
01-07-2025 (Important News Clippings)
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Date: 01-07-25
Dignity for All When Passing On
ET Editorials
If living with dignity is a basic human aspiration, dying with dignity is no less important. And, yet, conversations around euthanasia — particularly the right to make end-of-life choices — remain cloaked in discomfort. That may be slowly changing. Two recent developments point to a shift in public and institutional thinking: launch of a dedicated living will clinic at a Mumbai hospital, and Britain’s Parliament voting to legalise assisted dying for terminally-ill patients.
In India, a living will was first given legal backing in the 2018 Supreme Court judgment in ‘Common Cause vs Union of India’, which reaffirmed the right to die with dignity under Article 21. It was built on the court’s earlier recognition of passive euthanasia in the 2011 Aruna Shanbaug case. A living will — formally, ‘advance medical directive’ — allows individuals to document their preferences for life-sustaining treatment should they become incapacitated.
Still, there is a gap between legal recognition and implementation. The Mumbai hospital’s initiative is a welcome attempt to bridge that divide. Doctors say many patients have little understanding of what ICU care entails until they’re confronted with specifics — ventilators, invasive procedures and indefinite suffering. Facilitated conversations can help persons make better-informed decisions. In 2023, the apex court eased the process for passive euthanasia by simplifying earlier guidelines. Now, the onus is on the state, medical professionals and institutions to make these choices accessible and understandable. A dignified death should not be a privilege. It’s a right, one that must be supported with clear laws, empathetic systems and public awareness. Encouraging living wills is a critical step in that direction.
Date: 01-07-25
चावल – गेहूं की खेती पर ही क्यों अटका है किसान?
संपादकीय
गरीबों की थाली में दाल का उपयोग बढ़ना बेहतरी का पैमाना है। भारत में दलहन का उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन आयात निर्भरता भी बढ़ती गई । पिछले 11 वर्षों में दलहन आयात मात्रा में ढाई गुना और कीमत में तीन गुना बढ़ा। क्या कारण है कि किसान बेहतर बीज और बढ़ी उत्पादकता के बावजूद दलहन की जगह चावल और गेहूं की खेती पर अटका है? दरअसल सरकारी दावों के अलग दलहन की खरीद सरकारी केंद्रों पर नगण्य है और एमएसपी भी पर्याप्त नहीं। पिछले साल के मुकाबले खरीफ के लिए धान और मूंग पर एमएसपी में क्रमशः 3 और 0.99% की वृद्धि किसानों के साथ न्याय नहीं है। धान देश के कुल अनाज उत्पादन का 42% है, जबकि मूंग कुल दलहन पैदावार का छठवां हिस्सा है और अन्य दालों के मुकाबले मजबूत फसल मानी जाती है। इसकी खपत भी ज्यादा है। वर्षों से भारत चाहकर भी दलहन पर आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। फिर अभी तक फसल बीमा का मजबूत और भरोसेमंद सिस्टम नहीं बन पाया है, जिससे किसान निर्द्वद्व हो कर दलहन या तिलहन की ओर झुके । एमएसपी में मात्र औसतन चार-छह प्रतिशत बढ़ोतरी से किसान रिस्क नहीं लेगा। भले ही सरकार लागत का डेढ़ गुना किसानों को एमएसपी के जरिए देने का दावा करती हो, उसमें जमीन का किराया शामिल नहीं है, ना ही खुद खेती करने वाले किसान की जमीन के मूल्य का ब्याज जोड़ा जाता है।
