01-12-2017 (Important News Clippings)

Afeias
01 Dec 2017
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Date:01-12-17

 व्यवस्था परिवर्तन का खाका तो स्पष्ट करें प्रधानमंत्री मोदी

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी ने परिवर्तन के लिए राजनीतिक कीमत अदा करने को तैयार होने की भावुक बात कहकर जहां नोटबंदी और जीएसटी के क्रियान्वयन पर अपने को सही ठहराने की कोशिश की है वहीं जनता के साथ विपक्ष को भी चेतावनी दी है। निश्चित तौर पर जनसमर्थन के मजबूत आधार पर खड़ी उनकी इस चुनौती की उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि वे जो कहते हैं उसे करते हैं। वे अपने जनादेश को भ्रष्टाचार के विरुद्ध मानते हैं और उस काम को अंजाम देने के लिए दृढ़संकल्पित हैं। वे अपने पिछले दो कदमों को उसी दिशा में किया गया प्रयास मानते हैं और आगे भी आधार को लिंक करने की योजना को बेनामी संपत्ति पर कार्रवाई के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। बहुत संभव है कि प्रधानमंत्री कालेधन को बाहर लाकर देश की अर्थव्यवस्था को एक नई ऊंचाई देने की मंशा रखते हों। इसके बावजूद देश की अर्थव्यवस्था पर जो परिणाम आए हैं उसमें मूडीज की रेटिंग और वैश्विक व्यापार सहूलियत संबंधी सूचकांक को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर निराशाजनक हैं। नोटबंदी पर सरकार के अपने आंकड़े ही यह नहीं बता पा रहे हैं कि कालाधन कहां गया। हाल में पैराडाइज पेपर्स ने जो रहस्य उजागर किए हैं उस पर शायद ही कोई पहल हो। जीडीपी के आंकड़े भी उत्साहवर्धक नहीं हैं। रोजगार के मोर्चे पर भाजपा सरकार वादे नहीं पूरे कर पाई है और बेरोजगारी के कारण अलग-अलग हिस्सों में पटेल, जाट और मराठा जैसी प्रभुत्वशाली जातियां आरक्षण मांग रही हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि कहीं देश को फिल्म, मिथक इतिहास के नाम पर भड़काया जा रहा है तो कहीं मंदिर के नाम पर। सही है कि नोटबंदी के बावजूद उत्तर प्रदेश में भाजपा को भारी बहुमत मिला है लेकिन, भ्रष्टाचार का मुद्‌दा संस्थागत परिवर्तन की मांग करता है। अफसोस है कि तो पहले से मौजूद संस्थाओं में बदलाव हो रहा है और ही लोकपाल का गठन हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट की छवि पर तो ग्रहण लगा ही और सीबीआई की कार्रवाई भी निष्पक्ष नहीं लगती। प्रधानमंत्री को यह समझना होगा कि लोकतंत्र में परिवर्तन तो मनमाने फैसले लेकर होना चाहिए और ही लोगों को धमका कर। अगर किसी तरह का स्थायी परिवर्तन करना है तो उसके लिए जवाबदेह और निर्भीक नागरिकों को विश्वास में लेना चाहिए और आमजन को आग में झोंकने की बजाय उनकी जीवन सुरक्षा की गारंटी दी जानी चाहिए।

Date:01-12-17

पेरिस समझौते के सार पर गंभीरता से करें विचार

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के सार को कम नहीं होने देने और इसकी भावना को लुप्त होने से बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए। विस्तार से बता रहे हैं अरुणाभ घोष और वैभव गुप्ता

(डॉ अरुणाभ घोष काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट ऐंड वाटर की मुख्य कार्याधिकारी और वैभव गुप्ता सीनियर प्रोग्रामर लीड हैं)

