कानूनी सहायता प्रणालियों की क्षमता बढ़ाएं
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विधि सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 अर्थात लीगल सर्विसेज अथॉरिटीज एक्ट के द्वारा ऐसे विधिक सेवा संस्थानों को स्थापित किया गया है, जो भारत की लगभग 80% जनता को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान कर सकें। लेकिन सच्चाई कुछ और ही है।
इसकी वास्तविकता पर कुछ बिंदु –
- अप्रैल 2023 और मार्च 2024 के बीच केवल 15.50 लाख लोगों को कानूनी सहायता सेवाएं प्राप्त हुई हैं। अपेक्षित स्तर से यह बहुत कम है।
- भारत न्याय रिपोर्ट 2025 के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक 163 गाँवों पर एक कानूनी सेवा क्लिनिक है। ग्रामवासियों की मदद के लिए इनमें अर्ध-कानूनी स्वयंसेवकों को रखा जाता है। पहले इनकी संख्या प्रति लाख जनसंख्या पर 5.7 हुआ करती थी। यह 2023 में गिरकर 3.1 रह गई है। प.बंगाल और उत्तर प्रदेश में तो प्रति लाख पर केवल एक स्वयंसेवक है। राज्य इनका मानदेय बढ़ाना नहीं चाहते हैं।
- इसका कारण कानूनी सहायता के बजट का कम होना है। यह कुल न्याय बजट (पुलिस, जेल, न्यायपालिका और कानूनी सहायता) का मात्र 1% है। केंद्र इसे राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (एनएएलएसए) के माध्यम से देता है। यह राज्य विधिक सेवा प्राधिकरणों को अनुदान वितरित करता है। 2017-18 से 2022-23 के दौरान, नालसा की निधि 207 रु. करोड़ से घटकर 169 रु. करोड़ रह गई है। नालसा निधि का उपयोग भी 75% से घटकर 59% रह गया है।
- 2019 के बाद से, कानूनी सहायता पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति खर्च लगभग दोगुना हो गया है। वास्तविक व्यय आंकड़ों के अनुसार राज्यों में यह अपेक्षा से कम रहा है।
- 2022 से नालसा केवल अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक नई केंद्रीय क्षेत्र योजना (लीगल एड डिफेंस काउंसिल) संचालित कर रहा है। इसका आवंटन भी 1200 करोड़ रुपये से घटाकर 2023-24 में 147.9 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
राज्य कानूनी सहायता के लिए आवंटन बढ़ाने के प्रयास कर रहे हैं। असंगत सेवा गुणवत्ता, जवाबदेही तंत्र का न होना और विश्वास की कमी जैसी समस्याएं कानूनी सहायता की प्रभावशीलता को कमजोर कर रही हैं। इन्हें दुरूस्त किया जाना चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित अर्शी शौकत, सौम्या श्रीवास्तव और वलय सिंह के लेख पर आधारित। 31 जुलाई, 2025