एक असंवैधानिक कानून को पुनर्जीवित करने का प्रयास
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सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66ए अभी चर्चा में है। ज्ञातव्य हो कि 2015 के श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार मामले में उच्चतम न्यायालय ने इसे बोलने की स्वतंत्रता पर दमनकारी प्रभाव डालने वाला बताते हुए असंवैधानिक करार दिया था। हाल ही में भारत सरकार ने एक प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय संधि के लिए संयुक्त राष्ट्र में इसे प्रस्तुत किया है। दरअसल यह संधि साइबर अपराध रोकने की दिशा में की जा रही है। इसी कड़ी में भारत ने आपत्तिजनक संदेशों पर लगाम कसने के लिए जो प्रस्ताव दिया है, उसकी भाषा धारा 66ए में इस्तेमाल की गई भाषा से मिलती हुई है। अगर यह प्रस्तावित संधि का हिस्सा बन जाता है, तो धारा 66ए, वापस प्रभाव में आ सकती है।
क्या अंतरराष्ट्रीय संधि बाध्यकारी होगी ?
- अंतरराष्ट्रीय संधि वार्ताएं जटिल होती हैं। ‘आपत्तिजनक संदेशों’ के अपराधीकरण के लिए भारत सरकार के सुझाव को तुरंत स्वीकार किए जाने की संभावना कम है।
- ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के कई देशों ने भारत के इस सुझाव का विरोध किया है।
भारत एक द्वैतवादी या डुएलिस्ट राज्य है, जिसमें संसद के कानून बनाए बिना कोई भी अंतरराष्ट्रीय कानून प्रभावी नहीं हो सकता है। परंतु हमारा उच्चतम न्यायालय आजकल मोनीजम् या एकत्ववाद के सिद्धांत पर अधिक चल रहा है। इसके अनुसार कोई अंतरराष्ट्रीय कानून स्वतः ही देश की घरेलू कानूनी व्यवस्था में शामिल हो जाता है। विशाखा बनाम राजस्थान सरकार (1997), राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014) और के.एस. पुटुस्वामी बनाम भारत संघ (2018) मामलों में न्यायालय का ऐसा रवैया देखा गया है।
अगर सरकार के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर भी लिया जाता है, तो भी भारतीय न्यायालय इसे घरेलू कानून का हिस्सा नहीं मान सकते, क्योंकि श्रेया सिंघल मामले में इसका अनुपात अलग है। यह मात्र एक ऐसा कानून बनकर रहेगा, जो अंतरराष्ट्रीय कानून के साथ विवादास्पद हो। ऐसे में, भारतीय न्यायालय घरेलू कानून को सर्वोपरि मानते हुए आपत्तिजनक संदेशों को अपराध की श्रेणी में नहीं मानेंगे।
बहरहाल, भारत सरकार का अपनी ही जनता के मौलिक अधिकारों के हनन का प्रयास असंवैधानिक है। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित प्रभास रंजन के लेख पर आधारित। 21 जून, 2022