देश को ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ में से क्या कहा जाए?
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संविधान में दो महत्वपूर्ण शब्द ऐसे हैं, जिन्हें हाल ही में हटाने की वकालत की गई है। ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द हैं, जिन्हें 1976 के आपातकाल के दौरान संविधान में जोड़ा है। संविधान सभा ने इन्हें जोड़़ना उचित नहीं समझा था।
इस पर सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण –
- न्यायालय का मानना है कि दोनों शब्दों के अलग-अलग भारतीय संदर्भ हैं। वे संविधान की भावना को दर्शाते हैं ये मूल संरचना सिद्धांत का हिस्सा हैं।
- सर्वोच्च न्यायायल ने कई बार कहा है कि धर्म निरपेक्षता संविधान के सभी पहलुओं में अभिन्न और अंतर्निहित है। समानता और बंधुत्व के अधिकार से लेकर सभी मौलिक अधिकार स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की प्रमुख विषेषता है। भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता की परिकल्पना सभी धर्मों, जातियों और पंथों की समानता के रुप में की गई है। यह अनुच्छेद 15 (समानता) और 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) में स्पष्ट है।
- ‘समाजवादी’ शब्द पर न्यायालय ने माना है कि हमारा संविधान अवसर की समानता और राष्ट्र की संपत्ति के न्यायसंगत वितरण का समर्थन करता है। इसका अर्थ है कि संविधान में निश्चित रुप से सामाजिक न्याय को मूल ढांचे के सिद्धांत के हिस्से के रूप में शामिल किया गया है, लेकिन समाजवाद को नहीं, क्योंकि समाजवाद उत्पादन के साधनों के स्वामित्व से संबंधित है।
वास्तव में, अच्छे कल्याणकारी प्रावधानों वाली एक मजबूत पूंजीवादी व्यवस्था ही सामाजिक न्याय की सर्वोत्तम गारंटी है। भारत की वर्तमान समस्या यह है कि संरचनात्मक सुधार न होने से आर्थिक अवसर नहीं बढ़ रहे हैं। इससे कल्याणकारी खर्च बढ़ रहे हैं। यहाँ समाजवाद अप्रासंगिक है।
अंततः धर्मनिरपेक्षता सामाजिक न्याय की कुंजी है। देश की धार्मिक विविधता और जातिगत स्थिति को देखते हुए सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की जरूरत है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित 03 जुलाई, 2025 के संपादकीय पर आधारित।