01-01-2018 (Important News Clippings)

Afeias
01 Jan 2018
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Date:01-01-18

Support the law to penalise Triple Talaq

ET Editorials

The passage of the Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act by the Lok Sabha is an important step in the fight for gender justice. The law codifies the Supreme Court judgment that made illegal instant triple talaq, given orally or through other forms in one sitting. It will undo the injustice done to Muslim women by the 1986 law, the Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act.The current legislation is concerned only with the practice of instant or triple talaq.

It does not make illegal or criminalise other pathways to divorce set out in the Sharia. The criminalisation of triple talaq, making it a cognisable offence attracting jail time of three years, provides a measure of protection for the women. It gives women the necessary and concrete backing in law to demand that the law and order machinery step in and take action. It also places on the police the onus of taking action against an individual who seeks to divorce his wife through the instant talaq route.The hope is, in attaching real consequences, men will be deterred from using triple talaq as a threat to control women.

The legislation acknowledges that even though triple talaq is not recognised by law, women who use seek recourse on basis of this law are likely to find themselves in financial difficulty. The law, therefore, makes it mandatory for the husband to provide support to his wife and children. This provision partially corrects the situation emerging after the 1986 law that was passed to circumvent the Supreme Court’s ruling in Shah Bano case.The fight against triple talaq is but a small part of the struggle for gender justice for Muslim women. That, again, is just one step in removing extreme gender inequality in the country that finds expression as violence against women.


Date:01-01-18

तनातनी दूर होने से ही पूरी होगी त्वरित न्याय की आस

एम जे एंटनी

सरकार और न्यायपालिका के बीच तनातनी की स्थिति दशकों पुरानी बात है। इसका नतीजा यह हुआ है कि लाखों लोगों को न्याय पाने के लिए वर्षों से अदालतों के दरवाजे पर इंतजार करना पड़ा है। भीड़ भरी जेलों में भी बंद हजारों विचाराधीन कैदियों को अदालती सुनवाई शुरू होने की बाट जोहनी पड़ती है। कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव के चार मुख्य बिंदु रहे हैं। इन मुद्दों का समाधान नहीं निकाले जाने तक न्याय प्रणाली में गिरावट जारी रहेगी। देश के कई मुख्य न्यायाधीश इस बारे में चेतावनी देते रहे हैं।पहला मसला उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण संबंधी मामलों पर नियंत्रण के लिए दोनों के बीच जारी तनातनी से जुड़ा है। उच्चतम न्यायालय ने शीर्ष अदालतों में नियुक्ति के लिए न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन संबंधी अधिनियम को वर्ष 2015 में निरस्त घोषित कर दिया था। वह चाहता था कि शीर्ष न्यायिक पदों पर नियुक्ति के संबंध में बनी 22 साल पुरानी कॉलेजियम व्यवस्था को ही कुछ पारदर्शिता के साथ बरकरार रखा जाए। उसने नियुक्ति प्रक्रिया संबंधी ज्ञापन पर सरकार और न्यायपालिका के बीच सहमति बनाने का प्रस्ताव भी रखा था। लेकिन तीन साल बाद भी इस पर कोई सहमति नहीं बन पाई है।

इसका भविष्य पर गहरा असर पडऩे वाला है। उच्चतम न्यायालय में फिलहाल न्यायाधीशों के छह पद रिक्त हैं और नए साल में सात और न्यायाधीश भी सेवानिवृत्त होने वाले हैं। ऐसे में जल्दी नियुक्ति नहीं होने पर 31 न्यायाधीशों की कुल क्षमता वाली सर्वोच्च अदालत में करीब आधे पद रिक्त हो जाएंगे। नियुक्ति प्रक्रिया संबंधी ज्ञापन पर गतिरोध कायम रहने से ही न्यायिक नियुक्तियों में देरी हो रही है। देश के 24 उच्च न्यायालयों में भी 1,079 स्वीकृत पदों में से 400 से भी अधिक न्यायिक पद रिक्त चल रहे हैं। कई उच्च न्यायालयों में तो मुख्य न्यायाधीश भी नियुक्त नहीं हैं, लिहाजा उन्हें कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीशों से काम चलाना पड़ रहा है। निचली अदालतों की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है।

