जिसके अनुरूप विधायिका द्वारा बनाई गई विधियों के अनुरूप कार्यपालिका प्रशासनिक कार्रवाई करती है और विवादों के समाधान के लिए न्यायपालिका उत्तरदायी होती है।

प्रशासनिक सुगमता और राज्यों के विकास पर गौर करते हुए 1969 में पांचवें वित्त आयोग ने विशेष राज्य का दर्जा देने की सिफारिश की थी। इस आधार पर असम, नगालैंड और जम्मू-कश्मीर को यह दर्जा दिया गया था। इनके अतिरिक्त, हिमाचल, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा, अरुणाचल, मिजोरम, उत्तराखंड और तेलंगाना सहित 11 राज्यों को विशेष श्रेणी के राज्य का दर्जा दिया गया है। संप्रग सरकार के शासन में संसद द्वारा विधेयक पारित करने के बाद आंध्र प्रदेश से अलग होने पर तेलंगाना को विशेष दर्जा मिला था। 14वें वित्त आयोग ने पूर्वोत्तर और तीन पर्वतीय राज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों के लिए ‘विशेष श्रेणी का दर्जा’ समाप्त कर दिया था और ऐसे राज्यों में कर हस्तांतरण के माध्यम से संसाधन अंतर को 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत करने का सुझाव दिया था।

पिछले कुछ समय से बिहार के साथ आंध्र विशेष राज्य के दर्जे की मांग करते रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि विशेष श्रेणी राज्य विशेष दर्जे से अलग है। विशेष राज्य श्रेणी केवल आर्थिक और वित्तीय पहलुओं से संबंधित है। इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद 371 (ए-जे) में कई राज्यों के लिए विशेष प्रविधान किए गए हैं। किसी राज्य को विशेष श्रेणी का राज्य बनने की अर्हता के लिए कई शर्तें निर्धारित हैं, जैसे-राज्य में पर्वतीय क्षेत्र, कम जनघनत्व या जनजातियों की बहुलता, अंतरराष्ट्रीय सीमा की साझेदारी, राज्य में आर्थिक और अवसंरचनागत पिछड़ापन और राज्य के वित्त की गैर-व्यवहार्य प्रकृति। इन शर्तों को ध्यान में रखते हुए अब यह विचार करना आवश्यक है कि आंध्र प्रदेश और बिहार विशेष राज्य का दर्जा क्यों मांग रहे हैं?

आंध्र प्रदेश का तर्क है कि राज्य के विभाजन के बाद उसकी कुल राजस्व प्राप्तियों में कमी आ गई है, जिससे राज्य की राजकोषीय व्यवहार्यता भी कम हो गई है। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि राज्य का विभाजन अतार्किक एवं समता के सिद्धांत के विरुद्ध था। जहां तक बिहार की बात है, तो वह विशेष दर्जे की मांग 2008 से ही कर रहा है। जेडीयू की नई कार्यकारिणी ने अपनी यह मांग फिर से रेखांकित की है। बिहार का यह भी तर्क है कि उसका विभाजन सही तरह नहीं किया गया। वह संसाधनों की अपर्याप्तता का दावा भी करता रहा है। बिहार के दावे में यह भी शामिल है कि उसकी सीमा अंतरराष्ट्रीय सीमा है, जो नेपाल से मिलती है, लेकिन वर्ष 2015 और फिर 2023 में केंद्र सरकार ने ऐसा दर्जा देने की मांग को इस तर्क पर अस्वीकार कर दिया था कि ऐसा दर्जा देने वाली योजना समाप्त कर दी गई है।

बिहार और आंध्र प्रदेश, दोनों ही राज्य मूलतः कृषि आधारित हैं और उनके विभाजन के बाद निश्चित रूप से उनकी राजस्व प्राप्तियों में कमी आई है, लेकिन केंद्र की भी अपनी कुछ मजबूरियां हैं। संवैधानिक रूप से भारत में सहकारी संघवाद प्रचलित है, जिसके अनुसार यह संघ का दायित्व है कि वह राज्यों के आर्थिक-सामाजिक विकास के प्रति संवेदनशील हो और उनकी सहायता करे, लेकिन ध्यान देने वाली बात यह भी है कि क्या राजनीतिक दबाव बना कर ऐसे दर्जे की मांग करना उचित है? गठबंधन सरकारों की एक बड़ी समस्या यह रही है कि अक्सर उसके घटक दल दबाव समूह के रूप में कार्य करते हैं, जिसका उद्देश्य मूलतः राजनीतिक होता है। यह बहुदलीय राजनीति का एक आलोचनात्मक पक्ष है। क्षेत्रीय राजनीति के मजबूत होने से एक ओर जहां क्षेत्रीय हितों को राष्ट्रीय स्तर तक लाने में सहायता मिली है, वहीं दूसरी ओर इसकी नकारात्मकता यह रही है कि क्षेत्रीय दल अधिकांशतः राजनीतिक दबाव बना कर अपने निजी हित साधने का प्रयास करते हैं। इसे राजनीतिक ब्लैकमेलिंग में रूप में भी देखा जाता है। इस संदर्भ में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि राजनीति जब विकास की दृष्टि से की जाती है तो वह देश के हित में होती है, लेकिन जब राजनीति का उद्देश्य केवल राजनीतिक होता है तो वह हानिकारक सिद्ध होती है। राष्ट्र हित में राजनीतिक दलों द्वारा कार्य किए जाने पर उनके राजनीतिक हित भी साधे जा सकते हैं। अतः दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर ही ऐसे संवेदनशील मुद्दों को संबोधित किया जाना उचित होगा।