प्रस्तावना बदलने से हिल गई संविधान की नींव
शंकर शरण, (लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं)
स्वतंत्र भारत की राजनीति की विडंबना संविधान की प्रस्तावना की हालत से समझी जा सकता है। यह विडंबना है: शब्दों, नारों से खेलना। उन शब्दों की गरिमा, भावना और उनसे जुड़े कर्तव्य के प्रति बेपरवाह रहना। लोकतंत्र, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय एकता अथवा सोशलिज्म, सेक्युलरिज्म, सभी शब्दों के साथ भारत में यही होता रहा है। 1950. में बने संविधान की प्रस्तावना ने भारत को ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ कहा था। उस में 26 वर्ष बाद दो शब्द ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ जोड़ दिए गए। अब फिर 50 वर्ष बाद प्रस्तावना को पूर्ववत करने की बात कही जा रही है।
यह भी हमारे नेताओं का एक खेल साबित हो तो आश्चर्य नहीं। मूल ‘प्रस्तावना’ के संशोधन ने पूरे संविधान को बिगाड़ा। यह परिवर्तन 1975-76 की ‘इमरजेंसी’ के दौरान किया गया, जब केंद्रीय मंत्रिमंडल के निर्णय केंद्रीय मंत्रियों को भी रेडियो से मालूम होते थे। जब विपक्षी नेता जेल में थे और प्रेस पर सेंसरशिप थी। वह संशोधन बिना समुचित विचार-विमर्श के हुआ था। दो-चार व्यक्तियों की चतुराई से, जिन्होंने इंदिरा गांधी को इसके लिए कायल किया। यह संविधान की आमूल विकृति थी। इसके लिए चार तथ्यों पर विचार करें। पहला, देश-विदेश के संविधानविदों ने मूल प्रस्तावना को महत्वपूर्ण माना था।
प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनीति-शास्त्री सर अर्नेस्ट बार्कर ने अपने ग्रंथ ‘प्रिंसिपल्स आफ सोशल एंड पोलिटिकल थ्योरी’ में भूमिका के स्थान पर भारतीय संविधान की पूरी प्रस्तावना उद्धृत की थी, यह कहते हुए कि उसमें सब कुछ समाहित है, जो वे अपनी पुस्तक की भूमिका के लिए कह सकते थे। दूसरे, भारत में भी राजनीति शास्त्र और कानून की कक्षाओं में प्रस्तावना को संविधान की ‘आत्मा’, ‘मूलाधार’, आदि कहा गया। उसमें छेड़छाड़ करना उसकी नींव में हस्तक्षेप करना ही हुआ।
मूलाधार बदलने की वस्तु नहीं होती। तीसरे, 1960 में सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रस्तावना को निर्देशक सूत्र बताया। मूल प्रस्तावना एक मानक स्केल, पैमाना था। स्केल में छेड़छाड़ करना किसने सुना है। चौथे, सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में भी केशवानंद भारती मामले में मूल प्रस्तावना को संविधान का ‘बुनियादी ढांचा’ घोषित किया। उसमें कोई बदलाव करना बुनियाद हिलाना था। साफ है कि प्रस्तावना में परिवर्तन ने संविधान को चौपट किया। संविधान का ‘बुनियादी ढांचा’ 1950 वाली प्रस्तावना था। इसलिए 1976 ई. में किया गया बदलाव उस पर चोट थी। इसलिए भी, क्योंकि वह धारणागत सैद्धांतिक संशोधन था।
‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्युलर’ ऐसी धारणाएं न थीं, जिनसे संविधान निर्माता अनजान थे। ये दोनों शब्द जोड़ने के मुद्दे पर तो संविधान सभा में चर्चा भी हुई थी, लेकिन उनकी जरूरत नहीं समझी गई थी। तब सोशलिज्म पूरे यूरोप का प्रसिद्ध मतवाद था, जहां से हमारे अनेक संविधान-निर्माता पढ़े थे। उनके द्वारा भारतीय गणराज्य को ‘सेक्युलर’, ‘सोशलिस्ट’ नहीं कहना सुवाचारित निर्णय था। आंबेडकर ने संविधान में उक्त दोनों शब्द जोड़ने का प्रस्ताव दो-टूक ठुकराया था।
संविधान सभा में 15 नवंबर 1948 को केटी शाह ने संविधान में ‘सेक्युलर, फेडेरल, सोशलिस्ट’ जोड़ने का प्रस्ताव पेश किया। इसे खारिज करते हुए आंबेडकर ने कहा था, “लोगों को किसी खास तरह की संरचना से बांधना ठीक नहीं।” संविधान सभा की सर्वसम्मति वही रही, जो आंबेडकर ने कहा था। उन्होंने कहा था कि संविधान की धाराएं और भावना पहले ही सेक्युलर और आम जनहित भावना से ओत-प्रोत है।
इस स्पष्ट रिकार्ड के बावजूद 1976 में 42वें संशोधन द्वारा संविधान प्रस्तावना में ‘सोशलिस्ट’, ‘सेक्युलर’ जोड़ा गया। इसका कारण कुछ और था। यह दुर्भाग्य की और समझने की बात है कि बाद में आई जनता पार्टी की सरकार, जिसमें लोहियावादी, जनसंघ, स्वतंत्र दल, आदि गैर-कांग्रेसी दल शामिल थे, ने भी प्रस्तावना की विकृति को रहने दिया। उस सरकार ने 42वें संशोधन की असंख्य बातें 1978 में संविधान में 44वां संशोधन करके हटा दी थीं। इस प्रकार, संविधान की प्रस्तावना की अनदेखी करने में सभी दलों की भूमिका रही। यह ध्यान रखना चाहिए।
संविधान की प्रस्तावना में अनावश्यक बदलाव के कारण संविधान का चरित्र बदलने का काम आरंभ हुआ। इसके परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति में एक हिंदू विरोधी मानसिकता पनपी, जो धीरे-धीरे संपूर्ण राजनीतिक-शैक्षिक जीवन को बुरी तरह डसती गई। संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ शब्द जोड़ देने के बाद तमाम भारतीय नेताओं ने जाने और अनजाने उसका अर्थ एवं व्यवहार भारत में हिंदुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना कर दिया। उन्होंने ‘माइनारिटी’ और ‘सेक्युलर’, इन दोनों ही शब्दों को अपनी वोट राजनीति का औजार बना लिया। इससे संविधान ही नहीं, सहज न्याय और नैतिकता का भी नाश हुआ।
यह सब अघोषित रूप से और क्रमशः धीरे-धीरे होने के कारण देश की जनता के साथ दोहरा विश्वासघात हुआ। देश के लगभग सभी दलों ने सेक्युलरिज्म और माइनारिटिज्म की आड़ में केवल गैर-हिंदुओं के लिए तरह-तरह की विशेष सुविधा, विशेष अधिकार आदि देना मौन रूप से तय कर लिया। इसलिए आम लोगों के पास उस में कोई गड़बड़ी देख सकने और उसका प्रतिकार करने का कोई साधन ही न रहा। अधिकांश नेताओं की असल मंशा समुदाय विशेष के थोक वोट लेना थी। इसके लिए उन्होंने हिंदू समाज को चुपचाप वंचित किया। इसके लिए संविधान को विकृत कर भ्रष्ट किया, ताकि अपने वोट-लोभ का एक बहाना बना रहे।
अब संविधान की प्रस्तावना की उस विकृति के अभी सुधर जाने की आशा व्यर्थ है। भारतीय राजनीति के जमे हुए अल्पसंख्यकवादी कारोबार में सभी राजनीतिक दल आकंठ डूबे रहे हैं। उससे निकलने का साहस शायद ही कोई करे। अधिक संभावना है कि इस पर शोर-गुल के बहाने सब अपनी-अपनी वोट की राजनीति की रोटी सेंकेगे। सामुदायिक भेद-भाव की बातें होंगी, तू-तू-मैं-मैं और तनातनी होगी। विभिन्न राजनीतिक दल इस नाम पर अपने-अपने पाले को मजबूत करेंगे। बस। फिर बात आई-गई हो जाएगी।
