01-11-2018 (Important News Clippings)
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Date:01-11-18
Tourism matters: Here is a road map to putting India on every traveller’s radar
Deep Kalra, [ Deep is the founder and Group CEO, MakeMyTrip ]
There are many reasons why tourism matters, and why it’s definitely more than what one would typically imagine while thinking of it as an industry. Tourism brings revenue to the exchequer, creates jobs by way of direct and indirect employment and provides an incentive to preserve our heritage and environment. Travel and tourism currently accounts for 9.6% of India’s GDP, 88% of which comes from domestic travel. It also supports 9.3% of the country’s total jobs and according to a 2018 economic impact report by World Travel & Tourism Council, it will support 52.3 million jobs in 2028 against 42.9 million currently.
India is taking small but important steps in the right direction. But much more needs to be done to tap India’s true travel and tourism potential, and with greater speed. As one of the fastest growing aviation markets in the world, India’s domestic demand touches nearly 100 million passengers. Yet international arrivals have remained relatively low, at 9 million, providing India with a unique opportunity to consider how to build demand and create adequate supply for its travel and tourism industry.
India has the potential to become a global air transit hub utilising the country’s location advantage. Its geographic location makes it a logical stopover for refuelling European carriers travelling Far East or down Pacific. We can take a leaf out of the book of Dubai, which has built a world class airport capable of handling foreign tourists and is amongst the most preferred and busiest airports, drawing in tourists who often stop and explore Dubai before moving ahead with their journeys.
Today, India’s regional air connectivity has got a big fillip as a result of UDAN and the most promising aspect of this scheme is yet to unfold as the aviation ministry starts work on connecting tourist destinations creating tourism circuits in line with industry’s long standing demand. But even as we see an aviation boom of the kind not witnessed before, we continue to grapple with bare basics — fewer runways, congested airports, seasonal capacity constraints and more. The biggest single area of improvement for travel and tourism in India is infrastructure development that will help support last mile connectivity, tourism circuits, accommodation, and uplift underutilised segments.
While the much needed electronic visa regime has now been extended to over 160 countries, the e-Visa fee has been recently hiked by up to 60% across tourist, business and medical visa categories, which will impact tourist inflows. This additional amount collected from the increased fee is likely to be much less than the foreign exchange lost from lower tourist arrivals. CAPA estimates that only 2.5 million people visit India each year for a holiday, far less compared to a city state like Singapore or the island destination Bali or Thailand at 31 million. Tourism is a competitive business in a global context and India’s neighbours both on its east and west have aggressively promoted tourism, making it a major source of their income. Tourism is, of course, a big industry in most developed countries like the US, UK, France and Switzerland.
To stay competitive the government needs to rethink its decision to put luxury hotels in 28% GST slab for room tariff above Rs 7500 (and 18% for tariffs between Rs 2,500-7,500), which punitively taxes the luxury and mid-premium segment and gives India the feel of a high tax country for travellers. The government should consider bringing down hotel taxation in India, making it comparable with southeast Asian countries where taxes stand below 10%.
The tourism ministry’s Adopt-a-Heritage scheme is a bold example of public-private partnership approach and the most encouraging example of new thinking on how to partner the private sector. Currently, India’s travel and tourism industry is fragmented and lacks a unified public-private body to represent the industry, in turn hindering its ability to achieve its potential. India has more than 50 active foreign tourism boards, yet the country does not have its own tourism board. Between various departments and ministries, the tourism sector continues to remain deeply fragmented even as India makes progress as a tourism destination. It’s time we seize the momentum and build on the gains to put India on every traveller’s map.
