
प्रोत्साहन की कमी में घिरे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक
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इससे जुड़े दो विचार हैं। पहला तो यह कि किसी भी व्यावसायिक उद्यम को जोखिम उठाना पड़ता है। इस प्रक्रिया में कुछ निर्णय गलत भी हो सकते हैं। इस ऑपरेटिंग वातावरण में अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को केंद्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई और सीएजी यानि कैग की एक अतिरिक्त नियामक परत के बोझ तले दबा दिया गया है। ज्ञातव्य हो कि अभी तक बैंक घोटालों की जांच अकेले सीबीआई ही करता आया है। लेकिन अब जांच प्रक्रिया में तीनों एजेंसियों की भागीदारी होगी।
दूसरे, ये जांच एजेंसियां, निर्णय लेने वाले बैंकरों के भविष्य के अनुमान को लेकर चलने वाले निर्णयों को संदेह के घेरे में रखकर जांच करेंगी। इससे वित्तीय क्षेत्र पर अविश्वास की संस्कृति का नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
पिछले कुछ वर्षों में निजी बैंकों और सार्वजनिक बैंकों के प्रदर्शन में भिन्नता देखी गई है। इसका कारण केंद्र सरकार की विकृत प्रोत्साहन संरचना को माना जा सकता है।
आदर्शतम स्थिति यही है कि सरकार वित्तीय क्षेत्र से बाहर निकल जाए। लेकिन यदि उसे इसमें बने रहना है, और तीन जांच एजेंसियों की भूमिका को यथावत् रखना है, तो बैंकों के ऊपरी पदों पर पार्श्व प्रवेश (लेटरल एंट्री) का कोई अर्थ समझ में नहीं आता है।
अंततः केंद्रीय सतर्कता आयोग द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए किए गए संशोधन और बैंकरों के अनुरोध ही सही लग रहे हैं। इससे बैंकों में उलझन भरे एकांउटिंग को समाप्त करने और गैर निष्पादित संपत्ति को समय पर पहचानने में मदद मिलेगी। इस दिशा में सीबीआई को भी विशेषज्ञता प्राप्त करने की सोचनी चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 11 जनवरी, 2022