प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद भारत के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है
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ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि 2024 के आगामी चुनावों को देखते हुए, लोकलुभावनवाद में किए गए वायदों से भारत की आर्थिक सुधार की धीमी गति पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। कुछ बिंदु –
- सरकार ने 2025-26 तक के लिए सकल घरेलू उत्पाद के 4.5% के मध्यम अवधि राजकोषीय घाटे का लक्ष्य रखा है। यह तीन वित्तीय वर्षों के वर्तमान स्तर से 2% कम है।
- 2023-24 में केंद्र और राज्यों के लिए यह क्रमशः 5.9% और 3% है। इसमें बिजली क्षेत्र में सुधार के लिए आधे प्रतिशत की छूट रखी गई है।
- राज्यों के पास राजकोषीय घाटे से बचने के रास्ते होते हैं, लेकिन मुफ्त बिजली और खाद्यान्न के वायदों के चलते वे हासिल नहीं किए जाते हैं। उधर, केंद्र सरकार आर्थिक सुधार के लिए पूंजी खर्च करने को तैयार है, और राज्यों को राजकोषीय संतुलन के लिए प्रोत्साहित कर रही है।
- वैश्विक स्तर पर फिलहाल उच्च ब्याज दर चल रही है। ऐसे में केंद्र सरकार छोटे उद्यमों में ऋण प्रवाह को बनाए रखने के लिए परेशान हो रही है। अब एक ही उपाय बचता है कि सरकारी व्यय पर नियंत्रण रखकर क्रेडिट कॉस्ट को भी नियंत्रित किया जा सके। इसके बाद ही बड़े पैमाने पर निवेश का प्रावधान मिल सकता है।
- राज्यों ने अपनी परेशानी स्वयं ही बढ़ा रखी है। मुफ्त बिजली के राजनीतिक वायदों को निपटाने का अतिरिक्त भार ओढ़ रखा है। चूंकि बिजली से होने वाली आय, राज्यों के लिए बहुत मायने रखती है, इसलिए अब राज्य उत्पादन और संचरण में निवेश नहीं कर पा रहे हैं।
कल्याण का ऐसा राजनीतिक स्वरूप बाजार तंत्र को तो बिगाड़ता ही है, साथ ही असमानता को भी बनाए रखता है। सार्वभौमिक संपत्ति के पुनर्वितरण के लिए नकद हस्तांतरण को वैश्विक स्तर पर सर्वश्रेष्ठ माना जा रहा है। भारत ने स्वतंत्रता के बाद से ही समावेशी विकास का असफल प्रयत्न किया है। दृष्टिकोण बदलते हुए अब समूहों में कल्याण की समान योजनाओं को चलाया जा रहा है। इस दृष्टिकोण ने अनेक वैश्विक संकटों से अर्थव्यवस्था को उबारा है। अब मुफ्त देनदारियों की प्रतिस्पर्धी घोषणाओं से इसे नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। इससे भारत की विकास गति धीमी पड़ सकती है।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 16 मई, 2023