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते ने जलवायु नेतृत्व को विश्व स्तर पर बांटने का काम किया। अमेरिका के इस समझौते से हटने की घोषणा के मद्देनजर हाल में हुए 23वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (सीओपी23) का मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए था कि पेरिस समझौते के सार और भावना को कैसे कायम रखा जाए। लेकिन ऐसा लगता है कि सम्मेलन अपने इस उद्देश्य से भटक गया।पेरिस समझौते का सार यह है कि देशों को उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्यों के लिए बाध्य करने के बजाय हर देश को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपनी योजना सौंपने की इजाजत दी जाए। समझौते की भावना यह है कि हर देश अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ पारदर्शी तरीके से काम करे ताकि देशों के बीच आपस में विश्वास कायम हो और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक स्तर पर अधिक प्रभावी ढंग से सामूहिक कार्रवाई की जा सके। जर्मनी के शहर बॉन में फिजी की अध्यक्षता में संपन्न सीओपी23 वार्ता के दौरान तीन विवाद उभरे। पहला यह कि भारत और अन्य विकासशील देशों ने इस बात का जमकर विरोध किया कि एजेंडे में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कनवेंशन (यूएनएफसीसीसी) के तहत 2020 से पहले की प्रतिबद्घताओं का कोई जिक्र नहीं है। वर्ष 2012 में देशों ने इस बात पर सहमति जताई थी कि क्योटो प्रोटोकॉल का दूसरा चरण 2013 से 2020 तक क्रियान्वित किया जाएगा। अब तक केवल पहली सूची में शामिल 21 देशों (यूरोपीय संघ के केवल 14 सदस्य देशों सहित) ने ही इसे मंजूरी दी है। सम्मेलन में पूरा जोर पेरिस समझौते पर ही रहा जिसमें 2020 के बाद किए जाने वाले उपायों की बात है।धरती का तापमान बढऩे से भारत के बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका है। तापमान में महज 2 फीसदी बढ़ोतरी के ही विनाशकारी परिणाम होंगे। इनमें भयंकर लू, फसलों को नुकसान, बेमौसम बाढ़ और मूसलाधार बारिश जैसी अनपेक्षित मौसमी घटनाएं शामिल हैं। 2020 से पहले के उपायों का मामला उठाना नैतिक और कानूनी रूप से पूरी तरह उचित था क्योंकि उत्सर्जन में व्यापक अंतर (2020 के बाद) से विकासशील देशों पर भारी बोझ पड़ेगा और उन्हें उत्सर्जन में कटौती पर भारी खर्च करना पड़ेगा। विकसित देशों ने अपनी मौजूदा प्रतिबद्घताओं को पूरा नहीं किया है तो यह कैसे माना जा सकता है कि भविष्य के लक्ष्यों को हासिल कर लिया जाएगा? आखिरकार यह तय हुआ कि 2020 से पहले के उपायों की 2018 और 2019 में समीक्षा होगी। लेकिन इसमें किसी तरह की नानुकुर से देशों के बीच भरोसे का संकट पैदा होगा।
जलवायु परिवर्तन के निपटने के उपायों को तेज करने के लिए यह भरोसा जरूरी है (पेरिस समझौते की धारा 13 में ऐसी मंशा जाहिर की गई है)।दूसरी बात यह थी कि इस बात पर भी चिंता जताई जा रही थी कि बातचीत कितने पारदर्शी तरीके से हो रही है। सीओपी23 को एक तरह से पूर्वाभ्यास के तौर पर देखा जा रहा था जिससे 2018 के सम्मेलन की तैयारी का मार्ग प्रशस्त होना था। इस सम्मेलन में पेरिस की नियम पुस्तिका को अंतिम रूप दिए जाने की संभावना है। लेकिन कई मौकों पर विकासशील देशों को लगा कि उनके मतलब के मुद्दों को जानबूझकर या फिर अनजाने में नजरअंदाज किया जा रहा है। पेरिस समझौते को लागू करने के लिए जलवायु वित्त को अतिरिक्त विषय में शामिल करने का अहम मुद्दा अंतिम दस्तावेज के प्रारूप से पूरी तरह गायब था। यूएनएफसीसीसी सचिवालय ने इसे टंकण की गलती बताकर पल्ला झाडऩे की कोशिश की जबकि इसमें भारी भरकम बदलाव किए गए थे।तीसरी बात यह है कि सीओपी23 ने जिस तरह पारदर्शिता और उपायों को बढ़ाने का मुद्दा निपटाया उससे असंतुलन पैदा होने का जोखिम है। जन वित्त संसाधनों के बारे में पूर्व सूचना से जुड़ी धारा 9.5 से पारदर्शिता हासिल करने में थोड़ी बहुत प्रगति की है, खासकर जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों की रिपोर्टिंग के लिए औपचारिक प्रावधानों की तुलना में। विकासशील देश पेरिस समझौते पर अस्थायी कार्य समूह (एपीए) के जरिये जलवायु वित्त की रिपोर्टिंग पर औपचारिक प्रक्रियाएं चाहते हैं। इस समूह को पेरिस समझौते के कार्यक्रम से संबंधित सभी अतिरिक्त मामलों पर नजर रखने का अधिकार है। विकसित देश चाहते थे कि सम्मेलन इस मामले को निपटाए। इसका मतलब यह था कि इस मुद्दे पर दिसंबर 2018 में होने वाले सीआओपी24 से पहले चर्चा नहीं होती। समय की कमी को देखते हुए सम्मेलन के अध्यक्ष फिजी ने इस मामले पर अंतर सत्र बैठकों में चर्चा करने के लिए इसे सहायक क्रियान्वयन निकाय (एसबीआई) के हवाले कर दिया। इस तरह एक निकाय के बजाय यह मामला तीन निकायों एपीए, सीओपी (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) और एसबीआई के बीच खिंच गया है।
इस तरह जलवायु वित्त की रिपोर्टिंग को संचालित करने वाले तौर तरीकों में शायद ही किसी का विश्वास है।इनसे साफ है कि अगर प्रतिबद्वता, पारदर्शिता और संतुलन के मामले में समझौता हुआ तो अगले साल जलवायु परिवर्तन पर वार्ता नाकाम हो सकती है। भारत को ऐतिहासिक रूप से सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देशों से ज्यादा उपाय करने और जवाबदेही (उत्सर्जन में कटौती के साथ-साथ वित्त और तकनीक) की मांग करनी चाहिए। उसे 2020 के बाद विकसित देशों द्वारा ज्यादा विश्वसनीय कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए प्री-2020 फैसले का फायदा उठाना चाहिए। उसकी दूसरी प्राथमिकता यह सुनिश्चित करने की होनी चाहिए कि लगातार और विस्तृत रिपोर्टिंग की क्षमता निर्माण और समीक्षा के लिए विकासशील देशों के वास्ते बढ़ी पारदर्शिता जरूरतों में लचीलापन बरकरार रहे। साथ ही भारत को अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (आईएसए) को व्यावहारिक सॉल्यूशंस विकसित करने में मदद करके जलवायु के मुद्दे पर अपनी अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन करना चाहिए।सरकार और नागरिक समाज को स्वतंत्र रूप से लेकिन समन्वय के साथ काम करना चाहिए। उत्सर्जन में कटौती और वित्त में संतुलन कायम करने के मामले में आईएसए (जो 6 दिसंबर 2017 को अंतरराष्ट्रीय मान्यताप्राप्त संस्था बन जाएगी) स्वच्छ ऊर्जा निवेश में जोखिम को कम करने के लिए गैर लाभकारी संस्थानों के साथ मिलकर वित्तीय ढांचे का डिजाइन बनाने की दिशा में काम कर रहा है। पारदर्शिता पर भारत की नागरिक समाज संस्थाओं के पास सूक्ष्म स्तर पर सभी क्षेत्रों में उत्सर्जन को सूचीबद्घ करने की क्षमता है। इस संस्थागत क्षमता से अन्य विकासशील देशों को इस तरह के तरीके अपनाने में मदद मिल सकती है। प्रतिबद्घता के मामले में भारतीय (और अन्य विकासशील देशों) संस्थाओं को उत्सर्जन अंतर, अनुकूलन समर्थन, वित्त की आपूर्ति और विकसित देशों तथा दुनिया के शीर्ष उत्सर्जकों द्वारा प्रतिबद्घ या प्रवर्तित तकनीकी मंचों के बारे में स्वतंत्र आकलन कराना चाहिए।पेरिस समझौते का संबंध पूरी दुनिया से है, किसी एक देश से नहीं। हमें प्रतिबद्घताओं को लागू कराने, पारदर्शिता बढ़ाने और संतुलन सुनिश्चित करने की चुनौती का सामना करना चाहिए। अन्यथा, इस समझौते का सार कम हो जाएगा और इसकी भावना लुप्त हो जाएगी।

Date:01-12-17

रुख में बदलाव

संपादकीय 

केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने जुलाई-सितंबर तिमाही में आर्थिक वृद्धि के जो आरंभिक अनुमान पेश किए हैं उनमें सकारात्मक बदलाव नजर आ रहा है। वर्ष 2011-12 के आधार मूल्य पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वर्ष 2017-18 की दूसरी तिमाही में 6.3 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई है। पिछली तिमाही में यानी अप्रैल से जून के दौरान जीडीपी वृद्धि दर 5.7 फीसदी थी। सीएसओ के अनुमान के मुताबिक जनवरी-मार्च 2016 से ही उत्पादन वृद्धि में गिरावट आ रही थी। कई तिमाहियों की लगातार गिरावट के बाद सुधार यह बताता है कि अर्थव्यवस्था ने नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जैसे अल्पकालिक झटकों को पीछे छोड़ दिया है। कृषि क्षेत्र और सार्वजनिक व्यय में पिछली तिमाही के मुकाबले मजबूत बढ़ोतरी हुई है। यानी अस्थायी प्रभाव समाप्त हो चुके हैं और ढांचागत पहल और अवरोध ही अब देश के आर्थिक भविष्य की दृष्टि से अहम हैं। आशा की जानी चाहिए कि सरकार जीएसटी में समय-समय पर जो समायोजन कर रही है वह भविष्य में देश की वृद्धि दर सुधारने में और मदद करेगा।

