राज्यपाल की गरिमा संविधान के दायरे में है

Afeias
26 Dec 2022
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हाल के वर्षों में संवैधानिक प्रावधानों और संवैधानिक नैतिकता का गंभीर क्षरण हुआ है। चुनाव आयोग और महालेखा नियंत्रक परीक्षण जैसे संवैधानिक निकायों के साथ-साथ भाजपा शासित राज्यों के राज्यपालों ने संविधान और उसकी सीमाओं का मजाक बना दिया है। कुछ बिंदु –

संविधान के अनुच्छेद 153 में राज्य के लिए राज्यपाल का प्रावधान किया गया है। वहीं अनुच्छेद 154 राज्यपाल की कार्यकारी क्षमताओं का उल्लेख करता है। इसके अनुसार ‘राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी, और वह इसे सीधे या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से प्रयोग करेगा।’

अनुच्छेद 154(2) ए राज्यपाल को “किसी अन्य प्राधिकरण पर मौजूदा कानून द्वारा प्रदत्त” किसी भी कार्य का प्रयोग करने से प्रतिबंधित करना है।

अनुच्छेद 163 बताया गया है कि ‘राज्यपाल की सहायता और सलाह के लिए मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद् होगी ——।’

राज्यपाल की विवादास्पद स्थिति से जुड़े मुख्य मामले –

1974 का शमशेर सिंह बनाम पंजाब सरकार

इस मामले में स्पष्ट रूप से कहा गया कि ‘राज्यपाल को दिए गए विवेक का अर्थ है कि संवैधानिक या औपचारिक प्रमुख के रूप में राज्य की शक्ति उसके पास निहित है’, परंतु अनुच्छेद 356 के प्रयोग होने पर ही केवल राज्यपाल अपनी शक्तियों का उपयोग मंत्रिपरिषद् की सलाह के विरूद्ध कर सकता है। अन्यथा अन्य मामलों में जहाँ भी वह अपनी विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल करे, उसे मंत्रिपरिषद् के सामंजस्य में करना होगा।

संविधान सभा की बहस –

राज्यपाल की शक्तियों को लेकर हुई संविधान सभा की बहस में डॉ०अम्बेडकर ने कहा था कि ‘यह सदन जानता है कि राज्यपाल के पास ऐसा कोई कार्य नहीं है, जिसे उसे अपने विवेक से या व्यक्तिगत निर्णय से करने की आवश्यकता हो।’

आज की स्थिति –

निश्चित रूप से राज्यपाल के पास दिन-प्रतिदिन के मामलों सहित प्रशासन में हस्तक्षेप करने की कोई शक्ति नहीं है। न ही विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को स्वीकृति देने से इंकार करने की शक्ति है। लेकिन आज विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपालों का व्यवहार संविधान-विरोधी दिखाई दे रहा है। दूसरी ओर, भाजपा शासित राज्यों के राज्यपाल उनके कार्यों से च्युत किए जाने पर भी कोई आवाज नहीं उठा रहे हैं। देश की सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय एवं अन्य जांच एजेंसियों की भी लगभग यही स्थिति है।

राज्यपालों पर चाहे सत्ता पक्ष का दबाव हो, लेकिन उनके गरिमामयी पद को देखते हुए उनसे हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान के दायरे में रहकर देश के कल्याण हेतु काम करें।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित दुष्यंत दवे के लेख पर आधारित। 19 नवबंर 2022