Date: 02-07-24

कानून की जगह

संपादकीय

नए तीनों कानून लागू हो गए। सरकार का कहना है कि इन कानूनों के जरिए न्याय सुनिश्चित होगा, पुराने कानूनों का बल दंड पर अधिक था। नए कानूनों से आधुनिक प्रणाली स्थापित होगी। इनमें अब घर बैठे प्राथमिकी दर्ज कराने, शून्य प्रथमिकी के तहत किसी भी थाने में शिकायत दर्ज कराने जैसी सहूलियतें दी गई हैं, जिससे लोगों का समय बचेगा और त्वरित कार्रवाई हो सकेगी। प्राथमिकी दर्ज होने के बाद अदालतों को भी तय समय के भीतर फैसला सुनाने की बाध्यता होगी। बलात्कार, बाल यौन शोषण जैसे मामलों में जांच और सुनवाई संबंधी सख्त नियम बनाए गए हैं। निस्संदेह, मामलों की जांच और सुनवाई में गति आएगी, तो लोगों को न्याय मिल सकेगा। मगर विपक्ष का कहना है कि इन कानूनों में कुछ ऐसी सख्त धाराएं बनाई गई हैं, जिनसे पुलिस को मनमानी का अधिकार मिलता और मानवाधिकारों के हनन का रास्ता खुलता है। खासकर आपराधिक कानूनों को लेकर व्यापक विरोध देखा जा रहा है। दरअसल, ये कानून विपक्ष की गैरमौजूदगी में और बिना किसी बहस के पारित हो गए थे, इसलिए इन पर विशद चर्चा नहीं हो पाई थी। इसलिए भी इनकी कई धाराओं को लेकर भ्रम और विवाद की गुंजाइश बनी हुई है।

सामाजिक बदलावों और जरूरतों के मुताबिक कानूनों में संशोधन और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को समाप्त करना जरूरी होता है। इस लिहाज से औपनिवेशिक काल से चले आ रहे कानूनों की समीक्षा और उनमें बदलाव जरूरी थे। हालांकि ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि सारे कानून ब्रिटिश राज के समय से जस के तस चले आ रहे थे। उनमें समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं, जिन कानूनों की प्रासंगिकता नहीं रह गई थी, उन्हें समाप्त भी किया गया। मगर फिर भी बहुत सारे कानून बदली स्थितियों से मेल नहीं खाते थे। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह अपराधों की प्रकृति बदली और देश की अखंडता और संप्रभुता को चुनौती देने वाली गतिविधियां बढ़ी हैं, आतंकवादी संगठनों की सक्रियता बढ़ी है, उसमें कुछ सख्त कानूनों की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। मगर आपराधिक कानून बनाते समय यह ध्यान रखना भी जरूरी होता है कि उनका दुरुपयोग न होने पाए, उनके चलते सामान्य नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन न हो। औपनिवेशिक समय के राजद्रोह कानून की जगह देशद्रोह कानून लाने की इसीलिए सबसे अधिक आलोचना हो रही है कि उससे लोगों में नागरिक अधिकारों के हनन का भय अधिक पैदा होता है।

हालांकि हर नए कानून के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा तो होती ही है, होनी भी चाहिए, मगर उन पर आम सहमति बने बिना लागू किए जाने से विवाद और नाहक भय का वातावरण बनता है। जब तक आम नागरिकों में इन कानूनों को लेकर भरोसा नहीं बनेगा, विरोध के स्वर उठते रहेंगे। जब ये कानून संसद में पारित हुए थे, तब उसके एक हिस्से को लेकर ट्रक चालकों ने देशव्यापी हड़ताल की थी। अब कई जगह खुद वकील इनके विरोध में उतरने वाले हैं। कुछ राज्यों ने इनके विरोध में आवाज उठानी शुरू कर दी है। संसद में विपक्ष तो हमलावर है ही। अगर सचमुच कुछ कानूनों की वजह से समाज में व्यवस्था के बजाय अव्यवस्था पैदा होती है, तो यह किसी भी तरह लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं होगी। सरकार को यह भरोसा दिलाना होगा कि ये कानून वास्तव में लोगों के लोकतांत्रिक और मानवीय अधिकारों की रक्षा करने वाले हैं।


