समलैंगिक विवाह मामले में न्यायालय ही निर्णय ले
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हाल ही में युगांडा की सरकार ने एलजीबीटीक्यू समूह के विरोध में कानून पारित किया है। जबकि एक जापानी न्यायालय ने समलैंगिक विवाह पर प्रतिबंध को असंवैधानिक बताते हुए उसके पक्ष में निर्णय दिया है।
यहाँ सरकार के पक्ष में अगर सोचा जाए, तो उस पर अपने मतदाताओं के बहुमत की इच्छा को सर्वोपरि रखने की जिम्मेदारी होती है। उनके निर्णयों को सामाजिक और सामुदायिक पूर्वाग्रह प्रभावित करते हैं। जबकि न्यायालय का काम, संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा करना है। इसलिए उसका निर्णय नागरिकों को समान गरिमा और स्वतंत्रता प्रदान करने से संबंधित होता है। इसलिए समलैंगिक विवाह जैसे एलजीबीटीक्यू समूह के अनेक मामलों के निर्णय को भारत में भी न्यायालय पर छोड़ देना चाहिए।
युगांडा का नया कानून मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। यह एलजीबीटीक्यू समूह के व्यक्तियों को जीवन के समान अधिकारों से वंचित करता है।
पांच साल पहले तक भारत भी पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों में से एक था, जो एलजीबीटीक्यू वयस्कों के विरूद्ध थे। 2018 में धारा 377 को पुददुस्वामी मामले में निरस्त करते हुए इस समूह को समानता, स्वतंत्रता, निजता आदि अधिकार दिए गए थे। इसका अर्थ था कि सरकार को किसी व्यक्ति के विवाह और यौन-संबंधों में दखल देने का अधिकार नहीं है। अभी भी न्यायालय को समलैंगिक विवाह मामले में संवैधानिक पक्ष पर विचार करना चाहिए। किसी व्यक्ति के प्रेम और विवाह के अधिकार पर सरकार के दखल को रोकना, न्यायालय के ही हाथ में है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 1 जून, 2023