न्यायाधिकरणों के मामले में तो स्थिति और भी खराब है। एक भी न्यायाधिकरण खोज पाना मुश्किल होगा जिसमें सभी पद भरे हों। सेवानिवृत्त नौकरशाहों और राजनीतिक रसूख रखने वाले लोगों के बीच इन पदों पर चल रही खींचतान के चलते कई अधिकरणों में आधे से भी अधिक पद खाली पड़े हुए हैं। इन अधिकरणों की वार्षिक रिपोर्ट में भी ढांचागत सुविधाओं एवं स्टाफ के लिए जरूरी फंड जारी करने में केंद्र एवं राज्य सरकारों की तरफ से कोताही बरतने की बात कही जाती रही है। न्यायपालिका के लिए बजट निर्धारण भी लंबे समय से सरकार के साथ तनातनी की एक बड़ी वजह रही है। न्यायाधीशों ने कई बार इसे रेखांकित किया है कि बजट में न्यायपालिका के लिए केवल 0.2 फीसदी हिस्सा ही आवंटित होना बहुत कम है। कई बड़ी कंपनियों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों की कीमत भी कई बार इस बजट आवंटन से अधिक होती है। राज्यों के बजट में भी न्यायिक गतिविधियों के लिए आवंटित राशि काफी कम होती है।

सरकार दर्जनों की संख्या नए कानून बना रही है लेकिन इन नए कानूनों से अदालतों पर पडऩे वाले बोझ और उसकी लागत को लेकर कुछ नहीं कहा गया है। मसलन, चेक बाउंस को जबसे आपराधिक कृत्य करार दिया गया है तब से निचली अदालतें इन मामलों से अटी पड़ी हैं। अदालतों में लंबित मुकदमों में सबसे बड़ा पक्षकार सरकार होती है लेकिन ये मामले कई बार लंबे समय तक लटकाए जाते हैं। अक्षमता या जानबूझकर देर करने की रणनीति के चलते ये मुकदमे लटकने के लिए अदालतें कई बार सरकार की कड़ी आलोचना भी कर चुकी हैं।वहीं सरकारोंं और कानून-निर्माताओं का कहना है कि अदालतें जनहित याचिकाओं के जरिये उनके कामकाज में दखल कर रही हैं। हालांकि न्यायाधीशों ने जनहित याचिकाओं पर अपने रुख को सही ठहराते हुए कहा है कि वे नागरिकों को संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों की गारंटी देने के लिए बाध्य हैं। न्यायपालिका के मुताबिक अगर कोई नागरिक जीवन एवं स्वतंत्रता, विचारों की अभिव्यक्ति और संंपोषणीय विकास जैसे मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन की शिकायत करता है तो जरूरी कदम उठाना उनका उत्तरदायित्व बनता है। वैसे इन याचिकाओं पर आए न्यायिक निर्देशों के अनुपालन में सरकार का रुख अक्सर टालमटोल करने का ही रहता है। पुलिस सुधारों की दिशा में प्रकाश सिंह मामले में 10 साल पहले आया फैसला इसका सटीक उदाहरण है।