आंकड़ों का बारीक विश्लेषण करें तो पता चलता है कि इस तिमाही में जीडीपी को जो गति मिली है उसके लिए काफी हद तक विनिर्माण उत्तरदायी रहा। इस क्षेत्र में सालाना आधार पर 7 फीसदी की दर से सकल मूल्यवर्धन हुआ। एक साल पहले की समान तिमाही में यह दर 7.7 फीसदी रही थी। जबकि पिछली तिमाही में यह सालाना आधार पर महज 1.2 फीसदी की दर से बढ़ा था। इस सुधार से यह संकेत भी मिलता है कि जीएसटी लागू होने के बाद कारोबारियों ने नया स्टॉक तैयार किया है। अंतिम जीडीपी व्यय की बात करें तो स्टॉक भंडारण का योगदान दूसरी तिमाही में 6.7 फीसदी की सालाना वृद्धि के रूप में सामने आया। पिछली तिमाही में यह वृद्धि महज 1.2 फीसदी रही थी।बहरहाल कुछ सवालों को तवज्जो दी जानी चाहिए क्योंकि उनके चलते ही जीडीपी के नए आंकड़ों को थोड़ी सतर्कता से समझने की आवश्यकता है। जीएसटी का लागू होना एक बड़ा ढांचागत कदम था। आंकड़ों के संग्रहण और विश्लेषण की दृष्टि से भी यह अहम कदम था। उदाहरण के लिए मौजूदा जीडीपी शृंखला में कारोबारी क्षेत्र में वृद्धि का आकलन बिक्री कर प्राप्तियों में बढ़ोतरी के आधार पर होता रहा है। अप्रैल से जून और जुलाई से सितंबर तिमाही में सीएसओ के लिए ऐसा करना संभव नहीं था। इसलिए सरकार के सांख्यिकीविदों ने इसके आकलन का दूसरा तरीका आजमाया। उन्होंने पेट्रोलियम संबंधी उत्पादों (जो जीएसटी से बाहर हैं) की बिक्री से हासिल होने वाले कर राजस्व में वृद्धि  और जिंस उत्पादन के असमायोजित मूल्य से इसका अनुमान लगाया। इन क्षेत्रों में वैश्विक रुझान तेजी का रहा है, ऐसे में व्यापारिक क्षेत्र के आंकड़े वास्तविकता को पूर्णरूपेण प्रदर्शित नहीं करते। चूंकि यह क्षेत्र वृद्धि में सबसे बड़ा योगदान करने वाला रहा है और इसकी जीवीए वृद्धि सालाना आधार पर 10 फीसदी रही है तो सकल वृद्धि अनुमान को भी सतर्कता से देखना होगा।सबसे बड़ी चिंता यह है कि उच्च वृद्धि के लिए ढांचागत स्तर पर विपरीत परिस्थितियां कायम हैं और यह आंकड़ों में दिख रहा है। जीडीपी में निर्यात की भागीदारी निहायत कमजोर है। यह पिछली तिमाही के 1.2 फीसदी के स्तर पर है। निवेश का संकट भी बरकरार है। यह सच है कि जीडीपी की तुलना में जमा निवेश का योगदान पिछली तिमाही के 1.6 फीसदी की तुलना में 4.1 फीसदी की तेज गति से बढ़ा लेकिन जीडीपी की सकल स्थायी पूंजी निर्माण के अंश के रूप में यह पिछली तिमाही के 27.5 फीसदी से कम होकर 26.4 फीसदी रह गया। थोड़ा सुधार नजर आया है लेकिन अभी काफी काम बाकी है।

Date:30-11-17

The road to an open Internet

The telecom regulator’s support for Net neutrality fulfils constitutional promises

Apar Gupta , Delhi-based lawyer, was one of the members of Save the Internet

Telecom policy rarely captures the popular imagination. While many may have immediate concerns on the nuisance of unsolicited telemarketing, worries of over-billing or even allegations of corruption in the reward of licences, they rarely take an active interest and become stakeholders in the development of a regulation.Debates around network neutrality have breached this barrier. The willing embrace of Net neutrality by many, including the Telecom Regulatory Authority of India (TRAI), is not only a function of mass rhetoric and intelligent campaigning but of the concept of Net neutrality itself taking forward values of Indian constitutionalism.

Freeing it up

Put simply, Net neutrality creates rules of the road for a free and open Internet.It requires that barriers should not be created by telecom and Internet service providers for user choice by limiting their power to discriminate between content providers and different classes of content. Through binding rules and regulations, the power of access providers to selectively price or create technical imbalances is corrected. Such an argument immediately appeals to our sense of fairness, for it based on maintaining a level of equality in the use of a common resource. This finds express acknowledgement in the precedent of the Supreme Court where it has stated that the power to license spectrum and telegraphs is held by the government as a trustee of public interest.

In one of the more recent judgments which arose from a presidential reference on the allocation of natural resources, the Supreme Court observed that, “as natural resources are public goods, the doctrine of equality, which emerges from concepts of justice and fairness, must guide the state in determining the actual mechanism for distribution of material resources.”Taking this forward, TRAI in its recommendations on Net neutrality has suggested amendments to the various classes of telecom and Internet licences to have an express recognition of a non-discriminatory principle for Internet content. Such recommendations set a broad rule with tailored exceptions that are conditioned on touchstones of reasonableness.

Beyond equality and reasonableness, which may seem evocative though fuzzy principles, a more tangible appreciation of Net neutrality is immediately felt on our liberty. The Internet today affords millions of Indians with an immediate audience without the traditional costs of distribution. Tinkering with its character, or carving it up in slices as would happen in the absence of Net neutrality, would fragment its community and the diversity of choice offered by it. This would impact both the right to speak and the ability to receive knowledge, hence impacting our right to freedom of speech and expression.

Again, such realisation is found in the Differential Pricing Regulation issued on February 8, 2016, which prevented telecom companies from pricing access to Internet websites and content differently. In the explanatory memorandum to this regulation, TRAI states, “As observed by the Supreme Court, in the Secretary, Ministry of Information and Broadcasting v. Cricket Association of Bengal, (1995) 2 SCC 161, para 201(3)(b) allowing citizens the benefit of plurality of views and a range of opinions on all public issues is an essential component of the right to free speech. This includes the right to express oneself as well as the right to receive information as observed by the Supreme Court in the Indian Express Newspapers (Bombay) Pvt. Ltd. v. Union of India, (1985) 1 SCC 641 case.”

Constitutional guarantees

The concepts of equality, reasonableness and liberty which underpin the social contract which gives rise to the Indian Constitution are not mere black letters of the law. They are more than mere limitations on state power in favour of individuals. By themselves, they are at their very best when they are put into motion by positive actions by regulators and governments. To achieve these objectives, there is a necessity to popularise the constitutional doctrine in ways and methods which seem immediate and cater to the daily problems of the modern world. The debates around Net neutrality in India have shown how a stand-up comedy video can spark a spontaneous campaign, spur more than a million people to send e-mails to a telecom regulation consultation when the stakes are clearly explained and there is a broad coalition of civil society voices.

The Net neutrality campaign has not been without criticism and growing public disappointment. While such sentiments may arise from legitimate concerns, they are disproportionate to the greater benefit of raising public debate. To restrict any public policy measure, especially something as important as Net neutrality, to a restricted group of experts without a chance of public engagement betrays elitism. Further, the repeated rounds of public consultation which have brought on some amount of fatigue are due to the inherent complexity of the regulatory exercise. This also provides us a lesson that the enjoyment of Net neutrality will require constant, hard work — no victories are permanent. But for a moment we can pause to celebrate how TRAI’s recommendations on Net neutrality provide hope that modern technologies can refresh constitutional doctrine and also deepen participatory democracy.


Date:30-11-17

Globalisation in retreat

It is being challenged by a nationalist politics. But a nationalist economics is unlikely to take its place

 Written by Ashutosh Varshney,The writer is director, Centre for Contemporary South Asia, Sol Goldman Professor of International Studies and the Social Sciences, Watson Institute for International and Public Affairs, Brown University

In the US, Wisconsin’s Winnebago county has lately made news. In 1872, Kimberly-Clark, a legendary company of paper products that earned $18.6 billion in worldwide sales in 2015, was born there. While Kimberly-Clark continues to be profitable, in part because it manufactures in 39 countries, smaller paper mills have shut down, one by one. Cheaper imports, especially from China, have wiped out the factory sector. Winnebago flipped from voting Democratic to voting Republican last year. Its residents were drawn to Donald Trump’s tough message on trade.Trump’s opposition to globalisation, of course, remains stark. He is still to appoint his emissaries to the World Trade Organisation (WTO). Opposed to multilateralism in trade, he also wants American corporations to invest less abroad.

But globalisation’s retreat is not confined to the US alone. Germany, Britain, France and Italy are the four biggest European economies. Via Brexit, Britain has already given in to an inward-looking pullback; right wing populist political forces are showing signs of revival in Italy; the nativist party led by Marine Le Pen finished second in France; and now, a right-wing populist party has emerged from nowhere in Germany to become the third largest party in parliament, causing a substantial erosion of popular support for the centre right and centre left, and making it hard for a government to emerge. Under Merkel, Germany was unambiguously committed to the European project and, by extension, to a less nationalistic, more pro-global stance. We don’t know how the political crisis will be resolved in Germany, and whether the resolution will be stable.

