राज्यों पर बढ़ता ऋण का बोझ (चुनावों के संदर्भ में)
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राज्यों को अपनी जरूरतों के अनुसार ऋण लेने का प्रावधान दिया गया है। ऋण के लिए सकल घरेलू उत्पाद के तीन प्रतिशत तक की सीमा निर्धारित की गई है। परंतु 2019 और 2021 के आंकड़ों से पता चलता है कि राज्यों पर ऋण का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। कुछ बिंदु –
- आंकड़ों से पता चलता है कि कई राज्य, ऋण लेने की पांच प्रतिशत सीमा को पार कर चुके हैं।
- ऋण का उपयोग जहां भी किया जाए, उससे गुणात्मक सुधार नजर आने चाहिए। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है।
- विडंबना है कि ऋण के बोझ को नजरअंदाज करते हुए राज्य, चुनावी वादों और घोषणाओं पर अधिक ध्यान दे रहे हैं। राज्यों की अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ना ही इसका एकमात्र परिणाम हो सकता है।
- ऋण लेने में खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों की सूची में पहला स्थान बिहार का है। पंजाब जैसे संपन्न राज्य भी खराब प्रदर्शन करने वालों में हैं। इससे उबरने की रणनीति नदारद है।
वहीं रिजर्व बैंक और ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में बेस्ट परफार्मिंग स्टेट में बंगाल का स्थान सबसे ऊपर रहा है।
राज्यों की बेतहाशा ऋण लेने की प्रवृत्ति पर कई अर्थशास्त्री चिंता जता चुके हैं। आर्थिक स्थिति का संज्ञान लेकर राज्यों को अपने आर्थिक संसाधन बढ़ाने, नीति नियोजन में ढांचागत विकास को शामिल करने, उद्यमिता और कौशल विकास की ओर ध्यान देकर; चुनावी वादों की बंदरबांट से बचना चाहिए। आखिरकार, देश के विकास में प्रत्येक राज्य की भूमिका मायने रखती है।
समाचार पत्र पर आधारित।
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