दोनों के बीच कई बार अपने दायरे को लेकर भी तनातनी की स्थिति बनी है। देश की शीर्ष जांच एजेंसी सीबीआई को सत्ताधारी लोगों ने अपने फायदे के लिए गलत तरीके से काम करने के लिए बाध्य किया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि जैन हवाला केस, बोफोर्स केस और हाल ही में 2जी स्पेक्ट्रम जैसे चर्चित मामलों में अभियोजन पक्ष की दलीलें धराशायी हो गईं। कहा जाता है कि सत्ता में बैठे लोग अपने फायदे के लिए जांच को अपने हिसाब से मोड़ देते हैं जिससे अदालतों में सुनवाई के दौरान सीबीआई को मात खानी पड़ती है। ऐसा होने पर मीडिया के जरिये होने वाला ट्रायल ही हावी होने लगता है और इस स्थिति में सरकार को बढ़त मिल जाती है। आखिर अदालतें प्रतिक्रिया नहीं दे सकती हैं और न ही सूचनाएं बाहर आ सकती हैं।सवाल यह है कि क्या सरकार के तीनों अंगों के बीच चल रही खींचतान कम होगी और वे न्यायिक प्रणाली को इस दलदल से बाहर निकालने के लिए मिलजुलकर प्रयास करेंगे? फिलहाल तो सरकार का ध्यान मुख्य रूप से कंपनी एवं वाणिज्यिक मामलों पर ही नजर आता है। लेकिन अदालतों के बाहर लगी आम लोगों की लाइन तो वैसी ही खड़ी है। ये लोग कुछ उसी धैर्य से न्यायिक सुधारों का इंतजार कर रहे हैं जो उन्होंने नोटबंदी के दौरान अपने पुराने नोट बदलते समय दिखाया था।


Date:31-12-18

चक्रव्यूह में फंसती शिक्षा 

शिक्षा को वस्तु मान कर उसकी मात्रा बढ़ाने का उपक्रम जारी है जबकि अपने मौलिक रूप में शिक्षा जिज्ञासा का मानसिक संस्कार करने वाली प्रक्रिया होती है। व्यवस्थित, लेकिन उन्मुक्त होती है उसे चुनने की छूट मिले ताकि उसकी प्रतिभा को निखरने का अवसर मिल सके

गिरीश्वर मिश्र

आज के विकसित देशों में समृद्धि और संपन्नता के बड़े और कदाचित महत्त्वपूर्ण कारणों में एक प्रमुख कारण वहां की निरंतर बढ़ती ज्ञान-संपदा है, जिसके ऊपर देश के बजट का बड़ा भाग खर्च किया जाता है।विश्व बैंक के ज्ञानअर्थ व्यवस्था सूचकांक (नॉलेज इकोनोमी इंडेक्स) को देख कर यही लगता है कि ज्ञान की पूंजी से ही किसी देश का वास्तविक विकास संभव हो पाता है। कुछ वर्ष पहले भारत का इस सूची में सौवां स्थान था। निश्चय ही ज्ञान की पूंजी आर्थिक पूंजी की तुलना में कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, और हम पिछड़ रहे हैं। अत: भारत को अग्रणी राष्ट्रों में शुमार होने की आकांक्षा है, तो उसकी शिक्षा व्यवस्था को गुणात्मक रूप से उच्चस्तरीय बनाना होगा। स्मरणीय है कि कोई भी ज्ञान अपने संदर्भ से कट कर प्रासंगिक और उपयोगी नहीं हो सकता। कहीं अन्यत्र से ला कर दूसरी भूमि में रोप देने पर पौधा मुरझा जाता है। अत: यहां के समाज में यहां की आवश्यकता और सांस्कृतिक प्रकृति को ध्यान में रख कर ही कार्य करना होगा। आज भारत में संख्या की दृष्टि से शिक्षा का उल्लेखनीय प्रसार हुआ है, फिर भी हमारी उपलब्धियां और जिम्मेदारियां भयावह पैमाने की हो रही हैं, और उनकी ओर पूरा ध्यान नहीं दिया जा पा रहा है।