Date:01-11-18
बढ़ती सुगमता
संपादकीय
विश्व बैंक के कारोबारी सुगमता सूचकांक की 2019 की रैंकिंग में भारत ने 2018 की तुलना में 23 स्थानों का सुधार किया है। निश्चित तौर पर तेल कीमतों से लेकर घटती वृहद आर्थिक स्थिरता तथा सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच टकराव जैसी आर्थिक मोर्चों पर तमाम नकारात्मक खबरों से जूझ रही केंद्र सरकार को इससे राहत मिलेगी। मोदी सरकार को यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता होगी कि 190 देशों में भारत उन दो देशों में शामिल है जिन्होंने लगातार दो वर्ष इस सूची में सुधार किया है। इससे पहले की बात करें तो वर्ष 2017 में भारत ने केवल एक स्थान का सुधार किया था लेकिन अगले वर्ष 2018 में इसने 30 स्थानों का सुधार किया। अब ताजा सुधार के बाद भारत 77वें स्थान पर आ गया है।
यह कोई छोटीमोटी उपलब्धि नहीं है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के ऐन पहले वाले वर्षों के दौरान इस सूचकांक में भारत का प्रदर्शन निरंतर खराब होता जा रहा था। वर्ष 2012 में 131वें स्थान से फिसलकर हम 2014 में 142वें स्थान पर आ गए थे। तब से अब तक तेज और सकारात्मक बदलाव देखने को मिले हैं। प्रधानमंत्री मोदी तथा उनकी सरकार को इसका पूरा श्रेय भी दिया जाना चाहिए। वर्ष 2014 में जहां सभी ब्रिक्स देश हमसे आगे थे, वहीं 2019 में हम दक्षिण अफ्रीका (82), और ब्राजील (109) से आगे हैं और चीन (46) और रूस (31) के साथ अंतर तेजी से कम हो रहा है। भारत अब दक्षिण एशिया का सबसे बढिय़ा रैंकिंग वाला देश है तथा इंडोनेशिया (73) और वियतनाम (69) के लगभग बराबरी पर है। इस सुधार का काफी श्रेय श्रम नियमों में कुछ बदलाव के अलावा वस्तु एवं सेवा कर तथा ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता जैसे सुधारों को भी जाता है। यही वजह है कि छह प्रमुख क्षेत्रों कारोबार की शुरुआत, ऋण तक पहुंच, निर्माण अनुमति, बिजली की उपलब्धता, कर चुकता करने और सीमापार कारोबार, सभी में सुधार देखने को मिला है।
चालू वर्ष की शुरआत में विश्व बैंक के तत्कालीन मुख्य अर्थशास्त्री पॉल रोमर (जिन्हें हाल ही में अर्थशास्त्र का नोबेल मिला है) ने कारोबारी सुगमता रैंकिंग की विश्वसनीयता को लेकर बहस छेड़ दी थी। रैंकिंग में भारत का सतत सुधार ही देश में सुधारों की गति की विश्वसनीयता का सबसे बड़ा जवाब है।
बहरहाल, इसका यह अर्थ भी नहीं कि हम जमीनी दिक्कतों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दें। उदाहरण के लिए तमाम सुधारों के बावजूद कुछ अहम क्षेत्र हैं जिनमें हमारा प्रदर्शन अभी भी कमजोर है। मसलन अनुबंध प्रवर्तन। यह हमारे यहां पारंपरिक रूप से कमजोर क्षेत्र बना हुआ है और अभी भी हम इसमें कोई खास सुधार नहीं कर पाए हैं। इसके अलावा जीएसटी और आईबीसी की मदद मिलने के बावजूद कर चुकाने और दिवालिया प्रकरणों के निस्तारण में भारत का प्रदर्शन अभी भी काफी कमजोर है। इससे पता चलता है कि इन सुधारों के क्रियान्वयन को जमीनी स्तर पर प्रभावी बनाने के लिए अभी क्या कुछ किए जाने की आवश्यकता