It is natural to ask: Where is globalisation, the ruling economic orthodoxy of the last four decades, headed?

In its purest economic form, globalisation represents free movement of capital, goods and labour across national boundaries. The reality, of course, departed from this ideal type. Compared to capital and goods, labour was always allowed lower freedom to move. Moreover, since different countries opted for varying degrees of integration with the global economy, even the movement of capital and goods, while less constrained than before, was not entirely free. India and China globalised incrementally, Argentina with a big bang in the mid-1990s.

Eventually, the actually existing globalisation came to mean two things: One, greater economic freedom beyond national borders than perhaps ever before; and two, within that larger trend, freer movement of capital and goods than of labour. Economic historians also make it clear that the hundred years until the First World War constituted the first era of globalisation. We have been watching Globalisation 2.0 over the last four decades.

India and China were among the worst sufferers during the first globalisation. But they have been two of the biggest beneficiaries of the second globalisation. In 1980, China and India were not even among the 45 largest economies of the world. In 2016, at $11.2 trillion, China’s GDP was second only to the US ($18.6 trillion) and at $2.3 trillion, India’s GDP was the seventh largest in the world, ahead of Italy ($1.9 trillion) and Canada ($1.5 trillion), and only slightly behind Britain ($2.6 trillion) and France ($2.5 trillion), though its per capita income continues to be a fraction of all four.China and India have not objected to Globalisation 2.0; the West has. Further, it is not economic arguments against globalisation that have forced the retreat. It is the new political forces that have done so. If market-based economics mastered politics for the last four decades, politics is now displaying its mastery over economic policy, though in a manner disconcerting to most liberals.

Two economic arguments against full-blown globalisation, made in the 1990s, are worth noting. In 1998, Jagdish Bhagwati, famous for his arguments in favour of trade globalisation, wrote vehemently against free movement of capital, arguing that capital markets were prone to extreme instability — “panics and manias” — unlike trade in goods, which was more stable and durably welfare-enhancing. In 1996, Malaysia, Indonesia, Thailand, the Philippines and South Korea received $93 billion in capital inflow, but had an outflow of $12 billion in 1997, causing a massive East Asian economic crisis. Trade in goods can never wildly fluctuate in this manner.

A year before, Dani Rodrik, though not against globalisation per se, had argued against unrestricted free trade, claiming that many losers from trade liberalisation would lose permanently, not simply in the short run, as arch trade globalisers were suggesting. All boats would not be lifted. The freer the trade, the bigger the government would have to be — to help those hurt by trade liberalisation.

These economic arguments and others, however, did not alter the globalising thrust of the time. Instead, it is two recent and strictly political contentions that have reshaped the emerging trends. The first is the claim that there is a grave imbalance between the global nature of markets and the national scope of state sovereignty. If wages in the US are high, businesses can simply move overseas, hurting US work force. Greater popular control over capital, according to this argument, was necessary.The second argument is even more forceful in politics. Even though movement of labour across national boundaries has been less free than the movement of capital and goods, international migration has nonetheless been more substantial than before. The anti-immigrant wave of politics, often taking ugly racist forms, is born out of the anxiety produced by the changing demographic composition of polities. In the US, the Hispanics and Muslims became the object of a majoritarian ire; in France, North African Muslims; in Britain, new migrants from Europe and elsewhere; in Germany, refugees from the Middle East, etc.

Where might all this end up? The short run is clearer than the long run. Labour migration will almost certainly be badly hurt: Ethnicity continues to be an obsessive concern of modern nation-states. Capital is likely to be hit least. Its power is ubiquitous. Moreover, the complex supply chains and other international networks in which businesses have got deeply embedded cannot be easily broken. Trade restrictions are the most unpredictable. The tricky part for populist rulers will be how to impose higher tariffs to protect domestic businesses without triggering a trade war.

In sum, globalisation is in retreat, but nationalist politics is unlikely to fully morph into nationalist economics, at least in the short run.


Date:30-11-17

दुनिया से जुड़ने का हमारा अधिकार

हरजिंदर, हेड-थॉट, हिन्दुस्तान

मान लीजिए, आपकी तबीयत खराब है और आप डॉक्टर के पास जाने के लिए टैक्सी बुलाते हैं। टैक्सी वाला बताता है कि अगर आप फलां डॉक्टर के पास जाते हैं, तो आपको टैक्सी का इतना किराया देना पड़ेगा और अगर दूसरे के पास जाते हैं, तो किराया कुछ ज्यादा लगेगा। उसकी लिस्ट में एक ऐसे डॉक्टर का नाम भी  है, जिसके पास अगर आप जाएं, तो वह आपको मुफ्त ही ले जाएगा। इस ‘मुफ्त’ का अर्थ कोई भी समझ सकता है। जाहिर है कि अगर आप उस डॉक्टर के पास गए, तो टैक्सी वाले को किराया आप नहीं वह डॉक्टर देगा, जो इसकी भरपाई आपकी फीस से कर लेगा। बीमारी के वक्त सेहत के फैसले को टैक्सी वाले और डॉक्टर के बीच हुआ व्यापारिक समझौता तय करेगा, यह किसी को भी स्वीकार नहीं हो सकता। ऐसे में, आप टैक्सी वाले से यही कहेंगे कि तुम अपने किराए से मतलब रखो, मुझे किस डॉक्टर के पास जाना है, उससे तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिए। आपको यह भी लग सकता है कि अगर यूं ही चलता रहा, तो शहर भर के डॉक्टर अपना चिकित्सा कौशल निखारने की बजाय टैक्सी वालों से व्यापारिक समझौते प्रगाढ़ करने में ही ध्यान लगाने लगेंगे। डॉक्टरों और टैक्सी वालों के मामले में यह उदाहरण महज काल्पनिक है, लेकिन नेट निरपेक्षता की पूरी बहस को समझने के लिए यह शायद जरूरी भी है।

वैसे दुनिया भर में नेट निरपेक्षता की बहस लंबे समय से चल रही है, भारत के लिए यह उतनी पुरानी नहीं है। ढाई साल पहले यह बहस उस समय शुरू हुई थी, जब फेसबुक के संस्थापक मार्क जकरबर्ग एक प्रस्ताव लेकर भारत आए थे। उनका तर्क था कि वह देश की उस बड़ी आबादी को मुफ्त इंटरनेट सेवा से जोड़ेंगे, जो अभी तक इससे दूर है। जाहिर है, इसमें भी मुफ्त का अर्थ था कि सेवा की लागत फेसबुक या उसके कुछ सहयोगी चुकाते और इस सेवा के उपयोगकर्ता फेसबुक समेत चंद गिनी-चुनी वेबसाइट से जुड़ जाते। दावा यह था कि इससे इंटरनेट की उत्पादकता ज्यादा हाथों तक पहुंच सकेगी। लेकिन साथ ही दूसरी चीज भी स्पष्ट थी कि इससे फेसबुक के प्लेटफॉर्म से अचानक ही करोड़ों उपयोगकर्ता जुड़ जाएंगे, जो उसके विज्ञापन या कारोबारी आधार को बहुत बड़ा विस्तार दे देंगे। फेसबुक ने अपने प्रस्ताव में ‘जन-कल्याण’ वाला एक ऐसा तर्क जोड़ दिया था, जो इंंटरनेट सेवा देने वाली कई कंपनियों को भी आकर्षित कर रहा था और इसीलिए इस पर जमकर बहस भी हुई। दाल गलती न देखकर फेसबुक तो अपने प्रस्ताव के साथ चुपचाप खिसक गया, लेकिन बाद में पता चला कि इंटरनेट के इस्तेमाल को प्रभावित करने की कोशिशें पिछले दरवाजे से भारत में घुस आई हैं। पश्चिम बंगाल में इंटरनेट सेवा देने वाली एक ऐसी कंपनी का मामला सामने आया, जो एक खास वेबसाइट को बाकी के मुकाबले चार गुने से भी ज्यादा गति से चला रही थी। ऐसी शिकायतें भी आईं कि इंटरनेट सेवा देने वाली कुछ कंपनियां कुछ खास वेबसाइट के वीडियो चलाए जाने पर गति धीमी कर देती हैं। जाहिर है, नेट निरपेक्षता की समस्या सिर्फ अधिकार की सैद्धांतिक बहस या लड़ाई भर नहीं रह गई थी, बल्कि यह व्यावहारिक दिक्कतें भी खड़ी करने लगी थी।