Date: 01-07-25
डब्ल्यूटीओ की प्रासंगिकता और बहुपक्षीय समझौते
अमिता बत्रा, ( लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में प्राध्यापक हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं )
इस महीने के आरंभ में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की महानिदेशक नगोजी ओकोंजो-इवेला ने लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में अपने भाषण में जोर देकर कहा कि बहुपक्षीय संस्थानों के पक्ष में बोलने की आवश्यकता है। खासतौर पर तब जबकि दबदबे वाली फंडिंग अर्थव्यवस्था ने इसकी आवाज और प्रासंगिकता को दबाने की ठानी है। उनका वक्तव्य डब्ल्यूटीओ के लिए सुखद है। अपनी बुनियादी प्रक्रियाओं और मुक्त व्यापार को आगे बढ़ाने के लक्ष्य की बात करें तो यह संस्थान इस समय एक चौराहे पर है। अमेरिका द्वारा विवाद निस्तारण प्रणाली की अपीलीय संस्था में नियुक्तियों को अवरुद्ध किए जाने को लेकर भी काफी चर्चा हो रही है लेकिन दीर्घकालिक वार्ताओं और परिणामों की कमी की बात करें तो संस्था लंबे समय से मुश्किलों से गुजर रही है।
यह बात तो सभी जानते हैं कि डब्ल्यूटीओ की सदस्यता का विस्तार किया गया और जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ ऐंड ट्रेड (गैट) के 23 संस्थापक देशों से 1994 में इसके डब्ल्यूटीओ में परिवर्तित होने पर इसकी सदस्य संख्या बढ़कर 128 हो गई। 2024 में यह संख्या 166 हो गई। परंतु इस दौरान चुनौतियां भी आईं। कृषि सब्सिडी, गैर कृषि बाजार पहुंच और सेवा उदारीकरण जैसे अहम मुद्दों का सहमति आधारित हल पाना मुश्किल बना रहा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि विकसित, विकासशील और अल्प विकसित देशों के अलग-अलग हित जुड़े हुए थे। व्यापार सुविधा समझौते और अभी हाल ही में मत्स्यपालन से जुड़ी सब्सिडी के बारे में भी काफी लंबी और कठिन चर्चा के बाद सहमति बन सकी। इन्हें लेकर दशक भर से लंबी वार्ताएं चलीं। डब्ल्यूटीओ के अहम मुद्दों पर लंबे समय से विवादों और गतिरोध के कारण इसके इकलौते व्यापार उदारीकरण कार्यक्रम यानी दोहा विकास दौर को वास्तव में निलंबित कर दिया गया। इसके परिणामस्वरूप अधिकांश मंत्रीस्तरीय बैठकें केवल पहले किए गए समझौतों के क्रियान्वयन से संबंधित प्रशासनिक निर्णयों तक सिमट गई हैं। इसलिए डब्ल्यूटीओ के नियम और प्रावधान सीमित हुए हैं।
बहरहाल, वैश्विक व्यापार अब बहुत हद तक वैश्विक मूल्य श्रृंखला यानी जीवीसी से संचालित होता है और उसने मुक्त व्यापार समझौतों यानी एफटीए और मुद्दा आधारित बहुपक्षीय समझौतों को नियम निर्माण का वैकल्पिक मार्ग बनाया है। गैट के अनुच्छेद 24 के तहत होने वाले एफटीए और दो या अधिक सदस्य देशों के बीच व्यापार उदारीकरण का 21वीं सदी में काफी विस्तार देखने को मिला है। सन 2000 में जहां डब्ल्यूटीओ की जानकारी में 100 से भी कम एफटीए थे वहीं 2025 में इनकी तादाद 600 पार कर चुकी है।
इनकी तादाद बढ़ने के साथ ही एफटीए में गहराई भी आई है। इनमें से अधिकांश में बौद्धिक संपदा, निवेश और सेवा उदारीकरण के साथ पर्यावरण और टिकाऊ शासन को लेकर काफी अहम मुद्दे शामिल होते हैं। एक समय सदस्यता के अतिक्रमण और विभिन्न एफटीए में स्रोत नियम की जटिलता के कारण बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौतों की आलोचना की जाती थी लेकिन उन्होंने भी सदस्य देशों के लिए एफटीए को सहज बनाने में अहम भूमिका निभाई है। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में से कई को एफटीए में भागीदारी से लाभ हुआ है।