है? इतना ही नहीं यह भी समझना होगा कि ये रैंकिंग दिल्ली और मुंबई के रूप में दो प्रमुख शहरों में हुए सुधार से आकलित की जाती है। इन दोनों को देश की राजनीतिक और वित्तीय राजधानी होने का लाभ मिलता है। अन्य प्रमुख शहरों तथा छोटे शहर-कस्बों में हालत अभी भी काफी खराब है। सुधारों का दायरा बढ़ाकर उन्हें दूरदराज इलाकों तक ले जाने के लिए राज्यों को पहल करनी होगी। ऐसा करने पर ही कारोबारी सुगमता के मामले में पूरे देश के प्रदर्शन में सुधार हो सकेगा।
Date:01-11-18
वित्त मंत्रालय व रिजर्व बैंक के बीच अनावश्यक विवाद
संपादकीय
भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने केंद्रीय बैंक में सरकार के दखल की बात सार्वजनिक रूप से कहकर जिस विवाद की शुरुआत की थी उसकी तल्खी बढ़ाते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने दस लाख करोड़ रुपए के बट्टे खाते के कर्ज के लिए रिजर्व बैंक को जिम्मेदार ठहराया है। दोनों अंग -जिनका ये दोनों पदाधिकारी प्रतिनिधित्व करते हैं- हमारी अर्थव्यवस्था के प्रमुख अंग है। फर्क इतना ही है कि रिजर्व बैंक उतना जवाबदेह नहीं है, जितना राजनीतिक प्रक्रिया से पद पर आए वित्त मंत्री और उनका मंत्रालय। दुनिया के सारे देशों में वित्तीय और मौद्रिक नीतियों का इस्तेमाल सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए किया जाता है। पेंच यह है कि राजनीतिक रूप से जवाबदेह वित्त मंत्रालय प्राय: अपनी नीतियों को चुनावों में भुनाने के हिसाब से देखता है, जबकि केंद्रीय बैंक के पेशेवर लोग अर्थव्यवस्था की दीर्घावधि सेहत को देखकर अपना दायित्व निभाते हैं।
रिजर्व बैंक कीमतों की स्थिरता और बाजार में तरलता यानी नकदी की उपलब्धता पर निगाह रखता है। व्यावसायिक बैंकों का सुसंचालन भी उसी की जिम्मेदारी है। उधर, वित्त मंत्रालय करारोपण और सरकारी खर्च का दायित्व संभालता है। इस तरह से देखें तो दोनों पूरक भूमिकाओं में हैं और एक-दूसरे से एकदम स्वतंत्र भूमिकाएं अपनाना न तो संभव है और न अर्थव्यवस्था के हित में है। मौजूदा सरकार चाहती है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरें घटाकर बाजार को राहत दें, जबकि केंद्रीय बैंक को लगता है कि सरकार उसका उपयोग अपने राजनीतिक उद्देश्य साधने के लिए करना चाहती है। जहां इस आरोप में दम हो सकता है वहां यह भी सही है कि उर्जित पटेल के नेतृत्व में ब्याज पर कड़ा रवैया अपनाकर रिजर्व बैंक ने दरें घटाने का वह मौका गंवा दिया, जिससे अर्थव्यवस्था अस्थिरता के मौजूदा दौर का सामना करने लायक बन पाती। अपनी स्वायत्तता के लिए वह घातक रुख अपना रहा है। यह कोई भी बता सकता है कि अर्थव्यवस्था कठिन दौर से गुजर रही है तो उसे बेहवजह दवाब में लाना ठीक नहीं है। नीतिगत मुद्दों पर वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक में मतभेद का सार्वजनिक होना ठीक नहीं है। यह अनिश्चितता के इस दौर में गहरी निराशा का कारण बन सकता है, जिसकी ऊंची और अनावश्यक लागत भुगतनी पड़ सकती है।
Date:01-11-18
क्या रंग लाएगी भारत-जापान की दोस्ती ?