दूरसंचार नियामक ट्राई ने मंगलवार को नेट निरपेक्षता पर अपनी जो सिफारिशें दी हैं, वे लोगों को इन्हीं परेशानियों से बचाने का रास्ता खोलती हैं। ट्राई ने अपनी सिफारिशों में उन आशंकाओं या व्यापारिक समझौतों का रास्ता हमेशा के लिए बंद कर दिया है, जिनके चलते इंटरनेट सेवा देने वाली कंपनियां कुछ वेबसाइटों की गति धीमी या तेज कर देती हैं या फिर किसी वेबसाइट को उपयोगकर्ताओं तक पहुंचने से पूरी तरह रोक देती हैं। अब इंटरनेट सेवा देने वाली कंपनियों को बिना भेदभाव सेवा देने से मतलब है, इस बात से नहीं कि कोई उनका क्या करता है। अगर सरकार इन सिफारिशों को मान लेती है, तो नेट निरपेक्षता इंटरनेट का उपयोग करने वालों या यूं कहा जाए कि देश के लोगों का अधिकार बन जाएगी- जैसे अभिव्यक्ति की आजादी है, वैसे ही नेट की आजादी। यह भी कहा जा रहा है कि ट्राई की ये सिफारिशें दुनिया में कहीं भी नेट निरपेक्षता को लेकर बने प्रावधानों से ज्यादा मजबूत आधार बनाती हैं।

दिलचस्प बात यह है कि ये सिफारिशें उस समय आई हैं, जब अमेरिका जैसे देश उल्टी दिशा में जा रहे हैं। बराक ओबामा के शासनकाल में अमेरिका ने नेट निरपेक्षता के जिस मूल्य को अपनाया था, अब डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में उसे पलटा जा रहा है। वहां इसका बडे़ पैमाने पर विरोध भी हो रहा है, लेकिन फिलहाल तो लोगों की आजादी के मुकाबले व्यापारिक समझौतों और पैकेज डील की आजादी जीतती दिख रही है। हालांकि अमेरिका के मामले में यह नहीं कहा जा सकता कि वहां टैक्सी वालों को यह तय करने का अधिकार मिल गया है कि लोग किस डॉक्टर के पास जाएं, क्योंकि यह अधिकार तो वहां पहले से ही स्वास्थ्य बीमा करने वाली कंपनियों के पास है।

भारत की बहुत बड़ी युवा आबादी पहली बार मोबाइल फोन के जरिये इंटरनेट के माध्यम को अपनाने की ओर बढ़ रही है। ये वे नौजवान हैं, जो इंटरनेट की पूरी विकास प्रक्रिया के साथ पले-बढे़ नहीं हैं, बल्कि सीधे उसके विकसित रूप से जुड़ने जा रहे हैं। वे अपनी गरीबी, अपने क्षेत्र के पिछड़ेपन, बिजली जैसे जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभावों से संघर्ष करते हुए यहां तक पहुंचे हैं। उन्हें यह एहसास होने लगा है कि उनके लिए भविष्य के खिड़की-दरवाजे इसी इंटरनेट से खुलेंगे। इसी से वे अपनी जमीन पर खड़े होकर बाकी दुनिया से जुड़ेंगे। व्यापारिक या किन्हीं अन्य कारणों से इस माध्यम पर उनकी पहुंच को सीमित करना, उनकी संभावनाओं को रोकना होगा। वह भी उस समय, जब पूरी व्यवस्था ही इंटरनेट पर आने को तैयार है। हमारे गांव-शहर, घर-दफ्तर, कल-कारखाने, खेत-खलिहान, धर्मस्थल, स्कूल और बैंक, सब इंटरनेट पर आने को बेताब हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ये सब चीजें जिन सड़कों पर हैं, उन्हें रोक दिया जाए या वहां आने-जाने पर पाबंदी लगा दी जाए? नेट निरपेक्षता इसीलिए जरूरी है।


