एनजीओ के फाइनेंस पर सरकार का सख्त रवैया
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केंद्र सरकार ने 2020 में फॉरेन कांट्रीव्यूशन (रेग्यूलेशन) एक्ट या एफसीआरए या विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम में संशोधन किए थे। इंटरनेशनल कमीशन ऑफ ज्यूरिस्ट या आईसीजे ने इसे अंतरर्राष्ट्रीय कानून के साथ असंगत बताते हुए इसकी घोर निंदा की थी। हाल ही में सरकार ने एफसीआरए के ही अंतर्गत बच्चों पर काम करने वाली संस्था सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (वर्ल्ड विजन इंडिया) का लाइसेंस रद्द कर दिया है।
इस पूरे प्रकरण के प्रभाव पर कुछ बिंदु –
- सिविल सोसायटी या गैर सरकारी संगठनों पर सरकार का इस प्रकार का प्रतिबंध देश में नागरिक स्वतंत्रता का पतन दिखाता है।
- सीपीआर जैसी संस्था लगभग 50 वर्षों से जन-उत्साही थिंक टैंक का काम करती रही है। शासन और नीति-निर्माण के पारिस्थितिकी तंत्र में इसने हितधारकों की बहसों के माध्यम से महत्वपूर्ण विषयों पर आम-सहमति बनाने का प्रयत्न किया है। ऐसी संस्था के फाइनेंस को रोककर सरकार ने विश्व को संदेश दिया है कि भारत अब विचारों और ज्ञान के स्वतंत्र प्रवाह का स्वागत नहीं करता है।
- इससे यह भी लगता है कि सरकार मानवाधिकार, पर्यावरणीय समस्याओं और नागरिक स्वतंत्रता पर काम करने वाली संस्थाओं का मुँह बंद रखना चाहती है।
- सरकार के इस कदम से भारत की विश्व गुरू और जी-20 की अध्यक्षता के साथ ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ की छवि धूमिल होती है। यही कारण है कि अमेरिका की एक संस्था ने भारत को ‘चुनावी निरंकुशता‘ की श्रेणी में डाल दिया था।
यह कानून वास्तव में आपातकाल में लाया गया था। तत्कालीन सरकार को लगने लगा था कि विदेशी सरकारें गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से धन भेजकर भारत के आंतरिक मामलों को प्रभावित कर रही हैं। बाद में आने वाली सरकारों ने इसमें संशोधन करके इसके कुछ प्रावधानों को और भी सख्त कर दिया है। नतीजा यह हुआ है कि यह भारत के लोकतांत्रिक पतन की कहानी को बढ़ाने वाला बन गया है। सरकार को चाहिए कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र वैश्विक सूचकांक में भारत की छवि को बचाए रखे।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 22 जनवरी, 2024