ब्रह्मा चेलानी , (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो दिवसीय जापान दौरे के लिए रविवार को टोक्यो पहुंच गए हैं। बीते चार वर्षों में जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबी के साथ यह उनकी 12वीं मुलाकात है। मोदी के आगमन पर एबी उन्हें अपना सबसे भरोसेमंद दोस्त बताते हुए द्विपक्षीय रिश्तों को नए क्षितिज पर ले जाने का भरोसा जता चुके हैं। इस वार्ता के दौरान दोनों नेता सैन्य साझेदारी को एक नया मुकाम दे सकते हैं जिसमें दोनों देशों की एक दूसरे के ठिकानों तक पहुंच होगी। एशिया के सबसे संपन्न-समृद्ध लोकतंत्र और सबसे बड़े लोकतंत्र उस ‘मुत एवं खुली हिंद-प्रशांत रणनीति के अहम हिस्से हैं जिसे अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन मजबूती से आगे बढ़ा रहा है। वास्तव में एबी ही इस रणनीति के असल शिल्पकार हैं जिसकी अवधारणा उन्होंने औपचारिक रूप से दो साल पहले नैरोबी में अफ्रीकी नेताओं को संबोधित करते हुए सामने रखी थी। आज हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विधिस मत, मुत व्यापार, आवाजाही की आजादी और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के लिए उपयुत ढांचा बनाने के लिहाज से जापान और भारत उसकी अहम धुरी हैं।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र को ‘मुक्त एवं स्वतंत्र क्षेत्र बनाने के लिए ट्रंप प्रशासन भारत-जापान संबंधों के महत्व को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर चुका है। ट्रंप की हिंदप्रशांत नीति उनके पूर्ववर्ती ओबामा की एशिया केंद्रित नीति का ही नया रूप है। ओबामा ने 2011 में इसे पेश किया था जिसे बाद में ‘एशियाई पुनर्संतुलन का नाम दिया गया। अमेरिका को लगा कि उसने पश्चिम एशिया पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दिया और अब इस नीति को सुधारने की दरकार है। अब अमेरिका अपने दीर्घकालिक हितों के लिए एशिया की अहमियत पर फिर से ध्यान केंद्रित कर रहा है। एशियाई सुरक्षा प्रतिस्पर्धा मुख्य रूप से सामुद्रिक मोर्चे पर ही चल रही है। हिंद-प्रशांत शद का बढ़ता चलन भी इसे दर्शाता है जो हिंद और प्रशांत जैसे दो महासागरों के मिलन का भी प्रतीक है। इस क्षेत्र में भू-आर्थिक प्रतिस्पर्धा भी जोर पकड़ रही है जिसमें दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं, बढ़ता सैन्य खर्च और नौसैनिक क्षमताएं, प्राकृतिक संसाधनों को लेकर गलाकाट प्रतिस्पर्धा और कुछ खतरनाक इलाके शामिल हैं। इस तरह देखें तो वैश्विक सुरक्षा और नई विश्व व्यवस्था की कुंजी हिंद-प्रशांत क्षेत्र के हाथ में ही है।
दरअसल हिंद-प्रशांत क्षेत्र को और व्यापक बनाकर अमेरिका एक तरह से चीन की बेल्ट एंट रोड इनिशिएटिव जैसी योजना की काट तलाश रहा है जिसमें चीन का भारी निवेश हिंद महासागर की परिधि में पडऩे वाले देशों में ही हो रहा है। जिबूती में तैयार चीन के पहले विदेशी नौसैनिक अड्डे और मालदीव के कई निर्जन द्वीपों पर उसके काबिज होने के बाद हिंद महासागर भी बीजिंग का भू-सामरिक अखाड़ा बनता जा रहा है। इससे पहले वह दक्षिण चीन सागर में कई कृत्रिम द्वीप बनाकर उनका सैन्यीकरण करने में सफल रहा है।
भारत के साथ एसीएसए करार से हिंद महासागर में जापान की बढ़ती नौसैनिक शति को स्थायित्व मिलेगा। इसमें जापानी पोतों को भारतीय नौसैनिक ठिकानों पर ईंधन और मरम्मत कराने की सुविधा मिलेगी। वहीं जापानी सामुद्रिक आत्मरक्षा बल यानी जेएमएसडीएफ को भी अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में भारतीय नौसैनिक सुविधाओं की सौगात मिलेगी जो मलका जलडमरूमध्य के पश्चिमी द्वार के काफी नजदीक स्थित है। जापान और चीन का काफी व्यापार और तेल आयात का एक बड़ा हिस्सा इसी मार्ग से गुजरता है। एबी के शासन में सेना पर कई कानूनी एवं संवैधानिक प्रावधानों को कुछ नरम बनाया गया है। इससे जापानी नौसेना की भूमिका का दायरा बढ़ा है। अब वह जापानी तटों से दूर भी सक्रियता से संचालन कर सकती है। वास्तव में संयुक्त सैन्य अभ्यास से लेकर सैन्य प्रशिक्षण के जरिये क्षेत्रीय सुरक्षा में भागीदारी को लेकर जापान का नया उत्साह उंसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बदलते भू-सामरिक समीकरणों का एक प्रमुख खिलाड़ी बनाता है।