Date:30-11-17

व्यक्तिगत आजादी और पितृसत्ता

फैजान मुस्तफा
आजादी के सत्तर साल बाद एक देश के रूप में भारत हर लिहाज से बेहतर कर रहा है। भारत के विश्व की प्रमुख ताकत के रूप में उभरने पर हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा है। लेकिन जब उदारवादी लोकतंत्र की सफलता का आकलन व्यक्तिगत आजादी और व्यक्तिगत अधिकारों की कसौटी पर किया जाता है, तो पता चलता है कि हम तो विपरीत दिशा में ही चल पड़े हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक को राष्ट्रद्रोह का नाम दिया जा रहा है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि शब्दों में व्यक्त मत को राष्ट्रद्रोह की संज्ञा नहीं दी जा सकती। किताबें प्रतिबंधित की जा रही हैं, फिल्में सेंसर की जा रही हैं, और ऐसा इसलिए कि व्यक्ति की स्वतंत्रता में हमारा विास नहीं रह गया है। आधार कार्ड के नाम पर निजता के अधिकार का हनन हो रहा है, और अब तो अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करना भी खतरे से खाली नहीं रहा। इसे ऐसी आतंकी गतिविधि करार दिया जा सकता है, जिसके लिए एनआईए द्वारा जांच की जरूरत आन पड़े। व्यक्तिगत स्वतंत्रता नागरिक स्वतंत्रताओं का मूल तत्व है। निजता संबंधी अपने फैसले में शीर्ष अदालत की नौ-सदस्यीय पीठ ने खान-पान, परिधान, धर्म आदि से जुड़ीं व्यक्तिगत स्वायत्तता का समर्थन किया है। किसी अन्य धर्म को अंगीकार करने या अपनी पसंद के किसी व्यक्ति के साथ विवाह करना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है, और किसी सरकार या अन्य किसी को भी कोईमतलब नहीं होना चाहिए। इसलिए अनुमय व्यक्तिगत कानून के तहत दो वयस्कों द्वारा किए गए विवाह की वैधता पर अदालतें विचार नहीं कर सकतीं।लव जिहाद पर यह पूरी र्चचा ही राजनीति से प्रेरित है, और निहित उद्देश्यों से की जा रही है। लव जिहाद हौवे से ज्यादा कुछनहीं है।
यह हमारी न्यायिक पण्राली का दुखद पहलू है कि पहले तो केरल उच्च न्यायालय ने हादिया के विवाह को गैर-कानूनी घोषित कर दिया और अब सुप्रीम कोर्ट ने हादिया के इन बेलाग बयानों के बावजूद कि उन्होंने इस्लाम धर्म अंगीकार कर लिया है, कि वह अपने पति के साथ रहना चाहती हैं; उन्हें अपने पति के साथजाने की अनुमति नहीं दी। हादिया 26 वर्ष की हैं, और उन्हें अब हॉस्टल में रहना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में राहत की बात इतनी भर है कि अब हादिया को उनके पिता से मुक्त करा लिया गया है। कितने दुख की बात है कि कॉलेज के प्रधानाचार्य हादिया को उसके पति से मिलने नहीं दे रहे। किस कानून के तहत हादिया किसी अजनबी से नहीं मिल सकती। हादिया ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि वह अपने पिता के सबसे निकट है पर पिता अपनी ही पुत्री को आतंकवादी बता रहे हैं। सच तो यह है कि भारतीय कानून विभिन्न धर्मो के व्यक्तियों को आपस में वैवाहिक संबंध बनाने की अनुमति देता है। अंतर-धार्मिक विवाह विशेष विवाह अधिनियम के तहत किये जाते हैं। अजीब है कि केरल उच्च न्यायालय ने लड़की और लड़के के बयान सुनने के पश्चात पहले तो संतोष जताया कि लड़की को बेजा प्रभाव में नहीं लिया गया, लेकिन दोनों के बीच विवाह की बात पता चलते ही विपरीत रुख अपना लिया। यहां विवाह लड़की की सहमति के बाद किया गया। इसलिए लव जिहाद का मामला नहीं है। केरल उच्च न्यायालय का फैसला पितृसत्तात्मकता को दर्शाता है, क्योंकि यह मानता है कि महिलाओं को फुसलाया जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपनी महिलाओं को अपने निजी फैसले लेने के काबिल नहीं समझते। यह साफ-साफ समानता के अधिकार की अवहेलना है। फिर, किसी विवाह, दो वयस्कों के बीच हुआ हो तो, की वैधता पर कोई उच्च न्यायालय फैसला नहीं कर सकता। इसके अलावा, किसी याचिका की अमलदारी पर तो ऐसा फैसला नहीं दिया जा सकता। किसी लड़की ने दूसरे धर्म के व्यक्ति से विवाह कर लिया हो तो उसके पिता के किसी अधिकार का हनन हुआ नहीं माना जा सकता। दुर्भाग्य से शीर्ष अदालत ने 27 नवम्बर, 2017 के अपने आदेश में एक बार फिर से पितृसत्तात्मकता को ही पुष्ट कर दिया। दशकों पूर्व अपहरण के एक मामले में जहां एक अवयस्क लड़की किसी लड़के के साथ लापता हो गई थी, अदालत ने इस आधार पर लड़के को दंडित करने से इनकार कर दिया था कि लड़की मर्जी से लड़के के साथगई थी, और अपने तई फैसले लेने की उसमें समझ थी।
मौजूदा मामले में केरल उच्च न्यायालय, जिसने अनेक बार लड़की की बात सुनी और अनेक बार कहा कि वह किसी व्यक्ति की दुर्भावना की शिकार नहीं थी, या किसी तरह की अवैध गिरफ्त में नहीं थी, लड़की द्वारा एकाएक मुस्लिम से विवाह कर लेने पर संशय में पड़ गया और इस मामले को ‘‘लव जिहाद’ मानने लगा क्योंकि निकाहनामा और पंचायत विवाह पंजीकरण संबंधी आवेदन में लड़की के नाम में कुछत्रुटि थी, और लड़के के खिलाफ कुछ आपराधिक मामले लंबित थे और उसकी मां खाड़ी देश में कार्य करती है और वह ‘‘लड़की को देशसे बाहर भेज देगा।’ इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि लड़की ने पासपोर्ट के लिए आवेदन तक नहीं किया है। आदेश में कहा गया है कि उसे पहले अपनी इंटर्नशिप पूरी करनी होगी और माता-पिता की सहमति के बिना उसके विवाह पर नाखुशी जतलाई। हमारे देश में लड़का-लड़की अपनी मर्जी से शादी करें या अपने गांव में विवाह करें तो उन्हें ऑनर किलिंग के तहत मार दिया जाता है। खाप पंचायत उनके विरुद्ध फैसले देती हैं। इस प्रकार के मंतव्य केवल पितृसत्तात्मकता के परिचायक हैं। ऐसे तो उन लोगों का व्यक्तिगत जीवन ही खतरे में पड़ जाएगा जो अपने माता-पिता या गांव के बड़े-बुजगरे की सहमति के बिना अन्य धर्म या अन्य जातियों में विवाह करने चाहते हैं। हैरत की बात है कि उच्च न्यायालय ने लड़की के कथन की सत्यता की पुष्टि किए बिना उसके पिता की कही हर बात को माना और लड़की को उसके संरक्षर में सौंप दिया। लड़की को ‘‘नासमझ’समझा जाना दुखद है। धर्मातरण निहायत निजी मामला है। ऐसा कि जिससे सरकारी अधिकारियों से कुछलेना देना नहीं होना चाहिए। इस बाबत र्चचाओं को आतंकवाद से जोड़ा जाना उचित नहीं जान पड़ता। तब तक तो कतईनहीं जब तक कि ऐसा कोईअध्ययन न किया जाए जिससे साबित हो जाए कि ऐसा होता ही है। अलग-अलग मामलों के आधार पर इस मुद्दे का बढ़ा-चढ़ा कर सामान्यीकरण करने से हमें बचना चाहिए। अजीब अंदाज में केरल उच्च न्यायालय ने इस मामले को लव जिहाद के रूप में देखा क्योंकि ऐसा ही एक मामला उसके समक्ष लंबित है। केरल के इस फैसले को बिना विलंब किए शीर्ष अदालत को निरस्त कर देना चाहिएथा।

Date:30-11-17

सम्यक उद्यमिता

संपादकीय

हैदराबाद में चल रहे नियंतण्र उद्यमिता सम्मेलन 2017 का मुख्य आकर्षण अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेटी और व्हाइट हाउस में सलाहकार इवांका ट्रप हैं। वह खुद एक सफल कारोबारी हैं और ट्रंप सरकार की नीतियों में परिवर्तनकारी हैसियत भी रखती हैं। लिहाजा यह उम्मीद करनी चाहिए कि उनकी प्रेरणादायक उपस्थिति से सम्मेलन की थीम ‘‘महिलाओं को प्राथमिकता और सबकी समृद्धि’ को नई ऊंचाई मिलेगी। इस सम्मेलन की थीम से भी स्पष्ट है कि कारोबार के क्षेत्र में महिलाओं को भागीदार बनाना इसका खास मकसद है। अच्छी बात यह है कि भारत और अमेरिका इस मकसद में साझीदार हैं। इसमें दो राय नहीं कि सम्मेलन में अमेरिकी उद्यमियों के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहीं इवांका के करिश्माई व्यक्तित्व से भारत में निवेश की राह आसान होगी, साथ ही महिलाओं को स्वतंत्र रूप से अपना कारोबार शुरू करने की प्रेरणा भी मिलेगी। ऐसा नहीं है कि भारतीय महिलाओं ने अब तक जोखिम लेकर कोई कारोबार नहीं किया है।

गुजरात का लिज्जत पापड़ उद्योग इसका बेहतर उदाहरण है, जिसकी कमान महिलाओं के हाथ में है। बैंकिंग क्षेत्र से लेकर फिल्म उद्योग और खेल जगत में भी महिलाएं अपने परचम लहरा रही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस ओर इशारा भी किया है। इतना सब होने के बावजूद उद्यम के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। इसकी एक बड़ी वजह लैंगिक भेदभाव है। किसी भी देश की जीडीपी में वृद्धि की वास्तविक कहानी तब शुरू होती है, जब सभी कारोबारों में महिलाओं और पुरु षों को बराबर का प्रतिनिधित्व मिले। इसके लिए आवश्यक है कि महिला उद्यमियों की राह में आने वाले अवरोधों को समाप्त किया जाए। सरकार ने इस क्षेत्र में कुछ किया है और भी बहुत कुछ करना अभी बाकी है-क्रियान्वयन को लेकर। इवांका ट्रंप ने भी इस बात को बहुत समझदारी से रखते हुए कहा कि भारत में नौकरियों के मामले में लैंगिक भेदभाव के अंतर को आधा भी कम का दिया जाए तो अगले तीन साल में भारतीय अर्थव्यवस्था को 150 अरब डॉलर का फायदा हो सकता है। अगर भारत को विश्व शक्ति बनना है तो महिला स्वामित्व वाले उद्योगों को खड़ा करने के लिए विशेष अवसर मुहैया करानी होगी। सम्मेलन में भारी संख्या में महिलाओं का भाग लेना इसकी सफलता की कहानी स्वयं बया कर रही है।