Date: 02-07-24

न्याय की ओर

संपादकीय

तीन नए आपराधिक कानून- भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम का लागू होना सुखद व स्वागतयोग्य है। इसके साथ ही भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में व्यापक बदलाव का दौर शुरू हो गया है। औपनिवेशिक युग के निर्मम या आम नागरिक विरोधी कानूनों को समाप्त करने की मांग लंबे समय से हो रही थी और अंतत: अब पुलिस को अनुशासित के साथ-साथ कारगर बनाने की ओर देश ने अपने कदम बढ़ा दिए हैं। पुलिस को अब सबसे पहले यह ध्यान में रखना होगा कि कोई भी कानून अगर लागू हो, तो सभी पर समान रूप से लागू हो। पुलिस प्रशासन की सफलता इसी में है कि तमाम लोगों को यह महसूस हो कि कानून न्यायपूर्ण ढंग से लागू किया जा रहा है। एक पहलू यह भी है कि पुलिस प्रशासन को कुशल और सक्षम बनाने के लिए संसाधनों की कमी आडे़ नहीं आए। जिस स्तर की सेवा की उम्मीद लोग पुलिस से कर रहे हैं, उसके लिए सरकारों को पुलिस पर व्यय बढ़ाना होगा। सक्षम और सहयोगी पुलिस हमारे तेज विकास में कारगर होगी।

ध्यान रहे, पिछले कानूनों में यह बड़ी कमी थी कि उनका इस्तेमाल गरीबों के खिलाफ जितनी आसानी से होता था, उससे कहीं ज्यादा कठिनाई से अमीरों के खिलाफ मामले दर्ज होते थे। आरोप सिद्ध होने या सजा के मामले में भी गरीबों को ही ज्यादा भुगतना पड़ता था। हम बार-बार कह रहे हैं कि इन तीन कानूनों ने ब्रिटिश काल के तीन कानूनों की जगह ले ली है, तो जमीन पर वास्तव में लोगों को यह एहसास कराना होगा कि ब्रिटिश हिसाब से बने कानून अब देश में नहीं चल रहे हैं। नए कानूनों में यह ताकत है कि इनसे अपने यहां संपूर्ण न्याय प्रणाली में आम नागरिकों के अनुरूप आधुनिक बदलाव हो सकता है। जीरो एफआईआर, पुलिस शिकायतों का ऑनलाइन पंजीकरण, एसएमएस जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से सम्मन और सभी जघन्य अपराधों के लिए अपराध स्थलों की अनिवार्य वीडियोग्राफी जैसे प्रावधान ज्यादा कारगरता के साथ लागू हो जाएंगे। केंद्र सरकार ने अपना काम कर दिया है और अब राज्यों को अपने स्तर पर इन अच्छे कानूनों को लागू करने की पूरी तैयारी करनी पड़ेगी और देश के ज्यादातर राज्यों में पुलिस जिस तरह से प्रशिक्षित हो रही है, इससे जुड़ी खबरों का सामने आना भी सुखद है।

यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि इन कानूनों के माध्यम से देश में पुलिस सुधार को भी बल मिलेगा। पुलिस कानून-कायदे के तहत काम करने को विवश या बाध्य होगी। इसके साथ ही, समग्र न्याय प्रणाली में इस स्याह पहलू को बहुत गंभीरता से देखने की जरूरत है कि ये अच्छे कानून कहीं भ्रष्ट आचरण से दुष्प्रभावित न हो जाएं। कानून बन जाना ही पर्याप्त नहीं है, यह देखना भी जरूरी है कि कानून को लागू करने और कराने वाले कितने ईमानदार हैं। राज्य सरकारों को प्रशिक्षण के स्तर पर यह सुनिश्चित करना होगा कि पुलिस सैद्धांतिक रूप से ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक रूप से कुशल और शालीन हो। पुलिस बल मात्र सत्ताधीशों का नहीं, बल्कि समग्र समाज का बल है। पुलिस ही प्राथमिक रूप से संविधान और नियम-कायदों की बुनियाद मजबूत करती है। आज पुलिस को निरंतर प्रशिक्षित करने की जरूरत है और उनका प्रशिक्षण महज कागजी नहीं रहना चाहिए। प्रशिक्षण अगर सफलतापूर्वक संपन्न हुआ, तो यकीन मानिए, तीनों नए कानूनों में देश को न्याय की ओर ले जाने की क्षमता है।


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