डब्ल्यूटीओ के अधीन बहुपक्षीय समझौतों में भी प्रगति हुई है हालांकि यह प्रगति एफटीए की तुलना में बहुत धीमी रही है। डब्ल्यूटीओ के अधीन पहला बहुपक्षीय समझौता 1996 में हुआ सूचना प्रौद्योगिकी समझौता था। वहां प्रतिभागी देशों ने चिह्नित सूचना प्रौद्योगिकी उत्पादों के लिए डब्ल्यूटीओ के सभी सदस्य देशों को शुल्क मुक्त व्यापार की सुविधा दी थी। हाल के समय में नए दौर के नीतिगत क्षेत्रों मसलन ई-कॉमर्स, निवेश सुविधा और वैकल्पिक अंतरिम विवाद निस्तारण प्रक्रिया आदि में बहुपक्षीय समझौतों के तहत पहल की गई है लेकिन प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की भागीदारी और निर्णायक बातचीत को अंजाम देना कठिन है।
वास्तव में बहुपक्षीय समझौते विवादास्पद रहे हैं क्योंकि कई बार इनमें रुचि रखने वाले सदस्य देश किसी ऐसे मुद्दे पर बातचीत शुरू कर देते हैं जिसे संपूर्ण डब्ल्यूटीओ की सदस्यता का प्रतिनिधि नहीं माना जाता है। इसके परिणामस्वरूप इन समझौतो में एजेंडा आगे बढ़ाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है और जो पहलकदमी करता है उसे ही लाभ हासिल होने की संभावना अधिक रहती है। इससे न केवल बातचीत का सहमति आधारित रुख सीमित होता है जो डब्ल्यूटीओ का अनिवार्य हिस्सा है बल्कि यह उरुग्वे दौर की वार्ता के बाद के विकासशील देशों के लंबे संघर्ष को नकारता है जिसके तहत उन्होंने गैर कारोबारी मुद्दों को दूर रखते हुए दोहा दौर के एजेंडे को आगे बढ़ाया। बहरहाल तब से अब तक विश्व व्यापार में बहुत कुछ बदल चुका है।
पहली बात, 21वीं सदी की जीवीसी आधारित विश्व व्यापार व्यवस्था के अंतर्निहित तंत्र को वस्तुओं, निवेश और सेवा व्यापार के उदारीकरण के बीच एक अटूट संबंध के रूप में समझने की आवश्यकता है। इनमें से हर क्षेत्र में नियमों और नियामकीय ढांचे का समुचित सेट जरूरी है ताकि विश्व व्यापार को सुविधा मिले। दूसरी बात, भारत समेत कुछ अर्थव्यवस्थाओं ने जिसे ‘गैर व्यापार’ श्रेणी में सूचीबद्ध किया है और बहुपक्षीय समझौतों में जिनका प्रतिरोध हो रहा है वे पहले ही मुक्त व्यापार समझौते के दायरे में हैं। उदाहरण के लिए जबकि निवेश सुविधा पर बहुपक्षीय बातचीत को डब्ल्यूटीओ के कुछ सदस्य चुनौती दे रहे हैं, वहीं 21वीं सदी के अधिकांश एफटीए में निवेश चैप्टर में, निवेश सुविधा से आगे बढ़कर निवेश संरक्षण, निवेशक और राज्य के बीच विवादों का समाधान और बौद्धिक संपदा अधिकारों पर गहरे प्रावधान शामिल हैं। इसी प्रकार ईएसजी से संबंधित प्रावधान जिनमें से कई को लंबे समय से गैर-व्यापार मुद्दा माना जाता है, उनमें 2010 के दशक के एफटीए में काफी इजाफा देखा गया। तीसरी बात, जहां बहुपक्षीय व्यापार वार्ताएं जोर नहीं पकड़ पातीं या लंबित रह जाती हैं, वहां संबंधित देशों ने क्षेत्र विशेष को ध्यान में रखकर डब्ल्यूटीओ के बाहर द्विपक्षीय समझौतों का विकल्प चुना। उदाहरण के लिए अमेरिका-जापान और ऑस्ट्रेलिया-सिंगापुर ने 2020 में द्विपक्षीय डिजिटल व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए। हाल ही में यूरोपीय संघ और दक्षिण कोरिया ने मार्च 2025 में एक डिजिटल व्यापार समझौता किया। चौथी बात, हम एक ऐसे युग में हैं जहां संरक्षणवादी एकपक्षीयता और नीतिगत अनिश्चितता बढ़ती जा रही है। ऐसे में वैश्विक व्यापार नियमों में निरंतरता पर विचार करना होगा।