Date:30-11-17

जैविक ईधन की ओर अग्रसर दुनिया

जैविक र्इंधन कार्बन डाइआॅक्साइड का अवशोषण कर हमारे परिवेश को स्वच्छ रखता है। अगर इसका इस्तेमाल होता है तो इससे र्इंधन की कीमतें घटती हैं और पर्यावरण को भी कम नुकसान होता है। यही नहीं, अगर भारत में कृषि क्षेत्र को जैविक र्इंधन के उत्पादन से जोड़ दिया जाए तो किसानों का भला होगा। लिहाजा, सरकार को इसे प्रचलन में लाने के लिए बढ़ावा देना चाहिए।

रीता सिंह

यह स्वागतयोग्य है कि ‘कोप 23’ नाम से हुए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग और वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए जैविक र्इंधन के इस्तेमाल के लिए भारत समेत उन्नीस देशों ने अपनी सहमति की मुहर लगा दी है। सुखद यह भी है कि इसी सम्मेलन में समृद्ध और विकसित देशों ने एकजुटता दिखाते हुए भविष्य में कोयले से बिजली उत्पादन बंद करने की भी शपथ ली। इससे संबंधित घोषणा पत्र में कहा गया है कि पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग दो डिग्री सेल्शियस से कम पर ही सीमित करने के लिए विकसित देशों को हर हाल में 2030 तक कोयले से मुक्त होना होगा। बाकी दुनिया में कोयले का इस्तेमाल बंद करने को लेकर 2050 तक की समय सीमा निर्धारित की गई है।

गौरतलब है कि जैविक र्इंधन पर सहमति जताने वाले इन उन्नीस देशों में दुनिया की आधी आबादी रहती है और अर्थव्यवस्था में इन देशों की वैश्विक हिस्सेदारी सैंतीस प्रतिशत है। अगर ये सभी देश जैविक र्इंधन के इस्तेमाल को बढ़ावा देते हैं तो निस्संदेह ग्लोबल वार्मिंग और वायु प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकेगा। जीवाश्म र्इंधन में सबसे अधिक गंदे और प्रदूषित कोयले से अब भी विश्व की तकरीबन चालीस प्रतिशत बिजली का उत्पादन होता है। समस्या अब तक यही रही है कि जो देश पूरी तरह से कोयले पर अपनी निर्भरता खत्म भी कर सकते थे, वे भी ‘नो कोल’ कहने से बच रहे थे। लेकिन अच्छी बात यह है कि विकसित देशों का हृदय परिवर्तन हुआ है। कनाडा और ब्रिटेन समेत कई विकसित देशों ने तय किया है कि वे कार्बन डाइआॅक्साइड के उत्पादन को वातावरण में कम करने के लिए कोयले की परियोजनाओं से दूर रहेंगे।यों हर साल 10 अगस्त, 2016 को गैर जीवाश्म र्इंधन के प्रति जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से जैव र्इंधन दिवस मनाया जाता है। दरअसल, डीजल इंजन के आविष्कारक सर रुदाल्फ डीजल ने 10 अगस्त, 1893 को ही पहली बार मूंगफली के तेल से यांत्रिक र्इंजन को सफलतापूर्वक चलाया था। उन्होंने शोध के प्रयोग के बाद भविष्यवाणी की थी कि अगली सदी में विभिन्न यांत्रिक इंजन जैविक र्इंधन से चलेंगे और इसी में दुनिया का भला भी है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र विश्व मौसम संबंधी संगठन के सालाना ग्रीनहाउस गैस बुलेटिन में कार्बन उत्सर्जन के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। बीते साल धरती के वायुमंडल में जिस रफ्तार से कार्बन डाइआॅक्साइड जमा हुई, उतनी पिछले लाखों वर्षों के दौरान नहीं देखी गई।

विशेषज्ञों का मानना है कि कार्बन उत्सर्जन की यह दर समुद्र तल में बीस मीटर और तापमान में तीन डिग्री इजाफा करने में सक्षम है। अगर ऐसा हुआ तो धरती का कोई कोना और कोई जीव सुरक्षित नहीं रह सकेगा। बीते कुछ दशकों में जिस गति से वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा बढ़ी है, वह पच्चीस लाख वर्ष पहले दुनिया से आखिरी हिम-युग खत्म होने के समय हुई वृद्धि से सौ गुना अधिक है। इससे पहले तीस से पचास लाख वर्ष पूर्व मध्य प्लीयोसीन युग में वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड चार सौ पीपीएम के स्तर पर पहुंचा था। तब सतह का वैश्विक औसत तापमान आज से 2-3 डिग्री सेल्शियस अधिक था। इसके चलते ग्रीनलैंड और पश्चिमी अंटाकर्टिक की बर्फ की चादरें पिघल गर्इं। इससे समुद्र का स्तर आज की तुलना में 10-20 मीटर ऊंचा हो गया था। 2016 की ही बात करें तो कार्बन डाइआॅक्साइड की वृद्धि दर पिछले दशक की कार्बन वृद्धि दर से 50 प्रतिशत तेज रही। इसके चलते औद्योगिक काल से पहले के कार्बन स्तर से 45 प्रतिशत ज्यादा कार्बन डाइआॅक्साइड इस साल उत्सर्जित हुई। 400 पीपीएम का स्तर हालिया हिम युगों और गर्म काल के 180-280 पीपीएम से कहीं अधिक है। उसका मूल कारण यह है कि 2016 में कोयला, तेल, सीमेंट का इस्तेमाल और जंगलों की कटाई अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। अल-नीनो प्रभाव ने भी कार्बन डाइआॅक्साइड के स्तर में इजाफा करने में बड़ी भूमिका निभाई है।अफसोस की बात है कि समय-समय पर कार्बन उत्सर्जन की दर में कमी लाने का संकल्प जाहिर किया गया, लेकिन उसे मूर्त रूप नहीं दिया गया। गौर करें तो आज की तारीख में भारत और चीन जहरीली गैस सल्फर डाइआॅक्साइड के शीर्ष उत्सर्जक देशों में शुमार हैं। सल्फर डाइआॅक्साइड मुख्य रूप से बिजली उत्पादन के लिए कोयले को जलाने पर उत्पन्न होती है। इससे एसिड रेन और धुंध समेत स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याएं जन्म लेती हैं। भारत में पिछले एक दशक में सल्फर डाइआॅक्साइड के उत्सर्जन में पचास प्रतिशत का इजाफा हुआ है। यहां समझना होगा कि चीन में कोयले का इस्तेमाल 50 प्रतिशत और बिजली उत्पादन 100 प्रतिशत बढ़ा है। इसके बावजूद चीन ने विभिन्न तरीकों से उत्सर्जन को 75 प्रतिशत तक घटाया है।