उदाहरण के लिए अभी तक पूर्ण साक्षरता का लक्ष्य नहीं पाया जा सका है, और न ही स्कूली आयु के सभी बच्चों को स्कूल भेजने का लक्ष्य ही पाया जा सका है। सच कहें तो अपनी वर्तमान हालत में भारतीय शिक्षा अपने अस्तित्व को बचाने में जुटी है। प्रवेश, प्रशिक्षण, परीक्षा और प्रमाणीकरण के चार पायों पर टिकी शिक्षा नामक रचना के पायों के नीचे की जमीन दिन-प्रतिदिन खिसकती जा रही है। छात्र और अध्यापक के ताने-बाने से बनने वाली यह रचना कमजोर पड़ती जा रही है। इसकी चूल गांठें अपनी जगह से खिसक रही हैं। उससे निकलने वाले उत्पाद प्रश्नांकित हो रहे हैं, और शिक्षित बेरोज़गार युवाओं की संख्या भी बेतहाशा बढ़ती जा रही है। कुल मिला कर भारतीय शिक्षा एक चक्रव्यूह में फंसती जा रही है। शिक्षा के लक्ष्यों जैसे कुशल और सक्षम मानव संसाधन उपलब्ध होना, व्यावसायिक विकास, कला और संस्कृति के विकास और सामाजिक दायित्व के भाव को लेकर शिक्षा से जो आशा बंधी थी, वह निकट भविष्य में पूरी होती नहीं दिखती। वस्तुत: शिक्षा व्यक्ति और समाज के बीच द्वंद्व और सहयोग का एक बड़ा क्षेत्र है। एक ओर ज्ञान की जिज्ञासा व्यक्ति स्वतंत्रता की अपेक्षा करती है, तो दूसरी सामाजिक शक्तियां ज्ञान का नियोजन और अनुबंधन करती चलती हैं। उदाहरण के लिए आज हमें स्थानीय और विश्वस्तरीय शिक्षा के बीच संतुलन बनाना होगा। संपूर्ण मनुष्य के निर्माण को जगह देनी होगी।

नैतिक चरित्र का विकास, कला और कौशल का विकास, सृजनात्मकता और सामाजिकता का विकास कैसे शिक्षा की प्रक्रिया में प्रभावी ढंग से लाया जाय यह सुनिश्चित करना होगा। शिक्षा को वस्तु मान कर उसकी मात्रा को बढ़ाने का उपक्रम किया जाता रहा है जबकि अपने मौलिक स्वरूप में शिक्षा जिज्ञासा का मानसिक संस्कार करने वाली प्रक्रिया होती है। यह व्यवस्थित होते हुए भी उन्मुक्त होती है अर्थात वह बाह्य प्रभावों को ग्रहण करने के लिए तत्पर रहती है। अत: उसे चुनने की छूट मिलनी चाहिए ताकि उसकी प्रतिभा को प्रकाशित होने का अवसर मिल सके। उसे अनिश्चित और असुरक्षित देश काल में जीने का अवसर मिलता है। भारतीय शिक्षा की चुनौती का प्रमुख स्रेत बदलता जनसंख्या का पिरामिड है, जिसके अनुपात में स्कूलों और अध्यापकों की संख्या और अन्य संसाधन पर्याप्त नहीं हैं, उनकी गुणवत्ता का प्रश्न तो बहुत दूर है। साथ ही स्कूलों के चरित्र को निजीकरण और वैश्वीकरण ने और भी जटिल बना दिया है। व्यवस्था की जकड़न और जंजीरें हमें किंकर्तव्यविमूढ़-सी बना रही हैं। शिक्षा की योजना बनाते हुए हमें अपनी जमीनी हकीकत को टटोलते हुए अपनी सामाजिक विविधता पर गौर करना होगा। आज आदिवासी, ग्रामीण, पर्वतीय, अनुसूचित और विशिष्ट आवश्यकताओं वाले विद्यार्थियों के लिए अपेक्षित व्यवस्था करनी होगी। स्कूली स्तर पर बच्चों की स्कूली परिपक्वता, पाठ्यक्रम का आकार और विषयवस्तु, भाषा की शिक्षा और माध्यम के प्रश्न पर विचारना होगा। प्रवेश का नियमन और बच्चों को स्कूल में टिकाए रखने के लिए भी नीतिगत फैसले लेने होंगे। ये सवाल बहुत दिनों से लंबित पड़े हैं। आशा है सुशासन और निष्पादन पर जोर देने वाली वर्तमान सरकार इस और भी ध्यान देगी।