हमें वैकल्पिक प्रणालियां अपनानी होंगी। इसके साथ ही, विश्व व्यापार संगठन में नियमों के रूप में पीए-वार्ता के परिणामों को शामिल करने में वैधता के मुद्दों से निपटने का प्रयास किया जाना चाहिए। डब्ल्यूटीओ को हाशिए पर जाने से बचाने के लिए, केवल पुराने समझौतों पर नियमित प्रशासनिक उपाय करने तक सीमित रहने से रोकने के लिए, और तेजी से विकसित हो रहे वैश्विक व्यापार संदर्भ की जरूरतों के अनुरूप इसके विकास में सहायता करने के लिए वैकल्पिक साधनों यानी एफटीए और बहुपक्षीय समझौतों के संयोजन की आवश्यकता है।
एमएसएमई की मजबूती
संपादकीय
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कहा है कि सूक्ष्म, लघु, एवं मध्यम उद्यम (एमएसएमई) देश की अर्थव्यवस्था के मजबूत स्तंभ हैं। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में महत्त्वपूर्ण योगदान देने के साथ ही जमीनी स्तर पर नवाचार को भी बढ़ावा देते हैं। एमएसएमई दिवस समारोह को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि देश के सतत आर्थिक विकास के मद्देनजर एमएसएमई के लिए एक मजबूत इकोसिस्टम अनिवार्य है। उन्होंने प्रसन्नता जताई कि केंद्र सरकार ने इस अनिवार्यता को समझते हुए कई नीतिगत पहल की है। एमएसएमई के लिए वर्गीकरण मानदंडों में संशोधन, ऋण की उपलब्धता में वृद्धि, केंद्रीय मंत्रालयों, विभागों और केंद्रीय सार्वजनिक के उद्यमों को अपनी वार्षिक खरीद आवश्यकताओं का कम-से-कम 35 फीसद एमएसएमई उद्यमों से प्रापण करने के लिए प्रोत्साहन, पीएम विश्वकर्मा योजना के तहत कारीगरों के कौशल विकास जैसी तमाम पहल ने एमएसएमई उद्यमों के लिए स्थितियां उत्साहजनक बनाई हैं। इन प्रयासों ने पंजीकृत एमएसएमई की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। साथ ही, उम्मीद जगी है कि इन पहल से देश के समावेशी विकास में एमएसएमई पहले से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण निभाने में सक्षम और सफल हो सकेंगे। चूंकि ये उद्यम बनिस्बत कम पूंजी लागत पर अधिक रोजगार अवसरों का सृजन करते हैं, और वह भी ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में, इसलिए कमजोर वर्गों को सशक्त बनाने और विकास के विकेंद्रीकरण में अपनी उपयोगी भूमिका निभा सकते हैं। कहना न होगा कि इससे ये उद्यम समावेशी विकास का महत्त्वपूर्ण जरिया बन सकते हैं। जमीनी स्तर पर नवाचार में भी एमएसएमई उद्यमों की भूमिका को समझा गया है। महिलाओं को इस क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी के लिए प्रेरित किया जाए तो समाज के सर्वांगीण विकास की में नई ऊंचाइयों को छुआ जा सकता है। बेशक, सरकार के स्तर पर तमाम प्रयास और पहल हो रही हैं, लेकिन इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह क्षेत्र अन चुनौतियों का भी सामना कर रहा है। वित्त की समस्या, कंपनियों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा, नवीनतम प्रौद्योगिकी की कमी, कच्चे माल, सीमित बाजार, विलंबित भुगतान और कम कुशल कार्यबल आदि समस्याओं का निदान हो सका तो यकीनन यह क्षेत्र अर्थव्यवस्था के विकास में अपेक्षित योगदान देगा।