चीन ने वर्ष 2000 के बाद से ही उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य तय करने और उत्सर्जन की सीमा घटाने के लिए कारगर नीतियों को अमल में लाना शुरू किया और वह इसमें काफी हद तक सफल रहा। भारत को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। इसके लिए सबसे बेहतरीन उपाय जैविक र्इंधन का इस्तेमाल है। यह ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत है और इसका इस्तेमाल भी सरल है। इसका देश के कुल र्इंधन उपयोग में एक-तिहाई का योगदान है और ग्रामीण परिवारों में इसकी खपत तकरीबन 90 प्रतिशत है। यह प्राकृतिक तौर से नष्ट होने वाला, सल्फर और गंध से मुक्त है। जैविक र्इंधन जीवाश्म र्इंधन की तुलना में एक स्वच्छ र्इंधन है। जीवाश्म र्इंधन उसे कहते हैं जो मृत पेड़-पौधों और जानवरों के अवशेषों से तैयार होता है। जैव र्इंधन पृथ्वी पर विद्यमान वनस्पति को रासायनिक प्रक्रिया से गुजार कर तैयार किया जाता है। उदाहरण के लिए, गन्ने के रस को अल्कोहल में बदल कर उसे पेट्रोल में मिलाया जाता है। या मक्का के दानों में खमीर उठा कर उससे र्इंधन तैयार किया जाता है। इसके अलावा जैट्रोपा, सोयाबीन और चुकंदर आदि से भी र्इंधन तैयार किया जाता है।

जैविक र्इंधन कार्बन डाइआॅक्साइड का अवशोषण कर हमारे परिवेश को स्वच्छ रखता है। अगर इसका इस्तेमाल होता है तो इससे र्इंधन की कीमतें घटती हैं और पर्यावरण को भी कम नुकसान होता है। यही नहीं, अगर भारत में कृषि क्षेत्र को जैविक र्इंधन के उत्पादन से जोड़ दिया जाए तो किसानों का भला होगा। इसलिए सरकार को इसे प्रचलन में लाने के लिए बढ़ावा देना चाहिए। गौरतलब है कि ब्राजील में जैविक र्इंधन तैयार करने के लिए पेट्रोलियम उत्पादों में बाईस प्रतिशत तक इथेनॉल मिलाया जाता है। अगर भारत भी यह रास्ता अख्तियार करे तो इससे कच्चे तेल के आयात में बाईस प्रतिशत तक की कमी आएगी और इससे विदेशी मुद्रा की बचत होगी।

यों केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रीय जैव र्इंधन नीति को 11 सितंबर, 2008 को ही मंजूरी दी जा चुकी है। इस नीति में परिकल्पना की गई है कि जैव र्इंधन यानी बायोडीजल और जैव इथेनॉल को घोषित उत्पादों के तहत रखा जाए, ताकि जैव र्इंधन के अप्रतिबंधित परिवहन को राज्य के भीतर और बाहर सुनिश्चित किया जा सके; जैव-डीजल पर कोई कर नहीं लगना चाहिए। यह भी सुनिश्चित हुआ है कि तेल विपणन कंपनियों द्वारा जैव इथेनॉल की खरीद के लिए न्यूनतम खरीद मूल्य उत्पादन की वास्तविक लागत और जैव-इथेनॉल के आयातित मूल्य पर आधारित होगा। बायो-डीजल के मामले में न्यूनतम खरीद मूल्य वर्तमान खुदरा डीजल मूल्य से संबंधित होगा। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात है कि यह सारी कवायद कागजी है। जब तक इसे मूर्त रूप नहीं दिया जाएगा, तब तक जैविक र्इंधन के लक्ष्य को साधना कठिन होगा और ग्लोबल वार्मिंग या फिर वायु प्रदूषण से निपटने की चुनौती बरकरार रहेगी।


Date:30-11-17

बयान बनाम पहरेदारी

संपादकीय

पिछले दिनों फिल्म पद्मावती को लेकर कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों और अनेक राजनेताओं ने तल्ख बयान दिए, जिसके मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि फिल्म पर राजनेताओं को किसी भी तरह के बयान से बचना चाहिए। मगर यह बात अपने बयानों और ट्वीटों के लिए सदा चर्चा में रहने वाले हरियाणा के स्वास्थ्यमंत्री अनिल विज को हजम नहीं हुई। उन्होंने पत्रकारों को संबोधित करते हुए उलटा सवाल दागा कि क्या अब राजनेताओं और मंत्रियों को अदालतों से पूछ कर कोई बयान देना चाहिए! यह ठीक है कि अनिल विज कई मसलों पर असंगत बयान देते रहे हैं, पर अदालत की नसीहत पर उनके प्रतिप्रश्न और तल्खी की वजह समझी जा सकती है। पिछले कुछ समय से अदालतों की तरफ से भी कई ऐसे निर्देश, आदेश और नाराजगी भरी टिप्पणियां आर्इं, जिन्हें विधायिका के कामकाज में न्यायपालिका की बेजा दखलअंदाजी के रूप में देखा गया। उन्हें लेकर लंबी चर्चाएं भी हुर्इं कि न्यायपालिका को विधायिका के कामकाज में किस हद तक दखल देने की छूट है। यहां तक कि प्रधानमंत्री ने भी संविधान दिवस के मौके पर स्पष्ट कहा कि लोकतंत्र के चारों खंभों को अपने-अपने दायरे में रह कर दायित्वों का निर्वाह करना चाहिए। विज के ताजा बयान को उससे जोड़ कर देखा और समझा जाना चाहिए।

छिपी बात नहीं है कि कई बार अदालतों ने मीडिया में सुर्खियां बटोरने के मकसद से विधायिका के कामकाज में हस्तक्षेप करने वाले बयान दिए। इससे न्यायिक सक्रियता को लेकर खूब बहसें भी हुर्इं। हालांकि फिल्म पद्मावती पर राजनेताओं और मुख्यमंत्रियों की तल्खी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इस मुद्दे पर जिस तरह राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं और एक जाति और समुदाय विशेष के बीच तनाव का माहौल बनाने का प्रयास हो रहा है, उससे समाज पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती। फिल्म पर कोई भी निर्णय लेने का अधिकार केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को है। अभी उसने अपना कोई फैसला नहीं सुनाया है। अगर निर्माता-निर्देशक बोर्ड के फैसले से संतुष्ट नहीं होते, तो उन्हें अदालत का दरवाजा खटखटाने की आजादी है। ऐसे में फिल्म को देखे बिना महज उसके प्रचार में दिखाए जाने वाले कुछ दृश्यों के आधार पर राजनेताओं के अपने फैसले थोपने का रवैया किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता।

यह ठीक है कि अदालतों को विधायिका के कामकाज में अनावश्यक दखल नहीं देना चाहिए, पर यह भी लोकतांत्रिक तरीका नहीं कहा जा सकता कि अदालतों के आदेशों-निर्देशों और नाराजगी भरी टिप्पणियों की अनदेखी की जाए। अनेक ऐसे मुद्दे हैं, जिनकी जवाबदेही विधायिका और कार्यपालिका की है, लेकिन उन पर आंख मूंदे रखने की वजह से न्यायपालिका को उन्हें नसीहत देनी पड़ी। उसके बावजूद विधायिका और कार्यपालिका ने अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं किया। कई ऐसे मसले हैं जिनकी तरफ न्यायपालिका के ध्यान दिलाने की वजह से व्यावहारिक कानून बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए गए। हमारे लोकतंत्र का ढांचा ही कुछ ऐसा है कि अगर विधायिका और कार्यपालिका अपने दायित्व का पालन नहीं करते, तो उन पर न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ता है। अगर राजनेता बयान देते समय संयम रखें और अपनी जिम्मेदारियों का ठीक से निर्वाह करें, तो अदालतों को उनकी तरफ अंगुली उठाने की नौबत ही न आए। इसी तरह अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे महज सुर्खियां बटोरने के मकसद से सक्रियता न दिखाएं