भारत और जापान का न तो इतिहास में कोई टकराव रहा है और न ही किसी महत्वपूर्ण रणनीतिक मुद्दे पर उनमें असहमति है इस लिहाज से दोनों स्वाभाविक साझेदार के रूप में ही नजर आते हैं जिनके परस्पर हित जुड़े हुए हैं। वास्तव में जापान ही इकलौता ऐसा देश है जिसे भारत के कुछ संवेदनशील इलाकों में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर काम करने की अनुमति है। इनमें पूर्वोार और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह शामिल हैं। व्यापार एवं निवेश पर जितना जोर दिया जा रहा है उसे व्यापक रणनीतिक सहयोग के साथ संतुलित किया जाना चाहिए। भारत में जापान के राजदूत केंजी हीरामत्सू भी कहते हैं कि अब सामरिक भागीदारी को बढ़ाने की दरकार है। शी चिनफिंग के साथ एबी की हालिया बैठक और अप्रैल में मोदी के साथ बैठक इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकतीं कि भारत और जापान चीन की गंभीर चुनौती का सामना कर रहे हैं। यह व्यापार, तकनीक एवं अन्य मोर्चों पर ट्रंप का चीन पर दबाव ही है जिसने चिनफिंग को मोदी और एबी जैसे नेताओं से संपर्क करने को विवश किया। चिनफिंग को उम्मीद है कि जब अमेरिका की चीन नीति में बुनियादी रूप से बदलाव हो रहा है तो उसे जापान का वैसा ही साथ मिलेगा जैसे उसने 1989 में थियानमेन चौक पर छात्रों के नरसंहार को लेकर फंसे चीन का दिया था। तब चीन पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को हटाने वाला जापान शुरुआती देशों में एक था। चीन के साथ रिश्तों को लेकर अब जापान भी व्यावहारिक नजरिये वाला हो गया है। वहीं भारत भी किसी भ्रम में नहीं है कि चिनफिंग के नेतृत्व में चीन हेकड़ी छोड़कर अच्छा पड़ोसी बनने जा रहा है।
इस परिदृश्य में एबी-मोदी वार्ता कई मुद्दों पर सहयोग बढ़ाने का एक अवसर है जिसमें दोनों देश हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक संतुलन, शति स्थायित्व एवं सामुद्रिक सुरक्षा में परस्पर योगदान पर चर्चा कर सकते हैं। जहां तक वाशिंगटन की बात है तो दक्षिण चीन सागर में बदलते हालात से निपटने के लिए उसे स्पष्ट नीति की दरकार है, योंकि ‘स्वतंत्र एवं मुत हिंद-प्रशांत क्षेत्र की अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए यह बेहद अहम रणनीतिक गलियारा है।
Date:31-10-18
सहयोग के नये आयाम
संपादकीय
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके जापानी समकक्ष शिंजो आबे के बीच हुई तेरहवीं शिखर वार्ता से दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊंचाई मिली है। निश्चित रूप से इसका श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को दिया जाना चाहिए। इसमें दो राय नहीं है कि उन्होंने विदेशी राजनेताओं से मुलाकातों को व्यक्तिगत स्पर्श देकर भारत के राजनयिक हितों का विस्तार किया है। यह पहला मौका है, जब आबे ने किसी विदेशी राजनेता को अपने निजी घर में आमंत्रित किया। यह बताता है कि दोनों नेताओं के बीच कितने घनिष्ठ व्यक्तिगत रिश्ते हैं। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी की आबे से यह बारहवीं मुलाकात है। इस शिखर वार्ता के दौरान दोनों देशों में हाईस्पीड रेल परियोजना और नौसेना सहयोग समेत छह समझौतों पर दस्तखत किए हैं। द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत बनाने के लिए दोनों देशों ने 2 प्लस टू वार्ता करने पर सहमति जताई है। गौरतलब है कि इसी तर्ज पर भारत और अमेरिका के बीच समझौता है और पिछले महीने ही दोनों के बीच नई दिल्ली में 2 प्लस टू का पहला दौर का आयोजन हुआ था। राजनय के इस फ्रेमवर्क में दोनों देशों के रक्षा और विदेश मंत्री के बीच बातचीत होती है। दरअसल, भारत और जापान दोनों चीन की विस्तारवादी-साम्राज्यवादी नीति से परेशान हैं।
भारत की तरह जापान के साथ भी चीन का सीमा विवाद है। जाहिर है भारत और जापान के करीब आने का एक कारण चीन भी है। भारत प्रशांत क्षेत्र में चीन लगातार प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। यह रणनीतिक क्षेत्र है, इसलिए चीन की सक्रियता भारत की सुरक्षा के लिए चिंता का विषय है। वास्तव में यह मुक्त और स्वतंत्र क्षेत्र है। भारत और जापान दोनों इसके हिस्से हैं। लिहाजा मोदी और शिंजो ने भारत-प्रशांत में शांति और समृद्धि के साझा दृष्टिकोण पर भी ध्यान केंद्रित किया। अमेरिका भी इस क्षेत्र को मुक्त और स्वतंत्र बनाना चाहता है और इसके लिए वह भारत और जापान दोनों को प्रेरित भी करता रहता है। दोनों नेताओं ने मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेल परियोजना में हुई प्रगति की समीक्षा की। वास्तव में यह मोदी की राजनयिक शैली का ही परिणाम है कि जापान की उदारतापूर्ण सहयोग से भारत में बुलेट ट्रेन का सपना बहुत जल्द ही हकीकत में बदल जाएग। इसके लिए जापान भारत को रियायती दरों पर कर्ज दे रहा है। यह परियोजना दोनों देशों के सहयोग और मित्रता का प्रतीक है।
