नकदी बनाम डिजिटल भुगतान
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पिछले दो वर्षों में यूपीआई ( यूनिफाईड पेमेंट इंटरफेस ) से लेनदेन की मात्रा तीन गुना बढ़कर 46 अरब हो गई है। लेकिन साथ ही एक विषम प्रवृत्ति भी है। भारतीयों के पास अभी भी नकदी काफी मात्रा में रहती है। यदि सकल घरेलू उत्पाद के संबंध में देखें, तो यह दुनिया में सबसे ज्यादा है। कुछ बिंदु –
- करंसी इन सर्कुलेशन या प्रचलन में मुद्रा 2016-17 में जहाँ 8.7% थी, वह 2021-22 में बढ़कर 13.7% हो गई है। ( सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में )
- 2000-18 के बीच 11 उन्नत अर्थव्यवस्थाओं पर किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और अमेरिका ने भी जीडीपी अनुपात में नकदी के प्रचलन में बढ़ती प्रवृत्ति दिखाई है।
- इससे एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 2008 की मंदी या कोविड जैसे बड़े झटके लोगों को जोखिम से बचने के लिए सुरक्षात्मक रास्ते ढूंढने की ओर प्रवृत्ति करते हैं। इनमें नकदी होल्डिंग भी एक रास्ता बन जाता है।
- प्रत्येक वर्ष आरबीआई आर्थिक विकास दर, मुद्रास्फीति दर, सड़े-गले नोटों के निपटान आदि के आधार पर वार्षिक नकदी की आवश्यकता का पूर्वानुमान लगाता है।
- 2019 के बाद से भारत का मुद्रास्फीति प्रक्षेपवक्र (ट्रेजेक्टरी) ऊपर की ओर बढ़ा है, जो आंशिक रूप से समझा सकता है कि क्यों मुद्रा का प्रचलन पूर्व-विमुद्रीकरण स्तर से आगे निकल गया है। इसके अलावा शायद कोविड ने नकदी की एहतियाती पकड़ को बढ़ाया हो।
इन दोनों में से कोई भी कारण भारत में मुद्रा के प्रचलन में निजी खपत अनुपात के दीर्घकालिक रूझान की व्याख्या नहीं करता है। नकद की एक मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है, जो वित्तीय तर्क को धता बता देती है। उदाहरण के लिए, भारत की 22,752 रुपये की प्रति व्यक्ति मुद्रा जीडीपी का लगभग 13% है। यह ऐसे समय में है, जब बढ़ती मुद्रास्फीति तेजी से नकदी का मूल्य कम कर रही है। मुद्रा या नकदी का आकर्षण, अर्थशास्त्रियों के लिए भी पहेली से कम नहीं है।
परिदृश्य को देखते हुए आरबीआई को डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति को जारी रखना चाहिए। जमीनी स्तर पर इसके प्रभाव परिवर्तनकारी रहे हैं। इस ओर होने वाली प्रगति अंततः भुगतान में नकदी की पकड़ को ढीला कर ही देगी।
‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 5 जुलाई, 2022