विवाह का बदलता स्वरूप

Afeias
12 Jul 2023
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भारत में विवाह शुरू से ही दो लोगों के बीच नहीं, बल्कि दो परिवारों के बीच संबंधों को जोड़ने के लिए किया जाता रहा है। आज के दौर में विवाह, जिस तरह से दो लोगों के इर्द-गिर्द केंद्रित होता जा रहा है, उसमें पारस्परिक और कानूनी स्तर पर क्या उम्मीद की जा सकती है।

समय और स्थान पर आधारित चाहे जितने भी सर्वेक्षण करवा लिए जाएं, उनसे यही पता चलेगा कि विवाह हमेशा परिवारों के बीच तय किया गया एक गठबंधन रहा है। चाहे वह पितृसत्तात्मक समाज हो या मातृसत्तात्मक, चाहे शिकारी संग्रहकर्ता हो या आज की मानवीय सभ्यता हो, सभी मामलों में परिवारों को विशेषाधिकार प्राप्त रहा है, व्यक्तियों को नहीं।

जो दो लोग जीवनसाथी बनते हैं, वे रिश्तों से भरी गाड़ी को जोड़नेवाली जोड़ी मात्र हैं। आप वास्तव में किसी एक व्यक्ति से नहीं, बल्कि पूरे परिवार से विवाह करते हैं। यही कारण है कि आज के रोमांटिक-रिश्ते वास्तव में विवाह नहीं हैं, बल्कि एक नई सामाजिक प्रथा है, जिसके प्रभाव को अभी तक पूरी तरह से सराहा नहीं जा सका है।

परंपरा में, विवाह की केंद्रीय बात यह नहीं थी कि वह जोड़े को खुश रखेगा या नहीं बल्कि इसे परिवारों को दीर्घकालिक संबंधों में एक साथ लाने के लिए डिजाइन किया गया था, ताकि वर्तमान और भविष्य में उनके प्रभाव-क्षेत्र, आर्थिक कल्याण और सुरक्षा को बढ़ाया जा सके। इसके लिए जरूरी था, कि जोड़े विषमलैंगिक बनें, और बच्चे पैदा करने का कर्तव्य निभाएं।

साथ ही, चूंकि विवाहों का उद्देश्य समाज में परिवारों की पहुंच बढ़ाना था, इसलिए कुछ श्रेणियों के रिश्तेदारों से विवाह करना वर्जित था। इस नियम की अवहेलना करने से बड़े सामाजिक गठबंधन और संबंध बनाने का उद्देश्य विफल हो जाता है। इसलिए इस नियम के विपरीत बने यौन-संबंधों को अनाचार कहकर घृणा की जाती थी।

यह घृणा की भावना सामाजिक रूप से निर्मित भावना है, जो समय के साथ सहज हो जाती है। इस बारे में प्रत्येक समाज के अपने निमय हैं। हरियाणा, यूपी और तमिलनाडु जैसे राज्यों में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहाँ एक परदादा की पीढ़ियों के बीच विवाह की अनुमति नहीं है। जबकि अन्यत्र चचेरे भाई-बहनों के विवाह को प्रोत्साहित किया जाता है।

हिंदू विवाह के सात वचनों में से, कम से कम तीन ऐसे हैं, जहां जोडे अपने बुजुर्गों की देखभाल करने का वादा करते हैं। पांचवा वचन अपनी संतान पैदा करने और उसकी देखभाल करने का है। इस्लाम में, शियाओं की सभी रस्मों में दोनों तरफ के परिवार में शामिल होते हैं। यूरोप में भी, लगभग 18वीं शताब्दी के अंत तक, बच्चों की सगाई बचपन में ही कर दी जाती थी।

यही कारण है कि डेनियल डेफो का 18वीं सदी का उपन्यास श्रौक्सैनश् अनैतिक समझा गया, क्योंकि इसमें रोमांस को बढ़ावा दिया गया था। जेन ऑस्टेन के लेखन में पहले शादी की व्यवस्था की जाती थी, और इसके बाद रोमांस का तड़का लगाया जाता था। शेक्सपियर के ‘टू जेंटलमैन ऑफ वेरोना’ में, एक पिता ने अपनी बेटी को इसलिए बंद कर दिया, क्योंकि उसे प्यार हो गया था। रोमियो और जूलियट के प्यार के लिए मौत ही एकमात्र रास्ता था।

दूसरे शब्दों में, “क्या तुम मुझसे शादी करोगी?” वाला प्रश्न कभी भी शुद्ध रोमांस से प्रेरित नहीं हुआ था। इसलिए जब डेटिंग शुरू हुई, तो 19वीं सदी के अमेरिका में नैतिकता पर खतरा महसूस किया गया था। इस प्रकार की प्रथा से न केवल परिवारों को नष्ट करने का डर था, बल्कि गर्भपात में भी वृद्धि होने की आशंका थी। ऐसी घटनाओं को रोकने और रोमांस को आरम्भ में ही खत्म करने के लिए, अमेरिका ने 1873 में कॉम्स्टॉफ कानून पारित किया था। इसे 1973 में ही निरस्त किया जा सका था।

दो लोगों के मिलन की बढ़ती प्रवृत्ति आधुनिक इतिहास में एक बड़े बदलाव का संकेत देती है। और ऐसे रोमांटिक मिलन को ‘विवाह’ कहा जाना, अवास्तविक और अव्यवाहारिक है। इस प्रकार के विवाह से बहुत तरह की परिवार केंद्रित चिंताएं पैदा हो जाती हैं। संतान की जरूरत भी अब चुनाव का मामला है, कर्तव्य का नहीं।

विवाह के साथ रोमांस अजीब तरह से बैठता है। इसमें एक-दूसरे के प्रति आकर्षण इतना हावी हो जाता है कि अनुष्ठानों को निरर्थक मान लिया जाता है। इसलिए पारंपरिक वसीयत वाले नियम भी बदल रहे हैं। अब लोग बड़ी संख्या में व्यक्तिगत वसीयत करने लगे हैं। क्या अब विवाह को भी व्यक्तिगत अधिकारों की तरह मौलिक अधिकार माना जाने लगेगा। शायद वह समय आ रहा है, जब “क्या तुम मुझसे शादी करोगी?” पूछने के बजाय यह पूछा जाएगा कि क्या तुम मुझे ऐसे यूनियन में लोगे, जिसमें माता-पिता, चचेरे भाई-बहन वगैरह-वगैरह को बाहर रखा जाएगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित दीपांकर गुप्ता के लेख पर आधारित। 10 जून, 2023