Date:31-10-18
Miles to go
Prime Minister Modi and Abe have raised the profile of India, Japan ties. But the limitations in bilateral ties are glaring.
Editorial
The fifth annual summit in Tokyo between Prime Ministers Narendra Modi and Shinzo Abe was as much a celebration of the expansive state of the partnership between the two countries as it was of the personal bond between the two leaders. The scope of the relationship now ranges from Japanese aid to develop connectivity in the Northeast and the High Speed Railway system between Mumbai and Ahmedabad. Modi and Abe have also announced the launch of a new digital partnership that will cover Artificial Intelligence (AI) and the Internet of Things (IoT). On the defence front, their navies will now share intelligence and will soon be able to use each other’s facilities in the Indo-Pacific. Yet, there is no ignoring the fact that India has not been able to take full advantage of the opportunities presented by Abe’s Japan. Few foreign leaders has brought more personal commitment to the relationship with India than Abe. Consider for example the fact that Modi was the first foreign leader that Abe hosted at his personal home near Mount Fuji.
Abe’s enthusiasm for India was more than personal; it was deeply political. He inherited it from his maternal grandfather Nobusuke Kishi, who was the prime minister of Japan in the 1950s. For nationalist Kishi, India was central to the restoration of Japan as a normal power after its defeat in the Second World War. Abe inherited both ideas — that Japan must play its legitimate role in Asia and the world; and that India is critical in advancing that goal. As he becomes the longest serving Japanese PM in post-war history, Abe has now firmly planted India at the centre of Tokyo’s global strategy. Thanks to his interaction with the Japanese leaders during his long tenure as the chief minister of Gujarat, Modi was eager to elevate Japan’s salience in India’s internal development and external relations. That the rise of China was undermining the historic standing of Japan and India in Asia provided a regional context for their strategic cooperation. India’s new warmth towards the US, Japan’s post-War ally, also facilitated the rapid expansion of Delhi’s ties to Tokyo.
But the limitations of the relationship are glaring. Bilateral annual trade now stands at a pitiable $15 billion. Japan’s trade with China despite troubled political relations is now close to $300 billion. Well before China came up with the Belt and Road Initiative, Japan was putting money to develop the Mumbai-Delhi industrial and rail corridors. Progress has been painfully slow. Thirteen years after it was announced, the Dedicated Freight Corridor between the two cities is now barely half done. The negotiations on the purchase of an amphibious aircraft have dragged on for nearly a decade. That a politically strong and bureaucratically centralised government led by Modi can’t get things moving faster at home points to the deepening systemic crisis. If India can’t change the way it works internally, it can’t do much with even the most eager external partners like Abe’s Japan.
