न्यायालय की अवमानना का अधिकार हो या नहीं?

Afeias
01 Dec 2016
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page-priyanka-diplomatic-victory-india-flag-law-justice-153192380Date: 01-12-16

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भारत में न्यायालय की अवमानना का मामला हाल ही में न्यायाधीश काटजू के माध्यम से उभरा है। दरअसल सौम्या प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने दोषी को हत्या का आरोपी ठहराकर बलात्कार के मामले में उसे आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी। न्यायाधीश काटजू ने न्यायालय के इस फैसले की आलोचना करते हुए कुछ लिख दिया था।यहाँ प्रश्न उठता है कि भारत जैसे प्रजातंत्र में न्याय करने वाली संस्थाओं पर लोगों को उंगली उठाने का अधिकार है या नहीं?

  • भारत की न्याय प्रणाली क्या कहती है?
  • उच्चतम न्यायालय का मानना है कि न्यायालयों की गरिमा एवं अधिकारों का सदैव सम्मान एवं सुरक्षा होनी चाहिए।
  • न्यायालय की यह मांग पुराने जमाने की सोच लगती है। प्रजातंत्र में इस तरह की मांगों को कोई स्थान नहीं दिया जाना चाहिए। अवमानना का कानून केवल इस सीमा तक हो कि न्यायालय के कामों में अड़चन न आए। जहाँ तक आलोचना से बचने की बात है, वहाँ इस कानून की आड़ नहीं ली जानी चाहिए। इसके पीछे कारण हैं। न्यायाधीशों को अपार शक्तियां दी गई हैं। भारत की जनता उनकी इन शक्तियों के प्रयोग की समीक्षा क्यों नहीं कर सकती? जिस प्रकार अन्य क्षेत्रों में सरकार के कामकाज की समीक्षा की जाती है, वैसा ही न्याय के क्षेत्र में होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है।
  • जब जानी मानी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती राय ने किसी बांध के निर्माण कार्य पर रोक हटाने की मांग न्यायालय से की, तो न्यायालय ने इसे बदनाम करने की कोशिश मानते हुए ऐसा करने से स्पष्ट इंकार करते हुए कहा कि न्यायालय ऐसी टिप्पणियों की परवाह नहीं करता। इसी मामले में आगे अरुंधती राय को न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध प्रदर्शन करने और न्यायालय की आलोचना करने केअपराध में दण्ड राशि और एकदिनके लिए जेल की सजा दे दी गई थी।
  • विश्व के अन्य देशों में न्यायालय की अवमानना का कानून क्या है?
  • कई देश ऐसे हैं, जहाँ न्यायालय की अवमानना से जुड़े कानूनों को पुराने मानकर उन्हें तूल नहीं दिया जाता। बल्कि न्यायालय की आलोचना का सामना संयम और शालीनता से किया जाता है।
  • अमेरिका में एक समाचार पत्र ने हाऊस ऑफ़ लॉर्डस् के एक फैसले के निंदा स्वरूप न्यायमूर्ति पर अभद्र टिप्पणी की थी। परंतु न्यायालय ने इसे जाने दिया और उस पर कोई कानूनी कदम नहीं उठाया।
  • इसी प्रकार ब्रे्रक्जिट की घोषणा करने वाले तीन न्यायाधीशों को ‘जनता के शत्रु’ के शीर्षक के तहत प्रकाशित किया गया। न्यायालय ने इस पर कोई कानूनी प्रतिक्रिया देने की कोशिश नहीं की।
  • भारत में 2006 में कानून की अवमानना पर सुरक्षा का अधिकार दिया गया था। इसमें न्यायालय की अवमानना अधिनियम के अंतर्गत संशोधन किया गया। लेकिन इसका पालन नहीं किया गया। ‘मिड-डे’ प्रकरण में सेवानिवृत्त सर्वोच्च न्यायाधीश के प्रतिकूल चित्रण पर प्रकाशन से जुड़े कर्मचारियों को सजा सुना दी गई थी।
  • हमारे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निष्पक्ष एवं भयमुक्त न्याय के बीच में एक संतुलन बनाने की आवश्यकता है। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार भी ‘अवमानना संबंधी कानून अस्पष्ट और भटकाव वाला है, जिसकी सीमाएं निश्चित नहीं हैं। ऐसा कानून अनजाने में ही सही परंतु सामाजिक स्वतंत्रता को रौंद सकता है।’

न्यायालयकी गरिमा की सुरक्षा के नाम पर चल रही चुप्पी कहीं उसके प्रति सम्मान से ज्यादा लोगों में उसके प्रति असंतोष, संदेह और उपेक्षा की भावना न भर दे। इस संदर्भ में न्यायालयों का परिपक्व और विस्तृत दृष्टिकोण ही लोगों में न्यायालय के प्रति विश्वास को बनाए रख सकता है।

टाइम्स  ऑफ़  इंडिया में प्रकाशित अजित प्रकाश शाह के लेख पर आधारित।