Date:31-10-18
Past perfect and a future tense
Legitimising suspect ‘traditional knowledge’ and passing it off as proven wisdom is perilous.
Rajesh Kochhar , [ Rajesh Kochhar is with the mathematics department, Panjab University.]
The things All India Council for Technical Education (AICTE) wishes to formally teach engineering students in the name of ancient Indian scientific achievements is a gross insult to ancient India. Making unsubstantiated claims about the past detracts from the genuine contributions that were actually made, and brings ridicule to an otherwise respected discipline.
AICTE is an apex body set up by the HRD ministry for the promotion of quality in technical education. The Delhi centre of Bharatiya Vidya Bhavan is offering, through its website, a post-matric course on “essence of Indian knowledge tradition”, and a post-graduate diploma in “Indian knowledge tradition: Scientific and holistic”. To serve as a text for these courses, a book titled Bharatiya Vidya Saar has been prepared.
AICTE, no doubt guided by HRD ministry, has co-opted this programme and decided to offer a credit course based on the Vidya Saar — meaning that students will be formally examined in it and assigned grades. The proposed textbook is not freely available. Whatever excerpts have been published makes for disturbing reading. Students will be told that “In Vedic age, ‘Maharshi Bhardwaj wrote an epic called Yantra Sarvasva and aeronautics is a part of the epic. This was 5,000 years before Wright brothers’ invention of the plane… Yantra Sarvasva is not available now but out of whatever we know about it, we can believe that planes were a reality in Vedic age.”
A number of questions arise immediately. How do we know that Yantra Sarvasva existed? If it discusses aeronautics, what is the actual term used? If the text does not exist anymore, which are the works that have preserved the extracts? Details should be provided so that readers can decide for themselves how much credence is to be placed on such claims. In the same fashion, it is claimed that Maharishi Agastya in Agastya Sanhita talks about the discovery of electricity and invention of batteries. Students should, no doubt, be made aware of ancient Indian science. We cannot, however, ask students to switch off their mental faculties when they are being instructed in the essence of Indian learning, but bring their intellect into full use an hour later when the regular curriculum is taught.
In recent years, a flourishing industry has sprung up which takes stray passages from ancient texts and relates them to modern scientific and technological discoveries. In 2002, B G Matapurkar, a surgeon at the Maulana Azad Medical College Delhi, claimed that the Mahabharata description of the Kauravas’ birth proved that “they not only knew about test-tube babies and embryo splitting, but also had the technology to grow human foetuses outside the body of a woman — something unknown to modern science”. If the learned surgeon had taken the trouble of reading the original description (given in Adi Parva, Chapter 14) he would not have been so rash.
Gandhari could not possibly have given natural birth to 100 sons. One is inclined to believe that 100 was not meant as an exact number but as a poetic exaggeration. The Mahabharata tells us that Gandhari was pregnant for two years after which she delivered a piece of flesh which was as hard as iron. It was irrigated with cold water and split into 100 thumb-sized portions. These portions in turn were placed in pitchers filled with ghee which were carefully kept at secret places. After another two years, each pitcher produced a boy. A small piece of the aborted flesh was still left from which, after a month, a daughter was born. Immediately on birth, the first born, later to be known as Duryodhana, started braying like a donkey whereupon, the “other” donkeys, vultures, jackals and crows in the area also joined the chorus. Here is an attempt to take Duryodhana’s villainy back to his birth itself; any resemblance to modern research is purely incidental. It is extraordinary that the creativity and imaginativeness of ancient poets and dramatists should be sacrificed at the altar of modern science.
In October 2016, the PM, while inaugurating a hospital in Mumbai, claimed that the Hindu god Ganesha’s having an elephant head showed that plastic [?] surgery began in India. He also speculated that genetic science must have been known in ancient India because the Mahabharata says that Karna was born outside the mother’s womb. The Mahabharata also says that virgin Kunti’s motherhood was due to her recitation of a mantra and that, fearful of the public opinion, she clandestinely set the newborn afloat in a river. What use is a scientific discovery if it has to be presented as a miracle and hidden from the public at large? More recently, the newly-elected Chief Minister of Tripura concluded that internet existed in the age of Mahabharata, because Sanjaya narrates the happenings in the war-field to Dhritarashtra who is located miles away. Such dubious claims have been made by persons in power or in inaugural addresses, etc. But, alarmingly, the government has now decided to give such claims the legitimacy of a teachable subject, and that too, at the level of professional colleges.
By definition, science today is better than science yesterday. It is, therefore, anachronistic to pit one against the other. Production of wealth today depends on modern science. Prosperity in ancient India depended on agriculture and un-organised manufacturing activity — knowledge systems connected with these two spheres were exclusively the domain of farmers and artisans and there was no reason for sacred Sanskrit texts to incorporate this parallel knowledge system into their own. In other words, it makes no sense to look for products of modern technology in ancient sacred texts. AICTE should put its present proposal on hold for the time being. It should ask Bharatiya Vidya Bhavan to heavily annotate its textbook so that a reader can check the veracity of the claims made. The draft text should be uploaded online, and comments invited on its content. The textbook should be finalised in the light of the feedback received. Only then should it be placed in the hands of teachers and students. The proposal, as it stands now, is an insult to human intelligence and aimed at the “moroni-fication” of the students.
Date:31-10-18
Failing Its Purpose
RTE Act has not ensured delivery of quality education
Anil Swarup , [ The writer retired as School Education Secretary in the HRD Ministry. ]
We have a belief that enacting a legislation is a panacea for all ills. The Right of Children to Free and Compulsory Education Act, 2009 (popularly known as RTE Act) was born out of this mindset. This approach raises a few questions. Why should the executive arm of the government require a law to do something which it is authorised to do, in any case, under the extant legal provisions? Could the purpose have been served without the law? Has it been served after the enactment of the RTE Act? Has the Act made it more complicated to deliver quality education?
The government could (should) have provided free quality education without a law as a number of countries have done. In fact, successive governments were attempting to do that but were unable to do so. The inability was certainly not on account of absence of a legislation. A number of non-legislative factors have created a mess in the last few decades in the education sector. Education does not provide for immediate results that a political party can show off. The impact of initiatives in education are visible only in the long run. Perhaps, legislation was one way to show that the government was concerned about education. However, if we go by the available evidence, enactment of RTE hardly led to any improvement in delivery of quality education. Learning outcomes, in fact, declined during the years that followed the legislation.
The focus of the RTE Act is primarily on “inputs” (like infrastructure) rather than “outcomes”. It has created an adversarial relation between “public” and “private” schools. The Act mandates that even private schools “shall admit in Class I, to the extent of at least 25 per cent of the strength of that class, children belonging to weaker section and disadvantaged group.” The manner in which reimbursement is to be provided has created a number of problems.
The norms and standards prescribed in the schedule for a school are far removed from ground reality. What is perhaps desirable has been made mandatory. This has resulted in a phenomenal increase in the number of teachers. During 2015-16, there were 39,608 government schools that had less than 10 children but each school was mandated to have a minimum of two teachers. The budget private schools, most of whom are doing a great job in imparting education, are under enormous pressure to meet the prescribed standards or face closure. On an average, around Rs 10,000 per child gets spent in government schools. The budget schools do that for far less and impart as good, if not better, education.
Section 16 of the RTE provides that “No child admitted in a school shall be held back in any class or expelled from school till completion of elementary education”. Not holding back a child in a class has meant that a large number of children are getting promoted without acquiring necessary attributes. The model of “no detention” was apparently picked up from the West and transplanted in this country without taking into account the conditions prevalent here. The pass percentage has plummeted at the Class 10-level. The states were not even given freedom to take a call on the issue. The government has subsequently decided to provide an option to the states and the amendment is under the consideration of Parliament.
Penalties for violation of the provisions are outlined under section 18(5): “Fine which may extend to one lakh rupees and in case of continuing contraventions, to a fine of ten thousand rupees for each day during which such contravention continues.” Not many schools have been penalised under this clause but it is a powerful tool available with officials to harass budget private schools. At the same time, some private schools, run purely on commercial lines, are getting away with blue murder. The Act cannot itself be blamed for this malaise but it has done little to address such issues.